Category Archives: ग़रीबी / कुपोषण
यह महँगाई ग़रीबों के जीने के अधिकार पर हमला है!
ग़रीबों तक सस्ता अनाज पहुँचाने के लिए बनी सार्वजनिक वितरण प्रणाली में भ्रष्टाचार के बावजूद थोड़ा बहुत अनाज आदि नीचे तक पहुँच जाता था, पर उदारीकरण के दौर में उसे धीरे-धीरे धवस्त किया जा चुका है। पूँजीपतियों को हज़ारों करोड़ की सब्सिडी लुटाने वाली सरकार ग़रीबों को भुखमरी से बचाने के लिए दी जाने वाली खाद्य सब्सिडी में लगातार कटौती कर रही है। इस महँगाई ने यह भी साफ कर दिया है कि जनता की खाद्य सुरक्षा की गारण्टी करना सरकार अब अपनी ज़िम्मेदारी मानती ही नहीं है। लोगों को बाज़ार की अन्धी शक्तियों के आगे छोड़ दिया गया है। यानी, अगर आप अपनी मेहनत, अपना हुनर, अपना शरीर या अपनी आत्मा बेचकर बाज़ार से भोजन ख़रीदने लायक पैसे कमा सकते हों, तो खाइये, वरना भूख से मर जाइये!
बेहिसाब महँगाई से ग़रीबों की भारी आबादी के लिए जीने का संकट
महँगाई पूँजीवादी समाज में खत्म हो ही नहीं सकती। जब तक चीज़ों का उत्पादन और वितरण मुनाफा कमाने के लिए होता रहेगा तब तक महँगाई दूर नहीं हो सकती। कामगारों की मज़दूरी और चीज़ों के दामों में हमेशा दूरी बनी रहेगी। मज़दूर वर्ग सिर्फ अपनी मज़दूरी में बढ़ोत्तरी के लिए लड़कर कुछ नहीं हासिल कर सकता। अगर उसके आन्दोलन की बदौलत पूँजीपति थोड़ी मज़दूरी बढ़ाता भी है तो दूसरे हाथ से चीज़ों के दाम बढ़ाकर उसकी जेब से निकाल भी लेता है। मज़दूर की हालत वहीं की वहीं बनी रहती है। इसलिए मज़दूरों को मज़दूरी बढ़ाने के लिए लड़ने के साथ-साथ मज़दूरी की पूरी व्यवस्था को खत्म करने के लिए भी लड़ना होगा।
”अतुलनीय भारत” – जहाँ हर चौथा आदमी भूखा है!
आज दुनिया में सबसे ज्यादा भूखे लोग भारत में रहते हैं। देश में लगभग साढ़े इक्कीस करोड़ लोगों को भरपेट भोजन नसीब नहीं हो रहा है। इसके अलावा नीचे की एक भारी आबादी ऐसी है जिसका पेट तो किसी न किसी प्रकार भर जाता है मगर उनके भोजन से पर्याप्त पोषण नहीं मिल पाता। यही वह आबादी है जो फैक्टरियों-कारखानों और खेतों में सबसे खराब परिस्थितियों में सबसे मेहनत वाले काम करती है और झुग्गी-बस्तियों में और कूड़े के ढेर और सड़कों-नालों के किनारे जिन्दगी बसर करती है। कहने की जरूरत नहीं कि भूख, कुपोषण, संक्रामक रोगों, अन्य बीमारियों और काम की अमानवीय स्थितियों के कारण और साथ ही दवा-इलाज के अभाव के कारण इस वर्ग के अधिकतर लोग समय से ही पहले ही दम तोड़ देते हैं। पर्याप्त पोषण की कमी के कारण भारत के लगभग 6 करोड़ बच्चों का वज़न सामान्य से कम है। सुनकर सदमा लग सकता है कि अफ्रीका के कई पिछड़े देशों की हालत भी यहाँ से बेहतर है! दुनिया के कुल कुपोषित बच्चों की एक तिहाई संख्या भारतीय बच्चों की है। देश की 50 प्रतिशत महिलाओं और 80 प्रतिशत बच्चों में खून की कमी है।
ग्लोबल सिटी दिल्ली में बच्चों की मृत्यु दर दोगुनी हो गयी है!
दिल्ली को तेजी से आगे बढ़ते भारत की प्रतिनिधि तस्वीर बताया जाता है। वर्ष 2010 में पूरी दुनिया के सामने कॉमनवेल्थ खेलों के जरिये हिन्दुस्तान की तरक्की क़े प्रदर्शन की तैयारी भी जोर-शोर से चल रही है। दिल्ली को ग्लोबल सिटी बनाने के लिए जहाँ दिल्ली मेट्रो चलायी गयी है, वहीं सड़कों-लाइटों से लेकर आलीशान खेल परिसर और स्टेडियमों तक हर चीज का कायापलट करने की कवायद भी चल रही है। लेकिन करोड़ों-अरबों रुपया पानी की तरह बहाने वाली सरकार ग़रीबों की बुनियादी सुविधाओं के प्रति कितनी संवेदनहीन है, इसका एक नमूना इस तथ्य से मिल सकता है कि दिल्ली में एक साल से कम उम्र के बच्चों की शिशु मृत्यु दर पिछले दो सालों में थोड़ी-बहुत नहीं सीधे 50 प्रतिशत बढ़ गयी है। यानी दिल्ली में पैदा होने वाले बच्चों में से मरने वाले बच्चों की संख्या दोगुनी हो गयी है!
कैसी तरक्की, किसकी तरक्की? हमारे बच्चों को भरपेट खाना तक नसीब नहीं
संयुक्त राष्ट्र के विश्व खाद्य कार्यक्रम की ताज़ा रिपोर्ट में दिये गये आँकड़े तरक्की के तमाम दावों के चीथड़े उड़ाने के लिए काफ़ी हैं। रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में भूखे पेट सोने वालों में से एक चौथाई भारत में हैं और कुपोषित आबादी का 27 फ़ीसदी यहाँ है। कुपोषित बच्चों के मामले में पूरी दुनिया के 100 कुपोषित बच्चों में से 47 हमारे देश के होते हैं, यह संख्या दुनिया के सबसे पिछड़े क्षेत्र सहारा अफ्रीकी देशों के 28 फ़ीसदी बच्चों से भी कहीं ज़्यादा है! यहाँ के असमय मरने वाले 50 फ़ीसदी बच्चे पौष्टिक खाना न मिल पाने की वजह से मर जाते हैं। वैश्विक भूख सूचकांक में शामिल 119 देशों में से भारत 94वें नम्बर पर पहुँच गया है। भूख और कुपोषण के बारे में होने वाले अधिकांश अध्ययनों में हमारा देश किसी से पीछे नहीं है, बल्कि ग्राफ लगातार ऊपर उठता जा रहा है।
विश्वव्यापी खाद्य संकट की “खामोश सुनामी” जारी है…
आने वाले समय में ये तमाम स्थितियाँ बद से बदतर होती जायेंगी। पूँजीवाद जिस गम्भीर ढाँचागत संकट का शिकार है, उसके चलते खेती को संकट से उबारने के लिए निवेश कर पाने की सरकारों की क्षमता कम होती जायेगी। ग़रीबों को सस्ता अनाज उपलब्ध कराने की योजनाओं में तो पहले से ही कटौती की जा रही थी, अब मन्दी के दौर में इन पर कौन ध्यान देगा? जो सरकारें ग़रीबों को सस्ती शिक्षा, इलाज, भोजन मुहैया कराने के लिए सब्सिडी में लगातार कटौती कर रही थीं, वे ही अब बेशर्मी के साथ जनता की गाढ़ी कमाई के हज़ारों करोड़ रुपये पूँजीपतियों को घाटे से बचाने के लिए बहा रही हैं। मन्दी का रोना रोकर अरबों रुपये की सरकारी सहायता बटोर रहे धनपतियों की अय्याशियों, जगमगाती पार्टियों और फिजूलखर्चियों में कोई कमी नहीं आने वाली, लेकिन ग़रीब की थाली से रोटियाँ भी कम होती जायेंगी, सब्ज़ी और दाल तो अब कभी-कभी ही दिखती हैं।
बोलते आँकड़े चीखती सच्चाइयाँ
भूमण्डलीकरण को ‘मानवीय’ बनाने में जुटे संसदीय वामपंथियों का असली अमानवीय चेहरा
भूमण्डलीकरण के चेहरे को मानवीय बनाने में जुटे संसदमार्गी वामपंथियों का असली चरित्र भी लोगों के सामने बिल्कुल साफ हो चुका है। पिछले एक साल में पश्चिम बंगाल के 14 चायबागानों में भुखमरी से 320 श्रमिकों की मौत से एक बार फिर यही साबित हुआ है कि अपने को आम लोगों की असली पार्टी बताने वाले संसदीय वाम के नंबरदार किस तरह इस पूंजीवादी व्यवस्था को ‘‘मानवीय’’ बनाते–बनाते खुद अमानवीय हो गये हैं।
मजदूर और मालिक में दस अन्तर
मजदूर की जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है वह अंगूर की तरह सूखकर किशमिश बन जाता है । मालिक की उम्र बढ़ती है तो वह सुअर की तरह चर्बीदार होकर बेडौल हो जाता है तथा लकड़बग्घे की तरह फैक्ट्री से घर और घर से फैक्ट्री दौड़ते-दौड़ते नीरस हो जाता है ।