लेबर चौक : मज़दूरों की खुली मण्डी

रूपेश, दिल्ली

आमतौर पर यहाँ कोई चौक नहीं होता। फिर भी इसे ‘लेबर चौक’ कहते हैं। यहाँ विभिन्न किस्म के मज़दूर इकट्ठा होते हैं। राजमिस्त्री, पुताई करने वाले, सेटरिंग करनेवाले, बेलदार, पल्लेदार, प्लम्बर आदि-आदि। यहाँ नाबालिग से बुजुर्ग, बिल्कुल नये तथा अनुभवी एवं पारखी, हर किस्म के मज़दूर उपलब्ध रहते हैं। अभी-अभी गाँव से अपना झोला लेकर उतरा हुआ मज़दूर आपको यहाँ मिलेगा। कई-कई वर्षों से यहाँ काम करने वाले तथा घाट-घाट का पानी पी चुके मज़दूर भी यहाँ मिल जायेंगे। ऑंखों में हसीन सपने लिये ज़िन्दगी को बेहतर बनाने के सपने सँजोते मज़दूर आपको यहाँ मिल जायेंगे। और कई-कई बरस काम करने के बाद टूटे हुए सपनों को लिये हुए निराशा से भरे आदमी भी मिलेंगे।

अगर आपको गाँवों में लगने वाले जानवरों के मेले में कभी जाने का मौका मिला हो तो आप यहाँ के दृश्य का अनुमान लगा सकते हैं। जैसे मेले में बैल की पूँछ उठाकर, कन्धे टटोलकर उसके मेहनती होने की जाँच-पड़ताल की जाती है वैसे ही ‘लेबर चौक’ पर मालिक-ठेकेदार लोग ऑंखों से परखते हैं। कई बेशर्म ठेकेदार तो हाथ से भी जाँचने की कोशिश करते हैं। हमने स्कूल की किताब में पढ़ा था कि बहुत साल पहले ग़ुलामों को चौराहे पर ख़रीदा-बेचा जाता था। दुनिया बदल गयी, इन्सान कहाँ से कहाँ पहुँच गया, लेकिन हम मज़दूर फिर से उसी ग़ुलामी की हालत में धकेल दिये गये हैं।

लेबर चौक पर आने वाले मालिकों-ठेकेदारों को सबसे ज़्यादा चिढ़ इस बात से होती है कि ये लेबर ‘क्या काम है’ क्यों पूछते हैं। वे चिढ़कर जवाब देते हैं लेबर का क्या काम होता है?  जो बताया जायेगा करना होगा। ज़्यादातर चाहते हैं कि मज़दूर बिना चूँ-चपड़ किये उनके साथ चला जाये। जैसा-जैसा वे बतायें वैसा-वैसा करता रहे जब तक वे काम करवाना चाहें चुपचाप करता रहे तथा जितना पैसा वे दे दें ख़ुशी-ख़ुशी लेकर मज़दूर चला जाये।

मगर ये मज़दूर सवालों की झड़ी लगा देते हैं  क्या काम है जी? चुनाई नीचे होनी है या ऊपर? गारे से चिनाई होगी या सीमेण्ट से? रेत और ईंट कितनी मंजिल पर चढ़ाना है? मिट्टी कितनी दूर डालनी है? शाम को छुट्टी कितने बजे करोगे? एक घण्टे का लंच दोगे या नहीं? चाय कितनी बार देते हैं? ज़्यादा दूर जाना हो तो आने-जाने का किराया दोगे या नहीं? आख़िर मज़दूर जाँच-पड़ताल क्यों न करें? अभी कुछ ही दिन पहले की बात है, गुड़गाँव में अमित कुमार नाम का कोई डाक्टर था जो ग़रीबों का गुर्दा निकालकर बेचता था। उसके लोग लेबर चौक से मज़दूरों को बहला-फुसला कर ले जाते थे और उनका गुर्दा निकालकर बेच देते थे। उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में ‘खुनचुसवा गिरोह’ का भण्डाफोड़ हुआ था जो मज़दूरों को बन्धक बनाकर उनका ख़ून निकाल-निकालकर अस्पतालों में सप्लाई करते थे। और हरियाणा तथा पंजाब के बड़े-बड़े किसान और ईंट भट्टों के मालिक तो अक्सर लेबर चौकों से मज़दूरों को अपनी गाड़ियों में बिठाकर ले जाते हैं और जब तक काम ख़त्म न हो जाये तब तक ‘बँधुआ मज़दूरी’ करवाते हैं।

‘लेबर चौक’ के आस-पास के दुकान वालों से चौक पर खड़े होने वाले मज़दूरों का छत्तीस का आँकड़ा बना रहता है। हालाँकि वह जगह सरकारी होती है या सड़क का किनारा होता है पर दुकान वाले उसे अपने-अपने बाप की सम्पत्ति समझते हैं। जैसे-जैसे उनकी दुकानें खुलती जाती हैं वैसे-वैसे चौक के मज़दूरों के बैठने या खड़े होने की जगह कम होती जाती है। दुकान वाले मज़दूरों को कुत्तों की तरह दुत्कारते हैं, गाली-गलौज करते हैं फब्तियाँ कसते हैं, पानी फेंक देते हैं तथा कई दबंग दुकानदार तो अक्सर मज़दूरों के साथ मार-पीट करने पर उतारू हो जाते हैं। मज़दूरों के पास और कोई विकल्प न होने की वजह से सब कुछ झेलकर भी वहीं खड़े होने की मजबूरी होती है।

 

मज़दूर बिगुलअप्रैल 2012

 


 

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