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भारत-चीन सीमा पर मामूली झड़प और फ़ासीवादी प्रचारतंत्र को मिला अन्धराष्ट्रवादी उन्माद उभारने का मौक़ा

दिसम्बर 9 को तवांग के यांगसे क्षेत्र में भारतीय सेना और चीन की सेना के बीच मुठभेड़ हुई। यह मुठभेड़ बन्दूक़ों या हथियारों से नहीं बल्कि छड़ी, डण्डे और लाठी से हुई। दोनों तरफ़ की सेना के जवानों को मामूली चोटें आयीं लेकिन किसी की मौत नहीं हुई है। अख़बारों में या समाचार चैनलों में यह ख़बर 12 दिसम्बर के बाद आनी शुरू हुई। गोदी मीडिया के चैनलों ने जवानों की इस मुठभेड़ को इस तरह प्रचारित करना शुरू किया मानो सीमा पर कोई भयंकर युद्ध चल रहा है या युद्ध की तैयारी हो रही है! वह 4 से 5 मिनट का वीडियो आप लोगों में से भी कइयों ने देखा होगा और आपको भी लगा होगा कि यह तो बेहद मामूली झड़प है अगर हम इसकी तुलना सीमा पर होने वाली लड़ाइयों से करें।

ईडब्ल्यूएस आरक्षण : मेहनतकश जनता को बाँटने की शासक वर्ग की एक और साज़िश

भाजपा की मोदी सरकार जनता को बाँटने के एक नये उपकरण के साथ सामने आयी है : ईडब्ल्यूएस आरक्षण। इसका वास्तविक मक़सद जनता के बीच जातिगत पूर्वाग्रहों को हवा देना और सवर्ण मध्यवर्गीय वोटों का अपने पक्ष में ध्रुवीकरण करना है। यह आरक्षण की पूरी पूँजीवादी राजनीति में ही एक नया अध्याय है। जातिगत आधार पर मौजूद आरक्षण की पूरी राजनीति का भी देश के पूँजीपति वर्ग ने बहुत ही कुशलता से इस्तेमाल किया है, जबकि निजीकरण-उदारीकरण की नीतियों के हावी होने के साथ आरक्षण के पक्ष या विपक्ष में खड़ी राजनीति का आधार लगातार कमज़ोर होता गया है।

बिलकिस बानो बलात्कार और हत्या मामले के 11 अपराधियों की रिहाई : भाजपा और संघ की बेशर्मी की पराकाष्ठा

2002 से लेकर अब तक कुछ मामलों को छोड़कर लगभग सभी मामलों में न्याय का दरवाज़ा खटखटाने वालों को निराशा ही हासिल हुई है। अभी 24 जून 2022 को ज़ाकिया जाफ़री की याचिका ख़ारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह को सभी आरोपों से बरी कर दिया। इतिहास के इस काले अध्याय में देश को शर्मसार करने वाला एक और अध्याय जुड़ गया है। 15 अगस्त को बिलकिस बानो बलात्कार और हत्या मामले के 11 अपराधियों को क्षमा दे कर रिहा कर दिया गया। बिलकिस बानो भी गुजरात नरसंहार की शिकार महिला है।

एक बार फिर विकल्पहीनता की स्थिति से गुज़रती श्रीलंका की जनता

गोटाबाया राजपक्षे को राष्ट्रपति पद से हटाने के बाद भी श्रीलंका की जनता सड़कों पर है। श्रीलंका की संसद ने रानिल विक्रमसिंघे को राष्ट्रपति चुना है लेकिन जनआन्दोलन अभी भी जारी है। लोगों का कहना है कि रानिल विक्रमसिंघे जनता द्वारा चुना गया प्रतिनिधि नहीं है इसलिए लंका की जनता उसे राष्ट्रपति की तरह नहीं स्वीकार करेगी। विक्रमसिंघे के चुने जाने से भी जनता को किसी भी तरह के परिवर्तन की कोई उम्मीद नहीं है। यह सही भी है क्योंकि रानिल विक्रमसिंघे उसी सम्भ्रान्त शासक परिवार का हिस्सा है जो देश के संसाधनों और मज़दूर-मेहनतकश जनता की मेहनत को लूटने वाली देशी-विदेशी पूँजी की ख़िदमत में आज़ादी के बाद से लगा हुआ है।

शिक्षा का भगवाकरण : पाठ्यपुस्तकों में बदलाव छात्रों को संघ का झोला ढोने वाले कारकून और दंगाई बनाने की योजना

फ़ासीवादी विचारधारा और इसे संरक्षण देने वाली पूँजीवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ अपनी लड़ाई हमें तेज़ करनी होगी क्योंकि ऐसी पढ़ाई हमारे मासूम बच्चों को दंगाई और हैवान बनायेगी। हमें अपने बच्चों को बचाना होगा हमें सपनों को बचाना होगा। इन ख़तरनाक क़दमों को मज़दूर वर्ग को कम करके नहीं आँकना चाहिए। ये क़दम एक पूरी पीढ़ी के दिमाग़ों में ज़हर घोलने, उनका फ़ासीवादीकरण करने, उन्हें दिमाग़ी तौर पर ग़ुलाम बनाने और साथ ही मज़दूर वर्ग को वैज्ञानिक और तार्किक चिन्तन की क्षमता से वंचित करने का काम करते हैं। जिस देश के मज़दूर और छात्र-युवा वैज्ञानिक और तार्किक चिन्तन की क़ाबिलियत खो बैठते हैं वे अपनी मुक्ति के मार्ग को भी नहीं पहचान पाते हैं और न ही वे मज़दूर आन्दोलन के मित्र बन पाते हैं। उल्टे वे मज़दूर आन्दोलन के शत्रु के तौर पर तैयार किये जाते हैं और शैक्षणिक, बौद्धिक व सांस्कृतिक संस्थाओं का फ़ासीवादीकरण इसमें एक अहम भूमिका निभाता है।

सुप्रीम कोर्ट का गुजरात दंगों पर निर्णय : फ़ासीवादी हुकूमत के दौर में पूँजीवादी न्यायपालिका की नियति का एक उदाहरण

तमाम हत्याओं, साज़िशों और एनकाउण्टर के बाद भी गुजरात दंगों का भूत बार-बार किसी-न-किसी गवाह या मामले के रूप में सामने आ ही जाता था। फ़ासीवाद की पैठ राज्यसत्ता में पहले भी थी लेकिन इस पैठ को अभी और गहरा होना था। 2014 में सत्ता में आने के बाद से यह काम फ़ासीवाद ने तेज़ी से किया है। लगभग सभी महत्वपूर्ण पदों पर संघ के वफ़ादार लोगों को बैठाया गया है। कुछ अपवादों को छोड़कर क्लर्क की भर्ती से लेकर आला अफ़सरों तक की भर्ती सीधे संघ से जुड़े या संघ समर्थकों की होने लगी और हो रही है। मोदी-शाह को अब अपने राजनीतिक ख़तरों से निपटने के लिए पुराने तरीक़ों के मुक़ाबले अब नये तरीक़े ज़्यादा भा रहे हैं। अब सीधे राज्य मशीनरी का इस्तेमाल इनके हाथों में है। पिछले कुछ सालों में जितनी भी राजनीतिक गिरफ़्तारियाँ हुई हैं उनमें से किसी के भी ख़िलाफ़ कोई ठोस सबूत हासिल नहीं हुआ है लेकिन उनकी रिहाई भी नहीं हुई है।

श्रीलंका का संकट : नवउदारवादी नीतियों की ख़ूनी जकड़ का विनाशकारी परिणाम

श्रीलंका की आम जनता अपने सबसे भयंकर दु:स्वप्न से गुज़र रही है। सभी मूलभूत सुविधाओं से एक-एक कर वह वंचित होती जा रही है। वह आज ईंधन, बिजली, रसोई गैस, पेट्रोल की समस्या से जूझते हुए दाने-दाने को मोहताज है। देश की एक बड़ी मेहनतकश आबादी दिन में एक समय भोजन कर रही है। कइयों को वह भी नसीब नहीं है। जीवनरक्षक दवाइयों के अभाव में अस्पतालों में लोग बे-मौत मर रहे हैं। दवाइयों और बिजली के अभाव में ऑपरेशन और अन्य चिकित्सा प्रक्रिया स्थगित करनी पड़ रही है जिससे हज़ारों की मौत हो रही है।

उपराष्ट्रपति महोदय, हम बताते हैं कि “शिक्षा के भगवाकरण में ग़लत क्या है”!

हाल ही में देश के उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने कहा कि शिक्षा के भगवाकरण में बुरा क्या है और लोगों को अपनी औपनिवेशिक मानसिकता छोड़कर शिक्षा के भगवाकरण को स्वीकार कर लेना चाहिए। लेकिन सच्चाई तो यह है कि सारे भगवाधारी उपनिवेशवादियों के चरण धो-धोकर सबसे निष्ठा के साथ पी रहे थे और इनके नेता और विचारक अंग्रेज़ों से क्रान्तिकारियों के बारे में मुख़बिरी कर रहे थे और माफ़ीनामे लिख रहे थे। इसलिए अगर औपनिवेशिक मानसिकता को छोड़ने की ही बात है, तो साथ में भगवाकरण भी छोड़ना पड़ेगा क्योंकि भगवाकरण करने वाली ताक़तें तो अंग्रेज़ों की गोद में बैठी हुई थीं और उन्होंने आज़ादी की लड़ाई तक में अंग्रेज़ों के एजेण्टों का ही काम किया था।

शान्तिश्री धुलिपुड़ी पण्डित की नियुक्ति, यानी जेएनयू पर आरएसएस-भाजपा का हमला जारी रहेगा!

इलाहाबाद में संगम के बग़ल में बसी हुई मज़दूरों-मेहनतकशों की बस्ती में विकास के सारे दावे हवा बनकर उड़ चुके हैं। आज़ादी के 75 साल पूरा होने पर सरकार अपने फ़ासिस्ट एजेण्डे के तहत जगह-जगह अन्धराष्ट्रवाद की ख़ुराक परोसने के लिए अमृत महोत्सव मना रही है वहीं दूसरी ओर इस बस्ती को बसे 50 साल से ज़्यादा का समय बीत चुका है लेकिन अभी तक यहाँ जीवन जीने के लिए बुनियादी ज़रूरतें, जैसे पानी, सड़कें, शौचालय, बिजली, स्कूल आदि तक नहीं हैं।

उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों के आगामी विधान सभा चुनाव; देश में अन्धराष्ट्रवाद और साम्प्रदायिकता के गहराते बादल

उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव मार्च 2022 में होने जा रहे हैं। इसके आस-पास ही उत्तराखण्ड, पंजाब, मणिपुर और गोवा विधान सभा के भी चुनाव होने जा रहे हैं। देश की आबो-हवा में अन्धराष्ट्रवाद और धार्मिक साम्प्रदायिकता के गाढ़े रंग घुलने लगे हैं। आतंकवादी हमले, सीमा पर गोलीबारी और देश में जगह-जगह दंगे इन चुनावों की सूचना दे रहे हैं। वैसे तो फ़ासीवादी मोदी सरकार और उसके सबसे मुस्तैद सिपहसालार अमित शाह, अन्धराष्ट्रवाद और धार्मिक साम्प्रदायिकता के रंग कभी फीके नहीं पड़ने देते लेकिन चुनावों के दौरान तो इन पर गाढ़ा वार्निश चढ़ाया जाता है।