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उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों के आगामी विधान सभा चुनाव; देश में अन्धराष्ट्रवाद और साम्प्रदायिकता के गहराते बादल

उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव मार्च 2022 में होने जा रहे हैं। इसके आस-पास ही उत्तराखण्ड, पंजाब, मणिपुर और गोवा विधान सभा के भी चुनाव होने जा रहे हैं। देश की आबो-हवा में अन्धराष्ट्रवाद और धार्मिक साम्प्रदायिकता के गाढ़े रंग घुलने लगे हैं। आतंकवादी हमले, सीमा पर गोलीबारी और देश में जगह-जगह दंगे इन चुनावों की सूचना दे रहे हैं। वैसे तो फ़ासीवादी मोदी सरकार और उसके सबसे मुस्तैद सिपहसालार अमित शाह, अन्धराष्ट्रवाद और धार्मिक साम्प्रदायिकता के रंग कभी फीके नहीं पड़ने देते लेकिन चुनावों के दौरान तो इन पर गाढ़ा वार्निश चढ़ाया जाता है।

फ़रीदाबाद औद्योगिक क्षेत्र की एक आरम्भिक रिपोर्ट

आज़ादी के बाद 1949 से फ़रीदाबाद को एक औद्योगिक शहर की तरह विकसित करने का काम किया गया। भारत-पाकिस्तान बँटवारे के समय शरणाथिर्यों को यहाँ बसाया गया था। उस दौर से ही यहाँ छोटे उद्योग-धन्धे विकसित हो रहे थे। जल्द ही यहाँ बड़े उद्योगों की भी स्थापना हुई और 1950 के दशक से इसका औद्योगीकरण और तीव्र विकास आरम्भ हुआ। मुग़ल सल्तनत के काल से ही फ़रीदाबाद दिल्ली व आगरा के बीच एक छोटा शहर हुआ करता था। आज की बात की जाये तो फ़रीदाबाद देश के बड़े औद्योगिक शहरों में नौवें स्थान पर है। फ़रीदाबाद में 8000 के क़रीब छोटी-बड़ी पंजीकृत कम्पनियाँ हैं।

पूँजीवाद का हित साधने के लिए देश में बढ़ती फ़ासिस्टों की गुण्डागर्दी

देश की अर्थव्‍यवस्‍था में छायी मन्‍दी, आसमान छूती महँगाई और बेरोज़गारी के गहराते काले बादल सड़कों पर जनाक्रोश के रूप में फूट पड़ने के संकेत दे रहे हैं। जगह-जगह पर शिक्षा, रोज़गार और वेतन बढ़ाने के लिए मज़दूर-नौजवान-छात्र प्रदर्शन कर रहे हैं। हालाँकि गोदी मीडिया इन प्रदर्शनों को दिखायेगी नहीं लेकिन मोदी सरकार सतह के नीचे बढ़ते इन असन्‍तोषों को भली-भाँति समझ रही है। इसलिए हर प्रकार के प्रतिरोध का बर्बर दमन कर रही है। साथ ही पेगासस जैसे ख़ुफ़िया तंत्रों का सहारा लेकर भविष्‍य में प्रतिरोधों के दमन की पूरी तैयारी भी कर रही है।

नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के तीस वर्ष

देश में एक ओर बढ़ता धार्मिक उन्माद, नफ़रत और ख़ौफ़ का माहौल और दूसरी ओर आसमान छूती महँगाई, बेरोज़गारी, भुखमरी और बदहाली, ऐसा लगता है जैसे पूरे देश को क्षय रोग ने अपने शिकंजे में कस लिया है। सारी ऊर्जा, ताज़गी और रचनात्मकता पोर-पोर से निचोड़कर इसे पस्त और बेहाल कर दिया है। यह सच है कि भयंकर आर्थिक संकट के काल में जनता के आक्रोश को साम्प्रदायिकता की दिशा में मोड़ने और पूँजीपतियों का हित साधने के लिए फ़ासीवाद का उभार होता है लेकिन ऐसा नहीं है कि फ़ासीवादियों के सत्ता में आने से पहले सब कुछ भला-चंगा था।

पेगासस : जनान्दोलनों के दुर्ग में सेंधमारी के लिए पूँजीवादी सत्ताओं का नया हथियार

मोदी सरकार भी अपनी सुरक्षा और अपने आसपास से लेकर जनता को संगठित करने वाले सभी के बारे में सब कुछ जान लेना चाहती है। इसलिए पेगासस पर पानी की तरह पैसा बहा कर मोदी सरकार जनाक्रोश के आने वाले सैलाब पर नियंत्रण करना चाहती है ताकि उसकी सुरक्षा दुरुस्त हो जाये और डरी-डरी बेचैन नींद उड़ी रातों से थोड़ी राहत मिले। यहाँ के भारी भरकम ख़र्चीले ख़ुफ़िया तंत्र और गली-गली में बैठे इनके भक्त निश्चित ही पर्याप्त नहीं थे इसलिए अपने सबसे पक्के यार से मदद माँगी गई।

अडाणी को 1 लाख 70 हज़ार एकड़ प्राचीन जंगल माइनिंग के लिए सौंपने वाली मोदी सरकार फ़रीदाबाद में दशकों से बसे हज़ारों घरों को वन संरक्षण के नाम पर उजाड़ रही है!

पिछले महीने की सात तारीख़ को सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली-हरियाणा सीमा पर फ़रीदाबाद ज़िले के लाल कुआँ इलाक़ा स्थित खोरी गाँव के दस हज़ार से ज़्यादा घरों को बिना किसी पुनर्वासन या मुआवज़े के तोड़ने का फ़ैसला फिर से दुहराया। अपने निर्णय पर अड़े रहते हुये हरियाणा सरकार व फ़रीदाबाद नगर निगम को छह हफ़्ते के अन्दर बेदख़ली प्रक्रिया पूरी करने का निर्देश दिया है।

एक बार फिर कश्मीरी क़ौम निर्णय में भागीदारी से वंचित

आपको याद होगा कि 5 अगस्त 2019 को अनुच्छेद 370 और 35ए हटाये जाने के बाद मुख्यधारा का मीडिया और सोशल मीडिया पर मनोरोगी क़िस्म के विकृत मानसिकता वाले भाजपा और आरएसएस के कार्यकर्ता अर्धपागलों की तरह कश्मीर में प्लॉट ख़रीदने का जश्न मना रहे थे और कश्मीर की औरतों के बारे में अपनी कुत्सित मानसिकता का कुरूप प्रदर्शन कर रहे थे क्योंकि मोदी मीडिया ने इसे कुछ इस प्रकार ही प्रस्तुत किया था। लेकिन इस निर्णय से मोदी सरकार को जितनी उम्मीदें थीं उनमें से कुछ भी कारगर होती नज़र नहीं आ रहीं।

फ़िलिस्तीनी जनता के बहादुराना संघर्ष ने एक बार फिर इज़रायली हमलावरों को पीछे हटने पर मजबूर किया

पिछले मई में 11 दिनों तक गाज़ा शहर पर भयानक बमबारी के बाद 21 मई को इज़रायल और फ़िलिस्तीनी संगठन हमास के बीच संघर्ष विराम हुआ। इज़रायल तो फ़िलिस्तीनी लोगों के जनसंहार की अपनी मुहिम को जारी रखना चाहता था लेकिन हमेशा की तरह फ़िलिस्तीनियों के ज़बर्दस्त बहादुराना संघर्ष और उनके समर्थन में पूरी दुनिया में सड़कों पर उमड़े जन सैलाब ने, और मुख्यत: इसी के कारण अमेरिका के दबाव ने इज़रायल को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया।

भारत के मज़दूर आन्दोलन के मीरजाफ़र, जयचन्द और वि‍भीषण

इतिहास किसी को कभी माफ़ नहीं करता और साथ ही इतिहास को कभी भुलाया नहीं जा सकता। भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन में जितना पुराना इतिहास संसदमार्गी संशोधनवादी भाकपा, माकपा, भाकपा मा.ले.(लिबरेशन) के धोखे, छल, प्रपंच और विश्वासघात का है उतना ही गहरा है मज़दूर वर्ग के बीच इनकी राजनीति के प्रति अविश्वास, शंका और सन्देह का इतिहास। संशोधनवाद का रास्ता पकड़ने के बाद और उससे निकली भाकपा, माकपा और भाकपा मा.ले. (लिबरेशन) ने सर्वहारा वर्ग को उनके ऐतिहासिक मिशन से दूर रखकर पूरे मज़दूर आन्दोलन को बर्बाद करने में अहम भूमिका निभाई है।

फ़िलिस्तीनी मज़दूरों ने ज़ायनवादी, रंगभेदी इज़रायली मालिक को घुटनों पर झुकाया

फ़िलिस्तीन की ज़मीन के बहुत बड़े हिस्‍से पर ज़ायनवादी इज़रायलियों ने क़ब्ज़ा कर अपनी बस्तियाँ बसा ली हैं और रोज़ाना ज़मीन हड़पते जा रहे हैं। फ़िलिस्तीन की जनता हर दिन हर पल अपने देश-ज़मीन-हक़ और अधिकार के लिए इज़रायली ज़ायनवादियों से जूझ रही है। यह संघर्ष सीधे-सीधे अपने देश की ज़मीन और घरों पर इज़रायलियों के ज़बरन क़ब्‍ज़े के ख़िलाफ़ संघर्ष से लेकर अन्य कई रूप अख़्तियार करता है।