शिक्षा का घटता बजट और बढ़ता निजीकरण

लता

मोदी सरकार विश्वगुरु होने के दावे कर रही है और साथ ही शिक्षा पर होने वाले खर्च को हर साल कम भी करती जा रही है। शिक्षा और विशेष तौर पर प्राथमिक-माध्यमिक और उच्च-माध्यमिक शिक्षा देश में हमेशा ही उपेक्षा का शिकार रही है। चाहे कांग्रेस की सरकार हो या कोई भी अन्य सरकार, शिक्षा की हालत हमेशा खस्ता ही रही है और उन्होंने शिक्षा पर ज़रूरत से हमेशा कम  निवेश किया है। लेकिन 2014 के बाद से प्रति वर्ष बजट में शिक्षा का हिस्सा कम से कमतर होता जा रहा है।

इसकी प्रमुख वजह समझना बहुत कठिन नहीं है। अन्य तमाम क्षेत्रों की तरह शिक्षा को भी निजी हाथों में पूरी तरह सौंपने के लिए मोदी सरकार तेज़ गति से आगे बढ़ रही है। एक ओर तो सरकारी शिक्षा संस्थानों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की फ़ीस बढ़ायी जा रही है और दूसरी ओर नये शिक्षकों की भर्ती न के बराबर हो रही है। शिक्षकों और कर्मचारियों को ठेके पर रखा जा रहा है। सरकार धीरे-धीरे शिक्षा की अपनी ज़िम्मेदारियों से पल्ला झाड़ रही है और पूँजीपति यहाँ भी खुलकर मुनाफ़ा पीट सकें, इसके लिए शिक्षा को उनके हवाले कर रही है। नयी शिक्षा नीति लागू होने से उच्च शिक्षा में निजीकरण की रफ़्तार और तेज़ गति से आगे बढ़ेगी और विदेशी पूँजीपतियों को भी शिक्षा के क्षेत्र में मुनाफ़ा कमाने के लिए आमन्त्रित किया जायेगा। मज़दूर-मेहनतकश आबादी तो वैसे भी उच्च शिक्षा से कोसों दूर है पर अब मध्य वर्ग के लिए भी शिक्षा हासिल करना कठिन हो जायेगा। हमारे देश में अच्छी प्राथमिक-माध्यमिक और उच्च-माध्यमिक शिक्षा पहले ही निजी हाथों में थी अब उच्च शिक्षा भी निजी हाथों में चली जायेगी और जा रही है। दोनों स्तरों पर शिक्षा के निजीकरण की वजह से देश में शिक्षा के स्तर को लेकर गम्भीर सवाल उठ खड़े हो रहे हैं। हमारे देश में साक्षरता का स्तर 74 प्रतिशत है लेकिन हम अच्छे से जानते हैं कि देश की एक बड़ी आबादी पढ़ने-लिखने में अक्षम है। ऐसे में शिक्षा में निवेश को कम करना देश की आम मेहनतकश जनता को अज्ञानता के अन्धकर में धकेलना है।   

पहले एक नज़र शिक्षा के घटते बजट की ओर डाल लेते हैं जिससे यह स्पष्ट हो जायेगा कि मोदी सरकार की शिक्षा को लेकर बड़ी-बड़ी लफ़्फ़ाज़ियों के पीछे की असली सच्चाई क्या है । मोदी सरकार के आने के पहले वर्ष 2014 में शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 0.63 प्रतिशत ख़र्च किया गया। यह पहले ही बहुत कम था। अगर आपको याद हो कि तब काँग्रेस की सरकार थी। वही कांग्रेस जिसे लेकर इन दिनों बहुत से लोग बहुत अधिक भावुक हो रहे हैं। लेकिन 2014 की तुलना में भी 2023 में शिक्षा पर निवेश लगभग आधा रह गया है, जैसाकि नीचे तालिका से स्पष्ट है।

वर्ष जीडीपी के अनुपात में शिक्षा पर ख़र्च (प्रतिशत)
2013-14 0.63
2014 -15 0.55
2015-16 0.49
2016-17 0.47
2017-18 0.47
2018-19 0.43
2019-20 0.45
2020-21 0.43
2021-22 0.34
2022-23 0.37

यह तालिका शिक्षा को लेकर मोदी सरकार की नीयत स्पष्ट करती है। शिक्षा सूचकांक के 191 देशों की तालिका में भारत 147 स्थान पर है। घाना और कीनिया जैसे अफ़्रीकी देश भी हमसे ऊपर हैं। ऐसे में जब कम से कम शिक्षा पर बजट का 15-16 प्रतिशत (जीडीपी का क़रीब 6 प्रतिशत जैसाकि भारत के पूँजीपति वर्ग ने बार-बार वायदा किया था) ख़र्च होना चाहिए था, वहाँ जीडीपी का सिर्फ़ 0.37 प्रतिशत ख़र्च हो रहा है। क्या यह देश की आम मेहनतकश आबादी के साथ किया गया मज़ाक नहीं है? लेकिन मोदी सरकार बस यही एक भद्दा मज़ाक नहीं कर रही है बल्कि रोज़गार, आवास और स्वास्थ्य सुविधाओं को भी लेकर मज़ाक के फुहारे छोड़ती रहती है। मोदी जी कभी पकोड़े तलने को रोज़गार कहते हैं और पढ़े-लिखे नौजवानों को चाट-पकोड़े का ठेला लगाने को कहते हैं तो कभी योग से सारे रोग दूर होने की बात करते हैं। मतलब अपनी ज़िम्मेदारियों से पूरा पल्ला झटक लेना और जनता को “आत्मनिर्भर” होने के उपदेश देना!   

हम जानते हैं कि आत्मनिर्भर होने के नारे के पीछे की सच्चाई है सरकार का जनकल्याण के कामों से हाथ पीछे खींच लेना। एक रिपोर्ट के अनुसार कोविड के बाद से बच्चों में लिखने और पढ़ने के स्तर में गम्भीर गिरावट देखने में आयी है। शिक्षा की स्थिति पर वार्षिक रिपोर्ट 2020-22  (ऐनुअल स्टेटस ऑफ़ एजुकेशन रिपोर्ट) ने देश के लगभग सभी ग्रामीण ज़िलों का अध्ययन किया है। इस रिपोर्ट के अनुसार कोविड के बाद स्कूल के छात्रों में लिखने और पढ़ने की क्षमता में भारी गिरावट देखने में आयी है। बच्चे जिस कक्षा में पढ़ रहे हैं उनके पास उस कक्षा के स्तर का ज्ञान और लिखने-पढ़ने की क्षमता नहीं है। कुछ राज्यों जैसे बिहार और उत्तर प्रदेश इस मामले में पहले भी बेहद पीछे थे लेकिन कोविड के बाद यह स्थिति सभी राज्यों में बेहद ख़राब हुई है। ऐसे में शिक्षा का बजट कम करना देश की मज़दूर-मेहनतकश आबादी के साथ घोर अन्याय है।

अपने रोज़मर्रा के अनुभवों से हम मज़दूर-मेहनतकश यह बात समझते हैं कि शिक्षा कितनी ज़रूरी है। बैंक में पैसे जमा करने-निकालने, ट्रेन टिकट बनवाने, सरकारी योजनाओं में पंजीकरण करवाने, अस्पताल में दाखिला लेने, राशन कार्ड बनवाने, ड्राइविंग लाइसेंस, पहचान-पत्र बनवाने या ऐसे ही तमाम रोज़मर्रा के मामूली काम भी कितने कठिन और महँगे हो जाते हैं बस इसलिए कि हम कम पढ़े-लिखे होते हैं। विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र को चलाने का दावा करने वाली सरकार इस बात पर ज़रा भी अफ़सोस प्रकट नहीं करती कि शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, रोज़गार, प्रतिव्यक्ति आय आदि के मामलों में “विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश” की स्थिति बदहाल है। लोकतंत्र या जनवाद की असलियत हमेशा वर्गीय अर्थ में ही समझी जा सकती है। पूँजीवादी जनवाद अपने वर्ग चरित्र को छिपाता है और समानता का दावा करता है, लेकिन देश में अमीर-ग़रीब के बीच की खाई को देखते ही स्पष्ट हो जाता है कि यह केवल औपचारिक, क़ानूनी, कागज़ी समानता है। असल में तो देश के 166 अरबपतियों के पास देश के पूरे बजट से अधिक धन है। ऑक्सफ़ैम की एक रिपोर्ट के अनुसार देश की कुल 70 प्रतिशत आबादी के पास जितनी सम्पत्ति है उससे चार गुना से भी अधिक सम्पत्ति ऊपर की एक प्रतिशत आबादी के पास है। अमीर-ग़रीब की बढ़ती खाई के बीच यदि देश की व्यापक आबादी पढ़ी-लिखी होगी तो अपने हक-अधिकार के लिए ज्यादा दृढ़ता और आत्मविश्वास के साथ संघर्ष कर सकती है। फ़ासीवादी ताकतें वैसे भी अधिक से अधिक लोगों को अज्ञान के अन्धकार में रखना चाहती हैं। ऐसे लोगों को उन्मादी भीड़ में तब्दील करना ज़्यादा आसान होता है। इसलिए सिक्षा के बजट में लगातार हो रही कटौती फ़ासीवादी मोदी सरकार के आर्थिक और राजनीतिक दोनों ही हितों से मेल खाती है।

 

 

मज़दूर बिगुल, मार्च 2023


 

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