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नमो फ़ासीवाद! रोगी पूँजी का नया राग!

औद्योगिक कारपोरेट घराने और वित्त क्षेत्र के मगरमच्छ नवउदारवाद की नीतियों को बुलेट ट्रेन की रफ्तार से चलाना चाहते हैं। इसके लिये एक निरंकुश सत्ता की जरूरत होगी। इसलिए इन शासक वर्गों का एक हिस्सा भी नरेन्द्र मोदी पर दाँव आजमाना चाहता है। उसे बस डर यही है कि साम्प्रदायिक तनाव ऐसी सामाजिक अराजकता न पैदा कर दे कि पूँजी निवेश का माहौल ही ख़राब हो जाये। पूँजीपति वर्ग हिन्दुत्ववादी फ़ासीवाद का इस्तेमाल जंजीर से बँधे कुत्ते के समान करना चाहता है। पर हालात की गति उनकी इच्छा से स्वतंत्र भी हो सकती है। जंजीर से बँधा कुत्ता जंजीर छुड़ाकर अपनी मनमानी भी कर सकता है।

दिल्ली विधानसभा चुनाव की सुबह हुआ एक संवाद जो क्रोधान्तिकी सिद्ध हुआ

हमारा लोकतांत्रिक अधिकार यह भी है कि किसी को न चुनें! बाध्यता क्या है? देश में जितने प्रतिशत लोग वोट देते हैं, उनमें से बहुमत पाने वाली पार्टी को बमुश्किल तमाम कुल वयस्क आबादी का 12-15 प्रतिशत वोट मिलता है। इस खेल में कोई न कोई तो आयेगा ही। रहा सवाल ‘आप’ पार्टी का, तो ये यदि दिल्ली नहीं देश में भी सरकार बना लें तो कोई फर्क नहीं पड़्रेगा। जब पूँजीपति लूटता है तो उसके अमले-चाकर, मंत्री-अफसर सदाचारी क्यों होंगे? वे भी घूस लेंगे। कमीशनखोरी होगी, दलाली होगी, हवाला कारोबार होगा। काला धन तो सफेद के साथ पैदा होगा ही। दरअसल, पूँजीवाद स्वयं में ही एक भ्रष्टाचार है। केजरीवाल क्या करेंगे? जनलोकपाल के नौकरशाही तंत्र में ही भ्रष्टाचार फैल जायेगा। ये केजरीवाल जैसे लोग पूँजीवाद के गन्दे कपड़े धोते रहने वाले लॉण्ड्री वाले हैं। सत्ता को बीच-बीच में ऐसे सुधारक चेहरों की ज़रूरत पड़ती है, जनता के मोहभंग को रोकने के लिए, उसे भ्रमित करने के लिए। केजरीवाल मज़दूरों की कभी बात नहीं करते, साम्राज्यवादी लूट के खि़लाफ़ उनकी क्या नीति है, काले दमनकारी क़ानूनों के बारे में उनकी क्या राय है? कुछ गुब्बारे फुलाने के अलावा कुछ नहीं कर सकते। ऐसे गुब्बारों की जिन्दगी ज़्यादा नहीं होती, जल्दी ही फट या पिचक जायेंगे।।

गन्ना किसानों की तबाही पर जारी चर्चा में कुछ जरूरी सवाल

गन्ना किसानों का संकट पूँजीवादी खेती का आम संकट है, जिसमें बीच-बीच की राहत के बावजूद, मालिक किसानों को, विशेषकर छोटी मिल्कियत वालों को लुटना-पिसना ही है। पूँजीवाद में कृषि और उद्योग के बीच बढ़ता अंतर मौजूद रहेगा और संकटकाल में, ज्यादा उत्पादकता वाले उद्योगों के मालिक कम उत्पादकता वाली खेती के मालिकों को दबायेंगे ही। नतीजा – पूँजीवादी दायरे में छोटी किसानी की तबाही, कंगाली, भूस्वामित्व के ध्रुवीकरण और कारपोरेट खेती के तरफ क्रमिक संक्रमण की गति बीच-बीच में मंद हो सकती है, पर दिशा नहीं बदल सकती। हम पीछे नहीं लौट सकते। नरोदवाद और सिसमोंदी का यूटोपिया सिद्धान्त और व्यवहार में गलत सिद्ध हो चुका है। खेती के संकट और छोटे मालिक किसानों की तबाही का एकमात्र समाधान खेती का समाजवादी नियोजन ही है जो क्रान्ति के बाद ही सम्भव है। हमें मध्‍यम किसानों को यह समझाना होगा । और आने वाले दिनों में हालात भी उन्हें यह समझने के लिए बाध्‍य कर देंगे ।

इक्कीसवीं सदी की सच्चाइयाँ और अक्टूबर क्रान्ति की प्रेरणाएँ एवं शिक्षाएँ

अक्टूबर क्रान्ति की मशालें अभी बुझी नहीं है। श्रमजीवी शक्तियाँ धरती के विस्तीर्ण-सुदूर भूभागों में बिखर गयी हैं। उनकी हिरावल टुकड़ियाँ तैयार नहीं हैं, पूँजी के दुर्ग पर नये आक्रमण की रणनीति पर एकमत नहीं है। पूँजी का दुर्ग नीम अँधेरे में आतंककारी रूप में शक्तिशाली भले दिख रहा हो, उसकी प्राचीरों में दरारें पड़ रही हैं, बुर्ज कमजोर हो गये हैं, द्वारों पर दीमक लग रहे है और दुर्ग-निवासी अभिजनों के बीच लगातार तनाव-विवाद गहराते जा रहे हैं। बीसवीं शताब्दी समाजवादी क्रान्तियों के पहले प्रयोगों की और राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति के कार्यभारों के (आमूलगामी ढंग से या क्रमिक उद्विकास की प्रक्रिया से) पूरी होने की शताब्दी थी। इक्कीसवीं शताब्दी पूँजी और श्रम के बीच आमने-सामने के टकराव की, और निर्णायक टकराव की, शताब्दी है। विकल्प दो ही हैं – या तो श्रम की शक्तियों की, यानी समाजवाद की, निर्णायक विजय, या फिर बर्बरता और विनाश। पृथ्वी पर यदि पूँजी का वर्चस्व क़ायम रहा तो लोभ-लाभ की अन्धी हवस में राजा मीडास के वंशज इंसानों के साथ ही प्रकृति को भी उस हद तक निचोड़ और तबाह कर डालेंगे कि पृथ्वी का पर्यावरण मनुष्य के जीने लायक़ ही नहीं रह जायेगा। इतिहास की लम्बी यात्रा ने मानव जाति की चेतना का जो स्तर दिया है, उसे देखते हुए यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि समय रहते वह चेत जायेगी और जो सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था भौतिक सम्पदा के साथ-साथ बहुसंख्यक जनों के लिए रौरव नर्क का जीवन, सांस्कृतिक-आत्मिक रिक्तता-रुग्णता और प्रकृति के भीषण विनाश का परिदृश्य रच रही है, उसे नष्ट करके एक न्यायपूर्ण, मानवीय, सृजनशील तथा प्रकृति और मनुष्य के बीच के द्वन्द्व को सही ढंग से हल करने वाली सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था स्थापित करने की दिशा में आगे बढ़ेगी। इसके लिए सामाजिक परिवर्तन के विज्ञान की रोशनी में आज के सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक जीवन के हर पहलू को समझने वाली, सर्वहारा क्रान्ति के मित्र और शत्रु वर्गों को पहचानने वाली तथा उस आधार पर क्रान्ति की रणनीति एवं आम रणकौशल विकसित करने वाली सर्वहारा वर्ग की पार्टी का पुनर्निर्माण एवं पुनर्गठन पहली शर्त है। इसके बिना पूरी व्यवस्था के उस ‘कण्ट्रोलिंग, कमाण्डिंग ऐण्ड रेग्यूलेटिंग टॉवर” को, जिसे राज्यसत्ता कहते हैं, धराशायी किया ही नहीं जा सकता। अक्टूबर क्रान्ति के दूसरे संस्करण की तैयारी की प्रक्रिया की एकमात्र यही आम दिशा हो सकती है।

कविता – 6 दिसम्बर 1992 की स्मृति में / कविता कृष्‍णपल्‍लवी

1947 में देश के टुकड़े होने के साथ ही
सदी की सबसे बड़ी साम्प्रदायिक मारकाट हुई
इसी धरती पर, बहती रही लहू की धार, लगातार।
दशकों तक टपकता रहा लहू, रिसते रहे ज़ख़्म
और उस लहू को पीकर तैयार होती रहीं
धार्मिक कट्टरपंथी फासिज़्म की फसलें
और दंगों के आँच पर सियासी चुनावी पार्टियाँ
लाल करती रहीं अपनी गोटियाँ।
फिर रथयात्रा पर निकला जुनून की गर्द उड़ाता
फासिज़्म का लकड़ी का रावण
अपने को लौहपुरुष कहता हुआ
और एक दिन पूँजीवादी सड़ांध से उपजा
सारा का सारा फासिस्टी उन्माद
टूट पड़ा मेहनतकश जनों की एकता पर, जीवन पर
और स्वप्नों पर, हमारे इतिहास-बोध पर,
शहादतों और विरासतों की हमारी साझेदारी पर,
हमारे भविष्य की योजनाओं के शिद्दत से बुने गये
ताने-बाने पर।

“हमको फ़ासीवाद माँगता!”

पूँजीपतियों-बैंकरों-व्यापारियों-कुलकों और तमाम उच्चमध्यवर्गीय परजीवी खटमलों-जूँओं-मच्छरों को ‘गुजरात मॉडल’ चाहिए। वे मचल रहे हैं: “मोदी आओ, पूरे देश को गुजरात बनाओ।” “कुछ दंगे हों, कुछ राज्य-प्रायोजित नरसंहार हों, कोई बात नहीं, फिर डंडे के जोर से निवेश-अनुकूल माहौल बनाओ, ‘डीरेग्यूलेशन’ करो, ‘टैक्स-ब्रेक’ दो, हर काम में ‘पी.पी.पी.’ कर दो, श्रम कानूनों को पूरी तरह ताक़ पर धर दो, मज़दूरों की हर आवाज को कुचल दो, और हमारे सारे कष्ट हर लो”- पूँजीपतियों की यही माँग है। वैसे नवउदारवादी नीतियों के प्रति कांग्रेस भी कम वफादार नहीं है। पर पूँजीपति वर्ग बहुत जल्दी में है, उद्विग्न है, व्यग्र है, चिन्तित है, भयातुर है। इसलिए वह मोदी को अवसर देने के पक्ष में ज़्यादा हे। वैसे मोदी आयें या राहुल, एक बात तय है, सरकार तो पूँजीपतियों की ही बनेगी।

हर साल लाखों माँओं और नवजात शिशुओं को मार डालती है यह व्यवस्था

किसी भी समाज की ख़ुशहाली का अनुमान उसके बच्चों और माँओं को देखकर लगाया जा सकता है। लेकिन जिस समाज में हर साल तीन लाख बच्चे इस दुनिया में अपना एक दिन भी पूरा नहीं कर पाते और क़रीब सवा लाख स्त्रियाँ हर साल प्रसव के दौरान मर जाती हैं, वह कैसा समाज होगा, इसे कस्बे की ज़रूरत नहीं। आज़ादी के 66 साल बाद, जब देश में आधुनिक चिकित्सा सुविधाओं की कोई कमी नहीं है, तब ऐसा होना शर्मनाक ही नहीं बल्कि एक घृणित अपराध है। और इसकी ज़िम्मेदार है यह पूँजीवादी व्यवस्था जिसके लिए ग़रीबों की ज़िन्दगी का मोल कीड़े-मकोड़ों से ज़्यादा नहीं है।

स्त्री मज़दूरों और उनकी माँगों के प्रति पुरुष मज़दूरों का नज़रिया

समूचे मज़दूर वर्ग की मुक्ति के लिए, ज़रूरी है कि सामाजिक गतिविधियों और आर्थिक राजनीतिक संघर्षों में उस आधी आबादी की भागीदारी को ज़्यादा से ज़्यादा बढ़ाया जाये जो घरेलू ग़ुलामी के बन्धनों में जकड़ी हुई है। पुरुष मज़दूरों की राजनीतिक शिक्षा का यह एक बुनियादी मुद्दा है कि शेष आधी आबादी को सच्चे मायने में बराबरी का दर्जा देकर पूँजी के विरुद्ध संघर्ष में भागीदार बनाये बिना मज़दूर मुक्ति का लक्ष्य कभी भी हासिल नहीं किया जा सकता। इसके लिए सतत् राजनीतिक शिक्षा और प्रचार के साथ ही सभी पुरुष- स्वामित्ववादी मूल्यों-मान्यताओं- संस्कृति के विरुद्ध एक निरन्तर अभियान चलाना होगा। साथ ही स्त्री मज़दूरों को भी अपनी गुलाम मानसिकता, संस्कार और रूढ़ियों से छुटकारा पाना होगा। न सिर्फ सामाजिक उत्पादन के क्षेत्र में सर्वहारा घरों की स्त्रियों को ज़्यादा से ज़्यादा संख्या में प्रवेश करने के लिए प्रेरित करना होगा, बल्कि मज़दूरों के रोजमर्रा के संघर्षों और दूरगामी राजनीतिक संघर्ष की प्रक्रिया (पूँजी की सत्ता का ध्वंस करके मज़दूर सत्ता की स्थापना का संघर्ष) में भी उन्हें अपनी भागीदारी बढ़ानी होगी। स्त्री मज़दूर अपने अधिकारों के लिए भी सफलतापूर्वक तभी लड़ सकती हैं जब समूचे मज़दूर वर्ग के अधिकारों की लड़ाई में भी उसकी भागीदारी हो, यानी उसकी माँग समूचे मज़दूर वर्ग के माँगपत्रक का एक भाग हो।

स्त्री मज़दूरों और उनकी माँगों के प्रति पुरूष मज़दूरों का दृष्टिकोण (दूसरी किस्त)

एक पुरूष मज़दूर जब अपने घर जाता है तो अपनी बीवी और बेटी को कारख़ाने के गन्दे माहौल से बचाने के लिए भरसक घर में ही पीसरेट पर काम करने के लिए प्रेरित करता है। इससे दो चीज़ें होती हैं। एक तो परिवार में चूल्हे-चौकठ, बाल-बच्चे का सारा काम औरत के ही सिर पड़ा रहता है (वैसे ज्यादातर कारख़ाने जाने वाली औरतों को भी घर का पूरा काम-काज स्वयं ही करना पड़ता है), दूसरे, घर में कुछ अतिरिक्त कमाई आ जाती है। एक वर्ग चेतनाहीन पुरुष मज़दूर अपनी स्त्री की श्रमशक्ति की कीमत और पीस रेट पर काम करने के चलते सभी श्रम अधिकारों से वंचित होने की उसकी स्थिति के बारे में नहीं सोचता। वह यह भी नहीं सोच पाता कि उसके घर की स्त्री जब घर से बाहर निकलकर सामाजिक उत्पादन के क्षेत्र में उतरेगी तो अपने जैसी स्त्री मज़दूरों के साथ मिलकर अपने हक़ों के लिए लड़ेगी और समूचे मज़दूर वर्ग के साथ मिलकर सभी वर्गीय हक़ों के लिए लड़ते हुए मज़दूर संघर्ष की ताक़त को दूनी कर देगी।

स्त्री मज़दूरों और उनकी माँगों के प्रति पुरुष मज़दूरों का नज़रिया

चाहे स्त्री-पुरुष मज़दूरों के लिए समान कार्य के समान वेतन की माँग हो, चाहे मातृत्व अवकाश और नवजात पालन-पोषण अवकाश की माँग हो, चाहे कारख़ानों-वर्कशॉपों में शिशुशाला (क्रेच) और बाल शिक्षा (प्री-नर्सरी और नर्सरी) की व्यवस्था की माँग हो, चाहे कार्यस्थलों पर स्त्री मज़दूरों के लिए अलग टॉयलेट और रेस्टरूम की माँग हो, चाहे रात की पाली में काम करने वाली औरतों के आने-जाने और सुरक्षा के इन्तज़ाम की माँग हो, ज़्यादातर पुरुष मज़दूर अक्सर स्त्री मज़दूरों की इन माँगों की या तो उपेक्षा और अनदेखी करते हैं या मन ही मन इनके प्रति विरोध भाव रखते हैं। जो मज़दूर पीस रेट की व्यवस्था को ख़त्म करने और पीस रेट पर काम करने वालों से जुड़ी तमाम माँगों को उचित मानते हैं, उन्हीं में से ज़्यादातर ऐसे भी हैं जो चाहते हैं कि उनकी पत्नी, बहन या बेटी घर में ही रहकर तमाम घरेलू ज़िम्मेदारियाँ सम्हालते हुए पीस रेट पर काम करके कुछ कमा लिया करें। इस प्रकार स्त्री मज़दूर चूल्हे-चौखट की ग़ुलामी के साथ-साथ पूँजीपतियों के लिए सबसे सस्ती दरों पर श्रम-शक्ति बेचने वाली और सबसे अधिक हाड़तोड़ मेहनत करने वाली उजरती ग़ुलाम बनकर रह जाती है।