‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ : एक जनविद्रोह जो भारतीय पूँजीपति वर्ग के वर्चस्व से निकलकर क्रान्तिकारी दिशा में जा सकता था

वारुणी

‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ जनता के क्रान्तिकारी संघर्षों की विरासत का एक एहम हिस्सा है। 1942 में ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ में हुए जनउभार ने ब्रिटिश साम्राज्यवादी शासन का अन्त सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। इस आन्दोलन में आम मेहनतकश जनता की बड़े स्तर पर भागीदारी थी। क़रीब 40 प्रतिशत मज़दूरों और किसानों ने इस आन्दोलन में हिस्सेदारी की और यह आन्दोलन सिर्फ़ शहरों तक ही सीमित नहीं रहा बल्कि गाँव-गाँव में फैल गया था। ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ का अंग्रेज़ी हुकूमत पर क्या प्रभाव पड़ा इसको हम तभी के वायसराय लिनलिथगो के इस वक्तव्य से जान सकते हैं जो उन्होंने तभी के प्रधानमंत्री चर्चिल को लिखे पत्र में कहा था कि “यह 1857 के बाद का सबसे गम्भीर विद्रोह है जिसकी गम्भीरता और विस्तार को हम अब तक सैन्य सुरक्षा की दृष्टि से छुपाये हुए हैं।” इन्हीं शब्दों से हम आन्दोलन की व्यापकता का और जुझारूपन का आकलन लगा सकते हैं। पहले के अन्य आन्दोलनों की अपेक्षा इस आन्दोलन का विस्तार ज़्यादा व्यापक था और यह भारतीय पूँजीपति वर्ग की प्रातिनिधिक पार्टी कांग्रेस के नेतृत्व की नीतियों का भी अतिक्रमण कर रहा था। इस रूप में इस आन्दोलन में एक आमूलचूल परिवर्तन की सम्भावना-सम्पन्नता भी थी। कांग्रेस ने हमेशा ही जन आन्दोलनों को विनियमित करने का काम किया है ताकि वे पूँजीपति वर्ग के हितों के दायरे से बाहर ना जा सकें। ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ में भी कांग्रेस ने यही किया। हालाँकि ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ में क्रान्तिकारी जन संघर्षो के बहाव को थामना कांग्रेस के लिए काफ़ी मुश्किल था लेकिन वह इसे अपने नेतृत्व के तहत सहयोजित करने में कामयाब रही। वह कामयाब इसलिए रही क्योंकि आज़ादी के आन्दोलन का नेतृत्व करने की क्षमता रखने वाला एकमात्र दूसरे वर्ग यानी मज़दूर वर्ग की आत्मगत ताक़तें, यानी उसकी नेतृत्वकारी ताक़तें, कमज़ोर थीं। भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने अपनी विचारधारात्मक रूप से ग़लत समझदारी के कारण ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ में शिरकत ना करने का फ़ैसला किया था क्योंकि उस समय दुनिया के पैमाने पर फ़ासीवाद और नात्सीवाद के विरुद्ध जारी युद्ध में ब्रिटेन सोवियत संघ का औपचारिक तौर पर मित्र देश था। लेकिन यह सच्चाई सभी देख रहे थे कि हिटलर के नात्सी जर्मनी को हराने में सोवियत संघ का कोई भी साम्राज्यवादी ताक़त साथ नहीं दे रही थी। लेकिन अपने यांत्रिक चिन्तन और अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन के नेतृत्व का आँख मूँदकर अनुसरण करने और अपने देश की ठोस परिस्थितियों का मूल्यांकन करने की असफलता के कारण भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने क्रान्तिकारी चरित्र रखते हुए भी ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ में हिस्सेदारी न करने की भूल की। यह एक ऐतिहासिक भूल थी जिसका ख़ामियाज़ा पूरे कम्युनिस्ट आन्दोलन को आज तक भुगतना पड़ रहा है।
कांग्रेस ने भले ही इस जन आन्दोलन को पूँजीवादी फ़्रेमवर्क में सहयोजित कर लिया लेकिन ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ आज भी हमारी क्रान्तिकारी विरासत का हिस्सा है जिसे हमें भूलना नहीं चाहिए। सत्ता में बैठे पूँजीपति वर्ग के नुमाइन्दों ने एक सोची समझी रणनीति के तहत जनता के समक्ष आज़ादी के पूरे आन्दोलन के इतिहास को अपने वर्गीय नज़रिए से प्रस्तुत किया है और उसे ही जन मानस में बैठाने का प्रयास किया है लेकिन हमें अपनी क्रान्तिकारी विरासत को धूमिल नहीं पड़ने देना चाहिए। इसलिए ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ के बारे में एक संक्षिप्त चर्चा यहाँ की जायेगी ताकि हम यह समझ सकें कि किस प्रकार कांग्रेस पार्टी एक तरफ़ क्रान्तिकारी जन संघर्षों से डरती थी यह सोचकर कि कहीं वे पूँजीपति वर्ग के हितों की सीमाओं का अतिक्रमण ना करें (इसके लिए कई बार उसने मज़दूर-किसान संघर्षों के ब्रिटिश हुकूमत द्वारा दमन का मौन या मुखर समर्थन भी किया है!) और दूसरी तरफ़ वह इन्हीं जन संघर्षों के बल पर ब्रिटिश साम्राज्यवादियों से सहूलियतें और छूटें भी हासिल करती रही और अन्ततः इसी के बूते 1947 में ब्रिटिश साम्राज्यवादी ताक़तों के साथ वह समझौता कर पायी और सत्ता की बागडोर अपने हाथों में ले सकी।
भारत का बुर्जुआ वर्ग वाणिज्यिक पूँजी से शुरुआत करते हुए बीसवीं सदी के पहले दशक तक अपनी औद्योगिक पूँजी को काफ़ी हद तक विस्तार दे चुका था और दो विश्वयुद्धों के दौरान तो उसने अपनी औद्योगिक पूँजी को और विस्तारित किया। इसी विस्तार के अनुसार पूँजीपति वर्ग ने अपनी बढ़ती राजनीतिक महत्वाकांक्षा के लिए समझौता-दबाव-समझौता की रणनीति अपनाते हुए डोमिनियन स्टेटस से लेकर पूर्ण स्वराज, असहयोग आन्दोलन और नमक सत्याग्रह से लेकर ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ तक की यात्रा तय की। ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ एक ऐसे समय शुरू किया गया जब रूस द्वारा हिटलर की सेना को पीछे धकेलने की शुरुआत हुई और इसी के साथ बुर्जुआ वर्ग के कुशलतम राजनीतिक प्रतिनिधि और रणनीति-निर्माता गाँधी समझ चुके थे कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद पर जनान्दोलन का दबाव बनाकर अधिकतम सम्भव हासिल करने का अनुकूलतम समय आ चुका है।
युद्ध की शुरुआत से पहले ब्रिटेन स्पष्ट रूप से आक्रान्ता देशों की पीठ थपथपा रहा था और जर्मनी को सोवियत संघ के ख़िलाफ़ उकसा रहा था। एक ऐसे वक़्त में ब्रिटिश विरोधी पक्ष और फ़ासीवाद विरोधी पक्ष लेने में कोई अन्तर्विरोध मौजूद नहीं था। कांग्रेस ने भी फ़ासीवादी आक्रमण की भर्त्सना की लेकिन उसके बावजूद भी कांग्रेस 1938 तक मंत्रिमण्डलों में शामिल थी। कांग्रेस के इस शासनकाल में किसानों-मज़दूरों का दमन किया जा रहा था और आम जन का कांग्रेस से कटाव बढ़ रहा था। आगे चलकर सितम्बर 1939 में जब युद्ध की शुरुआत हुई तब मजबूरन कांग्रेस मंत्रिमण्डलों को त्यागपत्र देना पड़ा वरना जिस प्रकार वायसराय ने प्रान्तीय मंत्रिमण्डलों से बिना कोई विमर्श किये भारत को जर्मनी के विरुद्ध ब्रिटेन के युद्ध में घसीट लिया था, ऐसे में युद्ध विरोधी कांग्रेसी प्रदर्शनकारी व आम जन के ख़िलाफ़ कांग्रेस मंत्रिमण्डलों को आपातकालीन शक्तियों का प्रयोग करना पड़ता! शुरू में युद्ध की ऐसी परिस्थिति थी कि ब्रिटेन को कांग्रेस के सहयोग की ज़रूरत नहीं पड़ती और इसलिए ही वायसराय लिनलिथगो ने कांग्रेस द्वारा प्रस्तावित न्यूनतम शर्तों पर पूर्ण सहयोग के प्रस्ताव को ठुकरा दिया था। कांग्रेस ने युद्ध के पश्चात् संविधान सभा बुलाने का वादा और केन्द्र में एक उत्तरदायी सरकार जैसी किसी चीज़ के गठन का प्रस्ताव रखा था लेकिन लिनलिथगो डोमिनियन स्टेटस सम्बन्धी पुरानी पेशकश तक ही सीमित रहा। ज्ञात हो युद्ध की घोषणा के दिन ही नागरिक स्वाधीनताओं को सीमित करने वाला भारत रक्षा अध्यादेश लागू कर दिया गया था। इस पूरे दौरान कांग्रेस समझौते का प्रयास करती रही। नेहरू का कहना यह था कि बिना शर्त ब्रिटेन का युद्ध में समर्थन करने के लिए जनता तैयार नहीं होगी। तात्पर्य यह है कि कांग्रेस अन्त तक बातचीत जारी रखे हुए थी ताकि किसी तरह समझौता हो जाये।
युद्ध जैसे आगे बढ़ा अगस्त 1940 में ब्रिटेन को यह ज़रूरत महसूस हुई कि भारत का इसमें समर्थन चाहिए होगा और ठीक इसलिए ही लिनलिथगो कुछ रियायतें देने के लिए मान गये थे लेकिन चर्चिल ने उनके प्रस्तावों में अडंगा डाल दिया। नतीजतन लिनलिथगो का ‘अगस्त प्रस्ताव’ भी कुछ ख़ास तब्दीली नहीं लेकर आया, इसमें सिर्फ़ भविष्य में डोमिनियन स्टेटस और युद्ध पश्चात् संविधान बनाने के लिए एक निकाय के गठन की बात की गयी थी लेकिन इसके लिए भी ब्रिटिश पार्लियामेण्ट की अनुमति आवश्यक थी। गाँधी बार-बार इसी प्रयास में रहे कि किसी तरह समझौता हो जाये। कांग्रेस के भीतर के “वाम” धड़े और आम जन के दबाव को देखते हुए गाँधी ने ‘अगस्त प्रस्ताव’ से निराश होकर आन्दोलन करने की अनुमति तो दे दी लेकिन यह आन्दोलन जानबूझकर सीमित और प्रभावहीन रखा गया। मार्च 1940 में सविनय अवज्ञा आन्दोलन छेड़ने की बात की गयी थी लेकिन इस आन्दोलन में सिर्फ़ युद्ध विरोधी बातें कहने के अधिकार को एकमात्र मुद्दा बनाया गया। जून 1941 में आन्दोलन का शिखर पहुँचा जिसमें क़रीब 20,000 लोग जेल जा चुके थे लेकिन उसके बाद आन्दोलन बिखरने लगा। यह सबसे कमज़ोर और प्रभावहीन आन्दोलन जानबूझकर बनाये रखा गया क्योंकि गाँधी को बख़ूबी पता था कि यदि आन्दोलन को और आम जन के ग़ुस्से को खुली छूट दे दी जाये तो हो सकता है कि आन्दोलन कांग्रेस के नेतृत्व से बाहर निकल जाये। तब तक भारत की कम्युनिस्ट पार्टी भी राष्ट्रीय आन्दोलन को प्रधान अन्तर्विरोध मान रही थी जो कि नाज़ी-सोवियत सन्धि के पश्चात् कोमिण्टर्न की नीति थी। कम्युनिस्ट एक ताक़त के तौर पर आज़ादी के आदोलन में सक्रिय थे और कम्युनिस्ट पार्टी देश में तीसरी सबसे बड़ी पार्टी थी। जनवरी 1941 में बिड़ला के साथ बातचीत में गाँधी ने कहा था कि वे आन्दोलन से ज़्यादा परेशानी नहीं उत्पन्न करना चाहते और साथ ही उन्होंने युवाओं की मानसिकता पर चिन्ता व्यक्त करते हुए कहा था कि “…दुर्भाग्य से हमारे युवा कम्युनिज़्म की ओर आकर्षित होते हैं” (ठाकुरदास पेपर्स, फ़ा.न. 177)। इससे यह साफ़ अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि किस प्रकार गाँधी बुर्जुआ वर्ग के एक पैरोकार के रूप में हर दावपेच सही तरीक़े से इस्तेमाल कर रहे थे।
युद्ध के नये चरण में परिस्थितियाँ बिल्कुल बदल गयीं। विश्वयुद्ध की दो घटनाओं ने भारत की स्थिति को अचानक से बदल दिया और परिस्थिति अनुसार ब्रिटिश हुक्मरानों की नीतियाँ भी बदलीं और कांग्रेस व कम्युनिस्ट पार्टी की नीतियों में भी परिवर्तन आया। पहली घटना थी 1941 के अन्तिम महीनों में सोवियत रूस पर हिटलर की सेना का आक्रमण और दूसरी घटना दक्षिण पूर्वी एशिया में जापान का आक्रमण जिसने चार महीनों में ही ब्रिटिश साम्राज्यवादी ताक़तों को मलाया, बर्मा और सिंगापुर से खदेड़ दिया जिससे उन्हें अपने साम्राज्य के नष्ट होने का ख़तरा महसूस होने लगा था। अन्ततः 1942 के मार्च में जब अण्डमान द्वीप समूह पर क़ब्ज़ा कर लिया गया तब ब्रिटिश साम्राज्यवादियों को यह एहसास हुआ कि भारतीय जनता को अपने पक्ष में करने के लिए कुछ ज़रूरी क़दम उठाना पड़ेगा और मार्च-अप्रैल में क्रिप्स मिशन को भेजा गया। भारतीय नेताओं से समझौते की बात करने क्रिप्स भारत आये लेकिन अन्तिम क्षण में लिनलिथगो चर्चिल के साथ मिलकर समझौते में बाधा डाल देते हैं। क्रिप्स को सारी बातचीत को पुनः मंत्रिमण्डल योजना पर लाने को कहा जाता है। इस पूरी बातचीत में नेहरू मौजूद रहते हैं और अन्त तक वे पूरी कोशिश करते हैं कि किसी तरह से समझौता हो जाये परन्तु राष्ट्रीय सरकार बनाने व संविधान सभा बुलाने के अपने पुराने वायदे को नहीं निभाते हुए क्रिप्स मिशन असफल होता है।
अगस्त 1942 में पूरे देश की आम जनता की मनःस्थिति विद्रोही मोड़ ले रही थी। एक तरफ़ मलाया, बर्मा व सिंगापुर से पीछे हटने के दौरान अंग्रेज़ों ने यातायात के सभी साधनों को अपने अधिकार में कर लिया और वहाँ मौजूद भारतीय प्रवासी मज़दूरों को उनके हाल पर छोड़ दिया। बाद में इन प्रवासियों को कई कठिनाईयों से जूझते हुए वापस लौटना पड़ा और इनके बीच अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ एक रोष उत्पन्न हो रहा था। दक्षिण पूर्वी एशिया में भेजे जाने वाले अधिकतर प्रवासी मज़दूर संयुक्त प्रान्त और उत्तरी बिहार से आते थे, इसलिए ही बिहार में ‘अगस्त का विद्रोह’ सबसे उग्र व विस्तृत था। विदेशों से और ख़ास कर बर्मा के मोर्चे से घायल लौटने वाले भारतीय सिपाहियों को देखकर आम जन में उस युद्ध के प्रति रोष बढ़ता गया। नस्ल भेद आधारित दुर्व्यवहार बढ़ते जा रहे थे, इसके अलावा खाद्यान मूल्यों में भी वृद्धि हो रही थी। विशेष रूप से चावल और नमक की कमी हो गयी थी। खाद्यान्नों की क़ीमतों के बढ़ने के कारण और देश में मित्र देशों की सेनाओं के विशाल जमाव को देखते हुए आम जन में यह भाव बैठ गया था कि देश के खाद्यान भण्डार को सेना ख़त्म कर रही है। हिटलर के सोवियत रूस पर आक्रमण के बाद भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने जनवरी 1942 में ही फ़ासीवाद विरोधी “जनयुद्ध” को समर्थन देने का फ़ैसला कर लिया था। हालाँकि वे भी राष्ट्रीय सरकार के गठन की बात कर रहे थे लेकिन इस बात को युद्ध में ब्रिटेन के समर्थन की किसी शर्त के बतौर नहीं रखा था। मतलब साफ़ था कि वे बिना शर्त ब्रिटेन का समर्थन करते और राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन को तेज़ करने के पक्ष में उस दौरान नहीं होते। भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के अनुसार मित्र राष्ट्रों में ब्रिटेन सोवियत समाजवादी देश का मित्र था और पार्टी फ़ासीवाद विरोधी मोर्चे को कमज़ोर नहीं करना चाहती थी। नेतृत्व की ग़लत विचारधारात्मक समझ के कारण ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ में कम्युनिस्ट पार्टी ने भागीदारी नहीं करने का फ़ैसला किया जो कि एक ऐतिहासिक भूल थी। इन ग़लतियों ने भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन को गम्भीर धक्का पहुँचाया और ज़मीनी स्तर पर मज़दूरों-किसानों के जुझारू संघर्षों और उनमें अपनी गहरी साख के बावजूद राष्ट्रीय आन्दोलन में सर्वहारा राजनीतिक लाइन स्थापित करने व नेतृत्व कांग्रेस के हाथों से छीनने के मामले में कम्युनिस्ट पार्टी पीछे छूट गयी। गाँधी ने इस पूरी परिस्थिति का फ़ायदा उठाया और 8 अगस्त 1942 को अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी के अधिवेशन में ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ का प्रस्ताव रखा जिसमें यह कहा गया कि अहिंसक रूप से जितना सम्भव हो उतने बड़े स्तर पर जन संघर्ष का आह्वान किया जायेगा। गाँधी ने यहीं अपने वक्तव्य में ‘करो या मरो’ का नारा दिया और यह भी कहा कि यदि आम हड़ताल करना आवश्यक होगा तो उससे भी पीछे नहीं हटेंगे। गाँधी पहली बार अपने राजनीतिक जीवन में राजनीतिक हड़ताल का समर्थन करने के लिए तैयार हुए थे और वह भी इसलिए क्योंकि कम्युनिस्ट पार्टी का उससे अलग रहना निश्चित था।

‘अगस्त क्रान्ति’ का विस्तार व स्वरूप

8 अगस्त 1942 को ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ का आह्वान किया गया। गाँधी ने ‘करो या मरो’ के नारे के साथ पूर्ण स्वतंत्रता की माँग उठायी। 9 अगस्त को सारे बड़े कांग्रेसी नेता गिरफ़्तार हो गये और उसके बाद एक व्यापक व स्वतःस्फूर्त जन आन्दोलन की शुरुआत हुई। आन्दोलन का नेतृत्व नये युवा एवं संघर्षशील लोगों के हाथ में आने के कारण नीचे के दबाव को उभरने का पूरा मौक़ा मिला। आन्दोलन के विस्तार में जाने से पहले यह जान लेना ज़रूरी है कि गाँधी के ‘भारत छोड़ो’ प्रस्ताव में आन्दोलन की गतिविधियों के सम्बन्ध में पूरी कार्यदिशा को अस्पष्ट रखा गया ताकि आगे अंग्रेज़ों से बातचीत या समझौते का रास्ता बन्द ना हो। कार्यक्रम की रूपरेखा में मोटे तौर पर नमक सत्याग्रह, न्यायालय, स्कूल, और सरकारी नौकरी का बहिष्कार करने, विदेशी सामानों का बहिष्कार करने और अन्त में लगानों की नाअदायगी जैसे गाँधीवादी कार्यक्रम शामिल थे। मज़दूर हड़ताल भी आयोजित करने की बात की गयी थी और अहिंसात्मक होकर आन्दोलनों को विस्तार देने की बात की गयी थी। लेकिन आन्दोलन अपने पहले ही चरण में काफ़ी आगे बढ़ चुका था। शुरुआत में मुख्यतः शहरों में हड़तालें होने लगीं और सेना व पुलिस के साथ झड़पें होने लगीं। 9 से 14 अगस्त तक बम्बई में हड़तालें हुईं, उसके बाद कोलकाता और फिर दिल्ली में मिल मज़दूरों की हड़तालें और हिंसक झड़पें शुरू हो गयीं। पटना में 11 अगस्त को सचिवालय के सामने होने वाले विख्यात संघर्ष के बाद दो दिनों तक शहर में कोई क़ानून-व्यवस्था नहीं रही। अहमदाबाद की कपड़ा मिलों में तीन महीने तक हड़ताल चलती रही। शुरुआत में इस आन्दोलन में मज़दूरों, विद्यार्थियों व शहरी मध्य वर्ग का हिस्सा सक्रिय रहा। अगस्त के मध्य से विद्यार्थियों के ज़रिए आन्दोलन गाँव में फैलने लगा। जुझारू विद्यार्थी किसान विद्रोह का नेतृत्व करने लगे। बड़े स्तर पर संचार साधनों को नष्ट किया गया व पुलिस चौकी को नष्ट किया गया। उत्तरी और पश्चिमी बिहार और पूर्वी संयुक्त प्रान्त, बंगाल में मिदनापुर, महाराष्ट्र, कर्णाटक और उड़ीसा के कुछ हिस्से आन्दोलन के इस दूसरे चरण में सक्रिय रहे। इनमें से कई जगहों पर ‘राष्ट्रीय सरकारों’ की स्थापना की गयी लेकिन यह ज़्यादा दिन नहीं चल सकीं।
आन्दोलन का प्रचण्ड रूप धारण करने का कारण था भारी संख्या में किसानों का विद्रोह और यह मूलतः छोटे किसानों का विद्रोह था। ऊपर उल्लिखित चार राज्यों में जन-आन्दोलन की व्यापकता ज़्यादा थी। तीव्रता और विस्तार दोनों में ही बिहार आगे था। आन्दोलन को ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने कुचलकर रख दिया। भारी दमन का सामना करते हुए भी आन्दोलन लगभग छिटपुट रूप में अक्टूबर तक जारी रहा। आन्दोलन कितना शक्तिशाली व चुनौतीपूर्ण बन गया था, यह इस बात से पता लगाया जा सकता है कि अंग्रेज़ों ने किस क़दर आन्दोलन का दमन किया। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़ 1943 के अन्त तक 91,836 लोगों को गिरफ़्तार किया गया। आन्दोलनकारियों द्वारा 208 पुलिस चौकी, 332 रेलवे स्टेशन और 945 डाक घर नष्ट कर दिये गये थे। क़रीब 1000 लोग सेना व पुलिस की गोलियों से शहीद हुए! बिहार, बंगाल व उड़ीसा में तो आन्दोलन का दमन करने के लिए वायुयानों का प्रयोग किया गया। इस आन्दोलन की चन्द घटनाओं के ब्यौरे से इसके विस्तार और शक्ति का अहसास किया जा सकता है।
इस आन्दोलन में निश्चित रूप से एक क्रान्तिकारी सम्भावना-सम्पन्नता थी लेकिन वह कोई निश्चित स्वरूप नहीं ले सकी जिसके लिए ज़िम्मेदार भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की विचारधारात्मक कमज़ोरी थी! कांग्रेस ने गाँधी के नेतृत्व में आन्दोलन को पूँजीवादी फ़्रेमवर्क में सहयोजित करने की पूरी कोशिश की और अन्तत: काफ़ी प्रयासों के बाद वह उस कोशिश में कामयाब भी रही।
यहाँ एक बात साफ़ थी कि कांग्रेस अन्त तक बातचीत व समझौते का रास्ता खुला रखे हुए थी क्योंकि भारतीय पूँजीपति वर्ग साम्राज्यवाद से निर्णायक विच्छेद करने की कूव्वत नहीं रखता था, वह अपने लिए राजनीतिक स्वतंत्रता चाहता था और साम्राज्यवाद पर आर्थिक निर्भरता को क्रमिक प्रक्रिया में न्यूनातिन्यून करना चाहता था। इसलिए ही कांग्रेस ने बिना किसी निश्चित कार्यदिशा के या देश स्तर पर बिना कोई योजना के ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ की घोषणा कर दी। कांग्रेसी नेताओं को पता था कि उनकी गिरफ़्तारी आसन्न थी और इसलिए ही उनमें से ज़्यादातर 8 अगस्त से पहले ही अपने व्यक्तिगत पारिवारिक मामले और वित्त का निपटारा कर चुके थे! वैसे गाँधी ने अपने वक्तव्य में अहिंसात्मक तरीक़ों को ही अपनाने की बात कही थी लेकिन अगस्त क्रान्ति के पूरे घटनाक्रम के हिंसात्मक रवैये पर उन्होंने कुछ नहीं कहा क्योंकि अपनी राजनीतिक आज़ादी के लिए उस वक़्त भारत के पूँजीपति वर्ग को ऐसे जन संघर्षों की आवश्यकता थी। यहाँ ब्रिटिश सरकार द्वारा सीधे कांग्रेस पर हिंसा करने का आरोप नहीं लगाया जा सकता था। कांग्रेस ने बहुत चालाकी से बातचीत और समझौते का रास्ता भी खुला रखा और दूसरी तरफ़ ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ की शुरुआत कर आम जन के बीच फिर से अपना नेतृत्व स्थापित किया। (जोकि कुछ हद तक 1937 के कांग्रेस मंत्रिमण्डलों के काल में खो चुका था)। डी.डी.कोसाम्बी ने भी अपने लेख ‘दी बुर्जुआ कॉमंस ऑफ़ एन ऐज इन इण्डिया’ में लिखा है कि “जेल और यंत्रणा-शिविरों की चमक-दमक कांग्रेसी मंत्रिमण्डलों की कारगुज़ारी से ध्यान हटाने में सहायक हुई और इस प्रकार कांग्रेस जन सामान्य के बीच पुनः लोकप्रियता प्राप्त कर सकी।”
इतने बड़े स्तर पर जन आन्दोलन का विस्तार और इसका क्रान्तिकारी स्वरूप देख व विश्व युद्ध में अपनी परिस्थिति देख ब्रिटिश साम्राज्यवादियों को भारत के पूँजीपति वर्ग की प्रातिनिधिक पार्टी कांग्रेस को सत्ता हस्तान्तरित करके जाना ज़्यादा ठीक लगा बनिस्पत इसके कि वह किसी जन विद्रोह द्वारा उखाड़ फेंकी जाती। इस आन्दोलन का नेतृत्व समझौतापरस्त कांग्रेस के हाथों में ही रहा और यह किसी जन क्रान्ति की तरफ़ नहीं बढ़ सका लेकिन ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ देश की जनता की क्रान्तिकारी विरासत का एक अहम हिस्सा है। यह ऐसा आन्दोलन था जिसने ब्रिटिश सरकार की चूलें हिला दी थीं। यह वह आन्दोलन था जिसने विश्व पैमाने पर कमज़ोर हो चुकी ब्रिटिश साम्राज्यवादी ताक़त पर दबाव बनाया जिससे कि आगे की आज़ादी का रास्ता प्रशस्त हुआ। इसी आन्दोलन के बूते कांग्रेस वह समझौता कर सकी जिसकी परिणति 15 अगस्त 1947 की खण्डित-विकलांग आज़ादी थी।

मज़दूर बिगुल, अगस्त 2022


 

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