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चुप्पी तोड़ो, आगे आओ! मई दिवस की अलख जगाओ!!

मई दिवस का इतिहास पूँजी की ग़ुलामी की बेड़ियों को तोड़ देने के लिए उठ खड़े हुए मज़दूरों के ख़ून से लिखा गया है। जब तक पूँजी की ग़ुलामी बनी रहेगी, संघर्ष और क़ुर्बानी की उस महान विरासत को दिलों में सँजोये हुए मेहनतकश लड़ते रहेंगे। हमारी लड़ाई में कुछ हारें और कुछ समय के उलटाव-ठहराव तो आये हैं लेकिन इससे पूँजीवादी ग़ुलामी से आज़ादी का हमारा जज्ब़ा और जोश क़त्तई टूट नहीं सकता। करोड़ों मेहनतकश हाथों में तने हथौड़े एक बार फिर उठेंगे और पूँजी की ख़ूनी सत्ता को चकनाचूर कर देंगे। इसी संकल्प को लेकर दिल्ली, लुधियाना और गोरखपुर में मज़दूरों के मई दिवस के आयोजनों में बिगुल मज़दूर दस्ता के साथियों ने शिरकत की और इन आयोजनों को क्रान्तिकारी धार और जुझारू तेवर देने में अपनी भूमिका निभायी।

मालिकों के मुनाफ़े की हवस में अपाहिज हो रहे हैं मज़दूर

ये कुछ ऐसी घटनाएँ हैं जो सामने आ गयी हैं। लेकिन अक्सर ही फ़ैक्टरियों में हादसे होते हैं, मौतों के अलावा अंग कटने की घटनाएँ आम घटती हैं। लेकिन किसी अख़बार या टी.वी. चैनल की सुर्खी नहीं बनती। यहाँ का श्रम विभाग और ई.एस.आई. विभाग अपाहिज, लाचार, मज़दूरों की सुनवाई करके ज़ख़्मों पर मरहम लगाने की जगह उनको चक्कर लगवा-लगवाकर दुखी कर देता है। ऐसा क्यों है? क्योंकि इनकी कोई जवाबदेही नहीं। मज़दूरों में संगठन की कमी है और फ़ैक्टरी मालिक ऊपर तक पहुँच वाले हैं।

मज़दूर संगठनकर्ता राजविन्दर को लुधियाना अदालत ने एक फर्जी मामले में दो साल क़ैद की सज़ा सुनायी

अदालत के इस फ़ैसले से कुछ बातें एक बार फिर साफ़ हो गयीं। अगर मुद्दा मज़दूरों और पूँजीपतियों के बीच टकराव का हो तो मज़दूरों को सबक सिखाने के लिए उनके खि़लाफ़ ही फ़ैसले सुनाये जाते हैं ताकि वे भविष्य में मालिकों से टक्कर लेने की न सोचें। जज-अफ़सर भी तो अपने “सगे-सम्बन्धी” पूँजीपतियों का ही पक्ष लेंगे। इनके अपने भी तो कारख़ाने आदि होते हैं। ये कभी नहीं चाहेंगे कि मज़दूर मालिकों के खि़लाफ़ आवाज़ उठायें। पंजाब में तो पिछले समय में मज़दूरों, किसानों, अध्यापकों, बिजली मुलाज़िमों के संगठनों के नेताओं को झूठे केसों में फँसाकर उलझाये रखने का रुझान बहुत बढ़ चुका है। मज़दूर संगठनकर्ता राजविन्दर को सुनायी गयी सज़ा भी सरकार की इसी रणनीति का हिस्सा है।

ग़रीबी, महँगाई, भ्रष्टाचार से छुटकारे का रास्ता – चुनाव नहीं, इंक़लाब है!

कांग्रेसी सरकार बने चाहे भाजपाई, क्षेत्रीय दलों और नक़ली लाल झण्डे वालों के साँझे मोर्चे की सरकार बने चाहे ”ईमानदारी” की क़समें खाने वाली ”आप” पार्टी की सरकार बने – सरकार तो जनता को लूटने-खसोटने वाले पूँजीपति धन्नासेठों की ही बननी है। इन चुनावों का खेल है ही ऐसा। लुटेरे पूँजीपति हमेशा जीतते हैं, जनता हमेशा हारती है। अंग्रेज़ों के जाने के बाद के पिछले 67 सालों में आज तक जितनी भी सरकारें बनती रही हैं बिना किसी अपवाद के अमीरों की यानी पूँजीपतियों की ही सरकारें थीं। और इस बार भी कुछ अलग नहीं होने वाला है। जिस समाज में कारख़ानों, खदानों, ज़मीनों, व्यापार, आदि तमाम आर्थिक संसाधनों और धन-दौलत पर मुट्ठीभर पूँजीपतियों का क़ब्ज़ा हो, उसमें चुनाव के ज़रिए जनता की सरकार बनने की उम्मीद पालना मूर्खता के सिवा और कुछ नहीं हो सकता। पूँजी के बलबूते ही चुनाव लड़े और जीते जाते हैं। जनता से झूठे वादे करके, पूँजीवादी अख़बारों व टीवी चैनलों के ज़रिए अपने पक्ष में माहौल बनाकर, जनता को धर्म-जाति-क्षेत्र के नाम पर बाँटकर, दंगे करवाकर, वोटरों को खऱीदकर, नशे बाँटकर, बूथों पर क़ब्ज़े करके आदि हथकण्डों द्वारा चुनाव जीते जाते हैं। इन चुनावों में भी यही कुछ हो रहा है और पूँजीवादी व्यवस्था में यही हो सकता है।

क्या ‘आम आदमी’ पार्टी से मज़दूरों को कुछ मिलेगा ?

17 फरवरी को भारतीय पूंजीपतियों के राष्ट्रीय संगठन सी.आई.आई. की मीटिंग में केजरीवाल ने असल बात कह ही दी। उसने कहा कि उसकी पार्टी पूंजीपतियों को बिजनेस करने के लिए बेहतर माहौल बनाकर देगी। विभिन्न विभागों के इंस्पेक्टरों द्वारा चेकिंग करके मालिकों को तंग किया जा रहा है, यह इंस्पेक्टर राज खत्म कर दिया जाएगा। उसने तो यह भी कहा कि पूंजीपति तो 24-24 घंटे सख्त मेहनत करते हैं और ईमानदार हैं, लेकिन भ्रष्ट अधिकारी और नेता उन्हें तंग-परेशान करते हैं। पूंजीपतियों की ईमानदारी के बारे में तो सभी मजदूर जानते ही हैं कि वे कितनी ईमानदारी के साथ मजदूरों को तनख्वाहें और पीसरेट देते हैं और कितने श्रम कानून लागू करते हैं। बाकी रही बात श्रम विभाग, इनकम टैक्स, सेल्स टैक्स आदि विभागों द्वारा चेकिंग की, तो अगर कोई चोर नहीं है, तो उसे अपने हिसाब-किताब की जांच करवाने में क्या आपत्ति है। रोजाना अखबारों में खबरें छपती हैं कि पूंजीपति बिना बिल के सामान बेचते हैं और टैक्स चोरी करके सरकारी खजाने को चूना लगाते हैं। कारखानों द्वारा बिजली चोरी की खबरें भी अखबारों में पढ़ने को मिलती हैं। सोचा जा सकता है कि केजरीवाल के ”ईमानदार” पूंजीपति कितने पाक-साफ हैं। उसने यह भी कहा कि सरकार का काम सिर्फ व्यवस्था देखना है, बिजनेस करना तो पूंजीपतियों का काम होना चाहिए यानी रेलें, बसें, स्कूल, अस्पताल, बिजली, पानी आदि से संबंधित सारे सरकारी विभाग पूंजीपतियों के हाथों में होने चाहिए। जैसाकि अब हो भी रहा है, जिन विभागों में पूंजीपतियों ने हाथ डाला है, ठेके पर भर्ती करके मजदूरों की मेहनत को लूटा है और कीमतें बढ़ाकर आम जनता की जेबों पर डाके ही डाले हैं। तेल-गैस और बिजली के दाम बढ़ना इसी के उदाहरण हैं।

आपस की बात

‘‘पार्टी आप’’ ‘‘पार्टी आप’’
डाल माल प्रवचन सुनाये
गाल बजाये तोंद फुलाये
बुद्धि के ठेकेदार
ढंग कुढंगी बेढब संगी
चोली दामन का साथ।
जेपी लोहिया की कब्र उखाड़
टेम्प्रेचर का लेकर नाप
क्रान्ति होगी मोमबत्ती छाप

लुधियाना के टेक्सटाइल मज़दूरों की हड़ताल की जीत

मज़दूर संगठन की लगातार बढ़ती जा रही ताक़त से मालिक बौखलाहट में हैं। संगठन को कमज़ोर करने और तोड़ने के लिए वह लगातार कोशिशें कर रहे हैं। इस बार की हड़ताल से पहले अग्रणी भूमिका निभाने वाले और मज़दूरों को काम से निकालने की नीति मालिकों ने अपनायी है। सीज़नल काम होने की वजह से संगठन की ताक़त पूरे साल एक जैसी नहीं रहती। मज़दूर पीस रेट पर काम करते हैं और काम कम होने पर गाँव चले जाते हैं। मालिकों ने मन्दी के दिनों में अगुआ और सरगर्म भूमिका निभाने वाले मज़दूरों को काम से निकालना शुरू कर दिया, या गाँव से वापस आने पर उन्हें काम पर नहीं रखा। इस छँटनी को रुकवाने के लिए संगठन के पास अभी संगठित ताक़त की कमी है और आमतौर पर श्रम विभाग में शिकायत दर्ज करवाकर ही गुज़ारा करना पड़ता है। श्रम विभाग और श्रम अदालतों में मज़दूरों के केस लम्बे समय के लिए लटकते रहते हैं और इन्साफ़ नहीं मिलता। जिन कारख़ानों के मज़दूर संगठन के जीवन्त सम्पर्क में नहीं रहते, उन कारख़ानों में छँटनी की यह मुसीबत ज़्यादा आयी है। कारख़ानों से निकाले गये मज़दूर दूसरे इलाक़ों में जाकर काम कर रहे हैं, इससे अन्य इलाक़ों में भी संगठन के फैलाव की सम्भावना बनी है। दूरगामी तौर पर देखा जाये तो मालिकों के हमले के ये लाभ भी हुए हैं।

लुधियाना में टेक्सटाइल मज़दूर अनिश्चितकालीन हड़ताल पर

मज़दूरों ने श्रम विभाग और प्रशासन तक अपनी आवाज़ पहुँचाई है। लेकिन सरकारी मशीनरी मज़दूरों के हक में कोई भी कदम उठाने को तैयार नहीं है। श्रम विभाग कार्यालय में पर्याप्त संख्या में अधिकारी और कर्मचारी ही नहीं हैं और जो हैं भी वो पूँजीपतियों के पक्के सेवक हैं। अन्य क्षेत्रों के कारखानों की तरह टेक्सटाइल कारखानों में भी श्रम कानून लागू नहीं होते हैं। मज़दूर पीस रेट पर काम करते हैं और कुछ महीने मज़दूरों को बेरोज़गारी झेलनी पड़ती है। बाकी समय उन्हें 12-14 घण्टे कमरतोड़ काम करना पड़ता है। देश-विदेश में बिकने वाले शाल व होज़री बनाने वाले इन मज़दूरों को बेहद गरीबी की ज़िन्दगी जीनी पड़ रही है। ‘बिगुल’ द्वारा इन मज़दूरों के बीच किये गये निरन्तर प्रचार-प्रसार और संगठन बनाने की कोशिशों की बदौलत अगस्त 2010 में टेक्सटाइल मज़दूरों के एक हिस्से ने अपना संगठन बनाकर एक नये संघर्ष की शुरुआत की थी। पिछले वर्ष तक इस संघर्ष की बदौलत 38 प्रतिशत पीसरेट/वेतन वृद्धि और ई.एस.आई. की सुविधा हासिल की गयी है। लेकिन लगातार बढ़ती जा रही महँगाई के कारण स्थिति फिर वहीं वापस आ जाती है। मालिकों के मुनाफे तो बढ़ जाते हैं लेकिन वे अपनेआप मज़दूरों की मज़दूरी बढ़ाने, बोनस देने तथा अन्य अधिकार देने को तैयार नहीं होते। एकजुट होकर लड़ाई लड़ने के सिवाय कोई अन्य राह मज़दूरों के पास बचती नहीं है।

लुधियाना के टेक्सटाइल तथा होजरी मज़दूरों ने ‘मज़दूर पंचायत’ बुलाकर अपनी माँगों पर विचार-विमर्श कर माँगपत्रक तैयार किया

यूनियन के नेताओं ने मज़दूर पंचायत के उदेश्य के बारे में बात करते हुए कहा कि संगठन में जनवादी कार्यप्रणाली बहुत जरूरी है तथा संगठन में फैसले समूह की सहमति से लिये जाने चाहिए। इस से मज़दूरों को यह अहसास भी होता है कि यह माँगें-मसले उनके अपने हैं तथा उन्हें ही इस के लिए लड़ना होगा। अपने इस उदेश्य में यूनियन अब तक सफल रही है और यह लगातार तीसरा साल है जब माँगपत्र तैयार करने के लिए मज़दूर पंचायत बुलाई जा रही है। पिछले दो सालों में यूनियन 72 दिनों की हड़ताल भी कामयाबी के साथ चला चुकी है और उसने मालिकों को झुका के ही दम लिया था। इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए इस साल भी मज़दूर पंचायत बुलाई गई है। बड़ी संख्या में मज़दूरों की भागीदारी निश्चित करने के लिए यूनियन ने 24,000 पर्चे लुधियाना के टेक्सटाइल तथा होजरी मज़दूरों में नुक्कड़ सभाएं कर और कमरे-कमरे जाकर बाँटे और उनको मज़दूर पंचायत में आने के लिये प्रेरित किया।

लुटेरे गिरोहों के शिकार औद्योगिक मज़दूर प्रशासन और फ़ैक्टरी मालिकों के ख़िलाफ़ संघर्ष की राह पर

लुधियाना में लूट-खसोट की वारदातों से तंग आकर बहादरके रोड वाले इलाक़े के हज़ारों फ़ैक्टरी मज़दूरों ने फ़ैक्टरियों में काम बन्द करके सुरक्षा बन्दोबस्त ना करने के ख़िलाफ़ पुलिस-प्रशासन और मालिकों के ख़िलाफ़ रोषपूर्ण प्रदर्शन किया। पिछले एक महीने में दर्जन से ज़्यादा लूट-खसोट की वारदातें इस इलाक़े में काम करने वाले मज़दूरों के साथ हो चुकी हैं। ये वारदातें आमतौर पर तनख़्वाह और एडवांस मिलने वाले दिनों में 10 से 15 तारीख़ और 25 से 30 तारीख़ के बीच होती हैं।