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माकपा और सीटू – मज़दूर आन्दोलन के सबसे बड़े गद्दार

गद्दारी करने वाले संगठनों-नेताओं की संख्या तो काफ़ी है लेकिन सबसे अधिक बड़ी गद्दार सी.आई.टी.यू. (सीटू) है जो कि चुनावबाज नकली कम्युनिस्ट पार्टी सी.पी.आई (एम) का मज़दूर फ्रण्ट है। अपना वोट बैंक बढ़ाने के लिए सी.पी.आई. (एम) सीटू का इस्तेमाल करती है। चुनावबाज राजनीति करने वाले हमेशा मालिकों की दलाली करते हैं और जनता के साथ धोखा। यही काम सीपीआई (एम) और सीटू का है। जहाँ इन्होंने पूरे देश में मज़दूर विरोधी-जन विरोधी काली क़रतूतों के कीर्तिमान स्थापित किए हैं और लाल झण्डे को कलंकित व बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है वहीं लुधियाना के मज़दूर आन्दोलन में भी इन्होंने मज़दूरों से गद्दारी और मालिकों की दलाली के, मज़दूर आन्दोलन की पीठ में छुरा खोपने के सारे रिकार्ड तोड़ डाले हैं।

मज़दूरों को अपनी समझ और चेतना बढ़ानी पड़ेगी, वरना ऐसे ही ही धोखा खाते रहेंगे

मेरा कहने का मतलब है कि मज़दूरों का कोई भी संगठन बिना जनवाद के नहीं चल सकता। लेकिन सीटू, एटक, इंटक, बीएमएस तथा उनसे जो संगठन अलग होकर मज़दूरों को गुमराह कर रहे हैं और कैसे भी करके अपनी दाल-रोटी चला रहे हैं। मज़दूरों को इन संगठनों से बचना होगा और अपनी समझ को बढ़ाना और अपनी चेतना विकसित करनी होगी। तभी कोई क्रान्तिकारी मज़दूर संगठन पूरे देश के पैमाने पर खड़ा किया जा सकता है।

एक मज़दूर की कहानी जो बेहतर ज़िन्दगी के सपने देखता था!

अब तक शायद प्रकाश आने वाली बेहतर ज़िन्दगी के सपने साथ लेकर इस दुनिया से विदा हो चुका होगा। जिस ज़मीन के टुकड़े की ख़ातिर उसने अपने आप को रोगी बनाया, उसे भी वह हासिल नहीं कर सका और जिस औलाद के लिए घर बनाने और ज़मीन लेने के बारे में सोचता था, वह भी प्रकाश से नाराज़ रहे, क्योंकि ज़मीन ख़रीदने के चक्कर में बच्चे छोटी-छोटी चीज़ों के लिए तरसते थे। वे प्रकाश की चिन्ताओं को नहीं समझते थे।

मई दिवस पर मज़दूरों ने अपने शहीदों को याद किया

1 मई को 128वें ‘अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस’ के अवसर पर करावल नगर में मज़दूरों की एक विशाल रैली का आयोजन किया गया। करावलनगर मज़दूर यूनियन और स्त्री मज़दूर संगठन के संयुक्त बैनर तले बुधवार को हुई इस ‘मज़दूर अधिकार रैली’ में इस इलाके के अलग-अलग पेशे से जुड़े सैकड़ों मज़दूर शामिल हुए। करावलनगर के लेबर चौक से शुरू हुई मज़दूर अधिकार रैली इलाके की मुख्य सड़क से होती हुई विधायक के कार्यालय पहुँची। विधायक के कार्यालय के बाहर ही सभी बैठ गये और वहाँ मज़दूरों के प्रतिनिधियों द्वारा मज़दूरों का माँगपत्रक पढ़ा गया और फिर इन मज़दूर प्रतिनिधियों ने विधायक को मज़दूरों द्वारा हस्ताक्षरित बुनियादी हक़-अधिकारों का एक माँगपत्रक सौंपा।

मज़दूरों की सेहत से खिलवाड़ – आखिर कौन ज़िम्मेदार?

दूसरा, मज़दूर इलाकों में झोला-छाप डाक्टरों की भरमार है। ये झोला-छाप डाक्टर बीमारी और दवाओं की जानकारी न होने के बावजूद सरेआम अपना धन्धा चलाते हैं। इनका हर मरीज़ के लिए पक्का फार्मूला है – ग्लूकोज़ की बोतल लगाना, एक-दो इंजेक्शन लगाना, बहुत ही ख़तरनाक दवा (स्टीरॉयड) की कई डोज़ हर मरीज़ को खिलाना और साथ में दो-चार किस्म की गोली-कैप्सूल थमा देना। छोटी-मोटी बीमारी के लिए भी ये धन्धेबाज़ मज़दूरों की जेबों से न सिर्फ अच्छे-ख़ासे रुपये निकाल लेते हैं, बल्कि लोगों को बिना ज़रूरत के ख़तरनाक दवाएँ खिलाते हैं। दवाओं की दुकानों वाले कैमिस्ट डाक्टर बने बैठे हैं और अपना धन्धा चलाने के लिए आम लोगों को तरह-तरह की दवाएँ खिलाते-पिलाते हैं। मज़दूर के पास जो थोड़ी-बहुत बचत होती भी है, वो ये झोला-छाप डाक्टर हड़प जाते हैं और बाद में इलाज के लिए पैसे की ज़रूरत पड़ती है तो मज़दूर के पास कुछ नहीं बचा होता। नतीजतन, या तो मज़दूर घर भागता है, या फिर बिना इलाज के काम जारी रखता है जिसके नतीजे भयंकर निकलते हैं। सरकार के सेहत विभाग के पास इसकी जानकारी न हो, ये असम्भव है। असल में ये सब सरकारी विभागों-अफसरों की मिली-भगत से चलता है!

हक़ और इंसाफ़ के लिए लुधियाना के मज़दूरों के आगे बढ़ते क़दम

19 अगस्त को टेक्सटाइल मज़दूर यूनियन की तरफ से मज़दूर पंचायत बुलायी गयी। ज़ोरदार बारिश के बावजूद लगभग 700 मज़दूरों ने पंचायत में हिस्सा लिया। इस पंचायत की तैयारी में यूनियन की तरफ से टेक्सटाइल व होज़री मज़दूरों में बड़ी संख्या में परचे बाँटे गये और विचार-विमर्श के लिए कुछ माँगें भी सुझायी गयीं जिन पर पंचायत में हुई चर्चा के बाद सहमति बन गयी। 25 अगस्त को एक माँगपत्रक तैयार करके सभी फैक्ट्रियों के मज़दूरों ने मालिकों तक पहुँचा दिया। यूनियन ने साफ़ कह दिया कि जो मालिक माँगों के बारे में अपने मज़दूरों से समझौता कर लेगा उसकी फ़ैक्ट्री चलती रहेगी, जो भी मालिक मज़दूरों की जायज़ माँग नहीं मानेगा उसके प्रति सभी मज़दूर मिलकर फैसला लेंगे। कुछ मालिकों ने अपने मज़दूरों से समझौता कर लिया, जिसके अनुसार पहले की 25 प्रतिशत और अभी की 13 प्रतिशत वृद्धि यानी कुल 38 प्रतिशत वेतन बढ़ोत्तरी, 8.33 प्रतिशत बोनस और सभी मज़दूरों का ई.एस.आई. कार्ड बनवाने की बात पर लिखित समझौता करने पर उन फैक्ट्रियों में काम चलता रहा। लेकिन जिन मालिकों ने इन माँगों पर ध्यान नहीं दिया उनके बारे में 16 सितम्बर को यूनियन की साप्ताहिक सभा में फैसला लिया गया कि उन फैक्ट्रियों में मज़दूर 5 बजे के बाद ओवरटाइम लगाना बन्द कर रोज़ाना मीटिंग किया करेंगे। अभी भी काफी मालिक कुछ नहीं देने की ज़िद पर अड़े हैं और मीटिंग रोज़ाना जारी है।

कारख़ाना मज़दूर यूनियन ने लुधियाना में लगाया मेडिकल कैम्प

कारख़ाना मज़दूर यूनियन की तरफ़ से बीते 26 अगस्त को लुधियाना की एक मज़दूर बस्ती राजीव गाँधी कालोनी में मेडिकल कैम्प लगाया गया। दिन भर चले कैम्प में 750 से अधिक मरीज़ आये। यह मेडिकल कैम्प पूरी तरह से मुफ़्त था, लेकिन जैसा कि यूनियन ने कैम्प के पहले बाँटे गये पर्चे में और कैम्प के दौरान भी बताया गया, इस मेडिकल कैम्प का मक़सद परोपकार नहीं था बल्कि लोगों में स्वास्थ्य के बारे में जागरूकता पैदा करना और साथ ही यह बताना था कि एकसमान और बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएँ देश के हर नागरिक का अधिकार है और यह अधिकार हासिल करने के लिए एकजुट होकर संघर्ष करना होगा।

लुधियाना में टेक्सटाइल मज़दूर यूनियन का स्थापना सम्मेलन

बिना जनवाद लागू किए कोई भी जनसंगठन सच्चे मायनों में जनसंगठन नहीं हो सकता। जनवाद जनसंगठन की जान होता है। सम्मेलन जनसंगठन में जनवाद का सर्वोच्च मंच होता है। किसी भी जनसंगठन के लिए सम्मेलन करने की स्थिति में पहुँचना एक महत्वपूर्ण मुकाम होता है। वर्ष 2010 में लुधियाना के पावरलूम मज़दूरों की लम्बी चली हड़तालों के बाद अस्तित्व में आयी टेक्सटाइल मज़दूर यूनियन ने पिछले 4 अगस्त को अपना स्थापना सम्मेलन किया।

तनख्वाह उतनी ही, मगर काम दोगुना

मज़दूरों को समझ लेना चाहिए कि एक जगह काम छोड़कर दूसरी जगह काम पकड़ लेने से इस लूट से उनका पीछा नहीं छूटेगा। क्योंकि भारत तो क्या दुनिया भर में कोई कारख़ाना ऐसा नहीं होगा जहाँ पर पूँजीपति मज़दूरों की मेहनत की लूट के लिए ऐसे हथकण्डे न अपनाते हों। और न ही मशीनें ख़राब करने से यह लूट ख़त्म हो सकती है। 200 साल पहले, जब मज़दूर अपने शोषण का कारण नहीं समझ पाते थे तो वे अपना गुस्सा मशीन पर निकालते थे। लेकिन जल्दी ही उन्हें समझ आ गया कि इससे उनकी हालत में कोई सुधार नहीं होने वाला। कुछेक मशीनें ख़राब होने से मालिक की सेहत पर ज्यादा असर नहीं होगा और कैमरे आदि के ज़रिए जब कुछ मज़दूर पकड़ लिये जायेंगे तो यह सिलसिला अपने आप ही ख़त्म हो जायेगा।

आवाज़ निकालोगे तो काम से छुट्टी

फैक्ट्री मज़दूरों के लिए जेल की तरह है। फैक्ट्री पहुँचते ही हम लोगों के अन्दर अजीब किस्म का डर-सहम घुसने लगता है और हमारे सिर मुजरिमों की तरह झुक जाते हैं। काम करते हुए बार-बार हम समय देखते हैं कि कब बारह घण्टे खत्म हों, कब मुक्ति मिले। मगर ये मुक्ति ज्यादा देर नहीं रहती। अगली सुबह फिर जेल। अपराधियों को बड़े-बड़े जुर्म के लिए भी दस-बीस साल की जेल होती है, लेकिन हम लोगों की पूरी ज़िन्दगी इन जेलों में निकल जाती है जिन्हें लोग फैक्ट्री कहते हैं, और वह भी बिना किसी गुनाह के!