गौरक्षा का गोरखधन्धा – फ़ासीवाद का असली चेहरा

वारुणी पूर्वा

“जब पहली बार सुना कि साथी क़त्ल किये गये तो दहशत के नारे बुलन्द हुए, फिर सैकड़ों क़त्ल हुए, फिर हज़ारों, और फिर जब क़त्ल करने की सीमाएँ नहीं रहीं, तब सन्नाटे की चादर तन गयी। जब तकलीफें़ बारिश की तरह आयें, तब कोई नहीं पुकारता – ‘थम जाओ, रुक जाओ!’ जब जुर्म के ढेर लग जायें तो जुर्म नज़रों से छुप जाते हैं!”

– बेर्टोल्ट ब्रेष्ट

पहले अख्लाक़, फिर अबु हनिफ़ा, फिर आर. सूरज, फिर अलीमुदीन अंसारी, जुनैद, पहलु ख़ान……न जाने कितने और! 2017 के साल के पहले 6 महीने में क़रीब 20 गौरक्षा से सम्बन्धित हमलों की रिपोर्टें सामने आयीं, जो 2016 के साल के आँकड़ों से भी 75 फ़ीसदी ज़्यादा है! इन हमलों में मॉब लिंचिंग, गौरक्षकों द्वारा हमले, हत्या व हत्या की कोशिशें, उत्पीड़न और यहाँ तक की कुछ मामलों में सामूहिक बलात्कार जैसे नृशंस अपराधों को अंजाम दिया गया है! जून 2017 तक मॉब लिंचिंग (भीड़ द्वारा हत्या) की जो भी घटनाएँ सामने आयी हैं, उनमें गाय सम्बन्धी हिंसा के प्रतिशत में एक आश्चर्यजनक वृद्धि देखने को मिली (जो पहले 5 प्रतिशत थी लेकिन जून के अन्त तक यह बढ़कर 20 प्रतिशत हो गयी।) यदि हम ग़ौर से देखें तो उस हिंसक भीड़ के पीछे हमें एक सुनिश्चित विचारधारा और राजनीति दिखाई देती है। यह महज़ कोई क़ानून-व्यवस्था की समस्या नहीं है! बल्कि 2014 के बाद से जिस आश्चर्यजनक रूप से मॉब लिंचिंग की घटनाओ में वृद्धि हुई है और जिस प्रकार ज़्यादातर मामलों में मुस्लिमों व दलितों को टारगेट किया गया है, इससे साफ़ दीखता है कि आरएसएस व तमाम फ़ासिस्ट गुण्डा वाहिनी एक सुव्यवस्थित व्यापक प्रचार द्वारा लोगों के बीच एक मिथ्या चेतना का निर्माण कर रही है और उनके सामने एक नक़ली दुश्मन पेश कर एक विशेष धर्म, जाति, नस्ल या राष्ट्र के खि़लाफ़ ज़हर फैलाने का काम कर रही है। और सत्ता में बैठी भाजपा सरकार ने इन फ़ासिस्ट गुण्डा वाहिनियों को और खुली छूट दे दी है। अब चाहे वह गाय की रक्षा का मुद्दा हो या लव जेहाद का धर्मान्तरण का – इनके नाम पर जो भीड़ हिंसा का ख़ूनी खेल खेल रही है, वह दरअसल फ़ासिस्ट ताक़तों की राजनीति है!

फोटो साभार – http://indianculturalforum.in/2017/07/14/in-the-name-of-cow-lynching-and-more-lynchings/

हालाँकि यह बिकी हुई कॉरपोरेट मीडिया यह प्रचारित करने में लगी है कि मॉब लिंचिंग की घटनाएँ पहले भी होती रही हैं और इसका भाजपा सरकार से कोई लेना-देना नहीं है। हम इससे इनकार भी नहीं कर रहे कि पहले ऐसी घटनाएँ नहीं हुई हैं, पर सोचने वाली बात है कि क्यों 2010 से लेकर अभी तक जितनी भी गौ-हत्या से सम्बन्धित हमलों में मौतें हुई हैं, उनमें से 86% मुस्लिम हैं और उसमें भी 96.8% ऐसे हमले 2014 के बाद हुए हैं! क्यों 63 में से 32 ऐसी घटनाएँ भाजपा-शासित राज्यों में घटित हुई हैं? इण्डिया-स्पेण्ड की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ पिछले 7 साल के दौरान ऐसी मॉब लिंचिंग की घटनाओं में क़रीब 28 लोगों की मौत हो चुकी है, जिसमें से 24 लोग मुस्लिम थे! और इन हमलों में आधे से अधिक (52%) हमले अफ़वाहों पर आधारित थे! इण्डिया-स्पेण्ड रिपोर्ट में यह भी बात दिखाई गयी कि पिछले 8 सालों में 63 ऐसे हमलों में 61 हमले 2014-2017 के बीच हुए हैं और ऐसे हमलों में 5% मामलों में हमलावरों की गिरफ़्तारी की कोई रिपोर्ट नहीं सामने आयी है! उलटे 13 घटनाओं (यानी 21%) में पुलिस ने पीड़ितों के खि़लाफ़ मुक़दमा दायर किया है! और यह पाया गया है कि इनमें से 23 घटनाओं में विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल और स्थानीय गौ-रक्षक समिति जैसे हिन्दू-कट्टरपन्थी फ़ासिस्ट समूह सक्रिय थे।

ऐसी घटनाओं पर सरकार की चुप्पी व निष्क्रियता से इन फ़ासीवादी ताक़तों को बढ़ावा मिल रहा है! मॉब-लिंचिंग की बढ़ती घटनाओं को देखते हुए जब पूरे देश-स्तर पर ‘नॉट इन माय नेम’ के बैनर तले विरोध-प्रदर्शन होने लगे, तब प्रधानमन्त्री मोदी को अपनी चुप्पी तोड़ने पर मजबूर होना पड़ा, उन्होंने इसका विरोध तो किया लेकिन बड़े दबे स्वर में! दूसरी तरफ़ भाजपा के तमाम नेता-मन्त्री के ऐसे बयान कि “मुस्लिमों को मुस्लिम बने रहने के लिए गौ-मांस खाना ज़रूरी नहीं! गोमांस खाना बन्द करने के बाद भी वे मुस्लिम हो सकते हैं। यह कहीं नहीं लिखा है कि मुसलमानों या ईसाइयों को गोमांस खाना ही पड़ता है!” – यह थे हरि‍याणा के मुख्यमन्त्री मनोहर लाल खट्टर के शब्द! दूसरी तरफ़ भाजपा सांसद सत्यपाल सिंह द्वारा दादरी हत्याकाण्ड को मामूली घटना क़रार देना या भाजपा सांसद साक्षी महाराज का यह बयान कि अगर कोई उनकी माँ को मारने की कोशिश करता है, तो वे चुप नहीं रहेंगे। वे हत्या करने और मारने के लिए तैयार हैं! ये सारी चीज़ें यही दर्शाती हैं कि वर्तमान सरकार द्वारा गौ-रक्षा पर की जा रही राजनीति का समर्थन इस तरह के उन्मादी समूहों को बढ़ावा दे रहा है। ये हिन्दुत्ववादी-फ़ासीवादी ताक़तें मॉब-लिंचिंग के ज़रिये आतंक पैदा करके धार्मिक अल्पसंख्यकों व दलितों को ऐसा दोयम दर्जे का नागरिक बना देना चाहते हैं, जिनके लिए क़ानून और जनवादी अधिकारों का कोई मतलब न रह जाये।

फ़ासिस्ट ताक़तों की गाय पर की जा रही राजनीतिक सवारी का इतिहास

साम्प्रदायिक ताक़तों द्वारा गौ-रक्षा के मुद्दे को हमेशा से उछाला जाता रहा है। स्वतन्त्र भारत में आरएसएस ने बार-बार गौ-मांस प्रतिबन्धी क़ानून के मुद्दे को एक जन-अभियान के रूप में उठाया है। राम मन्दिर के मुद्दे से भी पहले इस मुद्दे पर ज़ोर दिया गया था, लेकिन 1980 तक इस पर लोगों की कोई ख़ास प्रतिक्रिया देखने को नहीं मिली। गाय काफ़ी समय से एक राजनीतिक सवारी के रूप में इस्तेमाल की जाती रही है और कई बार हिन्दू-मुस्लिम दंगे का कारण बनी है। गाय पर राजनीतिक सवारी का इतिहास हम तब से पाते हैं, जब दयानन्द सरस्वती द्वारा 1882 में गौरक्षिनी सभा का निर्माण किया गया और सभा की सक्रियता के बाद से 1880 व 1890 में भारत कई जगह दंगों की चपेट में आया। अंग्रेज़ी हुकूमत इस प्रकार की चीज़ों को और बढ़ावा देने का काम कर रही थी!

गौरक्षा का मुद्दा संविधान निर्माण के दौरान भी उठाया गया। केन्द्रीय स्तर पर पूर्ण रूप से गौमांस प्रतिबन्धी क़ानून बनाने की माँग एम.पी. सेठ गोविन्द दास व पण्डित ठाकुर भार्गव ने की थी व उन्होंने माँग की कि इस मुद्दे को संविधान में निर्देशक सिद्धान्तों के बजाय मूलभूत अधिकारों में शामिल किया जाये। परन्तु यह बात बहुमत को स्वीकार्य नहीं थी। अन्त में संविधान के अनुच्छेद 48 के अन्तर्गत यह बात शामिल की गयी कि ‘राज्य आधुनिक और वैज्ञानिक लाइनों पर कृषि और पशुपालन को व्यवस्थित करने का प्रयास करेगा और विशेष रूप से गायों व बछड़ों सहित अन्य दुग्ध पशुओं व उनकी विभिन्न नस्लों के सुधार के लिए क़दम उठायेगा व उनकी हत्याओं पर रोक लगायी जायेगी।’ गौ-हत्या पर पूर्ण पाबन्दी की संवैधानिक गारण्टी नहीं मिलने पर, कई राज्यों ने अन्य क़ानूनों द्वारा गौ-हत्या का अपराधीकरण कर, इसका विकल्प ढूँढ़ निकाला।

कार्टुनिस्ट – तन्मय त्यागी

आगे चलकर संघ परिवार ने इस मुद्दे की ‘अहमियत’ पहचानते हुए पूर्ण रूप से गौहत्या पर प्रतिबन्ध लगाने की माँग को लेकर लोगों को ‘लामबन्द’ करना शुरू किया। पहला क़दम गौरक्षा आन्दोलन के रूप में 1966 में शुरू हुआ। आगे 7 नवम्बर 1966 में गौरक्षा समूहों द्वारा दिल्ली में एक बड़ा विरोध-प्रदर्शन का आयोजन किया गया, जिसमें प्रभुदाम ब्रह्मचारी, एम.एस. गोलवलकर, सेठ गोविन्द दास, दिग्विजय नाथ भी शामिल थे। गौरक्षक दलों के अलावा हज़ारों की संख्या में साधू जुटे थे व साथ ही इस प्रदर्शन में राम राज्य परिषद, विश्व हिन्दू परिषद और आरएसएस के सदस्य भारी मात्रा में शामिल थे। इस प्रदर्शन के दौरान गाय के वध पर प्रतिबन्ध लगाने की माँग करने वाले हज़ारों लोगों ने संसद पर हमला कर दिया। पुलिस और प्रदर्शनकारियों की मुठभेड़ में एक पुलिसकर्मी सहित 8 लोग मारे गये। इसके बाद 1967 में इन्दिरा गाँधी ने इस मुद्दे पर एक कमिटी गठित की, जिसमें अशोक मित्र (अर्थशास्त्री) व डॉक्टर वी. कुरियन के साथ आरएसएस के सरसंघचालक गोलवलकर भी शामिल थे। इस कमिटी को अपनी रिपोर्ट 6 महीने में सौंपनी थी, पर इस पर आगे कोई कार्यवाही नहीं की गयी। इस आन्दोलन से संघ परिवार को कुछ विशेष हासिल नहीं हो सका। इसके बाद भी संघ परिवार इस मुद्दे को लेकर सक्रिय रहा। इस दौरान ‘पवित्र गाय’ को लेकर कई तरह के मिथक गढ़े गये, जिसने लोगों के दिमाग़ में ज़हर घोलने का काम किया। इस पर हम लेख के आगे के भाग में चर्चा करेंगे कि किस प्रकार आरएसएस व संघ परिवार ने एक विशेष धर्म के लोगों को अपना निशाना बनाया।

गौ संरक्षण क़ानूनों में बदलाव 1977-79 के काल में हुआ, जब जनता पार्टी सत्ता में आयी, जिसमें भारतीय जन संघ भी शामिल था। गोवा, दमन व दियू और हिमाचल प्रदेश में गौहत्या प्रतिबन्ध क़ानून जनता पार्टी की सरकार के कार्यकाल के दौरान आया। दिल्ली में पहली बार 1994 में मदनलाल खुराना की अगुवाई वाली भाजपा सरकार के तहत गौमांस रखना या खाना आपराधिक श्रेणी में लाया गया। गुज़रात में 2005 में मोदी सरकार के निर्णय के चलते, सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के सौजन्य से, गौमांस रखने व पशु वध करने पर पूरी तरह से प्रतिबन्ध लगा दिया गया था, अब चाहे वे बेकार गायें ही क्यों न हो! (लेकिन अगर हम संविधान के अनुसार चलें तो अनुच्छेद 48 – ‘आधुनिक व वैज्ञानिक तर्ज पर पशुपालन को बढ़ावा देने’ व ‘उनकी नस्ल संरक्षण व सुधार’ की बात करता है – और गौहत्या पर पूर्ण प्रतिबन्ध इस ‘आधुनिक’ पशुपालन के लक्ष्य के आड़े आता है, क्योंकि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से बूढ़ी-बीमार गाय जो दुधारू व प्रजनन लायक नहीं रह गयीं, को मारना, पशुपालन और नस्ल सुधार का एक महत्वपूर्ण तरीक़ा है। ऐसे में गौहत्या पर पूर्ण प्रतिबन्ध संवैधानिक रूप से जायज़ नहीं ठहरता।)

आरएसएस सम्बन्धित कट्टरपन्थी हिन्दू संगठनों द्वारा गौहत्या पर अखिल भारतीय प्रतिबन्ध व गौहत्या के लिए कड़ी से कड़ी सज़ा की माँग ज़ोर पकड़ने लगी थी। इन गौरक्षा आन्दोलनों के पीछे यह तर्क दिया जा रहा था कि भारत में गौहत्या पर रोक लगाने के लिए कोई क़ानूनी ढाँचा मौजूद नहीं है! जोकि एकदम झूठ बात थी! गौहत्या पर क़ानूनी पाबन्दी कोई नयी बात नहीं थी! उत्तर-पूर्व राज्यों को छोड़कर, अन्य सभी राज्यों में इस प्रकार के प्रतिबन्ध लम्बे समय से मौजूद हैं – उदाहरण के लिए दिल्ली, आन्ध्र प्रदेश व बिहार में ‘गाय व बछड़ों’ का काटा जाना पूरी तरह प्रतिबन्धित है। लेकिन विभिन्न राज्यों के क़ानूनों में ‘गौमांस’ की परिभाषा एक समान नहीं है व प्रतिबन्ध का चरित्र भी अलग है। कई राज्य हैं जो अपने क़ानूनों में उपयोगी पशु और बेकार पशुओं के बीच अन्तर करते हैं। महाराष्ट्र में 1976 तक गाय की हत्या व गाय का मांस प्रतिबन्धित था, लेकिन यह क़ानून 1995 में बदल दिया गया और महाराष्ट्र एनिमल प्रिज़र्वेशन (अमेण्डमेण्ट) बिल के तहत भैंस और बैल के मांस को भी प्रतिबन्धित श्रेणी में ले आया गया, पर नर भैंसों को मारने पर पाबन्दी नहीं थी। गोवा व आन्ध्र प्रदेश में ‘गाय’ की परिभाषा में दुधारू गाय व गाय के पुरुष व मादा बछड़े आते हैं। कुछ राज्यों जैसे कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, गोवा व मध्य प्रदेश में 12-15 वर्ष से अधिक आयु के पशु या दूध व प्रजनन के लिए अयोग्य वयस्क भैंसों व बैलों को ‘फिट फ़ॉर स्लॉटर’ सर्टिफि़केट लेकर मारने की इजाज़त है। असम, केरल, कर्नाटक और बंगाल में ‘फिट फ़ॉर स्लॉटर’ सर्टिफि़केट लेकर केवल बैल या भैंस ही नहीं बल्कि गाय मारने की भी अनुमति है। अरुणाचल प्रदेश, मिज़ोरम, मेघालय व नागालैण्ड में इससे सम्बन्धित कोई क़ानून नहीं है।

लेकिन संघ परिवार इन क़ानूनों से सन्तुष्ट नहीं था और वे जानते थे कि कट्टरपन्थियों के लिए कड़े प्रतिबन्ध की माँग का मतलब है छापा मारने, गिरफ़्तारियाँ करवाने और अल्पसंख्यक ख़ास तौर पर मुसलमानों, दलितों, अनुसूचित जनजातियों के खि़लाफ़ संगठित हिंसा के दरवाज़े खोलता। और यही उन्होंने किया भी! इसी मुद्दे को 2014 के चुनाव में भाजपा ने एक बड़ा मुद्दा बनाया। इसी को अमल में लाते हुए मार्च 2015 में महारष्ट्र व हरियाणा में गौहत्या प्रतिबन्ध क़ानूनों को पारित करने व उनमें संशोधन करने का सिलसिला शुरू हुआ। इस बार गौहत्या के इन क़ानूनों में जो नयी बात थी, वह है सज़ा व जुर्माने में की गयी वृद्धि! पहले हरियाणा में गौहत्या के लिए अधिकतम सज़ा 5 साल या 5 हज़ार रुपये का जुर्माना या दोनों थे। लेकिन नये क़ानून में न्यूनतम सज़ा तीन वर्ष का कठोर कारावास, जोकि दस साल तक बढ़ाया जा सकता है व तीस हज़ार रुपये से लेकर एक लाख रुपये तक जुर्माने का प्रावधान है। गाय की परिभाषा के तहत बैल, भैंस, गाय व बछड़ा और बूढ़ी व बीमार गायें भी शामिल हैं। वहीं गुज़रात में 2011 में जो क़ानून सात साल की जेल व 50,000 रुपये जुर्माने का प्रावधान देता था, वह 2017 में एक नया बिल पास होने के बाद कम-से-कम 10 साल की सज़ा और ज़्यादा-से-ज़्यादा आजीवन कारावास तक का प्रावधान कर दिया गया है और जुर्माने की क़ीमत 1-5 लाख तक कर दी गयी है! गुज़रात के हालिया संशोधन से पहले, जम्मू-कश्मीर में गौहत्या का सबसे कठोर दण्ड का प्रावधान था। महाराष्ट्र एनिमल प्रिज़र्वेशन एक्ट 1976 में भी इसी प्रकार की सज़ा व जुर्माने का प्रावधान था, जो अब 5 से बढ़कर 10 साल कारावास कर दिया गया है। विडम्बना की बात यह है कि अब गौहत्या की सज़ा की अवधि बलात्कार जैसे संगीन अपराधों की अवधि (7 साल) से भी अधिक है!

और इन सबसे काम न चला तो इस साल के मई महीने में मोदी सरकार ने प्रिवेंशन ऑफ़ क्रुएल्टी टू एनिमल्स एक्ट 1960 में एक नये क्लॉज़ को जोड़ा, जिसके तहत पूरे देश में गाय केवल कृषि प्रयोजनों के लिए बेची जा सकती हैं, न कि वध करने के लिए। नये क़ानून में यह भी कहा गया है कि योग्य, पुरानी या अयोग्य गायों को बेचा नहीं जा सकता है। इस नये नियम में ‘मवेशियों’ में बैल, गाय, भैंस, स्टीयर, हेइफ़र्स और बछड़ों सहित ऊण्ट भी शामिल हैं। साथ ही रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि जानवरों के बाज़ार, जो आमतौर पर सीमा के पास अधिकांश राज्यों में आयोजित होते हैं, को अब स्थानान्तरित किया जाना चाहिए क्योंकि नये नियमों ने उन्हें अन्तरराष्ट्रीय सीमा के 50 किलोमीटर और राज्य सीमा के 25 किलोमीटर में प्रतिबन्धित कर दिया है। गाय के संरक्षण के लिए लागू किया गया यह पहला केन्द्रीय विनियमन है!

ऐसे क़ानूनों ने हिन्दुत्व गिरोह के शासन वाले राज्यों में एक होड़ पैदा कर दी है। गौरक्षा के मुद्दे को क़ानूनी जामा पहनाकर भाजपा गौरक्षक दलों को गाय पर ताण्डव करने की खुली छूट देने का काम कर रहा है। 2011-14 के बीच गुज़रात में ऐसे गौरक्षक दलों की संख्या में काफ़ी बढ़ोतरी देखने को मिलती है। सरकारी वेबसाइट गौसेवा व गौचर विकास बोर्ड के अनुसार गुज़रात की मोदी सरकार ने 1,394 गौरक्षकों को 75 लाख रुपये इनाम में दिये थे। उनकी सरकार ने कई कि़स्म की योजनाएँ लागू कीं, जिससे इस प्रकार के गौरक्षक दल और फलने-फूलने लगे, उदाहरण के तौर पर पशु तस्करों के खि़लाफ़ हर एफ़आईआर कराने वाले को 500 रुपये का नक़द इनाम। वेबसाइट के अनुसार गौसेवा व गौचर विकास बोर्ड (जोकि पशुपालन विभाग के तहत स्थापित किया गया एक सरकारी बोर्ड है) का मुख्य काम गौरक्षक दलों के साथ मिलकर ऐसे तमाम तस्करों का पर्दाफ़ाश करना था। और अब हरियाणा में बैठी खट्टर सरकार भी कुछ ऐसे ही काम कर रही है!

एक तरफ़ भाजपा ने क़ानूनी जामा पहनाकर कट्टरपन्थी ताक़तों के लिए संगठित हिंसा के दरवाज़े खोल दिये हैं और दूसरी तरफ़ आरएसएस और ये तमाम फ़ासिस्ट ताक़तें कई प्रकार के कैडर-आधारित ढाँचों व मीडिया और अपने प्रचार तन्त्र के ज़रिये ज़मीनी स्तर पर लगातार लोगों के बीच एक ऐसी ‘मिथ्या चेतना’ का निर्माण कर रहे हैं जो भीड़ के रूप में हिंसा का खेल खेल रही है। ‘पवित्र गाय’ के मामले में ऐसे ही कई प्रकार के झूठ का प्रचार संघ जगह-जगह फैला रहा है, जैसेकि यह कि सभी हिन्दू गौहत्या और गौमांस के सेवन के खि़लाफ़ हैं या हिन्दू संस्कृति और परम्परा ने हमेशा से गौहत्या को अपवित्र माना है। यह बात सही है कि हिन्दुओं में कुछ जाति और समुदाय गाय को पूज्य और गौहत्या को निकृष्ट मानते हैं, लेकिन यह भी सच है कि यह मत आज या पहले के दौर में, भारत में रह रहे सभी हिन्दू समुदायों और जातियों का नहीं रहा है।

संघ परिवार का ‘पवित्र’ गाय का मिथक

संघ परिवार द्वारा फैलाया जा रहा पहला झूठ यह है कि हिन्दू संस्कृति ने हमेशा से गौहत्या को निकृष्ट माना है। संघ ने भारत में गौमांस खाने की प्रथा को इस्लाम के आने के साथ जोड़ने की कोशिश की है (ध्यान देने योग्य बात है कि मुगल सम्राट बाबर, अकबर, जहांगीर और औरंगजेब ने जैन और ब्राह्मण्यपूर्ण संवेदनाओं को समायोजित करने के लिए गौहत्या पर प्रतिबन्ध लगाया था) और गौमांस के सेवन को मुस्लिम समुदाय के पहचान-चिन्ह के साथ जोड़ने का प्रयास लगातार करते रहे हैं। और लोगों के बीच यह झूठ फैलाने का काम संघ बख़ूबी कर रहा है कि मुस्लिम समुदाय में गौमांस खाने की प्रथा इसलिए शुरू की गयी है, क्योंकि मुसलमान हमेशा हिन्दू संस्कृति के विरुद्ध जाते हैं और हिन्दू संस्कृति ने आदि काल से गाय को पवित्र व गौहत्या को निकृष्ट व पाप समझा है!

भारत में इस्लाम के आने से काफ़ी समय पहले से ही गौमांस खाने की प्रथा का प्रचलन था। प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में पर्याप्त सबूत मौजूद हैं जो यह साबित करते हैं कि गौमांस खाने की प्रथा भारत में कई शताब्दियों से प्रचलित रही है। वैदिक काल में [लगभग 800-1500 ई.पू.] भारत में ‘पवित्र’ गाय जैसी कोई अवधारणा मौजूद नहीं थी। वैदिक आर्यों द्वारा धार्मिक कर्मकाण्ड में अक्सर गाय की बलि चढ़ाई जाती थी। इस विषय पर डी.एन. झा की पुस्तक ‘द मिथ ऑफ़ द होली काऊ’ में काफ़ी विस्तृत चर्चा की गयी है व तथ्यों के साथ यह साबित किया गया है कि हिन्दू संस्कृति ने हमेशा से गौहत्या को निकृष्ट नहीं माना है।

इसके भाषाई व पुरातात्विक स्रोत मौजूद हैं कि वैदिक काल में पशुओं की बलि चढ़ाई जाती थी, जिसे ‘पासुबन्ध्थ’ कहा जाता था। ऋग्वेद में अक्सर देवताओं द्वारा बैल की बलि चढ़ाए जाने की बात की गयी है। ऋग्वेद में एक जगह ‘इन्द्र’ जोकि वैदिक देवताओं में सबसे पूजनीय थे, यह कहते हैं कि ‘वे मेरे लिए 15 से अधिक बैलों की बलि चढाते थे’। ऋग्वेद के ही अनुसार, ‘अग्नि देवता’ का भोजन बैल व बंजर गायें थीं। एक अध्याय में यह बात आयी है कि मृतकों के दाह-कार्य के दौरान शरीर को जलने से बचाने के लिए गाय के मांस का प्रयोग किया जाता था। उत्तर वैदिक काल में भी पशु वध प्रचलित था। ‘मित्र’ व ‘वरुण’ को गाय की बलि चढ़ाने का ज़िक्र हमें उत्तर वेदिक ग्रन्थों में मिलता है। और ज़्यादातर यज्ञों जैसे अश्वमेध यज्ञ या राजसूय यज्ञ में जानवरों की बलि चढ़ाई जाती थी, जिसमें ख़ासतौर पर गाय, बैल व भैंस शामिल थे। अग्नेय्द्याय एक प्रथा थी, जो किसी भी सार्वजनिक बलि प्रथा से पहले की जाती थी और उसमें गाय की बलि चढ़ाना अनिवार्य माना जाता था। शतपथ ब्राह्मण सहित कई वैदिक ग्रन्थों ने यह घोषित किया कि मांस सबसे अच्छे प्रकार का भोजन है। महाभारत में रन्तिदेव नाम के एक राजा का उल्लेख है जो ब्राह्मणों में खाद्य वस्तु और बीफ़ वितरित करने के लिए प्रसिद्ध था। मनुस्मृति में भी मांस खाने पर कोई रोक नहीं है। देवताओं व मेहमानों के सम्मान में मांस का सेवन प्रचलित था, हालाँकि आम मौक़ों पर मांस खाना सही नहीं माना जाता था। पुराण (जिसका संकलन ईसाई सदियों से लेकर अठारहवीं शताब्दी तक किया गया था) में भी इसी प्रकार के कई साक्ष्य मिलते हैं। उस दौरान भी मांस खाने पर कोई प्रतिबन्ध नहीं था। यद्यपि नाराद्यमः पुराण में मेहमानों के सम्मान में की जाने वाली गौहत्या (जोकि काफ़ी प्रचलित प्रथा थी) पर रोक थी, पर वह भी एक अस्वीकृति से अधिक कुछ नहीं था।

बौद्ध ग्रन्थों में यह पाया गया है कि बुद्ध के काल के दौरान भी गौमांस खाना प्रचलित था। हालाँकि बुद्ध ख़ुद पशु हत्या के खि़लाफ़ थे। लेकिन धार्मिक कर्मकाण्डों में पशुवध एक प्रचलित प्रथा थी। पहली सहस्राब्दी के बीच धर्मशास्त्रों में गौहत्या के प्रति अस्वीकृति देखने को मिलती है। इसके पीछे का कारण है मध्ययुगीन काल में ग्रामीण व्यवस्था में हुए कई परिवर्तन – जब अप्रत्याशित रूप से कृषि में विस्तार हुआ और व्यापार संकुचित होने लगा! कृषि जो पहले सिर्फ़ वैश्यों का व्यवसाय मानी जाती थी, अब उन्हीं तक सीमित नहीं रही। पुजारियों को भूमि दान दिया जाने लगा था व कृषि का पेशा अन्य जाति, जिसमें ब्राह्मण जाति भी शामिल थी, अपनाने लगी। इस प्रकार कृषि व पशुपालन इकॉनमी में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने लगे। और अब वैदिक बलिदान की प्रथा के बदले ज़मीन या पशु दान करने की प्रथा प्रचलन में आयी, जिस कारण पशु वध को रोकने के लिए पशुहत्या को निकृष्ट मानने की मानसिकता बैठाई जाने लगी व उस पर रोक लगाने की बात हुई। पर इस काल के दौरान भी कई जगह धार्मिक कार्यों के लिए पशुवध व गौहत्या के सबूत मिलते हैं। और इस दौरान भी गौहत्या को दण्ड की श्रेणी में नहीं रखा गया था।

इस प्रकार हम देखते हैं कि कैसे गौहत्या प्राच्य काल से हिन्दू संस्कृति में निकृष्ट नहीं माती गयी है। यहाँ तक कि मनुस्मृति व पुराणों में इसके बिलकुल उलट बात की गयी है। और बाद के वक़्तों में भी इस पर रोक तो लगायी गयी थी, लेकिन फिर उसका उल्लंघन करने पर कोई दण्ड का प्रावधान नहीं था! इस पर ज़्यादा विस्तार से जानने के लिए ऊपर उल्लेखित डी.एन. झा की किताब पढ़ी जा सकती है।

आज भी सिर्फ़ मुसलमान ही गौमांस नहीं खाते, बल्कि हिन्दू धर्म में भी कई जातियाँ गौमांस खाती हैं। केरल में 72 ऐसी जातियाँ हैं, जिनमें से कई हिन्दू भी हैं, जो गौमांस खाती हैं। और इसके अलावा कई निचली कही जाने वाली जातियाँ गौमांस खाती हैं। आमतौर पर दलित, आदिवासी और शुद्र समुदाय के निचले तबक़े मांस खाते हैं। और गौमांस के अपेक्षाकृत प्रोटीन का सबसे सस्ता स्रोत होने के कारण वे इस पर निर्भर हैं। यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि भारत दुनिया में गौमांस खाने वाले देशों में सातवें स्थान पर है।

गौमांस प्रतिबन्ध क़ानून के आर्थिक व सामाजिक परिणाम

2014 में चुनाव के वक़्त ही गौमांस प्रतिबन्ध लागू करवाना भाजपा के प्रमुख मुद्दों में से एक मुद्दा था। मोदी सरकार का पिंक रेवोलियुशन पर रोक लगाने का यह तर्क देना कि यह “गायों का विनाशकारी वध” का कारण बन रहा है, बिलकुल झूठ बात साबित हुआ – 2012 में मवेशियों की जनगणना से पता चलता है कि भारत में गायों की संख्या में 6.2 प्रतिशत की वृद्धि हुई है! यह शायद ही गायों के बड़े पैमाने पर वध करने का संकेत देता है! उलटे ख़ुद भाजपा के शासनकाल में बीफ़ का निर्यात 23% रहा था। भारत ने 2.4 करोड़ टन भैंस के मांस को 2014-15 में 65 देशों में निर्यात किया, यह 30,000 करोड़ रुपये था, जो भारत के कुल निर्यात का 1% हिस्सा था – “पिंक रिवोल्यूशन” का हिस्सा! गौरक्षा का ढोल पीटने वाली भाजपा, जिसने हरियाणा, गुज़रात व महाराष्ट्र में गौरक्षा क़ानूनों में बदलाव कर सज़ा व जुर्माने में वृद्धि की, अब मेघालय के विधानसभा चुनावों को देखते हुए वहाँ पर बीफ़ को सस्ता करने की बात कर रही है!

वैसे तो पहले से ही भाजपा शासित राज्यों में गौमांस प्रतिबन्ध क़ानून में बदलाव ने बीफ़ उद्योग और चमड़े के उद्योग को काफ़ी नुक़सान पहुँचाया है।  मई में भाजपा सरकार ने केन्द्रीय स्तर पर प्रिवेंशन ऑफ़ क्रुएल्टी टू एनिमल्स एक्ट 1960 में एक नये क्लॉज़ को जोड़ दिया (जिसके अनुसार उन्हीं मण्डियों में जानवरों की ख़रीद-बिक्री होगी, जो रजिस्टर्ड हैं और उसमें भी गाय केवल कृषि प्रयोजनों के लिए बेची जा सकती हैं, न कि वध करने के लिए), तो इससे निर्यात, रोज़गार व बीफ़ उद्योग और चमड़े के उद्योग बड़े स्तर पर प्रभावित हुए हैं। जब भारत सरकार ने 23 मई को ‘असाधारण’ अधिसूचना जारी की व पशु बाज़ारों में मारे जाने के लिए पशुओं की बिक्री पर रोक लगायी तो इसका सबसे ज़्यादा असर मांस उद्योग पर देखने को मिला जो अपनी आपूर्ति का 90% हिस्सा इन्ही मण्डियों से पाता है। साथ ही चमड़े के उद्योग को भी कच्चे माल की आपूर्ति न होने के कारण भारी नुक़सान उठाना पड़ रहा है। एक ऐसा उद्योग जिसमें 2006 से 2011 तक 8.2 प्रतिशत की संचयी वार्षिक वृद्धि दर देखी गयी। लेकिन अब निर्यात में तेज़ गिरावट आयी है। यह उद्योग 25 लाख लोगों को रोज़गार प्रदान करता है, उनमें से अधिकांश अनुसूचित जाति हैं। करीब आठ लाख दलित मृत मवेशियों की त्वचा के कारोबार पर जीते हैं पर अब हिन्दुत्व ब्रिगेड द्वारा अफ़वाहों के बल पर बढ़ती मॉब लिंचिंग की घटनाओं के कारण न सिर्फ़ दलित बल्कि इस उद्योग के साथ जुड़े ठेकेदारों, ट्रक चालक, व्यापारी और अन्य सभी बड़ी मात्रा में प्रभावित हुए हैं। चमड़े का उत्पादन करने वाली छोटी फै़क्ट्रि‍याँ जो मुख्यतः दलितों को इस काम के लिए नियुक्त करती थीं, अब उन्हें काम से निकाल रही हैं। और घरेलू स्तर पर इस उद्योग में काम करने वाले लोगों की आजीविका भी ख़तरे में है। दूसरी तरफ़ सरकार ने गाय/बैल के चमड़े को शून्य प्रतिशत ड्यूटी पर आयात की अनुमति दे दी है।

वहीं दूसरी तरफ़ यह किसानों की भी दुर्दशा का कारण बन रहा है। ज़्यादातर किसान बूढ़े व बीमार मवेशियों को ठेकेदारों को बेच देते हैं ताकि वे उस पैसे का इस्तेमाल कर नयी गायें ले सकें। अब नयी गायों को ख़रीदना तो दूर, उलटे पशुवध पर पूर्ण प्रतिबन्ध के कारण अब किसानों को मवेशियों के रखरखाव का अलग से ख़र्च (जोकि हर साल क़रीब 36,000 रुपये पड़ेगा) उठाना होगा। सरकार पहले से ही क़र्ज़ में डूबे किसानों की बात सुनने की बजाय उन पर और बोझ लादे जा रही है।

इस प्रतिबन्ध से मुस्लिम और हिन्दू दोनों ही अपनी आजीविका खो रहे हैं। वैसे तो संघ द्वारा यह प्रचार किया जाता है कि मुस्लिम ही मुख्यतः मांस का सेवन करते हैं, पर विभिन्न राज्यों में मुसलमानों की तुलना में, दलितों, आदिवासियों और अन्य पिछड़ी जातियों के समुदाय गोमांस ज़्यादा खाते हैं। एनएसएसओ के अनुमान के मुताबिक़, देश में 5.2 करोड़ लोग, मुख्य रूप से दलित और आदिवासी और विभिन्न समुदायों के ग़रीब लोग, गोमांस/भैंस का मांस खाते हैं। साफ़ है कि बीफ़ की खपत के मुद्दे को भी यहाँ वर्ग के आधार पर देखा जाना चाहिए। एक तरफ़ यह क़दम सीधे ग़रीबों को प्रोटीन पोषण के अपेक्षाकृत सस्ते स्रोत से वंचित कर रहा है, वहीं दूसरी ओर सत्ता में बैठे लोगों की मिलीभगत द्वारा समर्थित हिन्दू ब्रिगेड का यह आतंक अभियान, लाखों लोगों की आजीविका और उद्योग को पूरी तरह से मार रहा है।

मुश्किल वक़्त – गाय कमाण्डो सख्त!

इतने बड़े स्तर पर गौरक्षा का सवाल उठाने की ज़रूरत को संघ परिवार क्यों महसूस करता है? न सिर्फ़ गौरक्षा बल्कि इतिहास से देखें तो अडवानी की रथ यात्रा, बाबरी मस्जिद ध्वंस और गुज़रात 2002 और अब फ़ासीवाद के सत्ता में आने के बाद से जारी राजकीय हिंसा, राज्य-प्रायोजित दंगे, गुण्डा वाहिनियों की हिंसा, अन्धराष्ट्रवाद का ज़हर और अब मॉब-लिंचिंग की घटनाएँ! ये सब एक कड़ी के रूप में जुडी हुई हैं। लोकलुभावन जुमलेबाज़ी कर मोदी सरकार सत्ता में आ तो गयी, लेकिन 3 साल के अपने कार्यकाल के दौरान जनता के सामने में यह चीज़ साफ़ हो गयी कि भाजपा का असली मक़सद मुश्किल वक़्त से गुज़र रहे पूँजीवाद की और बेहतर तरीक़े से सेवा करना था।

 

मज़दूर बिगुल,अक्‍टूबर-दिसम्‍बर 2017


 

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