दुनियाभर में पूँजीवादी संकट के बढ़ते कहर के ख़िलाफ़ मज़दूर जुझारू संघर्ष के लिए सड़कों पर उतर रहे हैं

सत्यम

India toyota strikeपूँजीवादी व्यवस्था लाख कोशिश करके भी मन्दी की चपेट से निकल नहीं पा रही है। दरअसल इस वित्तीय संकट का कोई इलाज पूँजीवाद के पास है ही नहीं। नीम-हक़ीमों और वैद्यों ने जितने नुस्खे सुझाये हैं उनसे बस इतना होता है कि संकट नये-नये रूपों में फिर वापस लौट आता है। इन सारे नुस्खों की एक ख़ासियत यह है कि पूँजीपतियों और उच्च वर्गों को राहत देने के लिए संकट का ज़्यादा से ज़्यादा बोझ मेहनतकशों और आम लोगों पर डाल दिया जाये। इसके कारण लगभग सभी देशों में सामाजिक सुरक्षा के व्यय में भारी कटौती, वास्तविक मज़दूरी में गिरावट, व्यापक पैमाने पर छँटनी, तालाबन्दी आदि का कहर मेहनतकश आबादी पर टूटा है। पिछले दो-ढाई दशकों के दौरान पूँजीवाद के काम करने के तौर-तरीक़ों में आये बदलावों के चलते भारी मज़दूर आबादी जिस तरह खण्ड-खण्ड में बिखेर दी गयी है और असंगठित है, उसके कारण पूँजी के इन हमलों के आगे मज़दूर लाचार और बेबस-सा दिखता रहा है। लेकिन पिछले दो-तीन वर्षों में तस्वीर तेज़ी से बदल रही है।

दुनिया भर में मज़दूर इस बर्बर लूट का जमकर प्रतिरोध कर रहे हैं और अपने अधिकारों के लिए सड़कों पर उतर रहे हैं। वैसे तो संकट की शुरुआत के साथ सरकारी ख़र्च घटाने के विभिन्न क़दमों के विरोध में अमेरिका और यूरोप के अनेक देशों में व्यापक प्रदर्शनों और हड़तालों का सिलसिला शुरू हो गया था जो अब भी जारी है। लेकिन पिछले 2-3 वर्षों के दौरान तीसरी दुनिया के पूँजीवादी देशों में उभर रहे मज़दूर संघर्ष इनसे काफी अलग हैं। उन्नत पूँजीवादी देशों के मज़दूर, जो ज़्यादातर यूनियनों में संगठित हैं, मुख्यतया अपनी सुविधाओं में कटौती और रोज़गार के घटते अवसरों के विरुद्ध सड़कों पर उतरते रहे हैं। इनका बड़ा हिस्सा उस अभिजन मज़दूर वर्ग का है जिसे तीसरी दुनिया की जनता की बर्बर लूट से कुछ टुकड़े मिलते रहे थे और इसका जीवन काफी हद तक सुखी और सुरक्षित था। ग्रीस जैसे देशों की स्थिति अलग है जो पहले भी दूसरी दुनिया के देशों की निचली कतार में थे और वित्तीय संकट की मार से लगभग तीसरी दुनिया की हालत में पहुँच गये हैं। मगर भारत, China strikeबंगलादेश, पाकिस्तान और श्रीलंका से लेकर मलेशिया, इण्डोनेशिया, कोरिया, दक्षिण अफ्रीका, ब्राज़ील, मेक्सिको, चीन, क्रोएशिया आदि देशों में एक के बाद उठ रहे जुझारू आन्दोलन इन देशों के उस मज़दूर वर्ग की बढ़ती बेचैनी और राजनीतिक चेतना का संकेत दे रहे हैं जो हर तरह के अधिकारों से वंचित और सबसे बर्बर शोषण का शिकार है। बेहद कम मज़दूरी पर और बहुत ख़राब व ख़तरनाक स्थितियों में काम करने वाली यह विशाल मज़दूर आबादी तीसरी दुनिया के अधिकांश देशों में मज़दूरों के 90 प्रतिशत से अधिक है। इनका भारी हिस्सा असंगठित है और ठेका, दिहाड़ी, कैज़ुअल या पीसरेट पर काम करने वाले मज़दूरों का है। इन देशों में हो रहा पूँजीवादी विकास इसी विराट मज़दूर आबादी की हड्डियाँ निचोड़कर हो रहा है। इन्हीं मज़दूरों से चूसा गया ख़ून विकसित पूँजीवादी देशों की कम्पनियों के मुनाफ़े में ढलता है। बिखराव, संगठनविहीनता और पिछड़ी चेतना का शिकार यह मज़दूर वर्ग अब तक प्रायः कुछ रक्षात्मक संघर्षों या बीच-बीच में फूट पड़ने वाली उग्र झड़पों के विस्फोट तक सीमित रहा था। लेकिन दुनिया भर में जगह-जगह हो रहे आन्दोलन बताते हैं कि इसमें तेज़ी से अपने अधिकारों और एकजुटता की चेतना का संचार हो रहा है और यह पूँजी की ताक़तों से लोहा लेने के लिए तैयार हो रहा है। यह अलग बात है कि संघर्ष की दिशा, दूरगामी रणनीति और तैयारी के अभाव में ये आन्दोलन अभी ज़्यादा दूर नहीं जा पा रहे।

South aftrica platinum mine strikeदुनिया का शायद सबसे विशाल सर्वहारा वर्ग, चीन के मज़दूर कम्युनिस्ट नामधारी पूँजीवादी शासकों की लुटेरी नीतियों के ख़िलाफ़ लगातार लड़ रहे हैं। नयी “महाशक्ति” के रूप में उभरते चीन के विकास की कहानी दुनियाभर की बड़ी-बड़ी कम्पनियों के लिए सस्ता और भरपूर उपलब्ध श्रम मुहैया कराने की चीनी शासकों की कुशलता पर टिकी है। बीजिंग, शंघाई, ग्वांगझाउ, चेंगदू, शेनझेन जैसे दर्जनों औद्योगिक इलाक़ों में करोड़ों-करोड़ मज़दूर भारत के मज़दूरों जैसे ही हालात में काम कर रहे हैं। बेहद कम मज़दूरी और भयंकर दमघोटू माहौल में 12-14 घण्टे काम, किसी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा नहीं, दड़बे जैसे कमरों में नर्क जैसी ज़िन्दगी। अन्धाधुन्ध मुनाफ़े की हवस में सारे सुरक्षा उपाय ताक पर धरकर कराये जाने वाले उत्पादन के चलते औद्योगिक दुर्घटनाओं के मामले में चीन पूरी दुनिया में सबसे आगे है। सरकारी ट्रेड यूनियनें मज़दूरों को कठोर नियन्त्रण में रखने के औज़ार भर हैं। वैसे भारी असंगठित मज़दूर आबादी इनसे बाहर है और उसे यूनियन बनाने का अधिकार ही नहीं है। विशाल और बेहद संगठित सरकारी दमनतन्त्र के साथ ही उद्योगपतियों की निजी सुरक्षा सेनाएँ मज़दूरों को आतंकित और नियन्त्रित करने के लिए तैनात रहती हैं। कठोर सरकारी नियन्त्रण में चलने वाले मीडिया में उनकी आवाज़ नहीं के बराबर आती है। लेकिन तमाम बन्दिशों के बावजूद चीन के मज़दूर लड़ाई के रास्ते पर हैं। चाइना लेबर बुलेटिन की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2011 के मध्य से 2013 के अन्त तक चीन में मज़दूरों की 1170 हड़तालें और अन्य सामूहिक कार्रवाइयाँ हुईं। इनमें से 40 प्रतिशत से अधिक हड़तालें मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में हुईं। सीएलबी के अनुसार वास्तविक संख्या इससे कहीं ज़्यादा है। निर्माण क्षेत्र के मज़दूरों ने पिछले कुछ महीनों में ही सैकड़ों हड़तालें और विरोध प्रदर्शन किये हैं। एप्पल कम्पनी के लिए आईपैड और आईफोन बनाने वाली कुख्यात चीनी कम्पनी फॉक्सकॉन की कई फैक्टरियों में पिछले वर्ष मज़दूरों ने एक साथ की गयी हड़तालों की बदौलत कई माँगों पर कम्पनी को झुकने के लिए मजबूर कर दिया था। होण्डा की चीन स्थित कई इकाइयों के मज़दूरों ने भी एक साथ की गयी कार्रवाइयों से अपनी ताक़त दिखायी थी। इन दोनों ही मामलों में चीनी मज़दूरों ने मोबाइल और इण्टरनेट के ज़रिये एक-दूसरे से सम्पर्क और तालमेल करने का रास्ता निकाला था। इस रास्ते का इस्तेमाल अब चीनी मज़दूर बड़े पैमाने पर करने लगे हैं। पिछले दिनों चीन के कई शहरों में जूता कारख़ानों के मज़दूरों की एकजुट हड़ताल सरकार और मालिकों को कई माँगों पर झुकाने में कामयाब रही। इसमें 65,000 से अधिक मज़दूर शामिल हुए। मज़दूरों की कार्रवाइयों की सिर्फ़ संख्या और जुझारूपन ही नहीं बढ़ रहे हैं बल्कि सीएलबी के अनुसार उनमें राजनीतिक चेतना भी तेज़ी से बढ़ रही है। मज़दूरों के बढ़ते जुझारूपन का ही नतीजा है कि चीनी सरकार को एक के बाद एक कई सेक्टरों में मज़दूरी में बढ़ोत्तरी और सेवादशाओं में सुधार की घोषणाएँ करनी पड़ी हैं।

यूरोप में वित्तीय संकट की सबसे बुरी मार झेल रहे ग्रीस में मज़दूरों ने पिछले तीन वर्षों के दौरान लगभग दो दर्जन देशव्यापी आम हड़तालें करके सरकार को मज़दूरी और सामाजिक सुरक्षा में प्रस्तावित कटौतियाँ लागू करने से कई बार रोकने में सफलता हासिल की है। अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, यूरोपीय यूनियन और यूरोपीय केन्द्रीय बैंक सार्वजनिक क्षेत्र में बड़े पैमाने पर छँटनी और वेतन-भत्तों में कटौती के लिए ग्रीस की सत्ता पर लगातार दबाव डाल रहे हैं। सत्ता के दलाल यूनियन नेताओं की टालमटोल और कई बार हड़ताल से सीधे इन्कार के बावजूद मज़दूरों के भारी दबाव में उन्हें आम हड़तालों के आह्वान का समर्थन करने पर मजबूर होना पड़ा है। मज़दूरों ने स्थानीय स्तर पर स्वतन्त्र हड़ताल समितियाँ गठित करके हड़तालों को अनुष्ठानिक बना देने की नेताओं की कोशिशों को भी नाकाम कर दिया है। ग्रीस में नवनाज़ीवाद के उभार के विरुद्ध जुझारू लड़ाई में भी मज़दूर बढ़चढ़कर आगे रहे हैं। भूतपूर्व समाजवादी देशों में खुले पूँजीवाद के आने के बाद से अमीर-ग़रीब के बीच ध्रुवीकरण तेज़ी से बढ़ा है और महँगाई तथा बेरोज़गारी ने मज़दूरों की ज़िन्दगी बेहाल कर दी है। इनमें से कई देशों में भी पिछले दिनों जुझारू मज़दूर आन्दोलन हुए हैं। 44 प्रतिशत बेरोज़गारी झेल रहे बोस्निया में पिछले दिनों कई शहरों में हुए मज़दूरों के उग्र प्रदर्शनों में हज़ारों मज़दूरों ने पुलिस से मोर्चा लिया जिसमें करीब डेढ़ सौ पुलिसवाले ज़ख़्मी हो गये।

बंगलादेश में पिछले वर्ष राना प्लाज़ा की इमारत गिरने से 1100 से अधिक मज़दूरों की मौत के बाद से गारमेण्ट मज़दूरों के आन्दोलनों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। बंगलादेश में क़रीब 40 लाख मज़दूर बेहद ख़राब हालात में गारमेण्ट उद्योग में काम करते हैं। इस घटना से कुछ ही महीने पहले ढाका की एक गारमेण्ट फैक्ट्री में आग से 150 मज़दूर मारे गये थे। बंगलादेश में इस घटना से पहले पिछले 3 वर्ष में आग लगने या इमारत गिरने से 1800 से ज़्यादा गारमेण्ट मज़दूरों की मौत हो चुकी थी। राना प्लाज़ा की घटना के बाद सरकार और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की ओर से कुछ दिखावटी घोषणाओं के अलावा कोई ठोस कार्रवाई न होने से क्रुद्ध मज़दूरों ने मई दिवस के दिन देश के कई शहरों में जुझारू विशाल प्रदर्शन किये। उसके बाद सितम्बर और नवम्बर में भी गारमेण्ट मज़दूरों ने व्यापक विरोध प्रदर्शन आयोजित किये जिसके दबाव में सरकार को उनकी न्यूनतम मज़दूरी में 77 प्रतिशत बढ़ोत्तरी करनी पड़ी (हालाँकि अब भी यह बेहद कम है)। पाकिस्तान में भी गारमेण्ट मज़दूरों, रेलवे मज़दूरों और बन्दरगाह मज़दूरों के व्यापक जुझारू आन्दोलन पिछले दिनों हुए हैं।

इण्डोनेशिया, पापुआ-न्यू गिनी, फिलिप्पीन्स, मलेशिया आदि में पिछले दो वर्षों के दौरान अनेक जुझारू और लम्बे चलने वाले मज़दूर आन्दोलन हुए हैं। कम्पूचिया में जनवरी 2014 में हुए गारमेण्ट मज़दूरों के प्रदर्शनों के हिंसक दमन, जिसमें कम से कम पाँच मज़दूर पुलिस की गोली से मारे गये, के बावजूद मज़दूर संघर्षों का सिलसिला तेज़ हो रहा है। फरवरी के अन्तिम सप्ताह में 200 कारख़ानों के एक लाख से अधिक मज़दूरों ने ओवरटाइम करने से इन्कार कर दिया जो 12 मार्च को हुई आम हड़ताल तक जारी रहा। वहाँ मई दिवस के दिन भी देशभर में गारमेण्ट मज़दूरों ने बड़े और जुझारू प्रदर्शन किये। दक्षिण कोरिया में मज़दूरों के जुझारू प्रदर्शनों का सिलसिला पिछले 2-3 साल से लगातार जारी है।

दक्षिण अफ्रीका में सबसे बड़ी यूनियन, सत्तारूढ़ अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस से जुड़ी कोसाटू का चरित्र पार्टी के सत्ता में आने और पूँजीवादी विकास का रास्ता अपनाने के साथ ही बदल चुका था। इसके कई नेता तो ख़ुद कम्पनियों के मोटे शेयरधारक बन चुके हैं। मगर वहाँ मज़दूरों की भारी आबादी सत्ताधर्मी यूनियनों से अलग हटकर अपनी बेहद बुरी स्थितियों के विरुद्ध संघर्ष कर रही है। पिछले वर्ष मरिकाना प्लेटिनम खदान में 33 मज़दूरों के बर्बर हत्याकाण्ड के बाद से इसमें और तेज़ी आयी है और कोसाटू का चरित्र और नंगा हुआ है। पिछले दिनों मेटलवर्कर्स की सबसे बड़ी यूनियन भी उससे अलग हो गयी है और खदान मज़दूरों की यूनियनों तथा अन्य वाम झुकाव वाले संगठनों से साथ आने का उसने आह्वान किया है। मिस्र में जनवरी 2011 के प्रदर्शनों में भी मज़दूरों ने बढ़चढ़कर हिस्सा लिया था, हालाँकि हुस्नी मुबारक को अपदस्थ करने वाले आन्दोलन में उन्हें उचित श्रेय नहीं दिया गया। उसके बाद भी मिस्र के मज़दूर लगातार अपनी आर्थिक और राजनीतिक माँगों को लेकर संघर्षरत हैं।

भारत में भी मज़दूरों की जुझारू लड़ाइयाँ देश के अलग-अलग कोनों में फूट पड़ रही हैं। इनमें भी असंगठित मज़दूरों या बड़ी यूनियनों से स्वतन्त्र छोटी-छोटी यूनियनों के नेतृत्व में लड़ रहे मज़दूरों की संख्या अधिक है। पिछले वर्ष केन्द्रीय यूनियनों द्वारा आयोजित अनुष्ठानिक हड़ताल में भी नेताओं की उम्मीद से आगे जाकर असंगठित मज़दूरों ने नोएडा, अम्बाला आदि कई जगह उग्र और जुझारू कार्रवाइयाँ कीं। अकेले ऑटोमोबाइल सेक्टर में पिछले दो-तीन साल में देशभर में 100 से अधिक हड़तालें और उग्र सामूहिक कार्रवाइयाँ हुई हैं। गुड़गाँव और उसके आसपास के विशाल औद्योगिक क्षेत्र में मज़दूर हड़तालों, आन्दोलनों और आक्रोश के उग्र विस्फोटों का सिलसिला बर्बर दमन के बावजूद रुकने का नाम नहीं ले रहा। अपने असहनीय हालात के ख़िलाफ़ आज जगह-जगह मज़दूरों के स्वतःस्प़फ़ूर्त संघर्ष उठ रहे हैं। लेकिन इन संघर्षों में हस्तक्षेप करके उन्हें एक क्रान्तिकारी दिशा देने की कोशिश करने के बजाय अनेक क्रान्तिकारी संगठनों में इस स्वतःस्प़फ़ूर्तता का जश्न मनाने की प्रवृत्ति दिखायी दे रही है। इसके विरुद्ध संघर्ष करना भी आज बेहद ज़रूरी है।

आज पूँजीवाद के बढ़ते संकट के दौर में अपना मुनाफ़ा बनाये रखने के लिए पूँजीपति मज़दूरों की हड्डियाँ तक निचोड़ डाल रहे हैं। लेकिन मज़दूर भी अब चुपचाप बर्दाश्त नहीं कर रहे। पूरी दुनिया में सन्नाटा टूट रहा है। मज़दूर वर्ग नये सिरे से जाग रहा है। ऐसे में मज़दूर वर्ग के क्रान्तिकारी हरावलों के सामने मज़दूर आन्दोलन के क्रान्तिकारी पुनर्जागरण में जी-जान से जुट जाने की चुनौती है।

 

मज़दूर बिगुल, मई 2014

 


 

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