Category Archives: चुनावी नौटंकी

चण्डीगढ़ मेयर चुनाव: फ़ासीवादी दौर में मालिकों के लोकतन्त्र का फूहड़ नंगा नाच

चण्डीगढ़ मेयर चुनाव में सब कुछ सामने होने के बाद भी अगर सुप्रीम कोर्ट फैसला नहीं देता, तो वैसे भी व्यवस्था के पास शरीर को ढकने के लिए जो थोड़ा बहुत सूत का धागा बचा है, वो भी निकल जाता। पूँजीवादी लोकतन्त्र के खोल को बचाये रखना आज के दौर के फ़ासीवादी ख़ासियत है। इसी के साथ व्यवस्था के कुछ आन्तरिक अन्तरविरोध भी पैदा होते हैं। व्यवस्था और पूँजीपति वर्ग की दूरदर्शी पहरेदार के तौर पर न्यायपालिका के कुछ फ़ैसले मोदी सरकार के हितों के विपरीत जा सकते हैं। लेकिन इसके आधार पर अगर कोई न्यायपालिका या क़ानूनी एक्टिविज़्म के ज़रिये, संविधान की माला जपते फ़ासीवादी संघ परिवार व मोदी-शाह सरकार से टकराने का सोच रहा है तो भविष्य में उसे लगने वाला सदमा उसे पागलखाने भी पहुँचा सकता है।

ईवीएम पर भरोसा क्यों नहीं किया जा सकता!

ईवीएम मशीन में एक सोर्स कोड होता है जिसे बेहद सीक्रेट रखा जाता है क्योंकि इसका पता होने पर मशीनों में गड़बड़ करना बड़ा आसान हो जायेगा। क्या आपको पता है कि भारत में जो दो कम्पनियाँ ईवीएम बनाती हैं, उनमें से एक कम्पनी ‘भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड’ के बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स में स्वतंत्र निदेशक के रूप में भाजपा के चार पदाधिकारी और नामांकित व्यक्ति काम कर रहे हैं? पूर्व आईएएस ई.ए.एस. सरमा ने चुनाव आयोग को इस बारे में पत्र लिखकर सवाल खड़ा किया कि कम्पनी के निदेशक होने के नाते इन भाजपा नेताओं को सोर्स कोड की जानकारी होगी और उनके ज़रिये भाजपा को हो जायेगी जिसका आसानी से दुरुपयोग किया जा सकता है। लेकिन इतनी गम्भीर बात पर भी चुनाव आयोग और मोदी सरकार ने कोई जवाब नहीं दिया। ज़ाहिर है, गोदी मीडिया ने तो आपको इसके बारे में कुछ नहीं ही बताया होगा।

इलेक्टोरल बॉण्ड – पूँजीपतियों से चन्दे वसूलकर बदले में उन्हें लाखों करोड़ का मुनाफ़ा पहुँचाने का कुत्सित फ़ासीवादी षड्यंत्र

मोदी-शाह और समूचा संघ परिवार और भाजपा अपने भयंकर भ्रष्टाचार और कुकर्मों को धर्म की आड़ में छिपाते हैं। वे समूची हिन्दू आबादी के अकेले प्रवक्ता बनने का दावा करते हैं। एक ऐसा माहौल निर्मित किया जाता है, जिसमें भाजपा और संघ परिवार की आलोचना या उस पर होने वाले हर हमले को हिन्दू धर्म, हिन्दू धर्म मानने वाली जनता और “राष्ट्र” पर हमला क़रार दे दिया जाता है। उनके तमाम कुकर्म, व्यभिचार, दुराचार और भ्रष्टाचार के ऊपर एक रामनामी दुपट्टा डाल दिया जाता है। कभी मोदी को मन्दिरों में पूजा-अर्चना करते, कभी योग करते, कभी ध्यान लगाते दिखलाया जाता है और समूचा गोदी मीडिया इस छवि को निरन्तर प्रचारित-प्रसारित करता है। इसका मक़सद यह होता है कि जब भी आपके मन में उनके प्रति कोई सवाल आये, तो इस धार्मिक छवि के आभामण्डल में वह ओझल हो जाये, आप इस झूठी छवि के घटाटोप में अपना सवाल ही भूल जाते हैं। यह एक पूरा षड्यंत्र है जिसमें देश का पूँजीपति वर्ग और उसके द्वारा संचालित मीडिया हमारे देश के साम्प्रदायिक फ़ासीवादियों का साथ देता है।

चुनावों के रास्ते फ़ासीवाद की निर्णायक पराजय सम्भव नहीं – क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग ही दे सकता है जनविरोधी फ़ासीवादी सत्ता को निर्णायक शिकस्त

हमें माँग करनी चाहिए कि धर्म का राजनीतिक व सामाजिक जीवन से पूर्ण विलगाव करने वाला एक सख़्त क़ानून बनाया जाना चाहिए जिसके अनुसार कोई भी व्यक्ति यदि सार्वजनिक राजनीतिक जीवन में किसी भी धर्म का ज़िक्र भी करता है, किसी धार्मिक समुदाय के प्रति टीका-टिप्पणी करता है, मन्दिर-मस्जिद का ज़िक्र भी करता है, तो उसे तत्काल गिरफ़्तार करने और राजनीतिक जीवन से उसे प्रतिबन्धित करने का क़ानून लाया जाये। इसमें क्या ग़लत है? इसे अगर सख़्ती से लागू किया जाये तो न तो कोई संघी फ़ासीवादी हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं का सियासत में इस्तेमाल कर पायेगा और न ही कोई ओवैसी राजनीति में मुसलमानों की धार्मिक भावनाओं का इस्तेमाल और न ही कोई सिख कट्टरपंथी अमृतपाल सिख जनता की धार्मिक भावनाओं का राजनीति में इस्तेमाल कर पायेगा। ऐसा क़ानून जो धर्म को पूर्ण रूप से व्यक्तिगत मसला बना दे, इसमें क्या ग़लत है? औपचारिक क़ानूनी अर्थों में भी देखा जाये तो अगर किसी दल का राजनीतिज्ञ जनता के बीच चुनाव लड़ने ला रहा है, कोई राजनीतिक अभियान चलाने जा रहा है, तो उसका मक़सद तो हर नागरिक के लिए नौकरी, शिक्षा, इलाज, घर आदि के अधिकारों को सुनिश्चित करना है न, चाहे उसका धर्म या जाति कुछ भी हो? तो फिर ऐसा क़ानून बनना ही चाहिए जो धर्म को राजनीति से पूर्ण रूप से अलग कर दे। इसके अभाव की वजह से ही हमारे देश में बेवजह का खून-ख़राबा और सिर-फुटौव्वल खूब होता है और फ़ासीवादी कुकुरमुत्तों को उगने के लिए खाद-पानी मिलता है। ऐसे क़ानून का नारा तो मूलत: 18वीं और 19वीं सदी में पूँजीपति वर्ग ने दिया था लेकिन अपनी अभूतपूर्व पतनशीलता के दौर में वह इस सच्चे क्रान्तिकारी सेक्युलरिज़्म का नारा भूल चुका है और आज उसे पहले से भी अधिक क्रान्तिकारी रूप में व ऊँचे वैज्ञानिक स्तर पर सर्वहारा वर्ग उठा रहा है।

छह राज्यों की सात विधानसभा सीटों पर उपचुनाव के नतीजे और उनके मायने

महॅंगाई, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार और मोदी सरकार की जन विरोधी नीतियों के कारण देश के व्यापक आबादी में एक असन्तोष का वातावरण है। विधानसभा उपचुनाव के नतीजे इस तरफ संकेत कर रहा है। साथ ही यह नज़र आ रहा है कि बुर्जुआ व्यवस्था के भीतर विकल्पहीनता के दायरे में ही सही, अगर बुर्जुआ विपक्ष मोदी सरकार द्वारा बाँह मरोड़ने के प्रयासों से आतंकित नहीं हुआ और कम-से-कम 300 सीटों पर विपक्ष का एक अकेला उम्मीदवार खड़ा करने में कामयाब हुआ, तो भाजपा के लिए 2024 के चुनावों में दिक्कत पैदा हो सकती है। इसीलिए भाजपा अभी से साम्प्रदायिक दंगे व लहर फैलाने और अन्धराष्ट्रवाद फैलाने की कोशिशों में लग गयी है। जनता को सावधान रहना होगा।

लगातार बाधित संसद सत्र, जनता के टैक्स के पैसों की बर्बादी

यह किसी से छिपा नहीं है की कैसे 2014 में सत्ता में आने के बाद से ही, इस फ़ासीवादी मोदी सरकार ने, जनता के पैसों पर चलने वाले संसद से, जनता के जीवन से जुड़े मुद्दों को गायब किया है। इसका ताज़ा उदाहरण अभी मणिपुर घटना के रूप में सामने आया। मणिपुर में जो भी हुआ वह एक इन्साफपसन्द समाज के माथे पर कलंक से कम नहीं है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसकी गुण्डा वाहिनियों तथा बीजेपी सरकार द्वारा दो समुदायों के बीच दंगे कराए गए,महिलाओं को निर्वस्त्र करके घुमाया गया और सामूहिक बलात्कार किया गया। इस घटना पर प्रधानमन्त्री हमेशा की तरह चुप्पी मारकर बैठे रहे। चौतरफा आलोचना होने के बाद संसद में 2 घण्टे के अपने लम्बे चौड़े लफ़्फ़ाज़ी भरे भाषण में प्रधानमन्त्री मोदी ने मात्र 2 मिनट मणिपुर की घटना पर बात की। हालाँकि यह कोई पहली बार नहीं हुआ है। 2014 के बाद से ही संसद मोदी जी के भाषणबाजी का अड्डा बना हुआ है। इसी क्रम में बीजेपी के नेता संसद में ऐसी तमाम हरकतें कर चुके हैं जिससे, इस पार्टी का फ़ासीवादी चरित्र उजागर हो चुका है। “बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ” की डींगे हाँकने वाली इसी सरकार के कर्नाटक के दो नेता और त्रिपुरा का एक नेता संसद में बैठकर अश्लील फिल्में देखते हुए पकड़े गये थे।

विपक्ष का नया गठबन्धन ‘इण्डिया’ और मज़दूर वर्ग व मेहनतकश आबादी का नज़रिया

क्या आपको लगता है कि कांग्रेस या किसी अन्य बुर्जुआ चुनावी गठबन्धन की सरकार भाजपा और संघ परिवार की गुण्डा वाहिनियों पर कोई लगाम लगायेगी? नहीं। क्योंकि पूँजीपति वर्ग को इन फ़ासीवादी ताक़तों की ज़रूरत है, चाहे वे सत्ता में रहें या न रहें। साथ ही, किसी भी अन्य बुर्जुआ गठबन्धन की सरकार भी पूँजीपति वर्ग को संकट से निजात नहीं दिला सकती और न ही जनता को बेरोज़गारी, महँगाई, आदि से निजात दिला सकती है। उसके द्वारा किये जाने वाले दिखावटी कल्याणवाद के जवाब में पूँजीपति वर्ग और मज़बूती से दोबारा फ़ासीवादियों को ही फिर से सत्ता में लाने की जुगत भिड़ायेगा और जनता के बीच मौजूद आर्थिक व सामाजिक असुरक्षा का लाभ उठाकर फ़ासीवादी संघ परिवार और भी आक्रामक तरीके से टुटपुँजिया वर्गों का प्रतिक्रियावादी उभार पैदा करेगा, जिसकी लहर पर सवार होकर वह फिर से सत्ता में पहुँचेगा। यानी, पूँजीवाद के दायरे के भीतर फ़ासीवाद की निर्णायक हार किसी चुनाव के ज़रिये नहीं हो सकती।

कर्नाटक चुनाव के नतीजे और मज़दूर-मेहनतकश वर्ग के लिए इसके मायने

भाजपा की चुनावी रैलियों से रोज़गार, शिक्षा, महँगाई, आवास और स्वास्थ्य नदारद थे और आते भी कैसे क्योंकि अभी सरकार में तो स्वयं भाजपा ही थी। भाजपा और संघ परिवार के लिए बिना कुछ किये वोट माँगने का सबसे सरल रास्ता होता है साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति को हवा देना। इसकी तैयारी इस वर्ष के अरम्भ से ही भाजपा ने नंगे तौर पर शुरू कर दी थी। जनवरी में कॉलेज में हिजाब पहनने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। लोगों के बीच प्रतिरोध होने पर हिन्दुत्ववादी संगठनों को हिंसा की खुली छूट दे दी गयी।

बिहार में सियासी उलटफेर कोई आश्चर्य की बात नहीं – ‘तू नंगा तो तू नंगा, मौक़ा मिले तो सब चंगा’ – यही है पूँजीवादी लोकतंत्र की असली हक़ीक़त

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भाजपा के साथ गठबन्धन तोड़कर जीतन राम मांझी की पार्टी ‘हम’ के साथ तथा लालू की पार्टी ‘आरजेडी नीत महागठबन्धन’ (आरजेडी, कांग्रेस, सीपीआई, सीपीआईएम और सीपीआई माले लिबरेशन) के साथ मिलकर नयी सरकार बनायी है। नयी सरकार के अस्तित्व में आने के बाद उदारपन्थी-वामपन्थी ख़ेमा अत्यधिक उत्साहित हो रहा है। कोई इस बदलाव को जनता के हित में एक ज़बर्दस्त बदलाव के रूप में व्याख्यायित कर रहा है तो कोई इसे फ़ासीवादी ताक़तों के ह्रास के रूप में! बिहार में भाजपा का सत्ता से बाहर हो जाना महज़ लुटेरों के बीच के आपसी समीकरणों का बदलाव ही है।

जनता का जीवन रसातल में तो चुनावबाज़ पार्टियों की सम्पत्तियाँ शिखरों पर क्यों?

हाल ही में एडीआर (असोसिएशन फ़ॉर डेमोक्रेटिक रिफ़ॉर्म्स) नामक संस्था ने विभिन्न पूँजीवादी चुनावबाज़ पार्टियों की सम्पत्तियों और उनकी देनदारियों का विवरण पेश किया है। चुनावी चन्दा लेने में सबसे आगे रहने वाली भाजपा सम्पत्ति के मामले में भी सबसे आगे है। भाजपा की कुल घोषित सम्पत्ति सात पार्टियों की कुल घोषित सम्पत्ति का क़रीब 70 प्रतिशत है। एडीआर ने अपनी रिपोर्ट में सात राष्ट्रीय बुर्जुआ पार्टियों और 44 क्षेत्रीय बुर्जुआ पार्टियों की सम्पत्तियों की जानकारी दी है।