Category Archives: चुनावी नौटंकी

पूँजीवादी लोकतंत्र का फटा सुथन्ना और चुनावी सुधारों का पैबन्द

पूँजीवादी जनतंत्र में सभी चुनावबाज़ पार्टियाँ किसी ऐसे ही शख़्स को उम्मीदवार बनाकर चुनावी वैतरणी पार कर सकती हैं जो येन-केन-प्रकारेण जीतने की गारण्टी देता हो। और चुनाव भी वही जीतता है जो आर्थिक रूप से ताक़तवर हो और पैसे या डण्डे के ज़ोर पर वोट ख़रीदने का दम रखता हो। या फिर धर्म और जाति के नाम पर लोगों को भड़काकर वोट आधारित उनके ध्रुवीकरण की साज़िश रचने में सिद्धहस्त हो। ज़ाहिर है ऐसी चुनावी राजनीति की बुनियाद अपराध पर ही टिकी रह सकती है। सभी बड़ी से लेकर छोटी पार्टियों के मंत्रियों और विधायकों पर या तो आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं या वे आपराधिक पृष्ठभूमि से आते हैं।

क्यों ज़रूरी है चुनावी नारों की आड़ में छुपे सच का भण्डाफोड़?

वर्तमान सरकार महँगाई और बेरोज़गारी को नियंत्रित करने में असमर्थ है, अर्थव्यवस्था लगातार नीचे जा रही है, भ्रष्टाचार के नये-नये प्रेत खुलेआम लोगों के सामने आ रहे हैं, और भ्रष्टाचार करने वाले बेशर्मों की तरह खुले घूम रहे हैं। कुछ लोग इस अव्यवस्था के समाधान के लिए नरेन्द्र मोदी को चुनने का समर्थन कर रहे हैं। कुछ लोग मोदी की तुलना अन्धों में काने को राजा बनाने से भी कर रहे हैं। मुख्य रूप से समाज के मध्य वर्ग में यह सोच आज आम धारणा बन चुकी है। लेकिन कांग्रेस या भाजपा, दोनों ही पार्टियों के शासन का इतिहास देखें तो भाजपा में भी उतना ही भ्रष्टाचार है, और वह भी उन्हीं नीतियों को आगे बढ़ाती है जिन्हें कांग्रेस। वास्तव में दोनो ही मुनाफे के लिये अन्धे हैं, जो पूँजीवाद का मूल मंत्र है, इसलिए इनमें से किसी को काना भी नहीं कहा जा सकता। इतना मान लेने वाले कुछ लोगों का अगला सवाल यह होता है कि फिर अभी क्या करें, किसी को तो चुनना ही पड़ेगा? इस सवाल का जवाब देने से पहले हमें थोड़ा विस्तार से वर्तमान व्यवस्था पर नज़र डालनी होगी।

गर थाली आपकी खाली है, तो सोचना होगा कि खाना कैसे खाओगे

ऐसे खेल तमाशे हर पाँचसाला चुनाव के पहले दिखाये जाते हैं। विशेषकर ग़रीब और ग़रीबी दूर करने से संबंधित नौटंकी चुनाव के ऐन पहले प्रदर्शन के लिए हमेशा सुरक्षित रखी जाती है। दरअसल इसके जरिये सत्तासीन पार्टी और सत्तासुख से वंचित तथाकथित विरोधी पार्टियां (जो कि वास्तव में चोर-चोर मौसेरे भाई की तरह ही होती हैं – जनता की हितैषी होने का दिखावा, लेकिन हकीकत में पूँजीपतियों की वफा़दार), दोनों ही आम जनता को भरमाने का मुगालता पाले रहती हैं। पर जनता सब जानती है। वह अपने अनुभव से देख रही है कि आजादी के 62 सालों में देश की तरक्की के चाहे जितने भी वायदे किये गये हों उसकी जिन्दगी में तंगहाली बढ़ी ही है। पेट भरने लायक जरूरी चीजों की भी कीमतें आसमान छू रही हैं, उसके आंखों के सामने उसके बच्चे कुपोषण और भूख से मर रहे हैं, और दवा और इलाज के अभाव में तिल-तिल कर खत्म हो जाना जिसकी नियति है। इस सच्चाई को ग़रीब और ग़रीबी के बेतुके सरकारी आँकड़े झुठला नहीं सकते।

कैसा है यह लोकतंत्र और यह संविधान किसकी सेवा करता है (इक्कीसवीं किश्त)

इन धन्नासेठों और अपराधियों की तू-तू-मैं-मैं और नूराकुश्ती के लिए संसद के सत्र के दौरान प्रतिदिन करोड़ो रुपये खर्च होते हैं जो देश की जनता के खून-पसीने की कमाई से ही सम्भव होता है। उसमें भी सत्र के ज़्यादातर दिन तो किसी न किसी मुद्दे को लेकर संसद में कार्यस्थगन हो जाता है और फिर जनता के लुटेरों को अय्याशी के लिए और वक़्त मिल जाता है। आम जनता की ज़िन्दगी से कोसों दूर ये लुटेरे आलीशान बंगलों में रहते हैं, सरकारी ख़र्च से हवाई जहाज और महँगी गाड़ियों से सफर करते हैं और विदेशों और हिल स्टेशनों पर छुट्टियाँ मनाते हैं। एक ऐसे देश में जहाँ बहुसंख्यक जनता को दस-दस बारह-बारह घण्टे खटने के बाद भी दो जून की रोटी के लाले पड़े रहते हैं, जनता के तथाकथित प्रतिनिधियों की विलासिता भरी ज़िन्दगी अपने आप में लोकतन्त्र के लम्बे-चौड़े दावों को एक भद्दा मज़ाक बना देती है।

चुनावी मौसम में याद आया कि मज़दूर भी इंसान हैं

इस बार चुनावी दंगल में भाजपा मजदूर आबादी को भी अपने झाँसे में लेने के लिए तीन-तिकड़में कर रही है। अभी 10 जुलाई को दिल्ली भाजपा के अध्यक्ष विजय गोयल ने राजधानी के असंगठित मजदूरों के लिए असंगठित मजदूर मोर्चा का गठन किया है जिसमें रेहड़ी-रिक्शा चालक, ठेका मजदूर, सेल्ममैन, सिलाई मज़दूर से लेकर भवन निर्माण पेशे के मज़दूर शामिल है जो भयंकर शोषण और नारकीय परिस्थितियों में काम करते है लेकिन सवाल उठता है कि इन चुनावी मदारियों को हमेशा चुनाव से चन्द दिनों पहले ही मेहनतकश आबादी की बदहाली क्यों नज़र आती है। दूसरे, भाजपा जिन मज़दूरों का शोषण रोकने की बात कर रही है उनका शोषण करने वाले कौन हैं?

2014 के आम लोकसभा चुनावों के लिए शासक वर्गों के तमाम दलालों की साज़िशें

आज पूँजीवादी राजनीति के सामने जो संकट खड़ा है, वह दरअसल समूची पूँजीवादी व्यवस्था के संकट की ही एक अभिव्यक्ति है। फिलहाली तौर पर, संसद और विधानसभा में बैठने वाले पूँजी के दलालों के पास कोई मुद्दा नहीं रह गया है; जनता में असन्तोष बढ़ रहा है; दुनिया के कई अन्य देशों में जनविद्रोहों के बाद शासकों की नियति भारत के पूँजीवादी शासकों के भी सामने है; इससे पहले कि जनता का असन्तोष किसी विद्रोह की दिशा में आगे बढ़े, उनको धार्मिक, जातिगत, क्षेत्रगत या भाषागत तौर पर बाँट दिया जाना ज़रूरी है। और इसीलिए अचानक आरक्षण का मुद्दा, राम-मन्दिर का मुद्दा, मुसलमानों की स्थिति का मुद्दा फिर से राष्ट्रीय पूँजीवादी राजनीति में गर्माया जा रहा है। तेलंगाना से लेकर बोडोलैण्ड और गोरखालैण्ड के मसले को भी केन्द्र में बैठे पूँजीवादी घाघ हवा दे रहे हैं। जो संकट आज देश के सामने खड़ा है, उसके समक्ष दोनों ही सम्भावनाएँ देश के सामने मौजूद हैं। एक सम्भावना तो यह है कि सभी प्रतिक्रियावादी ताक़तें देश की आम मेहनतकश जनता को बाँटने और अपने संकट को हज़ारों बेगुनाहों की बलि देकर टालने की साज़िश में कामयाब हो जाये। और दूसरी सम्भावना यह है कि हम इस साज़िश के ख़िलाफ़ अभी से आवाज़ बुलन्द करें, अपने आपको जगायें, अपने आपको गोलबन्द और संगठित करें। देश का मज़दूर वर्ग ही वह वर्ग है जो कि फ़ासीवाद के उभार का मुकाबला कर सकता है, बशर्ते कि वह ख़ुद अपने आपको इन धार्मिक कट्टरपन्थियों के भरम से मुक्त करे और अपने आपको वर्ग चेतना के आधार पर संगठित करे। या तो हम इस रास्ते पर आगे बढ़ेंगे, या फिर हम एक बार फिर से चूक जाएँगे, एक बार फिर से हज़ारों की तादाद में अपने लोगों को खोएँगे और एक बार फिर से प्रतिक्रियावादी ताक़तें हमें इतिहास के मंच पर प्रवेश करने से पहले ही फिर से कई वर्षों के लिए उठाकर बाहर फेंक देंगी; एक बार फिर से पराजय और निराशा का दौर शुरू हो जायेगा। इस नियति से बचने का रास्ता यही है कि कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा, जद (यू), राजद, माकपा, भाकपा, भाकपा (माले) आदि समेत सभी चुनावी मदारियों के भरम तोड़कर हम अपना इंक़लाबी विकल्प खड़ा करें, अपनी इंक़लाबी पार्टी खड़ी करें और एक इंक़लाब के ज़रिये मेहनतकश का लोकस्वराज्य खड़ा करने के लिए आगे बढ़ें!

आने वाले चुनाव और ज़ोर पकड़ती साम्प्रदायिक लहर

महँगाई, बेरोज़गारी, बदहाली, भूख-कुपोषण, धनी-ग़रीब की बढ़ती खाई – यह सब कुछ चरम पर है। पर कोई पार्टी इन मुद्दों को हवा दे पाने की स्थिति में नहीं है। पिछले बाईस वर्षों के अनुभव ने यह साफ़ कर दिया है कि नवउदारवाद की नीतियों की जिस वैश्विक लहर ने भारत जैसे देशों के आम लोगों की ज़िन्दगी पर कहर बरपा किया है, उन नीतियों पर सभी चुनावी दलों की आम सहमति है। केन्द्र और राज्य में, जब भी और जितना भी मौक़ा मिला है, इन सभी दलों ने उदारीकरण- निजीकरण की नीतियों को ही लागू किया है। चुनावी वाम दलों के जोकर भी पीछे नहीं है। उनका “समाजवाद” बाज़ार के साथ ‘लिव इन रिलेशनशिप’ में रहता है, अपने को अब “बाज़ार समाजवाद” कहता है और कीन्सियाई नुस्खों से नवउदारवादी पूँजीवाद को थोड़ा “मानवीय” चेहरा देने के लिए सत्ताधारियों को नुस्खे सुझाता है।

100 करोड़ ग़रीबों के प्रतिनिधि सारे करोड़पति?

क्या ये करोड़पति और अपराधी आम जनता की कोई चिन्ता करेंगे। इतिहास इस बात का गवाह है कि पूँजीवादी चुनावों के ज़रिए जरिए सत्ता हासिल करने वाले लोग पूँजीवाद की ही सेवा करते हैं और बदले में अपने लिए मेवा पाते हैं। जनता की ज़िन्दगी में बेहतरी लाने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं होती। वास्तव में पूँजीवादी जनवाद में सरकार की असली परिभाषा कुछ इस तरह होती है — अमीरों की, अमीरों के लिए, अमीरों के द्वारा। इसमें आम जनता का ज़िक़्र तो बस ज़ुबानी जमाख़र्च के लिए होता है। आम जनता की तक़लीफ़ों को तो सिर्फ़ मज़दूर वर्ग की एक क्रान्तिकारी सरकार ही दूर कर सकती है।

जनता के पास चुनने के लिए कुछ भी नहीं है! सिवाय इंक़लाब के!

लेकिन जब तक पूँजीवादी व्यवस्था का कोई विकल्प पेश नहीं किया जाता तब तक हर चुनाव की नौटंकी में जनता का एक हिस्सा कभी इस तो कभी उस चुनावी मदारी के निशान पर ठप्पा लगाता रहेगा। जनता बिना किसी विकल्प के भी स्वत:स्फूर्त तरीक़े से सड़कों पर उतरती है। लेकिन ऐसे जनउभार किसी व्यवस्थागत परिवर्तन तक नहीं जा सकते हैं। वे ज्यादा से ज्यादा कुछ समय के लिए पूँजीवादी शासन-व्यवस्था को हिला सकते हैं। लेकिन ऐसी उथल-पुथल से पूँजीवादी व्यवस्था देर-सबेर उबर जाती है। पूँजीवादी व्यवस्था पूरी दुनिया में कई वर्षों से आर्थिक संकट में है और अब यह आर्थिक संकट अपने आपको राजनीतिक संकट के रूप में भी अभिव्यक्त कर रहा है। लेकिन हर जगह संकट विकल्प का है। जिस मज़दूर वर्ग और उसकी हिरावल पार्टी को पूँजीवाद का विकल्प पेश करना है, वह हर जगह बिखरा हुआ है, विचारधारात्मक और राजनीतिक रूप से कमज़ोर है।

देखो संसद का खेला, नौटंकी वाला मेला

अब फर्ज क़रें कि संसद ठीक से चलती तो क्या होता? जनप्रतिनिधि समझे जानेवाले आधे से अधिक सदस्य तो आते ही नहीं, जो आते वह भी या तो ऊँघते, सोते रहते या निरर्थक बहसबाज़ी और जूतमपैजार करते, और इसी किस्म की एक घण्टे की कार्यवाही पर तक़रीबन 20 लाख रुपये खर्च हो जाते और जब यह सब करने में उन्हें उकताहट और ऊब होती तो वे संसद की कैण्टीन में बाहर की क़ीमत का सिर्फ 10 प्रतिशत देकर तर माल उड़ाते और इस खर्च का बोझ भी मेहनतकश ज़नता पर ही पड़ता। संसद अगर ठीक से चलती भी रहती तो शोषण-उत्पीड़न के नये-नये क़ानून बनते। दिखावे और व्यवस्था का गन्दा चेहरा छिपाने के लिए कुछ कल्याणकारी क़ानून भी बनते जिन्हें लागू करने की ज़िम्मेदारी किसी की नहीं रहती। बेशुमार सुख-सुविधओं और विलासिताओं से चुँधियाये मध्यवर्ग के ऊपरी हिस्से को यह नंगी सचाई दिखायी नहीं पड़ती। संसद और क़ानून की आड़ में मेहनतकशों की हड्डियाँ निचोड़ लिया जाना उसे दिखायी नहीं देता है और न ही उसे उसकी कोई चिन्ता है। अपने में डूबा यह आत्म-सन्तुष्ट वर्ग आसपास की सच्चाइयों से मुँह मोड़कर मीडिया से अपने विचार और राय ग्रहण करता है। ज़ाहिर है सत्ता और संसद के प्रति यह भ्रम का शिकार होता है।