कर्नाटक चुनाव के नतीजे और मज़दूर-मेहनतकश वर्ग के लिए इसके मायने

लता

कर्नाटक चुनावों में भाजपा की शर्मनाक हार हुई है। कर्नाटक की जनता और देश की जनता के लिए यह खुशी की बात है क्योंकि नरेंद्र मोदी की महामानव की छवि और भाजपा के अपराजेय होने का भ्रम टूट रहा है। लेकिन भाजपा की हार के हर्षातिरेक में हम आसन्न ख़तरों से मुँह मोड़ कर संघ की फ़ासीवादी राजनीति को लेकर निश्चिन्त नहीं हो सकते। पूँजी का संकट ज्यों-का-त्यों बना हुआ है इसलिए संघी फ़ासीवाद का ख़तरा किसी मायने में टला नहीं है। निश्चित ही इस चुनावों में भाजपा के छल-छद्म और सम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति थोड़ी फीकी पड़ी है। एक हद तक कर्नाटक की जनता इस बार इनके जुमलों की हक़ीक़त से परे देख सकी।

भाजपा की चुनावी राजनीति को देखते हुए यह साफ़ जाहिर होता है कि इस पार्टी के लिए सबसे महत्वपूर्ण कार्यभार चुनावों में जीत हासिल करना होता है। जीत हासिल करने के बाद चुनावों के दौरान किये वायदों का क्या होता है वह मज़दूर-मेहनतकश वर्ग से ज्यादा अच्छी तरह कोई नहीं समझता। “बहुत हुई महँगाई की मार अबकी बार मोदी सरकार”, “हर साल 2 करोड़ नौकरियाँ”, “15 लाख रुपए सब के खाते में”…एक अन्तहीन सूची है जुमलों की। ये जुमले थे इसका पता तो इनके शासन में आने के बाद ही चला।

बहरहाल, कर्नाटक चुनावों में भी एक बार फिर “डबल इन्जन की सरकार” जैसे जुमलों को उछाला गया। लेकिन शायद भाजपा की चुनावी रणनीति बनाने वाले भूल गए कि कर्नाटक में तो “डबल इन्जन” की सरकार ही थी जो बेरोज़गारी, महँगाई, भ्रष्टाचार आदि सारी सीमाओं को पार गयी थी! इसलिए रोज़गार, महँगाई, भ्रष्टाचार व अन्य मुद्दों की जगह चुनाव अभियानों को सम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति और नरेन्द्र मोदी की छवि भुनाने पर ज्यादा केन्द्रित किया गया। नरेन्द्र मोदी बड़ी-बड़ी रैलियों और रोड-शो के चेहरे बने और वेश बदल-बदल कर, धार्मिक उन्मादी भाषण दे-देकर वोट हासिल करने के लिए एड़ी-चोटी का पसीना लगा दिया। लेकिन धार्मिक उन्माद और तथाकथित करिश्माई छवि दोनों ही कार्ड फीके रहे। मोदी-शाह की जोड़ी को कर्नाटक चुनाव में भारी हार का सामना करना पड़ा।

मोदी की छवि को पहुँचा यह आघात 2024 के लोकसभा चुनाव के मद्देनज़र भाजपा के लिए चिन्ता का विषय था इसलिए इसे तुरन्त दुरुस्त करने की ज़रूरत थी। मोदी कर्नाटक चुनाव परिणाम आने के फ़ौरन बाद विदेश यात्रा पर निकल पड़े! पापुआ न्यू गिनी के प्रधानमन्त्री ने मोदी के पाँव छुए, यह ख़बर दिन भर दुहरा-दुहरा कर समाचार चैनलों पर दिखायी गयी! फिर ऑस्ट्रेलिया में प्रवासी भारतीयों से मुलाक़ात की ख़बर चलायी गयी! ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमन्त्री ने मोदी को बॉस बुलाया और मोदी समर्थक गदगद हो गये! यह अलग बात है कि मोदी की मौजूदगी में ही ऑस्ट्रेलिया ने कई राज्यों के भारतीय छात्रों के ऑस्ट्रेलिया आने पर पाबन्दी लगा दी! अन्तरराष्ट्रीय राजनीति के अपने जोड़-तोड़ और समीकरण होते हैं और इस समय विश्व पटल पर चीन के बढ़ते राजनीतिक और आर्थिक दबदबे पर कमान कसने के लिए अमेरिका, यूरोपीय देश, ऑस्ट्रेलिया व अन्य विकसित देश एशिया में भारत को अपने आधार की तरह देख रहे हैं। इसके अलावा भारत के संसाधनों, कच्चे माल और सस्ती श्रम शक्ति पर सब की निगाह है। मतलब यह कि विश्व पटल पर भारत की राजनीतिक और आर्थिक स्थिति की वजह से मोदी को तवज्जो मिलती है। इन कारणों से मोदी के पहले के प्रधानमन्त्रियों को भी साम्राज्यवादी देशों के मुखिया यह तवज्जो देते रहे हैं। यह तो भक्तों के चश्मे की करामात है कि सब मोदी-मोदी दिखता है।

निश्चित ही यह खुशी की बात है की भाजपा की हार हुई है। लेकिन यह भी उतनी ही बड़ी सच्चाई है कि मतों के बँटवारे में पिछले चुनावों की तुलना में भाजपा के मतों की हिस्सेदारी में कमी नहीं आयी है। जहाँ काँग्रेस ने 135 सीटों पर जीत हासिल कर 42.9 प्रतिशत वोट प्राप्त किये, वहीं भाजपा ने केवल 66 सीटें जीतीं मगर वोटों में उसकी हिस्सेदारी 36 प्रतिशत रही, जो 2018 के कर्नाटक चुनावों के समान ही है। काँग्रेस की मतों में बढ़ोतरी 5 प्रतिशत की रही है। कुछ सीटों पर तो जीत बेहद कम फ़र्क से दर्ज हुई है। उदाहरण के तौर पर काँग्रेस 5 सीटों पर 2000 से काम मतों के फ़र्क से जीत हासिल की है तो भाजपा ने 7 सीटों पर 2000 से मतों के फ़र्क से जीत हासिल की है। 2000 से 5000 मतों के फ़र्क से 17 पदों पर काँग्रेस ने जीत हासिल की है। हालाँकि कई लोगों यह कहना भी है कि यदि ईवीएम का खेल न होता तो बहुत-सी सीटों पर कांग्रेस की जीत का अन्तर काफ़ी ज़्यादा होता।

1999 में बनी एच डी देवेगौड़ा की जनता दल (सेक्युलर) पार्टी के मतों की हिस्सेदारी में भारी गिरावट आयी है। जहाँ इस पार्टी ने 2018 में 36 सीटों पर जीत हासिल की थी, वह इस बार मात्र 19 सीट ही हासिल कर पायी है। यह कहा जा सकता है कि जनता दल (सेक्युलर) के मतों में जो 5 प्रतिशत की गिरावट आयी है वह काँग्रेस को मिले हैं क्योंकि भाजपा के मतों में गिरावट दर्ज़ नहीं हुई है, वह ज्यों की त्यों बनी हुई है।

चुनाव आयोग के राजनीतिक विभाजन के अनुसार कर्नाटक को 6 हिस्सों में बाँटा गया है। 

 

क्षेत्र                                          सीटें

  1. बेंगलूरू 36
  2. बेलगौम/ किट्टुर/ मुंबई 36
  3. सेंट्रल राजनीतिक विभाजन 21
  4. गुलबर्गा/ कल्याण/ हैदराबाद 31
  5. मैसूर/ दक्षिण 50
  6. तटीय राजनीतिक विभाजन 50

कुल                                    224

 

कर्नाटक के चुनाव आधारित इस राजनीतिक विभाजन में सबसे शहरी क्षेत्र बेंगलूरू है। इस विभाजन में भाजपा और काँग्रेस के बीच काँटे की टक्कर रही। काँग्रेस को 18 और भाजपा को 17 पद मिलें लेकिन मतों के बँटवारे में भाजपा आगे रही। 2013 से 2023 के बीच भाजपा ने मतों के बँटवारे में 35.8 प्रतिशत से 41.2 प्रतिशत की बढ़त देखी है।

शहरी क्षेत्र में यह बढ़त विशेष तौर पर शहरी मध्यवर्ग में भाजपा की फ़ासीवादी राजनीति की मज़बूत होती पकड़ की ओर इशारा कर रही है जो आने वाले समय में राज्य के राजनीतिक परिवेश में साम्प्रदायिक फेर-बदल में अहम भूमिका निभायेंगे। अन्य राजनीतिक विभाजन की बात करें तो मैसूर क्षेत्र में भाजपा के मतों की हिस्सेदारी बढ़ी है। यह 2018 के 18.2 प्रतिशत की तुलना में 2023 में 21.4 प्रतिशत हो गई है। वहीं तटीय क्षेत्र भाजपा के गढ़ रहे हैं और अभी भी बने हुए हैं। 2018 के चुनवों में काँग्रेस को 3 सीटें और 39.2 प्रतिशत मतों में हिस्सेदारी हासिल हुई थी वहीं भाजपा को 18 सीटें और 51 प्रतिशत मत हासिल हुए थे। 2023 में काँग्रेस को 8 पद और 41.3 प्रतिशत मतों में हिस्सेदारी मिली। भाजपा को 13 पद तथा 46.3 प्रतिशत मतों में हिस्सेदारी मिली।

चुनावों के इस पहलू को देखते हुए हम कह सकते हैं कि संघ परिवार की विचारधारात्मक-सांगठनिक संरचना की उपस्थिति हर मौके पर यह सुनिश्चित करती है कि टुटपुँजिया वर्गों, लम्पट सर्वहारा और संगठित कर्मचारी वर्ग के एक विचारणीय हिस्से में फ़ासीवाद की ज़मीन तैयार होती रहे। पूँजीवादी संकट ज्यों-का-त्यों बना हुआ है और यह पूँजीपति वर्ग के भीतर राजनीतिक प्रतिक्रिया की ज़मीन तैयार करता है, जिसके कारण पूँजीपति वर्ग अपनी आर्थिक ताक़त को फ़ासीवादी राजनीति को शक्तिशाली बनाने में सन्नद्ध करता है, क्योंकि उसे संकट से निपटने के लिए आम मेहनतकश जनता की मज़दूरी व आमदनी को कम करने, श्रम को और प्रकृति को लूटने की पूरी छूट चाहिए होती है और इसके लिए एक दमनकारी सत्ता की ज़रूरत होती है। पूँजीवादी दायरे में रहते हुए बुर्जुआ अर्थशास्त्रियों को आर्थिक संकट का एक ही उपाय नज़र आता है और वह है नवउदारवादी नीतियों को और सख़्ती से लागू करना जो कि अन्तत: संकट को और बढ़ाता ही है। असल में, पूँजीवाद के पास अपने आवर्ती क्रम से आने वाले आर्थिक संकट का कोई समाधान नहीं है। पूँजीवादी राजनीतिक पार्टियाँ रोज़गार, महँगाई नियंत्रण, स्वास्थ्य, शिक्षा के चाहे जितने वायदे कर लें, वे नवउदारवादी नीतियों से बच नहीं सकतीं। उदाहरण के लिए तमिलनाडु में एम. के. स्टालिन के नेतृत्व में द्रविड मुनेत्र कषगम की सरकार है और उसके साथ गठबंधन में माकपा भी शामिल रही थी। तमिलनाडु ने 12 घण्टे के कार्यदिवस को कानूनी बनाने के प्रयासों में है। संसदीय वाम पार्टियों के दवाब में इस कानून पर अभी स्टे है (क्योंकि यह संसदीय वाम पार्टियों के संगठित क्षेत्र के मज़दूरों में आधार को भी प्रभावित करेगा) लेकिन एम. के. स्टालिन सरकार की मंशा स्पष्ट है। उन्हें भी नवउदारवादी नीतियों को लागू करना है। अगर भाजपा तात्कालिक तौर पर कोई राज्य चुनाव या लोकसभा चुनाव हार भी जाये, तो अन्य कोई पूँजीवादी चुनावबाज़ पार्टी की सरकार भी नवउदारवादी नीतियों को ही लागू करेगी और जिस हद तक वह दिखावटी कल्याणवाद पर अमल करेगी, वह भी पहले से ज़्यादा आक्रामक तरीक़े से फ़ासीवादी उभार की ज़मीन तैयार करेगा। इसके गवाह 2014 के लोकसभा चुनाव हैं। 2004 में भाजपा हारी और काँग्रेस की सरकार बनी। 1999 की अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार गठबंधन सरकार थी लेकिन 2014 में भाजपा 283 सीटों पर जीत हासिल कर सबसे बड़ी पार्टी की तरह उभरी और 2019 के लोकसभा चुनावों में भी भाजपा को पूर्ण बहुमत हासिल हुआ है। हालाँकि 2014 में भाजपा नौकरी और महँगाई कम करने के वायदे ले कर आयी थी लेकिन 2019 में अपने सभी वायदों पर विफल रहने के बाद भी अंधराष्ट्रवाद और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के आधार पर और किसी विकल्प के अभाव में पूर्ण बहुमत के साथ दुबारा चुनी गयी।

यानी, कर्नाटक चुनावों में या किसी भी चुनाव में भाजपा की हार हम मज़दूर और आम-मेहनतकश वर्ग के लिए खुशी की बात है लेकिन चुनावी हार-जीत से फ़ासीवाद की निर्णायक हार-जीत तय नहीं होती। इसलिए चुनावों में भाजपा को मिली हार से जो थोड़ा राहतपूर्ण राजनीतिक माहौल बनता है, हम मज़दूर और आम-मेहनतकश वर्ग को जो थोड़ा जनवादी माहौल मिलता है, उसका फायदा उठा कर फ़ासीवाद और पूँजीवाद के विरुद्ध अपनी लड़ाई को और मजबूत बनाना चाहिए।

साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण और कर्नाटक चुनाव

इसमें कोई शक नहीं कि कर्नाटक की मज़दूर और आम मेहनतकश जनता ने भाजपा की हिन्दुत्ववादी साम्प्रदायिक राजनीति को बहुत हद तक खारिज किया है। साथ ही यह चुनाव भाजपा के राजनीतिक बौखलाहट के भी साक्षी रहे हैं। चुनावी अभियानों के दौरान अपनी भावी हार को देखते हुए भाजपा की राजनीतिक बौखलाहट मुखर हो कर सामने आ रही थी। हार की बौखलाहट में मोदी और भाजपाई इस कदर दिमागी संतुलन खो बैठे थे कि बजरंग दल की तुलना बजरंग बली से कर रहे थे।  अपनी बौखलाहट में मोदी ने चुनावी रैलियों में बजरंग दल पर प्रतिबन्ध लगाने की तुलना बजरंग बली पर प्रतिबन्ध लगाने से कर दी और बजरंग बली के नारे मंच से लगाये। किसी धर्मनिरपेक्ष देश के प्रधानमंत्री का मंच से धार्मिक नारे लगाना कत्तई मान्य नहीं होना चाहिए। चुनाव आयोग को फ़ौरन नरेंद्र मोदी की रैलियों पर प्रतिबन्ध लगाना चाहिए था और धार्मिक उन्माद फैलाने के आरोप में कार्रवाई करनी चाहिए थी। लेकिन अब तो राज्यसत्ता के तमाम अंगों-उपांगों में संघीलोगों को भर दिया गया है और वे किसी प्रकार स्वतन्त्रता का दावा नहीं कर सकते हैं। ऐसे में चुनाव आयोग से किसी कार्रवाई की उम्मीद बेकार है।

बहरहाल, कर्नाटक के चुनावों के परिणाम पर जो चर्चा हम पहले कर चुके हैं उसके आधार पर हम यह नहीं कह सकते हैं कि भाजपा और संघ परिवार की साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति को कर्नाटक की जनता ने पूरी तरह ख़ारिज किया है लेकिन एक बड़ी आबादी ने निश्चित ही इस राजनीति को ख़ारिज किया है और यह राहत की बात है।

भाजपा की चुनावी रैलियों से रोज़गार, शिक्षा, महँगाई, आवास और स्वास्थ्य नदारद थे और आते भी कैसे क्योंकि अभी सरकार में तो स्वयं भाजपा ही थी। भाजपा और संघ परिवार के लिए बिना कुछ किये वोट माँगने का सबसे सरल रास्ता होता है साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति को हवा देना। इसकी तैयारी इस वर्ष के अरम्भ से ही भाजपा ने नंगे तौर पर शुरू कर दी थी। जनवरी में कॉलेज में हिजाब पहनने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। लोगों के बीच प्रतिरोध होने पर हिन्दुत्ववादी संगठनों को हिंसा की खुली छूट दे दी गयी। वैसे हिजाब या कुछ भी पहनना-ओढ़ना पूरी तरह व्यक्तिगत निर्णय और पसन्द का मामला होता है। इसमें राज्य का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। मज़दूर वर्ग तमाम धार्मिक प्रतीकों या पोशाक को पहने जाने पर एक जनवादी रवैया रखता है। एक ओर विचारधारात्मक तौर पर हम ऐसी परम्पराओं का खण्डन करते हैं लेकिन दूसरी ओर हम हर व्यक्ति के निजी अधिकार का जनवादी उसूलों के आधार पर समर्थन करते हैं कि व्यक्तिगत तौर पर वह क्या पहने या न पहने। इस प्रकार के प्रश्न किसी कानून या सरकारी आदेश से हल नहीं किये जा सकते हैं बल्कि विचारधारात्मक व सांस्कृतिक स्तरोन्नयन का प्रश्न होते हैं। हम इस्लामी कट्टरपंथियों द्वारा हिजाब को थोपे जाने और हिन्दुत्ववादी फ़ासीवादियों द्वारा इस पर प्रतिबन्ध लगाने दोनों का ही विरोध करते हैं और इसे व्यक्तिगत मसला मानते हैं।

हिजाब पर प्रतिबन्ध के बाद संघी संगठनों ने मन्दिरों में गैर-हिन्दू दुकानों को बन्द करने का विवाद उछाला और फिर हिन्दू जनजागृति समिति, श्रीराम सेना और बजरंग दल ने अप्रैल में “हलाल” का मुद्दा उठाया। इन संघी संगठनों ने मुसलमानों की दुकानों पर जा कर तोड़-फोड़ और मार-पीट की तथा इसे “आर्थिक जिहाद” का नाम दिया। कर्नाटक सरकार ने खुले तौर पर इन संगठनों का साथ दिया। जल्द ही मन्दिरों ने मुसलमान दुकानदारों को अपनी दुकान लगाने से रोक दिया। इसके बाद अप्रैल में ही इन संघी संगठनों ने अज़ान को मुद्दा बनाया और अज़ान पर प्रतिबन्ध लगाने की माँग उठायी। राज्य सरकार ने तुरन्त इन संघी संगठनों के समर्थन में पुलिस दौड़ा दी। हालाँकि कर्नाटक हाई-कोर्ट ने इस प्रतिबन्ध की माँग के ख़िलाफ़ न्याय दिया लेकिन हम समझ सकते हैं कि किस तरह चुनाव नज़दीक आने पर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच जाती है। भाजपा की बौखलाहट और तेवर देख कर साफ़ तौर पर कहा जा सकता है कि 2024 के लोकसभा चुनावों में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के साथ-साथ अन्धराष्ट्रवाद की राजनीति को पूरी आक्रामकता के साथ हवा दी जायेगी।

 

जातिगत ध्रुवीकरण और कर्नाटक चुनाव

साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की ही एक और रणनीति के तहत उच्च जाति हिन्दुओं के मतों का रुझान अपनी ओर करने के मक़सद से मुसलमानों के 4 प्रतिशत आरक्षण को समाप्त करने का निर्णय भाजपा की कर्नाटक सरकार ने अप्रैल 2023 में लिया था। हालाँकि सरकारी शिक्षण संस्थानों और सरकारी नौकरियों में लगातार घटती सीटों और पदों को देखते हुए आरक्षण का होना या नहीं होना कोई खास मायने नहीं रखता है। लेकिन ऐन चुनाव के पहले सभी पार्टियाँ आरक्षण का मुद्दा उछाल कर जातिगत ध्रुवीकरण करती हैं और इस या उस जाति के वोट को अपनी ओर खींचने का पूरा प्रयास करती हैं। भाजपा ने भी इसी मक़सद से आरक्षण को हटाया। सारे नियम को ताक पर रखते हए बस 4 प्रतिशत मुसलमानों के आरक्षण को समाप्त कर दिया गया तथा इसे समान अनुपात में लिंगायत और वोक्कालिगा के बीच बाँट दिया गया। यानी लिंगायत और वोक्कालिगा के आरक्षण बढ़ा दिये गये। इसके बावजूद भाजपा को हार का सामना करना पड़ा क्योंकि ये सारे तीन-तिकड़म बढ़ती बेरोज़गारी और महँगाई के सामने चले नहीं। मज़दूर और मेहनतकश वर्ग को भी साम्प्रदायिक और जातिगत ध्रुवीकरण को पूरी तरह ख़ारिज करना चाहिए क्योंकि यह हमें जाति और धर्म के आधार पर बाँट कर हमारी एकता को कमज़ोर करते हैं।

 

भ्रष्टाचार और कर्नाटक चुनाव

बेरोज़गारी और महँगाई के अलावा कर्नाटक की जनता पिछले 4 सालों में भयंकर भ्रष्टाचार से त्रस्त थी। सरकारी टेण्डर में होने वाले भ्रष्टाचार के अलावा सभी सरकारी विभागों में धाँधली चल रही थी। शिक्षा विभाग में हुए भ्रष्टाचार ने भाजपा सरकार के “चाल-चेहरा-चरित्र” को बुरी तरह बेनकाब कर दिया। सब-इन्स्पेक्टर की चयन परीक्षा में एक उच्च पुलिस अधिकारी धाँधली करता और घूस लेता पकड़ा गया। कर्नाटक की भाजपा सरकार के ऐसे सैकड़ों भ्रष्टाचार के उदाहरण हैं जो सामने आये। काँग्रेस ने चुनाव अभियान में भ्रष्टाचार को जम कर उछाला है। यह दीगर बात है कि काँग्रेस सरकार जिसके इतिहास में स्वयं एक से बढ़ कर एक भ्रष्टाचारों के नगीने जड़े हैं वह खुद भ्रष्टाचार से कैसे निपटेगी वह तो समय ही बतायेगा।

 

आर्थिक मुद्दे और कर्नाटक चुनाव

इस वर्ष अप्रैल महीने में एनडीटीवी और लोकनीति-सीएसडीएस ने मिल कर कर्नाटक में एक सर्वेक्षण किया था। यह सर्वेक्षण 20-28 अप्रैल 2023 को राज्य के 21 विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों के 82 मतदान केंद्रों के 2143 मतदाताओं के बीच किया गया था। इन 21 विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों का चयन बिना किसी क्रम या श्रेणी का पालन करते हुए किया गया था। सर्वेक्षण में पाया गया कि 28 प्रतिशत लोगों के अनुसार राज्य की सबसे ज्वलंत समस्या बेरोज़गारी है, 25 प्रतिशत के लिए ग़रीबी, 7 प्रतिशत के लिए विकास की कमी, महँगाई, शिक्षा व स्वास्थ्य प्रमुख समस्या थी। वहीं 6 प्रतिशत के लिए भ्रष्टाचार असल समस्या थी। उनसे जब अलग-अलग समस्याओं पर सीधे सवाल किये गये तो लगभग आधे लोगों ने कहा की भ्रष्टाचार बड़ी समस्या है और पिछले 5 सालों के भाजपा शासन में यह कई गुना बढ़ी है। ग़रीबी पर सीधे सवाल पूछे जाने पर 67 प्रतिशत ने कहा महँगाई पिछले 5 सालों में बहुत बढ़ी है और आज यह ग़रीबों के लिए बहुत बड़ी समस्या है। सर्वेक्षण के दौरान लगभग सभी नौजवानों ने बेरोज़गारी को सबसे बड़ी समस्या बताया। गरीबी की समस्या शहरी क्षेत्रों में होने के साथ-साथ ग्रामीण क्षेत्रों में भी विकराल रूप धारण कर रही है।

आज कर्नाटक के स्तर पर या किसी भी राज्य या कहें पूरे देश के स्तर पर मज़दूर और आम मेहनतकश आबादी और नौजवानों के सामने सबसे बड़ी समस्या और असल मुद्दे बेरोज़गारी, महँगाई, शिक्षा, आवास, स्वास्थ्य और भ्रष्टाचार ही हैं। धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्री और राष्ट्र के आधार पर अलग-अलग तरीकों से सभी पूँजीवादी पार्टियाँ जनता को बाँटती हैं जिसमें खुले तौर पर संघ और भाजपा साम्प्रदायिक और जातिगत ध्रुवीकरण की राजनीति करती है। काँग्रेस ने भी जनता के बीच इन्हीं मुद्दों को लेकर प्रचार किया था, यानी, बेरोज़गारी, महँगाई, शिक्षा आदि जिसमें भ्रष्टाचार सबसे प्रमुख था। ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के दौरान भी राहुल गाँधी ने नियमित रूप से इन मुद्दों पर अपनी बातों को केन्द्रित रखा। भाजपा की साम्प्रदायिक राजनीति के अलावा “क्रोनी” पूँजीवाद को समस्याओं का कारण बताया। वैसे तो जब सरकार में नहीं होती है तो भाजपा भी रोज़गार, महँगाई और शिक्षा के मुद्दे उठती है। लेकिन असल समस्या यह है कि पूँजीवादी संकट के इस दौर में पूँजीवाद के दायरों के भीतर जनता को इन समस्याओं से छुटकारा दिलाना असम्भव है। राहुल गाँधी “क्रोनी” पूँजीवाद को निशान बना रहे हैं, यानी भाजपा के शासन में चन्द पूँजीपति घरानों को सारे लाभ मिल रहे हैं और काँग्रेस इसके ख़िलाफ़ है। मतलब, मेहनत और कुदरत को लूटने का अधिकार सभी पूँजीपतियों को बराबर मिलना चाहिये! कभी भी राहुल गाँधी नवउदारवादी आर्थिक नीतियों को अपना निशाना नहीं बनाते। वह बना भी नहीं सकते क्योंकि काँग्रेस भी पूँजीपति वर्ग की ही राजनीतिक प्रतिनिधि है। पूँजीवाद को अपने वर्तमान संकट का समाधान नवउदारवादी नीतियों के बिना रोक-टोक लागू होने में दिख रहा है। ऐसे में काँग्रेस जो स्वयं इन नीतियों का भारत में श्री गणेश करने वाली पार्टी है, इन नीतियों के ख़िलाफ़ हो ही नहीं सकती। वैसे देखा जाये तो यह कहना कि मात्र अदानी या अम्बानी को फ़ायदा पहुँच रहा है तथ्यतः गलत भी है। अदानी, अम्बानी के अलावा टाटा, बिरला, जिन्दल, किर्लोसकर, पूनावाला, बजाज, फिरोदिया, नादर, संघवी, कोटक, गोदरेज, प्रेमजी, और ऐसे ही अन्य बड़े पूँजीपति घराने भाजपा शषण से लाभ उठा रहे हैं और जम कर भाजपा को चन्दा दे रहे हैं। जब राहुल गाँधी और काँग्रेस क्रोनी पूँजीवाद को कटघरे में खड़ा करते हैं तो इसका दूसरा अर्थ यह निकलता है कि कोई ऐसा भी कोई पूँजीवाद होता है जो “क्रोनी” नहीं होता, भ्रष्ट नहीं होता, बल्कि अच्छा होता है। यानी जिसमें छोटे-बड़े पूँजीपति और मज़दूर-मेहनतकश-ग़रीब आबादी सभी सुख-चैन से जी सकते हैं! न कभी ऐसा कोई पूँजीवाद था न किसी क्रोनी पूँजीवाद के चले जाने के बाद ऐसा कोई पूँजीवाद आयेगा। एक पूँजीवादी राज्य और इस तरह कोई भी पूँजीवादी सरकार किसी एक या दो पूँजीपति घराने के हितों की रक्षा नहीं करती बल्कि पूरे पूँजीपति वर्ग के दूरगामी हितों की नुमाइन्दगी और रक्षा करती है। काँग्रेस कभी भी नवउदारवादी नीतियों को निशाना नहीं बना सकती जो सभी समस्याओं की असल जड़ है। इन नीतियों का पालन वह भी करती है और काँग्रेस शासित राज्यों में धड़ल्ले से यह नीतियाँ लागू हो रही हैं। राजस्थान में अदानी समूह ने 60,000 करोड़ के निवेश का प्रस्ताव रखा और इसके बाद यात्रा के मंच पर गौतम अदानी सुशोभित हुए। काँग्रेस ने क्रोनी पूँजीवादी के एक क्रोनी पूँजीपति का स्वागत यह कह कर किया कि कोई भी राज्य इतने बड़े निवेश का स्वागत निश्चित ही करेगा।

 

निष्कर्ष

काँग्रेस और राहुल गाँधी की भारत जोड़ो यात्रा को एक हद तक मिले आम मेहनतकश जनता के समर्थन का मतलब यह नहीं है कि जनता को और खास-कर मज़दूर-मेहनतकश आबादी को काँग्रेस की राजनीति में पूरा भरोसा है या उन्हें बहुत उम्मीद है। उनके पास फिलहाल कोई दूसरा विकल्प नहीं है। भाजपा के शासन ने जनता को त्रस्त कर दिया है। पिछले नौ सालों में बेरोज़गारी और महँगाई ने अपने सभी पुराने रिकार्ड तोड़ दिये है।  मज़दूर-मेहनतकश अपनी आय का पचास प्रतिशत से अधिक मात्र भोजन पर ख़र्च कर रहे हैं। इसके बाद किराया, स्कूल की फीस, दवा-इलाज आदि के लिए मुश्किल से जुगाड़ हो पा रहा है। ऐसे में भाजपा के विरुद्ध जनता में गहरी भावना है। यह सही भी है कि भाजपा सरकार की सम्प्रदायिकता और अंधराष्ट्रवाद पर आधारित फ़ासीवादी राजनीति का पूर्ण बहिष्कार और उसे कचरापेटी के हवाले करना हमारा प्रथम लक्ष्य होना चाहिये। लेकिन इसके लिए मज़दूर वर्ग को अपना राजनीतिक तौर पर स्वतन्त्र पक्ष खड़ा करना होगा और उस ज़मीन पर खड़ा होकर जुझारू जनान्दोलनों को खड़ा करना होगा जो जनता के रोज़गार के हक़, बेहतर मज़दूरी के हक़, महँगाई से निजात के हक़, शिक्षा-चिकित्सा व आवास के हक़ के लिए समझौताविहीन तरीके से संघर्ष करे। इसके लिए हम इस या उस पूँजीवादी चुनावबाज़ पार्टी के पालकी के कहार नहीं बन सकते क्योंकि ये सभी पूँजीवादी चुनावी पार्टियाँ अपने-अपने तरीक़े से पूँजीपति वर्ग के ही अलग-अलग हिस्सों की सेवा करने के लिए बनी हैं, उन्हें के चन्दों पर चलती हैं और सरकार बनाने पर उन्हीं के लिए नीति बनाती हैं। और यदि संकट से कराह रहे पूँजीवाद के दौर में यदि फ़ासीवादी पार्टी की बजाय किसी अन्य पूँजीवादी पार्टी की सरकार बन भी जाये, तो वह नये सिरे से और पहले से ज़्यादा आक्रामक तरीके से फ़ासीवाद के नये उभार की ही ज़मीन तैयार करता है। वजह यह कि पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर मज़दूरों-मेहनतकशों के लिए कोई विकल्प नहीं है। हमें अपने असल मुद्दों से बिना एक इंच भी हटे आने वाले समये में पूरे देश की जनता को इन मुद्दों के इर्द-गिर्द लामबन्द करना चाहिये। इसी के ज़रिये फ़ासीवाद को चुनौती दी जा सकती है, उसे हराया जा सकता है और एक बेहतर व्यवस्था के संघर्ष को भी एक नयी मंज़िल में ले जाया जा सकता है।

 

 

मज़दूर बिगुल, जून 2023


 

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मज़दूरों के महान नेता लेनिन

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