Category Archives: चुनावी नौटंकी

धन्नासेठों के चन्दे पर निर्भर पूँजीवादी संसदीय चुनाव – जिसका खायेंगे उसका गायेंगे

एडीआर की रिपोर्ट से जो यह खुलासा हो पाया, वह भी आगे ना हो पाये, इसका इन्तज़ाम भाजपा सरकार कर रही है। मालूम हो कि कारपोरेट चन्दे से जुड़ी जानकारी हर वित्तीय वर्ष में चुनाव आयोग को देनी होती है। लेकिन अब ऐसे खुलासे आम लोगों तक नहीं पहुँच सकेंगे, क्योंकि एडीआर के संस्थापक प्रोफ़ेसर जगदीप छोकर ने बताया कि वित्त मन्त्री अरुण जेटली ने क़ानून पास करवा दिया है कि अब इलेक्टोरल बॉण्ड की ख़रीद करके कम्पनियों और राजनीतिक दलों को यह बताना ज़रूरी नहीं होगा कि किस कारपोरेट घराने ने किस पार्टी को कितना चन्दा दिया है और किसने कितना लिया है, यह पारदर्शिता के ि‍ख़लाफ़ है।

नुक्कड़ नाटक – अब अपनी आवाज़़ उठाओ!

कांग्रेस : देखिए, आप लोगों ने हमें बाहर करके अच्छा नहीं किया। हमारे पास आपको ठगने का… सॉरी, मेरा मतलब है आपका विकास करने का 70 साल का एक्सपीरियंस है। हमारी पुरानी खानदानी दुकान…. सॉरी, मेरा मतलब है पुरानी पार्टी को छोड़कर आप लोग नये-नये फेरीवालों के चक्कर में पड़ गये हैं। आप लोग हमें सेवा का एक और मौक़ा दीजिए, हम आपको दिखा देंगे कि हम लोगों को उल्लू बनाने के… सॉरी, आगे बढ़ाने के एक्सपर्ट हैं।

पाँच राज्यों में एक बार फिर विकल्पहीनता का चुनाव : मज़दूर वर्ग के स्वतन्त्र पक्ष के क्रान्तिकारी प्रतिनिधित्व का सवाल

फासीवादी ताक़तों का ख़तरा किसी उदार पूँजीवादी पार्टी के जरिये नहीं दूर हो सकता है, क्योंकि वह उदार पूँजीवादी पार्टियों के शासन के दौर में पैदा अनिश्चितता, अराजकता और असुरक्षा के कारण ही पैदा होता है। इसलिए हम इस या उस पूँजीवादी पार्टी के ज़रिये तात्कालिक राहत की भी बहुत ज़्यादा उम्मीद न ही करें तो बेहतर होगा। वास्तव में, अब तात्कालिक तौर पर भी मज़दूर वर्ग के लिए यह ज़रूरी बन गया है कि वह स्वतन्त्र तौर पर अपने राजनीतिक पक्ष को पूँजीवादी चुनावों के क्षेत्र में प्रस्तुत करे और अपने क्रान्तिकारी रूपान्तरण की लम्बी लड़ाई को आगे बढ़ाने के लिए इन चुनावों में रणकौशल के तौर पर भागीदारी करे। इसके बिना भारत में मज़दूर वर्ग का क्रान्तिकारी आन्दोलन ज़्यादा आगे नहीं जा पायेगा।

हिन्दुत्ववादी फासिस्टों और रंग-बिरंगे लुटेरे चुनावी मदारियों के बीच जनता के पास चुनने के लिए क्या है?

भाजपा सत्ता में रहे या न रहे, फासीवाद के विरुद्ध लड़ाई की योजनाबद्ध, सांगोपांग, सर्वांगीण तैयारी क्रान्तिकारी एजेण्डे पर हमेशा प्रमुख बनी रहेगी, क्योंकि फासीवाद राजनीतिक परिदृश्य पर अपनी प्रभावी उपस्थिति तबतक बनाये रखेगा, जबतक राज, समाज और उत्पादन का पूँजीवादी ढाँचा बना रहेगा। इसलिए फासीवाद विरोधी संघर्ष को हमें पूँजीवाद-साम्राज्यवाद विरोधी क्रान्तिकारी संघर्ष के एक अंग के रूप में ही देखना होगा। इसे अन्य किसी भी रूप में देखना भ्रामक होगा और आत्मघाती भी।

केजरीवाल सरकार का “आम आदमी” चेहरा एक बार फिर बेनकाब

चुनाव से पहले खुद अरविन्द केजरीवाल दूसरी पार्टियों पर ये आरोप लगाते थे कि अपना वेतन बढ़ाने के मुद्दे पर ये सभी एकमत को जाते हैं पर लोकपल पर इनकी सहमति नहीं बनती है। इन्होंने घोषणा की थी कि ये आम आदमी की तरह जीवन बितायेंगेे, 25 हज़ार से ज्यादा कोई वेतन नहीं लेगा, कोई बड़ा बंगला नहीं लेंगे, ज़रूरत पड़ने पर छोटा सरकारी घर लेंगे, कोई पुलिस सुरक्षा नहीं लेंगे, सादा जीवन बिताएंगे आदि-आदि। हमेशा की तरह अपनी बात से पलटी खा कर ये “स्वराज” के पुजारी बाकी नेताओं की ही तरह जनता के पैसे पर जम कर आइयाशी कर रहे है।

यह समय फासीवाद के विरुद्ध लड़ाई को और व्‍यापक व धारदार बनाने का है

इन आधारों पर बिहार चुनाव के नतीजों के बाद यह कहना ग़लत नहीं होगा कि मतदाताओं की बहुसंख्या ने भाजपा गठबन्धन को नकार दिया है। तो क्या उसने महागठबन्धन के दलों को वास्तविक समर्थन दिया है और उनसे उसे अपने जीवन में बदलाव आ जाने की उम्मीद है? नहीं, यह सोचना भी ग़लत होगा। दरअसल, यह विकल्पहीनता का चुनाव था। मतदाता इस बारे में किसी भ्रम के शिकार नहीं हैं। आधी सदी से ज़्यादा समय के तजुर्बों ने उनके सामने यह बिल्कुल साफ कर दिया है कि कोई भी पूँजीवादी चुनावी पार्टी उनकी आकांक्षाओं पर खरी नहीं उतरती। लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के ढाई दशक के शासन को भी लोग अच्छी तरह से जानते हैं। लेकिन फिर भी चुनाव के समय मतदाताओं की सोच यह होती है कि जब कोई ऐसा विकल्प सामने नहीं है जो उनकी आकांक्षाओं को सही मायने में पूरा करे तो क्यों न दो बुराइयों में से कम बुराई वाले को चुन लिया जाये। महागठबन्धन का चुनाव इसी तरह कम बुराई का चुनाव था। यह लालू-नीतीश-काँग्रेस में आस्था जताना या उनकी नीतियों का समर्थन नहीं है।

चुनावबाज़ पार्टियों के खोखले वादों को पहचानना होगा और आम मेहनतकश जनता को आगे की लड़ाई के लिए तैयार होना होगा!

चुनाव से पहले आम आदमी पार्टी ने वायदा किया था कि पाँच साल तक एक भी झुग्गी नहीं टूटेगी और झुग्गी के बदले पक्के मकान दिये जायेंगे, मगर सरकार बनने के बाद से सिर्फ़ वज़ीरपुर में ही यह झुग्गियाँ टूटने की तीसरी घटना है। सत्ता में आने के 100 दिन के भीतर ही आम आदमी पार्टी के चुनावी वादों की पोल अब जनता के सामने खुल रही है। झुग्गीवासियों के दम पर 70 में से 67 सीट जीतने वाली आप की सरकार आज उसी को ख़ून के आँसू रुला रही है। जहाँ दिसम्बर की ठण्ड में आज़ादपुर की पटरी के पास रेलवे द्वारा 10 झुग्गियाँ तोड़ी गयी थीं, उसके बाद जेलर बाग में एक स्कूल और उससे लगी झुग्गियाँ तोड़ी गयी थीं और अभी भी पूरी दिल्ली भर के अलग-अलग इलाक़ों (शहादरा, खजूरी, मुकुन्दपुर) में भी झुग्गियों को तोड़े जाने की घटनाएँ लगातार सामने आ रही हैं।

राजस्थान में पंचायती राज चुनाव में बदलाव से जनता को क्या मिला!

इनमें मुख्यतः गाँवों के कुलकों व धनी किसानों का दबदबा है। आरक्षण व्यवस्था के तहत यदि कोई महिला या दलित चुन भी लिया जाता है तो वे भी उन्हीं वर्गों की सेवा करते हैं। पंचायत समितियों व ज़िला परिषदों के चुनाव तो चुनावबाज़ पार्टियों द्वारा लड़े जाते हैं व सरपंच व पंचों के चुनाव स्वतन्त्र उम्मीदवारों द्वारा लड़े जाते हैं। लेकिन मुख्यतः इन चुनावों में जातीय समीकरणों का ही बोलबाला होता है। बुर्जुआ जातिवाद का सबसे विद्रुप चेहरा इन चुनावों में देखने को मिलता है। साथ ही दारू, बोटी, नक़द रुपये पैसे का भी इन चुनावों में बहुत इस्तेमाल होता है। मनरेगा व अन्य चलने वाली सरकारी योजनाओं से भ्रष्टाचार के द्वारा होने वाली कमाई के बाद अब तो सरपंच का चुनाव भी बहुत ख़र्चीला चुनाव हो गया है। इसमें अब प्रत्याशी 50 लाख रुपये तक ख़र्च करने लगे हैं। क्योंकि इससे कई गुना कमाई होने की पूरी गारण्टी है। ज़ाहिर सी बात है इतना पैसा ख़र्च करना एक मध्‍यमवर्गीय व्यक्ति या एक मध्यम किसान के भी बूते से बाहर की बात है। एक ग़रीब किसान या मज़दूर की तो बात ही दूसरी है। तब फिर गाँवों में जनप्रतिनिधि कौन चुने जाते हैं वही जो धनी व खाते-पिते किसानों का वर्ग है और शहरों के नज़दीकी गाँवों में प्रोपर्टी की क़ीमतों के फलस्वरूप अस्तित्व में आये वर्ग में से।

दिल्ली में ‘चुनाव भण्डाफोड़ अभियान’ चुनाव में जीते कोई भी हारेगी जनता ही!

कई दशक से जारी इस अश्लील नाटक के पूरे रंगमंच को ही उखाड़ फेंकने का वक़्त आ गया है। इस देश के मेहनतकशों और नौजवानों के पास वह क्रान्तिकारी शक्ति है जो इस काम को अंजाम दे सकती है। बेशक यह राह कुछ लम्बी होगी, लेकिन पूँजीवादी नक़ली जनतन्त्र की जगह मेहनतकश जनता को अपना क्रान्तिकारी विकल्प पेश करना होगा। उन्हें पूँजीवादी जनतन्त्र का विकल्प खड़ा करने के एक लम्बे इंक़लाबी सफ़र पर चलना होगा। यह सफ़र लम्बा तो ज़रूर होगा लेकिन हमें भूलना नहीं चाहिए कि एक हज़ार मील लम्बे सफ़र की शुरुआत भी एक छोटे से क़दम से ही तो होती है!

महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों का रियलिटी शो

शिवसेना का “शेर” मुसीबत में पड़ गया है और अब तक नहीं सँभल पाया है। जिन्हें मुख्यमन्त्री बना देखने की इच्छा सभी शिवसैनिक पाल रहे थे, वह उद्धव ठाकरे यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि अपना “मराठी स्वाभिमान” बनाये रखें या भाजपा की पूँछ से लटककर सत्ता में हिस्सेदार बनें। पहले, “जहाँ सम्मान नहीं मिलता वहाँ क्यों जायें” कहने के बाद शपथ ग्रहण समारोह में उपस्थित होकर पहले तो उद्धव ठाकरे ने अपनी सहृदयता का परिचय दिया। उसके बाद एक तरफ़ विपक्ष में बैठने की दहाड़ लगा रहे हैं तो दूसरी तरफ़ भाजपा के साथ चर्चा जारी रखने की उदारता को भी वह छोड़ नहीं पा रहे हैं।