प्रधानमन्त्री के संसदीय क्षेत्र में बर्बर बलात्कार और न्यायपालिका का दिनोदिन बढ़ता दकियानूसी और स्त्री-विरोधी चरित्र
अविनाश
प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में एक वीभत्स घटना सामने आयी है। 23 दरिन्दों द्वारा 19 साल की लड़की के साथ 7 दिन तक किए गए बर्बर बलात्कार के मामले ने पूरे देश को एक बार फ़िर से झकझोर दिया है। ख़बर सामने आ रही है कि ये अपराधी उत्तर प्रदेश की डबल इंजन सरकार के नाक के नीचे सेक्स और ड्रग्स रैकेट चला रहे थे। जाहिर है कि ऐसा कोई भी रैकेट बिना शासन-प्रशासन के संरक्षण के बगैर चल पाना सम्भव नहीं है। इस घटना ने एक बार फिर से सरकार के स्त्री सुरक्षा के तमाम दावों की पोल खोल दी है। ग़ौरतलब है कि यह इस तरीक़े की कोई पहली घटना नहीं है। आईआईटी की घटना, नीट की तैयारी कर रही बिहार की एक लड़की के साथ बलात्कार और हत्या की घटना और अब यह घटना प्रधानमन्त्री मोदी के संसदीय क्षेत्र बनारस में बर्बर स्त्री विरोधी अपराधों के कुछ हालिया उदाहरण हैं। बीएचयू कैम्पस तक में आये दिन लड़कियों के साथ छेड़खानी की घटना होती रहती है। विश्वविद्यालय प्रशासन और जिला प्रशासन केवल मूकदर्शक बनकर देखता रहता है। हर बार की तरह इस बार भी घटना के सामने आने के बाद लीपापोती और बयानबाजियों का दौर शुरू हो चुका है। आज फ़ासीवादी दौर में पुलिस प्रशासन से लेकर न्यायालय तक ऐसे अपराधियों को बरी करने और संरक्षण देने का काम खुलेआम कर रहा है।
बुर्जुआ लोकतन्त्र का हर खम्भा जनता के सीने में बेदर्दी से धँसा होता है। इसकी सच्चाई से एक हद तक आम जनता भी परिचित होती है। लेकिन विशेष तौर पर फ़ासीवादी दौर में यह सच्चाई और भी नंगे रूप में जनता के सामने उजागर हो जाती है। इससे बुर्जुआ न्याय व्यवस्था भी परे नहीं है। पिछले कुछ दिनों के भीतर ही बुर्जुआ न्याय व्यवस्था का स्त्री विरोधी चरित्र एकदम खुलकर सामने आ गया है। बिलकिस बानो के बलात्कारियों को छोड़ने से लेकर छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट द्वारा पति द्वारा किये गए बलात्कार को बलात्कार न मानना इसकी कुछ बानगी है। स्त्री विरोधी पितृसत्तात्मक मानसिकता की उल्टी करने में इलाहाबाद हाईकोर्ट देश के अन्य न्यायालयों को मीलों पीछे छोड़ चुका है। ऐसा लग रहा है मानो इलाहाबाद हाईकोर्ट के जजों के बीच कोई घृणित प्रतियोगिता चल रही है कि कौन सबसे ज़्यादा स्त्री विरोधी पितृसत्तात्मक मानसिकता का मुज़ाहिरा पेश कर सकता है।
इसका सबसे हालिया उदाहरण पिछले 10 अप्रैल को इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज संजय कुमार सिंह का बयान है। सितम्बर 2024 में दिल्ली के हौज़खास में हुए बलात्कार के मामले की सुनवाई करते हुए जज साहब ने अपराधी को बेल दे दिया और साथ में बलात्कार के लिए महिला को ही ज़िम्मेदार ठहराते हुए बयान दिया कि- “इस न्यायालय का मानना है कि अगर पीड़िता के आरोप को सच भी मान लिया जाय तो भी यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि उसने ख़ुद ही मुसीबत को आमन्त्रित किया और इसके लिए वह ख़ुद ज़िम्मेदार भी है।” जज साहब के मुखारबिन्दु से यह कचरा इसलिए जगजाहिर हुआ क्योंकि पीड़िता ने शराब का सेवन किया हुआ था, जिसकी वजह से इनकी भावना आहत हो गयी थी। इस बयान से ऐसा लग रहा है कि “न्याय के इस देवता” का ध्यान आरोपी की भूमिका पर कम और पीड़िता की भूमिका पर ज्यादा था। जज साहब यह बताना भूल गए कि शराब पीकर किसी के साथ चले जाने से आरोपी को बलात्कार करने की छूट किस क़ानून के मुताबिक़ मिल जाती है? अब जज साहब को कौन बताये की कन्सेण्ट यानी सहमति नाम की भी कोई चीज़ होती है।
विडम्बना यही है कि औपनिवेशिक कोख से पैदा हुआ भारतीय पूँजीवाद जन्म से ही विकलांग रहा। इसमें इतनी भी प्रगतिशीलता का तत्व नहीं था कि न्याय और जनवाद के उन मानकों पर खरा उतारे जो पुर्नजागरण-प्रबोधन-क्रान्ति के रास्ते विकसित हुआ पूँजीवाद ने स्थापित किया था। इसलिए यहाँ स्त्री-पुरुष रिश्तों में स्त्रियों की चाहत और सहमति का सवाल कभी रिश्ते के केन्द्र में रहता ही नहीं है। भारतीय न्यायालयों में बैठे “न्यायाधीश” भी इसके अपवाद नहीं है। इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा पितृसत्तात्मक सोच के प्रदर्शन का यह कोई पहला अवसर नहीं है बल्कि गाहे-बगाहे हाईकोर्ट द्वारा इस मानसिकता का प्रदर्शन होता ही रहता है। पिछले दिनों जस्टिस राममनोहर रामायण मिश्र की पीठ ने उत्तर प्रदेश के कासगंज में हुए एक मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि पीड़िता का स्तन छूना या पाजामे की डोरी तोड़ने को बलात्कार या बलात्कार की कोशिश के मामले में नहीं गिना जा सकता है। “मिश्रा जी” यह नहीं बता पाये की कोई अपराधी ऐसा कुकृत्य करेगा ही क्यों? दरअसल पूँजीवादी पितृसत्तात्मक और ब्राह्मणवादी मानसिकता कभी भी स्त्रियों, दलितों, अल्पसंख्यकों और वैकल्पिक जेण्डर की गरिमा और आत्मसम्मान को तरजीह ही नहीं देता है। जिसका नंगा प्रदर्शन यहाँ मिश्रा जी के द्वारा किया गया।
न्यायपालिका द्वारा हालिया दिनों में दिए गए कुछ प्रातनिधिक बयान है जो आज के दौर में न्यायपालिका के भीतर तक पैठी पुरुषवादी मानसिकता को रेखांकित करने के लिए काफ़ी है। यह केवल न्यायपालिका का मामला नहीं है। बल्कि आज देश की सभी सर्वोच्च संस्थाओं में फ़ासीवादी घुसपैठ हो चुकी है। फ़ासीवाद अपनी मूल प्रकृति से ही स्त्री विरोधी विचारधारा को खाद पानी देने का काम करता है। जैसा कि वित्तमन्त्री निर्मला सीतारमण और योगी आदित्यनाथ के बयानों से समझा जा सकता है। जहाँ निर्मला सीतारमण का कहना है कि “पितृसत्ता वामपन्थी अवधारणा है।” वहीं योगी का मानना है कि “महिलाओं को स्वतन्त्र या आज़ाद नहीं छोड़ा जा सकता है।” बस योगी जी यह कहना भूल गए कि कुलदीप सिंह सेंगर, आशाराम, रामरहीम जैसे अपराधियों को आज़ाद छोड़ने से देश “विश्वगुरु” बनेगा। फ़ासीवादी शासन में बलात्कारियों के पक्ष में फ़ासिस्टों द्वारा तिरंगा यात्रा निकलने से लेकर आरोपियों को बेल मिलने पर फूल माला से स्वागत करना आम बात बन चुकी है। ऐसे में समाज के सबसे बर्बर, अपराधिक और बीमार तत्वों को अपराध करने की खुली छुट मिल जाती है। यह स्थिति और भी ख़तरनाक तब बन जाती है बुर्जुआ न्याय व्यवस्था बुर्जुआ जनवाद के अतिसीमित प्रगतिशीलता को स्थापित करने की जगह फ़ासिस्टों के हाथ की कठपुतली बन जाय और जनविरोधी-स्त्रीविरोधी बयानों की झड़ी लगा दे। न्यायपालिका के इस प्रकार के बयानों की वजह से समाज में गहराई से पैठी स्त्री विरोधी मानसिकता को फलने-फूलने के लिए खाद पानी मिलेगा। और कालान्तर में स्त्रियों के ख़िलाफ़ होने वाले जघन्य अपराधों के लिए ज़मीन तैयार हो रही है।।
‘नारी शक्ति’ और ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ का राग अलापने वाली मोदी सरकार के कार्यकाल में स्त्री विरोधी अपराधों की बाढ़ सी आ गई है। कहीं शिक्षकों द्वारा छात्राओं का उत्पीड़न, कहीं बालिका गृहों में बच्चियों पर यौन हिंसा, कहीं झूठी शान के लिए लड़कियों को मार देना, कहीं सत्ता में बैठे लोग स्त्रियों को नोचते हैं, कहीं जातीय या धार्मिक दंगों में औरतों पर ज़ुल्म होता है तो कहीं पर पुलिस और फ़ौज की वर्दी तक में छिपे भेड़िये यौन हिंसा में लिप्त पाये जाते हैं!
पिछले दस सालों की बात करें तो बलात्कार की घटनाओं में लगभग 26.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। आज हालत यह हो चुकी है कि प्रतिदिन लगभग 86 बलात्कार के अपराध हमारे देश में दर्ज़ हो रहे हैं। ये तो वे मामले हैं जो तमाम दबावों के बाद भी मीडिया और पुलिस तक पहुँच जाते हैं। इससे कई गुना ज़्यादा मामले लोक-लाज के डर और लचर प्रशासनिक-न्यायिक व्यवस्था की वजह से कभी सामने आ ही नहीं पाते। उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में जो लोग न्याय के लिए आवाज़ उठा रहे हैं उनपर दमन का पाटा चलाया जा रहा है। आईआईटी-बीएचयू में छात्रा के साथ भाजपा आईटी-सेल के गुण्डों द्वारा गैंगरेप की घटना के बाद न्याय के लिए संघर्ष करने वाले छात्रों पर ही मुक़दमा दर्ज़ कर निलम्बित करने का फरमान जारी कर दिया गया। इस तरह की घटनाओं में वृद्धि की एक बड़ी वज़ह ये है कि सत्ता में बैठे हुए लोग ऐसे बर्बर अपराधियों-बलात्कारियों को शह देने का काम करते हैं। उत्तर प्रदेश में 2017 के मुकाबले 2022 में दागी विधायकों की संख्या में डेढ़ गुना की वृद्धि हुई है। आये दिन आसाराम और राम रहीम जैसे बलात्कारियों को पैरोल पर बाहर निकलने का मौक़ा दिया जाता है।
ऐसी स्थिति में इन बर्बर बलात्कारियों के हौसले बुलन्द होते हैं। ऐसी मानसिकता वाले अपराधियों को लगता है, वे चाहे कुछ भी करें उन्हें कोई सजा नहीं होगी। दरअसल संस्कार और शुचिता की बात करने वाली योगी-मोदी सरकार के खुद के सांसद और विधायक ही ऐसे बर्बर कृत्यों में लिप्त पाये जाते हैं। भाजपा में चिन्मयानन्द, कुलदीप सिंह सेंगर, प्रज्ज्वल रेवन्ना, ब्रजभूषण शरण सिंह जैसे बलात्कारियों की भरमार है। ऐसे में यह साफ़ जाहिर है कि ये लोग ऐसी मानसिकता को पोषित करने का ही काम करेंगे। ये फ़ासीवादी सरकार आज पूरे समाज के पोर-पोर में स्त्री विरोधी पितृसत्तात्मक मूल्य-मान्यताओं को फैलाने का काम कर रही है। जिस वज़ह से ऐसे बलात्कारी और अपराधी किस्म की मानसिकता तैयार होती है। आज के दौर में फ़िल्मों से लेकर गाने-सिनेमा-साहित्य हर माध्यम से घोर स्त्री विरोधी संस्कृति को प्रचारित करने का काम किया जा रहा है। जिसका नतीज़ा है कि समाज में ऐसी घटनाएँ थमने का नाम नहीं ले रही हैं। आज हर इन्साफ़पसन्द और संवेदनशील व्यक्ति को ऐसे बर्बर स्त्री विरोधी अपराधों के खिलाफ़ खड़े होने की ज़रूरत है। इन अपराधियों और बलात्कारियों को शह देने वालों के खिलाफ़ खड़े होने की ज़रूरत है। साथ ही साथ यह समझने की भी ज़रूरत है कि जब तक पूँजीवाद रहेगा तब तक ऐसी स्त्री विरोधी मानसिकता उत्पादित और पुनरुत्पादित होती रहेगी।
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