मौत की खदानों में मुनाफे का खेल

डा. नवमीत

जसवंत मांझी एक दिहाड़ी मज़दूर है जो गुजरात के गोधरा में पत्थर की ख़दानों में काम करता है। कुछ साल पहले उसको काम करने में दिक्कत होने लगी थी। फिर कुछ समय बाद बिना काम किये भी साँस फूलने लगी, लगातार खाँसी और थकान रहने लगी, छाती में दर्द रहने लगा, भूख ख़त्म होने लगी, और चमड़ी का रंग नीला पड़ने लगा। इसी तरह के लक्षणों के चलते जसवंत के बड़े भाई, बहन और बहनोई की भी मौत हो चुकी है। सिर्फ़ ये लोग ही नहीं, इनके जैसे 238 मज़दूर गोधरा की इन पत्थर ख़दानों में इसी बीमारी “सिलिकोसिस” के कारण अपनी जान गँवा चुके हैं। सिलिकोसिस एक “ऑक्यूपेशनल डिजीज़” यानि पेशागत बीमारी है जो मरीज़ के फेफड़ों को ख़राब कर देती है। इसको “ख़दान मज़दूर का यक्ष्मा” भी कहा जाता है। यह रोग सिलिका डस्ट, यानि पत्थर काटने के दौरान पैदा हुई धूल के साँस के साथ फेफड़ों में जाने और वहाँ जमने से होता है। पत्थर की ख़दानों में काम करने वाले ज्‍़यादातर मज़दूर इसका शिकार हो जाते हैं। ख़दानों में कुछ महीने काम करने के बाद ही मज़दूर इस बीमारी का शिकार होने लग जाते हैं, उनके फेफड़ों के ऊपरी हिस्से में सूजन आ जाती है और गाँठें बन जाती हैं। इस रोग के लक्षण होते हैं खाँसी, बुखार, साँस फूलना और साँस फूलने की वजह से रोगी की चमड़ी का रंग नीला पड़ जाना, और जब रोग बढ़ जाता है तो हृदय रोग की संभावना भी बढ़ जाती है। इन रोगियों में टीबी होने की संभावना भी अधिक होती है। बीमारी होने के बाद भी लगातार उन्हीं परिस्थितियों में काम करते रहने पर अन्ततः मज़दूर की मौत हो जाती है। सिलिका धूल के मजदूरों के फेफड़ों में जाने से रोकने के लिए कार्यस्थल पर सुरक्षा के इंतज़ाम करने की ज़िम्मेदारी मालिक की होती है जो कभी भी पूरी नहीं की जाती और मज़दूर लगातार इसकी चपेट में आते रहते हैं।

जसवंत मांझी  फोटो साभार - इण्डियन एक्‍सप्रेस

जसवंत मांझी
फोटो साभार – इण्डियन एक्‍सप्रेस

2011 में इन मज़दूरों ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और वडोदरा के लेबर कोर्ट में मुआवजे़ के लिए याचिका दाख़‍िल की थी। 2013 में जब राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने फैसला दिया कि इस बीमारी मरने वालों के परिवार को पाँच-पाँच लाख रुपये मुआवजे के तौर पर गुजरात सरकार दे और साथ में फरवरी 2014 तक इसकी विस्तृत रिपोर्ट भी आयोग को सौंपे। लेकिन जब यह फ़ैसला आया तब तक उन्नीस याचिका कर्ताओं में से छह की मौत हो चुकी थी। बहरहाल 2014-15 के बाद अब 2016 भी आधा जा चुका है लेकिन अभी तक राज्य सरकार ने न तो मुआवज़ा दिया है और न ही कोई रिपोर्ट पेश की है। 2015 में लेबर कोर्ट ने भी फ़ैसला दिया था कि उन सभी मज़दूरों को, जो इस बीमारी से ग्रस्त हैं, 2007 से अभी तक 7 प्रतिशत ब्याज़ की दर से ईएसआई निगम द्वारा मुआवज़ा दिया जाए। ईएसआई इस फ़ैसले के ख़‍िलाफ़ हाई कोर्ट में चला गया जहाँ मामला अभी तक लंबित है। दूसरी तरफ़ इस बीमारी से ग्रसित कुछ मज़दूर जब इलाज के लिए स्थानीय प्राथमि‍क स्वास्थ्य केंद्र में गए तो वहाँ उनको टीबी के कार्ड थमा कर औपचारिकता पूरी कर ली गई। इसके चलते अब इन लोगों को अपनी बीमारी भी साबित करने में दिक्कत आ रही है क्योंकि इनके कार्ड पर बीमारी का नाम सिलिकोसिस न होकर टीबी लिखा हुआ है जिसके लिए मुआवज़े का भी कोई प्रावधान नहीं है। ऐसे में ये सभी न्याय के लिए दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं। गुजरात के श्रम मंत्री से जब इस बारे में पूछा गया तो उन्होंने बेशर्मी के साथ इस पूरे मामले से अनभिज्ञता जता कर पल्ला झाड़ दिया। ज़ाहिर है कि मंत्री जी को क्यों पता होने लगा? मज़दूर कौन सा टाटा, बिडला, अम्बानी की तरह करोड़ों का चंदा देते हैं?

खै़र यह सिर्फ़ गोधरा के इन मज़दूरों की बात नहीं है। पूरे देश की यही हालत है। चाहे वह बिहार ख़दानें हों या महराष्ट्र की। सिर्फ़ पत्थर की ख़दानों में ही नहीं, बल्कि अन्य बहुत सी फैक्टरियों में भी मज़दूर इसका शिकार हो जाते हैं। चाहे वे हथियार बनाने के कारखाने हों या पेंसिल बनाने वाली फैक्टरियाँ। पेंसिल बनाने वाली फैक्टरियों में तो लगभग 55 प्रतिशत मज़दूर इस बीमारी के शिकार हो जाते हैं। इस बीमारी की मार सबसे ज्‍़यादा असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों पर पड़ती है, जिसमें स्टोन कटिंग और स्लेट पेंसिल कटिंग इंडस्ट्री प्रमुख हैं। यूँ तो पूँजीवादी व्यवस्था में किसी भी क्षेत्र में मज़दूर का भयंकर शोषण होता है लेकिन असंगठित क्षेत्र में शोषण अपनी तमाम हदों को पार कर जाता है। श्रम क़ानूनों का सबसे ज्‍़यादा उल्‍लंघन इसी असंगठित क्षेत्र में किया जाता है। स्टोन कटिंग और स्लेट पेंसिल कटिंग जैसी इंडस्ट्री में काम करने वाले हर साल लाखों मज़दूर इस बीमारी का शिकार होते हैं जिनमें से हज़ारों की मौत हो जाती है। यह तब है जबकि सिलिकोसिस को एक “नोटीफायेबल डिजीज़” यानि सूचनीय रोग का दर्जा मिला हुआ है। “सूचनीय रोग” वे रोग होते हैं जो किसी भी व्यक्ति में पता लगते ही इसके बारे में स्वास्थ्य विभाग को सूचित करना क़ानूनन अनिवार्य होता है, ताकि इनकी रोकथाम और इलाज के लिए समय पर कार्रवाई की जा सके। लेकिन असल में तो सूचना दी ही नहीं जाती और अगर गलती से सूचना दे भी दी जाती है तो कार्रवाई नहीं होती। न तो इलाज की और न ही मुआवजे़ की। जसवंत मांझी जैसे लाखों मज़दूर यूँ ही एक दफ़्तर से दूसरे दफ़्तर के चक्कर काटते रह जाते हैं। और बात केवल इस बीमारी की भी नहीं है। पेशागत बीमारियाँ हर साल लाखों मज़दूरों को अपनी चपेट में ले लेती हैं। लाखों अपंग हो जाते हैं और लाखों मर जाते हैं। सिर्फ बीमारियाँ ही नहीं काम करते समय होने वाले हादसे भी कितने ही मज़दूरों को लील जाते हैं। लेकिन किसी सरकार या अदालत के कानों पर जूँ तक नहीं रेंगती। मालिक को तो ख़ैर अपने मुनाफे़ से मतलब होता है, मज़दूर मरे या जि‍यें उसकी बला से। एक मरेगा तो दस मिल जायेंगे। बहुत हुआ तो पुलिस और प्रशासन को घूस खिलाकर मामले को रफ़ा-दफ़ा करवा देगा।

सरकारी खजाने भी इन्हीं रक्तपिपासु पूँजीपतियों को सब्सिडियाँ देने, इनके क़र्जे़ माफ़ करने, संसद विधानसभाओं में बहसबाजी करने वाले नेताओं व सरकारी अफ़सरों की ऐय्याशियों के लिए लुटाए जाते हैं। किसी मज़दूर को न तो कभी मुआवज़ा मिलता है न कोई और राहत। न कभी उनकी सुरक्षा के इंतजाम होते हैं और न ही कभी व्यवसाय-जनित बीमारियों और हादसों के होने के बाद उनका कोई इलाज ही होता है। हमारे देश में मेहनतकश वर्ग की हालत पहले भी कोई अच्छी नहीं थी लेकिन 1991 में नवउदारवादी नीतियों के लागू होने के बाद से तो यह लगातार बद से बदतर ही होती चली गई। तमाम श्रम कानूनों को विकास के नाम पर ख़त्म किया जा रहा है। पूँजीपतियों को ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफा हो, इसके लिए सरकार ने हर तरह के उपाय किये हैं और ये सब मजदूरों की जीविका, सुरक्षा और स्वास्थ्य की कीमत पर हुआ है। और जब से मोदी के नेतृत्व में फासीवाद देश कि सत्ता पर काबिज हुआ तब से तो मज़दूर वर्ग का दमन अपने चरम पर पहुँच गया है। जो थोड़े बहुत श्रम कानून बचे भी हुए हैं उनका भी फायदा जसवंत मांझी जैसे असंगठित क्षेत्र में लगे हुए मजदूरों कभी नहीं मिलता।

साफ़ है कि पूंजीवादी व्यवस्था में मेहनतकश वर्ग की जिंदगी नर्क बननी तय है। उसको न तो कहीं पर मदद मिलती है और न ही कहीं इंसाफ़ मिलता है। चुनावी पार्टियों के लिए वह सिर्फ एक वोट बैंक है। पूंजीपति मालिकों के लिए वह मुनाफा कमाने का औजार है। न उसकी सुनवाई सरकार करती है, न अदालत करती है और न ही प्रशासन। ऐसे में उसके पास संगठित होकर अपने हकों के लिए खुद लड़ने के अलावा कोई रास्ता नहीं है। मुनाफे पर टिकी हुई यह पूँजीवादी व्यवस्था ही मज़दूर की इस हालत के लिए जिम्मेदार है। जरूरत इसी बात की है कि मज़दूर वर्ग संगठित होकर अपने हर तरह के अधिकारों के लिए एकजुटता के साथ संघर्ष करे, चाहे वह कार्यस्थल पर सुरक्षा का हो, स्वास्थ्य का हो, मज़दूरी का हो, उचित मुआवज़े का हो या फिर एक कुल मिला कर सम्मानित जिंदगी जीने का ही क्यों न हो। लेकिन सिर्फ़ इतना ही काफी नहीं होगा। पूँजीवादी व्यवस्था जब तक क़ायम रहेगी तब तक मेहनतकश की ज़िन्दगी कोई मूलभूत सुधार नहीं आने वाला है। इसलिए जरूरी है कि इस मानवद्रोही पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंका जाये और समाजवाद की स्थापना की जाए।

 

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2016


 

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