असग़र वजाहत  की कहानी ज़ख्‍़म के कुछ अंश

कुछ महीनों की लगातार बातचीत के बाद हम लोगों के बीच कुछ बुनियादी बातें साफ हो चुकी थीं। उसे सबसे बड़ी दिलचस्पी इस बात में पैदा हो गयी थी कि दंगे कैसे रोके जा सकते हैं। हम दोनों ये जानते थे कि दंगे पुलिस, पी.ए.सी. प्रशासन नहीं रोक सकता। दंगे साम्प्रदायिक पार्टियां भी नहीं रोक सकतीं, क्योंकि वे तो दंगों पर ही जीवित हैं। दंगों को अगर रोक सकते हैं तो सिर्फ लोग रोक सकते हैं।

‘लेकिन लोग तो दंगे के जमाने में घरों में छिपकर बैठ जाते हैं।’ उसने कहा।

‘हां, लोग इसलिए छिपकर बैठ जाते हैं क्योंकि दंगा करने वालों के मुकाबले वो मुत्तहिद नहीं हैं. . .अकेला महसूस करते हैं अपने को. . .और अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता। जबकि दंगा करने वो ‘आरगेनाइज` होते हैं. . .लेकिन जरूरी ये है कि दंगों के खिलाफ जिन लोगों को संगठित किया जाये उनमें हिंदू-मुसलमान दोनों हों. . .और उनके ख्यालात इस बारे में साफ हों।’

‘लेकिन ये काम करेगा कौन?’

‘हम ही लोग, और कौन?’

‘लेकिन कैसे?’

‘अरे भाई, लोगों से बातचीत करके. . .मीटिंगें करके. . .उनको बता-समझाकर . . .मैं कहता हूं शहर में हिंदू-मुसलमानों का अगर दो सौ ऐसे लोगों का ग्रुप बन जाये जो जान पर खेलकर भी दंगा रोकने की हिम्मत रखते हों तो दंगा करने वालों की हिम्मत परस्त हो जायेगी। तुम्हें मालूम होगा कि दंगा करने वाले बुजदिल होते हैं। वो किसी ‘ताकत` से नहीं लड़ सकते। अकेले-दुकेले को मार सकते हैं, आग लगा सकते हैं, औरतों के साथ बलात्कार कर सकते हैं, लेकिन अगर उन्हें पता चल जाये कि सामने ऐसे लोग है। जो बराबर की ताकत रखते हैं, उनमें हिंदू भी हैं और मुसलमान भी, तो दंगाई सिर पर पैर रखकर भाग जायेंगे।’

वह मेरी बात से सहमत था और हम अगले कदम पर गौर करने की स्थिति में आ गये थे। मुख्तार इस सिलसिले में कुछ नौजवानों से मिला भी था।

कुछ साल के बाद हम दिल्ली में फिर साथ हो गये। मैं दिल्ली में धंधा कर रहा था और वह कनाट प्लेस की एक दुकान में काम करने लगा था और जब दिल्ली में दंगा हुआ और ये पता चला कि कस्साबपुरा भी बुरी तरह प्रभाव में है तो मुझे मुख्तार की फिक्र हो गयी। दूसरी तरफ मुख्तार के साथ जो कुछ घटा वह कुछ इस तरह था।. . .शाम का छ: बजा था। वह मशीन पर झुका काम कर रहा था। दुकान मालिक सरदारजी ने उसे खबर दी कि दंगा हो गया है और उसे जल्दी-से-जल्दी घर पहुंच जाना चाहिए।

पहाड़गंज में बस रोक दी गयी थी। क्योंकि आगे दंगा हो रहा था। पुलिस किसी को आगे जाने भी नहीं दे रही थी। मुख्तार ने मुख्य सड़क छोड़ दी और गलियों और पिछले रास्तों से आगे बढ़ने लगा। गलियां तक सुनसान थीं। पानी के नलों पर जहां इस वक्त चांव-चांव हुआ करती थी, सिर्फ पानी गिरने की आवाज आ रही थी। जब गलियों में लोग नहीं होते तो कुत्ते ही दिखाई देते हैं। कुत्ते ही थे। वह बचता-बचाता इस तरह आगे बढ़ता रहा कि अपने मोहल्ले तक पहुंच जाये। कभी-कभार और कोई घबराया परेशान-सा आदमी लंबे-लंबे कदम उठाता इधर से उधर जाता दिखाई पड़ जाता। एक अजीब भयानक तनाव था जैसे ये इमारतें बारूद की बनी हुई हों और ये सब अचानक एक साथ फट जायेंगे। दूर से पुलिस गाड़ियों से सायरन की आवाजें भी आ रही थीं। कस्साबपुरे की तरफ से हल्का-हल्का धुआं आसमान में फैल रहा था। न जाने कौन जल रहा होगा, न जाने कितने लोगों के लिए संसार खत्म हो गया होगा। न जाने जलने वालों में कितने बच्चे, कितनी औरतें होंगी। उनकी क्या गलती होगी? उसने सोचा अचानक एक बंद दरवाजे के पीछे से किसी औरत की पंजाबी में कांपती हुई आवाज गली तक आ गयी। वह पंजाबी बोल नहीं पाता था लेकिन समझ लेता था। और कह रही थी, बबलू अभी तक नहीं लौटा। मुख्तार ने सोचा, उसके बच्चे भी घर के दरवाजे पर खड़े झिर्रियों से बाहर झांक रहे होंगे। शाहिदा उसकी सलामती के लिए नमाज पढ़ रही होगी। भइया छत पर खड़े गली में दूर तक देखने की कोशिश कर रहे होंगे। छत पर खड़े एक-दो और लोगों से पूछ लेते होंगे कि मुख्तार तो नहीं दिखाई दे रहा है। उसके दिमाग में जितनी तेजी से ये ख्याल आ रहे थे उतनी तेज उसकी रफ़्तार होती जाती थी। सामने पीपल के पेड़ से कस्साबपुरा शुरू होता है और पीपल का पेड़ सामने ही है। अचानक भागता हुआ कोई आदमी हाथ में कनस्तर लिये गली में आया और मुख्तार को देखकर एक पतली गली में घुस गया। अब मुख्तार को हल्का-हल्का शोर भी सुनाई पड़ रहा था। पीपल के पेड़ के बाद खतरा न होगा, क्योंकि यहां से मुसलमानों की आबादी शुरू होती थी। ये सोचकर मुख्तार ने दौड़ना शुरू कर दिया। पीपल के पेड़ के पास पहुंचकर मुड़ा और उसी वक्त हवा में उड़ती कोई चीज उसके सिर से टकराई और उसे लगा कि सिर आग हो गया है। दहकता हुआ अंगारा। उसने दोनों हाथों से सिर पकड़ लिया और भागता रहा। उसे ये समझने में देर नहीं लगी कि एसिड का बल्ब उसके सिर पर मारा गया है। सर की आग लगातार बढ़ती जा रही थी और वह भागता जा रहा था। उसे लगा कि वह जल्दी ही घर न पहुंच गया तो गली में गिरकर बेहोश हो जायेगा और वहां गिरने का नतीजा उसकी लाश पुलिस ही उठाएगी। दोनों बच्चों के चेहरे उसकी नजरों में घूम गये।

दंगा खत्म होने के बाद मैं मुख्तार को देखने गया। उसके बाल भूरे जैसे हो गये थे और लगातार गिरते थे। सिर की खाल बुरी तरह जल गयी थी और ज़ख्म़ हो गये थे। एसिड का बल्ब लगने के बराबर ही भयानक दुर्घटना ये हुई थी कि जब वह घर पहुंचा था तो उसे पानी से सिर नहीं धोने दिया गया था। सबने कहा था कि पानी मत डालो। पानी डालने से बहुत गड़बड़ हो जायेगी। और वह खुद ऐसी हालत में नहीं था कि कोई फैसला कर सकता। आठ दिन कर्फ्यू चला था और जब वह डॉक्टर के पास गया था तो डॉक्टर ने उसे बताया था कि अगर वह फौरन सिर धो लेता तो इतने गहरे ज़ख्म़ न होते।

दंगे के बाद साम्प्रदायिक सद्भावना स्थापित करने के लिए सम्मेलन किये जाने की कड़ी में इन दंगों में तीन महीने बाद सम्मेलन हुआ। सम्मेलन में मैंने सोचा मुख्तार को ले चलना चाहिए। उसे एक दिन की छुट्टी करनी पड़ी और हम दोनों राजधानी की वास्तविक राजधानी- यानी राजधानी का वह हिस्सा जहां चौड़ी साफ सड़कें, सायादार पेड़, चमचमाते हुए फुटपाथ, उंचे-उंचे बिजली के खम्बे और चिकनी-चिकनी इमारते हैं और वैसे ही चिकने-चिकने लोग हैं। मुख्तार भव्य इमारत में घुसने से पहले कुछ हिचकिचाया, लेकिन मेरे बहादुरी से आगे बढ़ते रहने की वजह से उसमें कुछ हिम्मत आ गयी और हम अंदर आ गये। अंदर काफी चहल-पहल थी। विश्वविद्यालयों के छात्र, अध्यापक, संस्थानों के विद्वान, बड़े सरकारी अधिकारी, दफ़्तरों में काम करने वाले लोग, सभी थे। उनमें से अधिकतर चेहरे देखे हुए थे। वे सब वामपंथी राजनीति या उसके जन-संगठनों में काम करने वाले लोग थे। कहां कलाकार, लेखक, बुद्धिजीवी, पत्रकार, रंगकर्मी और संगीतज्ञ भी थे। पूरी भीड़ में मुख्तार जैसे शायद ही चन्द रहे हों या न रहे हों, कहा नहीं जा सकता।

अंदर मंच पर बड़ा-सा बैनर लगा हुआ था। इस पर अंग्रेजी, हिंदी और उर्दू में ‘साम्प्रदायिकता विरोधी सम्मेलन` लिखा था। मुझे याद आया कि वही बैनर है जो चार साल पहले हुए भयानक दंगों के बाद किये गये सम्मेलन में लगाया गया था। बैनर पर तारीखों की जगह पर सफेद कागज चिपकाकर नयी तारीखें लिख दी गयी थीं। मंच पर जो लोग बैठे थे वे भी वही थे जो पिछले और उससे पहले हुए साम्प्रदायिकता विरोधी सम्मेलनों में मंच पर बैठे हुए थे। सम्मेलन होने की जगह भी वही थी। आयोजक भी वही थे। मुझे याद आया। पिछले सम्मेलन के एक आयोजक से सम्मेलन के बाद मेरी कुछ बातचीत हुई थी और मैंने कहा था कि दिल्ली के सर्वथा भद्र इलाके में सम्मेलन करने तथा ऐसे लोगों को ही सम्मेलन में बुलाने का क्या फायदा है जो शत-प्रतिशत हमारे विचारों से सहमत हैं। इस पर आयोजक ने कहा था कि सम्मेलन मज़दूर बस्तियों, घनी आबादियों तथा उपनगरीय बस्तियों में भी होंगे। लेकिन मुझे याद नहीं कि उसके बाद ऐसा हुआ हो।

हाल में सीट पर बैठकर मुख्तार ने मुझसे यही बात कही। वह बोला ‘इनमें तो हिंदू भी हैं और मुसलमान भी।’

मैंने कहा, ‘हां!’

वह बोला, ‘अगर ये सम्मेलन कस्साबपुरा में करते तो अच्छा था। वहां के मुसलमान ये मानते ही नहीं कि कोई हिंदू उनसे हमदर्दी रख सकता है।’

‘वहां भी करेंगे. . .लेकिन अभी नहीं।’ तभी कार्यवाही शुरू हो चुकी थी। संयोजक ने बात शुरू करते हुए साम्प्रदायिक शक्तियों की बढ़ती हुई ताकत तथा उसके खतरों की ओर संकेत किया। यह भी कहा कि जब तक साम्प्रदायिकता को समाप्त नहीं किया जायेगा तब तक जनवारी शक्तियां मजबूत नहीं हो सकतीं। उन्होंने यह आश्वासन भी दिया कि अब सब संगठित होकर साम्प्रदायिक रूपी दैत्य से लडेंगे। इस पर लोगों ने जोर की तालियां बजायीं और सबसे पहले अल्पसंख्यकों के विश्वविद्यालय के उप-कुलपति को बोलने के लिए आमंत्रित किया। उप-कुलपति आई.ए.एस. सर्विसेज में थे। भारत सरकार के उंचे ओहदों पर रहे थे। लंबा प्रशासनिक अनुभव था। उनकी पत्नी हिंदू थी। उनकी एक लड़की ने हिंदू लड़के से विवाह किया था। लड़के की पत्नी अमरीकन थी। उप-कुलपति के प्रगतिशील और धर्म निरपेक्ष होने में कोई संदेह न था। वे एक ईमानदार और प्रगतिशील व्यक्ति के रूप में सम्मानित थे। उन्होंने अपने भाषण में बहुत विद्वत्तापूर्ण ढंग से साम्प्रदायिकता की समस्या का विश्लेषण किया। उसके खतरनाक परिणामों की ओर संकेत किये और लोगों को इस चुनौती से निपटने को कहा। कोई बीस मिनट तक बोलकर वे बैठ गये। तालियां बजीं।

मुख्तार ने मुझसे कहा, ‘प्रोफेसर साहब की समझ तो बहुत सही है।’

‘हां, समझ तो उन सब लोगों की बिलकुल सही है जो यहां मौजूद हैं।’

‘तो फिर?’

तब तक दूसरे वक्ता बोलने लगे थे। ये एक सरदार जी थे। उनकी उम्र अच्छी-खासी थी। स्वतंत्रता सेनानी थे और दसियों साल पहले पंजाब सरकार में मंत्री रह चुके थे। उन्होंने अपने बचपन, अपने गांव और अपने हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख दोस्तों के संस्मरण सुनाये। उनके भाषण के दौरान लगभग लगातार तालियां बजती रहीं। फिर उन्होंने दिल्ली के हालिया दंगों पर बोलना शुरू किया।

मुख्तार ने मेरे कान में कहा, ‘सरदार जी दंगा कराने वालों के नाम क्यों नहीं ले रहे हैं? बच्चा-बच्चा जानता है दंगा किसने कराया था।’

मैंने कहा, ‘बचपने वाली बातें न करो। दंगा कराने वालों के नाम ले दिये तो वे लोग इन पर मुकदमा ठोक देंगे।’

‘तो मुकदमे के डर से सच बात न कही जाये?’

‘तुम आदर्शवादी हो। आइडियलिस्ट. . .।’

‘ये क्या होता है?’ मुख्तार बोला।

‘अरे यार, इसका मकसद दंगा कराने वालों के नाम गिनाना तो है नहीं।’

‘फिर क्या मकसद है इनका?’

‘बताना कि फिरकापरस्ती कितनी खराब चीज है और उसके कितने बुरे नतीजे होते हैं।’

‘ये बात तो यहां बैठे सभी लोग मानते हैं। जब ही तो तालियां बजा रहे हैं।’

‘तो तुम क्या चाहते हो?’

‘ये दंगा करने वालों के नाम बतायें।’ मुख्तार की आवाज तेज हो गई। वह अपना सिर खुजलाने लगा।

‘नाम बताने से क्या फायदा होगा?’

‘न बताने से क्या फायदा होगा?’

स्वतंत्रता सेनानी का भाषण जारी था। वे कुछ किये जाने पर बोल रहे थे। इस पर जोर दे रहे थे कि इस लड़ाई को गलियों और खेतों में लड़ने की जरूरत है। स्वतंत्रता सेनानी के बाद एक लेखक को बोलने के लिए बुलाया गया। लेखक ने साम्प्रदायिकता के विरोध में लेखकों को एकजुट होकर संघर्ष करने की बात उठाई।

‘तुम मुझ एक बात बताओ,’ मुख्तार ने पूछा।

‘क्या?’

‘जब दंगा होता है तो ये सब लोग क्या करते हैं?’

मैं जलकर बोला, ‘अखबार पढ़ते हैं, घर में रहते हैं और क्या करेंगे?’

‘तब तो इस जुबानी जमा-खर्च का फायदा क्या है?’

‘बहुत फायदा है, बताओ?’

‘भाई, एक माहौल बनता है, फिरकापरस्ती के खिलाफ।’

‘किन लोगों में? इन्हीं में जो पहले से ही फिरकापरस्ती के खिलाफ हैं? तुम्हें मालूम है दंगों के बाद सबसे पहले हमारे मोहल्ले में कौन आये थे?’

‘कौन?’

‘तबलीगी जमात और जमाते-इस्लामी के लोग. . .उन्होंने लोगों को आटा-दाल, चावल बांटा था, उन्होंने दवाएं भी दी थीं। उन्होंने कर्फ्यू पास भी बनवाये थे।’

‘तो उनके इस काम से तुम समझते हो कि वे फिरकापरस्ती के खिलाफ हैं।’

‘हों या न हों, दिल कौन जीतेगा. . .वही जो मुसीबत के वक्त हमारे काम आये या जो. . .’

मैं उसकी बात काटकर बोला, ‘खैर बाद में बात करेंगे, अभी सुनने दो।’

कुछ देर बाद मैंने उससे कहा, ‘बात ये है यार कि इन लोगों के पास इतनी ताकत नहीं है कि दंगों के वक्त बस्तियों में जायें।’

‘इनके पास उतनी ताकत नहीं है और जमाते इस्लामी के पास है?’

मैं उस वक्त उसके इस सवाल का जवाब न दे पाया। मैंने अपनी पहली ही बात जारी रखी, ‘जब इनके पास ज्यादा ताकत आ जायेगी तब ये दंगाग्रस्त इलाकों में जा सकेंगे, काम कर सकेंगे।’

‘उतनी ताकत कैसे आयेगी?’

‘जब ये वहां काम करेंगे।’

‘पर अभी तुमने कहा कि इनके पास उतनी ताकत ही नहीं है कि वहां जा सकें. . .फिर काम कैसे करेंगे?’

‘तुम कहना क्या चाहते हो?’

‘मतलब यह है कि इनके पास इतनी ताकत नहीं है कि ये दंगे क बाद या दंगे के वक्त उन बस्तियों में जा सकें जहां दंगा होता है, और ताकत इनके पास उसी वक्त आयेगी जब ये वहां जाकर काम करेंगे. . .और जा सकते नहीं।’

‘यार, हर वक्त दंगा थोड़ी होता रहता है, जब दंगा नहीं होता तब जायेंगे।’

‘अच्छा ये बताओ, जमाते इस्लामी के मुकाबले इन लोगों को कमजोर कैसे मान रहे हो. . .इनके तो एम.पी. हैं, दो तीन सूबों में इनकी सरकारें हैं, जबकि जमाते इस्लामी का तो एक एम.पी. भी नहीं।’

मैं बिगड़कर बोला, ‘तो तुम ये साबित करना चाहते हो कि ये झूठे, पाखंडी, कामचोर और बेईमान लोग हैं?’

‘नहीं, नहीं, ये तो मैंने बिलकुल नहीं कहा!’ वह बोला।

‘तुम्हारी बात से मतलब तो यही निकलता है।’

‘नही, मेरा ये मानना नहीं है।’

मैं धीरे-धीरे उसे समझाने लगा, ‘यार, बात दरअसल ये है कि हम लोग खुद मानते हैं कि काम जितनी तेजी से होना चाहिए, नहीं हो रहा है। धीरे-धीरे हो रहा है, लेकिन पक्के तरीके से हो रहा है। उसमें टाइम तो लगता ही है।’

‘तुम ये मानते होगे कि फिरकापरस्ती बढ़ रही है।’

‘हां।’

‘तो ये धीरे-धीरे जो काम हो रहा है उनका कोई असर नहीं दिखाई पड़ रहा है, हां फिरकापरस्ती जरूरी दिन दूनी रात चौगुनी स्पीड से बढ़ रही है।’

‘अभी बाहर निकलकर बात करते हैं।’ मैंने उसे चुप करा दिया।

इस बीच चाय सर्व की गयी। आखिरी वक्ता ने समय बहुत जो जाने और सारी बातें कह दी गयी हैं, आदि-आदि कहकर अपना भाषण समाप्त कर दिया। हम दोनों थोड़ा पहले ही बाहर निकल आये। सड़क पर साथ-साथ चलते हुए वह बोला, ‘कोई ऐलान तो किसी को करना चाहिए था।’

‘कैसा ऐलान?’

‘मतलब ये है कि अब ये किया जायेगा, ये होगा।’

‘अरे भाई, कहा तो गया कि जनता के पास जायेंगे, उसे संगठित और शिक्षित किया जायेगा।’

‘कोई और ऐलान भी कर सकते थे।’

‘क्या ऐलान?’

‘प्रोफेसर साहब कह सकते थे कि अगर फिर दिल्ली में दंगा हुआ तो वे भूख हड़ताल पर बैठ जायेंगे। राइटर जो थे वो कहते कि फिर दंगा हुआ तो वे अपनी पद्मश्री लौटा देंगे। स्वतंत्रता सेनानी अपना ताम्रपत्र लौटाने की धमकी देते।’ उसकी बात में मेरा मन खिन्न हो गया और मैं चलते-चलते रुक गया। मैंने उससे पूछा, ‘ये बताओ, तुम्हें इतनी जल्दी, इतनी हड़बड़ी क्यों है?’

वह मेरे आगे झुका। कुछ बोला नहीं। उसने अपने सिर के बाल हटाये। मेरे सामने लाल-लाल जख्म थे जिसे ताजा खून रिस रहा था

 

मज़दूर बिगुल, अगस्‍त-सितम्‍बर 2016


 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
   
 

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन

Related Images:

Comments

comments