संसदीय रास्ते का खंडन

संसदीय रास्ते से समाजवाद लाने की वकालत करने वाले देश के संसदीय वामपन्थियों की वैचारिक जालसाजी और सर्वहारा वर्ग के ऐतिहासिक मिशन से विश्वासघात को बेनकाब करने वाला यह अंश एक ऐतिहासिक दस्तावेज से लिया गया है। 1956 में सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी की बीसवीं काँग्रेस में तत्कालीन पार्टी महासचिव निकिता ख्रुश्चेव ने “तीन शान्तिपूर्णों” (शान्तिपूर्ण संक्रमण, शान्तिपूर्ण प्रतियोगिता और शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व) की पैरवी कर सर्वहारा वर्ग की मुक्ति की विचारधारा मार्क्सवाद के बुनियादी सिद्धान्तों में फेरबदल कर उसे निर्जीव बनाने की गन्दी कोशिश की थी। उस समय सर्वहारा वर्ग की क्रान्तिकारी विचारधारा की हिफाजत करते हुए माओ त्से–तुङ के नेतृत्व में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी को पत्र लिखा। फिर दोनों पार्टियों के बीच विचारधारात्मक बहस छिड़ गयी थी जिसे ‘महान बहस’ के नाम से जाना जाता है। प्रस्तुत अंश इसी ‘महान बहस’ के एक दस्तावेज से लिया गया है। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी की केन्द्रीय कमेटी की ओर से 30 मार्च, 1963 को लिखे गये खुले पत्र की समीक्षा करते हुए नौ टिप्पणियां लिखी थीं। यह अंश 31 मार्च, 1964 को लिखी गयी आठवीं टिप्पणी से लिया गया है। – सम्पादक

“‘संसदीय रास्ते’ के विचार का, जिसका दूसरी इण्टरनेशनल के संशोधनवादियों ने प्रचार किया था, लेनिन ने पूरी तरह खण्डन कर दिया था और वह काफी समय पहले ही बदनाम हो चुका था। लेकिन ख्रुश्चेव की नजर में, दूसरे विश्वयुद्ध के बाद संसदीय रास्ता अचानक फिर सही बनता दिखाई देता है।

क्या यह सच है? हरगिज नहीं।

दूसरे विश्वयुद्ध के बाद की घटनाओं ने बार–बार यह साबित कर दिया है कि पूंजीवादी राज्य–मशीनरी का मुख्य अंग सशस्त्र बल है, संसद नहीं। संसद तो महज पूंजीवादी शासन का आभूषण और आवरण है। संसदीय प्रणाली को अपनाना या ठुकराना, संसद को कम सत्ता देना या ज्यादा, किसी एक किस्म का चुनाव कानून बनाना या दूसरी किस्म का–इन सब विकल्पों को चुनते समय हमेशा पूंजीवादी शासन की जरूरतों और उसके हितों को ध्यान में रखा जाता है। जब तक इस फौजी–नौकरशाही मशीनरी पर पूंजीपति वर्ग का कब्जा रहेगा, तब तक या तो सर्वहारा वर्ग द्वारा “संसद में स्थायी बहुमत” प्राप्त करना ही असम्भव होगा, अथवा यह “स्थायी बहुमत” अविश्वसनीय साबित होगा। “संसदीय रास्ते” से समाजवाद की प्राप्ति बिलकुल असम्भव है और महज धोखा है।

…जब कोई मजदूरों की पार्टी पतन के गड्ढे में गिर जाती है और पूंजीपति वर्ग की चाकरी करने लग जाती है, तो यह हो सकता है कि पूंजीपति वर्ग उसे संसद में बहुमत प्राप्त करने की और सरकार बनाने की इजाजत दे दे। कुछ देशों की पूंजीवादी सामाजिक–जनवादी पार्टियों की हालत ऐसी ही है। लेकिन ऐसी हालत में सिर्फ पूंजीपति वर्ग के अधिनायकत्व की ही हिफाजत होती है और वही मजबूत होता है; इससे एक उत्पीड़ित और शोषित वर्ग के रूप में सर्वहारा की स्थिति न तो बदलती है और न बदली ही जा सकती है। ऐसे तथ्य संसदीय रास्ते के दिवालिएपन को ही साबित करते हैं।

दूसरे विश्वयुद्ध के बाद की घटनाओं से यह भी जाहिर होता है कि यदि कम्युनिस्ट नेता संसदीय रास्ते पर विश्वास करने लगें और “संसदीय जड़वामवाद“ के लाइजाज मर्ज के शिकार हो गये, तो वे न सिर्फ कहीं के नहीं रहेंगे, बल्कि अनिवार्य रूप से संशोधनवाद की दलदल में जा फसेंगे, तथा सर्वहारा वर्ग के क्रान्तिकारी कार्य को बरबाद कर डालेंगे।

पूंजीवादी संसदों के प्रति सही रुख अपनाने के सम्बन्ध में मार्क्सवादी– लेनिनवादियों और अवसरवादियों– संशोधनवादियों के बीच हमेशा से बुनियादी मतभेद रहा है।

मार्क्सवादी–लेनिनवादियों का हमेशा से यह मत रहा है कि किसी खास परिस्थिति में सर्वहारा पार्टी को संसदीय संघर्ष में भी भाग लेना चाहिए तथा संसद के मंच को पूंजीपति वर्ग के प्रतिक्रियावादी स्वरूप का भंडाफोड़ करने के लिये, जनता को शिक्षित करने के लिये, और क्रान्तिकारी शक्ति संचित करने में मदद देने के लिये इस्तेमाल करना चाहिए। आश्यकता पड़ने पर, संघर्ष के इस कानूनी रूप का इस्तेमाल करने से इनकार करना गलत होगा। लेकिन सर्वहारा पार्टी को सर्वहारा क्रान्ति की जगह संसदीय संघर्ष को कभी नहीं देना चाहिए, अथवा इस भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए कि संसदीय रास्ते से समाजवाद में संक्रमण किया जा सकता है। इसे अपना ध्यान सदैव जन–संघर्षों पर केन्द्रित रखना चाहिए।

लेनिन ने कहा था

क्रान्तिकारी सर्वहारा पार्टी को पूंजीवादी संसद–व्यवस्था में इसलिये हिस्सा लेना चाहिए, ताकि जनता को जगाया जा सके, और यह काम चुनाव के दौरान तथा संसद में अलग–अलग पार्टियों के बीच के संघर्ष के दौरान किया जा सकता है। लेकिन वर्ग–संघर्ष को केवल संसदीय संघर्ष तक ही सीमित रखने, अथवा संसदीय संघर्ष को इतना ऊंचा और निर्णयात्मक रूप देने कि संघर्ष के बाकी सब रूप उसके अधीन हो जाएं, का मतलब वास्तव में पूंजीपति वर्ग के पक्ष में चले जाना और सर्वहारा वर्ग के खिलाफ हो जाना है।

उन्होंने दूसरी इण्टरनेशनल के संशोधनवादियों की इस बात के लिए भर्त्सना की थी कि वे संसद–व्यवस्था के चक्कर में पड़े हुए हैं और राजसत्ता हथियाने के क्रान्तिकारी कार्य को तिलांजलि दे चुके हैं। उन्होंने सर्वहारा पार्टी को एक चुनाव लड़ने वाली पार्टी में, एक संसदीय पार्टी में, पूंजीपति वर्ग की पिछलग्गू पार्टी में, और पूंजीपति वर्ग के अधिनायकत्व की रक्षा करने वाले साधन के रूप में बदल दिया। संसदीय रास्ते की पैरवी करके ख्रुश्चेव और उसके अनुयायियों का भी महज वही अन्त होगा, जो दूसरी इण्टरनेशनल के संशोधनवादियों का हुआ था।…”


 

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