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कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र

प्रकाशकीय

कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र वैज्ञानिक कम्युनिज़्म का पहला कार्यक्रम-मूलक दस्तावेज़ है जिसमें मार्क्सवाद के मूल सिद्धान्तों की विवेचना की गयी है। यह महान ऐतिहासिक दस्तावेज़ वैज्ञानिक कम्युनिज़्म के सिद्धान्त के प्रवर्तक कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स ने तैयार किया था और 1848 के प्रारम्भ में यह प्रकाशित हुआ था। लेनिन के शब्दों में, “यह छोटी-सी पुस्तिका अनेकानेक ग्रन्थों के बराबर है : उसकी आत्मा सभ्य संसार के समस्त संगठित और संघर्षशील सर्वहाराओं को प्रेरणा देती रही है और उनका मार्गदर्शन करती रही है।”

घोषणापत्र की मूल अन्तर्वस्तु और ऐतिहासिक महत्ता की चर्चा करते हुए, अन्यत्र लेनिन ने लिखा है :

“इस कृति में मेधापूर्ण सुस्पष्टता तथा भव्यता के साथ एक नयी विश्वदृष्टि, सुसंगत भौतिकवाद की रूपरेखा खींची गयी है जो अपनी परिधि में सामाजिक जीवन के क्षेत्र, विकास के सबसे व्यापक तथा गहन सिद्धान्त के रूप में द्वन्द्ववाद, वर्ग-संघर्ष और एक नये, कम्युनिस्ट समाज के सृष्टा, सर्वहारा वर्ग की विश्व-ऐतिहासिक भूमिका का सिद्धान्त भी ले आता है।”

सार्वकालिक महत्त्व की यह रचना जिस हद तक अपने समय में अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन का आधारभूत दस्तावेज़ थी, उतनी ही आज भी है। यह अनुपम कृति इस इतिहाससिद्ध सच्चाई का तर्कसंगत निरूपण करती है कि इतिहास महान व्यक्तियों के कारनामों, ईश्वरीय इच्छा या महज़ इत्तफ़ाकों की एक श्रृंखला का परिणाम नहीं है, बल्कि यह विभिन्न सामाजिक समूहों या वर्गों से बनता और गतिमान होता है तथा इस वर्ग-संघर्ष की जड़ें समाज की आर्थिक बुनियाद में निहित होती हैं। यह कृति बुर्जुआ समाज की गतिकी को तमाम रहस्यावरणों से बाहर लाकर सर्वहारा क्रान्ति द्वारा उसके ध्वंस, समाजवाद के निर्माण और कम्युनिज़्म की ओर संक्रमण की प्रकिया को सर्वप्रथम और संक्षिप्ततम रूप में सूत्रबद्ध करती है। यही वह सारवस्तु है जिसके चलते डेढ़ शताब्दी से भी अधिक समय बाद, इक्कीसवीं शताब्दी की सर्वहारा क्रान्ति और सर्वहारा क्रान्तिकारियों के लिए भी यह कृति उतनी ही महत्त्वपूर्ण और प्रासंगिक है जितनी कि यह अपने लिखे जाने के समय थी। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि कम्युनिस्ट घोषणापत्र ने मानव इतिहास के मार्ग को बदल दिया। शायद यह अबतक लिखा गया सबसे प्रभावशाली दस्तावेज़ है जिसे दुनिया के कोने-कोने में करोड़ों लोग आज भी पढ़ते हैं और आज भी दुनियाभर के साम्राज्यवादी और पूँजीवादी शासक इसे एक भयंकर रूप से विस्फोटक चीज़ मानते हैं।

हम प्रगति प्रकाशन, मास्को से 1986 में प्रकाशित संशोधित संस्करण को पुनर्मुद्रित करते रहे हैं। हालाँकि यह अनुवाद भी सन्तोषजनक नहीं है, पर इस महत्त्वपूर्ण कृति की अनुपलब्धता और भारी माँग को देखते हुए फ़िलहाल हम इसे ही छापकर पाठकों तक पहुँचाते रहे हैं। प्रस्तुत संस्करण उसी संस्करण पर आधारित है लेकिन हमने अंग्रेज़ी अनुवाद के आधार पर इसे यथासम्भव अधिक शुद्ध और बोधगम्य बनाने का प्रयास किया है।

इधर कतिपय प्रकाशक घोषणापत्र की मार्क्स-एंगेल्स द्वारा लिखी गयी अलग-अलग संस्करणों की भूमिकाओं को सम्पादित करके छापते रहे हैं तथा एंगेल्स द्वारा तैयार घोषणापत्र के प्रारम्भिक प्रारूप ‘कम्युनिज़्म के सिद्धान्त’ को भी हटा दिया (अब तक ज़्यादातर यह ड्राफ़्ट भी घोषणापत्र के साथ ही छपता रहा है)।

हम समझते हैं कि घोषणापत्र के अलग-अलग संस्करणों की मार्क्स-एंगेल्स द्वारा लिखित भूमिकाओं का ऐतिहासिक महत्त्व है और एक तरह से वे इस कृति का अभिन्न अंग बन चुकी हैं। अतः हम उपरोक्त सभी भूमिकाओं और एंगेल्स के उक्त ड्राफ़्ट को अविकल रूप में शामिल करते रहे हैं।

इस बीच हमने डी-रियाज़ानोव की विस्तृत व्याख्याओं-टिप्पणियों सहित कम्युनिस्ट घोषणापत्र का हिन्दी अनुवाद भी प्रकाशित किया है। कम्युनिस्ट घोषणापत्र पर अब तक लिखी सर्वाधिक गम्भीर, वैज्ञानिक और सटीक व्याख्याएँ-टिप्पणियाँ डेविड रियाज़ानोव की ही मानी जाती रही हैं।

हमें आशा है कि हमारा यह उद्यम मार्क्सवाद में रुचि रखने वाले पाठकों, क्रान्तिकारी कार्यकर्त्ताओं और सर्वहारा आन्दोलन के लिए उपयोगी होगा।

राहुल फ़ाउण्डेशन (10-1-2010)

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विभिन्‍न संस्‍करणों की भूमिकाएं

1872 के जर्मन संस्करण की भूमिका

कम्युनिस्ट लीग[1] मज़दूरों का अन्तरराष्ट्रीय संघ था। उस ज़माने की स्थितियों में यह एक गुप्त संगठन ही हो सकता था। नवम्बर 1847 में लन्दन में सम्पन्न कांग्रेस में लीग ने हम दोनों को यह काम सौंपा था कि हम प्रकाशन के लिए कम्युनिज़्म का विस्तृत सैद्धान्तिक और व्यावहारिक कार्यक्रम तैयार करें। यही निम्नलिखित घोषणापत्र के जन्म की कहानी है जिसकी पाण्डुलिपि फ़रवरी क्रान्ति[2] आरम्भ होने से कुछ सप्ताह पहले लन्दन में मुद्रक के पास पहुँच गयी थी। यह रचना मूलतः जर्मन भाषा में प्रकाशित हुई थी और इसी भाषा में इसके बाद के संस्करण जर्मनी, इंग्लैण्ड और संयुक्त राज्य अमेरिका में प्रकाशित हुए थे। इस प्रकार जर्मन भाषा में इसके कम से कम बारह संस्करण प्रकाशित हुए। सन् 1850 में कुमारी हेलेन मैकफ़र्लेन द्वारा किया गया इसका अंग्रेज़ी अनुवाद “रेड रिपब्लिकन”[3] पत्रिका में प्रकाशित हुआ था। सन् 1871 के दौरान इसके कम से कम तीन भिन्न-भिन्न अनुवाद संयुक्त राज्य अमेरिका में प्रकाशित हुए थे। सन् 1848 के जून विद्रोह[4] के कुछ पहले इसका फ़्रांसीसी अनुवाद पेरिस से निकला था। और हाल ही में न्यूयॉर्क के ल सोशलिस्ट[5] (Le Socialiste) नामक पत्र में वह फिर प्रकाशित हुआ। एक दूसरा फ़्रांसीसी अनुवाद भी तैयार हो रहा है। मूल जर्मन संस्करण के प्रकाशन के कुछ समय बाद इसका पोलिश अनुवाद भी लन्दन में प्रकाशित हुआ था। इस शताब्दी के साठवें दशक में जेनेवा में एक रूसी अनुवाद प्रकाशित हुआ था।[6] जर्मन में इसके प्रथम संस्करण के थोड़े ही समय बाद डेनिश भाषा में इसका अनुवाद हुआ था।

पिछले पच्चीस वर्षों के दौरान परिस्थितियाँ चाहे जितनी बदल गयी हों तो भी इस दस्तावेज़ में निरूपित आम सिद्धान्त समग्र रूप में आज भी उतने ही सही हैं जितने कि वे पहले थे। तफ़सीलों में एकाध जगह छोटा-मोटा सुधार किया जा सकता है। जैसाकि घोषणापत्र में कहा भी जा चुका है कि सिद्धान्तों का क्रियान्वयन, हर जगह और हमेशा विद्यमान ऐतिहासिक परिस्थितियों पर निर्भर करेगा। इसीलिए दूसरे अध्याय के अन्त में प्रस्तावित क्रान्तिकारी कार्रवाइयों पर हमने विशेष ज़ोर नहीं दिया है। कई पहलुओं के दृष्टिगत आज यह भाग भिन्न रूप में लिखा जाता। पिछली चौथाई सदी के दौरान विशाल पैमाने के उद्योग में ज़बरदस्त तरक्की के मद्देनज़र; इसके साथ मज़दूर वर्ग के पार्टी संगठन में वृद्धि के मद्देनज़र; फ़रवरी क्रान्ति के दौरान प्राप्त अनुभव के मद्देनज़र और उससे भी ज़्यादा पेरिस कम्यून[7] के दो माह के अस्तित्व के दौरान, जब पहली बार सर्वहारा राजनीतिक सत्ता पर काबिज़ रहा था, प्राप्त व्यावहारिक अनुभव के मद्देनज़र, इस कार्यक्रम की कुछ तफ़सीलें पुरानी पड़ गयी हैं। कम्यून ने एक बात तो ख़ास तौर से साबित कर दी, वह यह कि ‘मज़दूर वर्ग बनी-बनायी राज्य मशीनरी पर क़ब्ज़ा करके ही उसे अपने उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल नहीं कर सकता।’ (फ्रांस में गृहयुद्ध; ‘अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर संघ की जनरल कौंसिल की चिट्ठी’ में इस बात की अधिक विवेचना की गयी है।)[8]

इसके अलावा, यह स्वतःस्पष्ट है कि इसमें की गयी समाजवादी साहित्य की आलोचना वर्तमान समय में इसलिए भी अपूर्ण है कि इसमें 1847 तक प्रकाशित रचनाओं का ही ज़िक्र है। इसके अलावा विभिन्न विरोधी पार्टियों के साथ कम्युनिस्टों के सम्बन्ध के बारे में जो टिप्पणियाँ की गयी हैं (देखें अध्याय चार), वे यद्यपि सैद्धान्तिक रूप से अभी भी प्रासंगिक हैं तथापि वे व्यवहार में पुरानी पड़ गयी हैं क्योंकि तब से राजनीतिक परिस्थितियों में समग्र परिवर्तन हो चुका है और इसलिए भी कि जिन पार्टियों का यहाँ ज़िक्र किया गया है उनमें से अधिकांश पार्टियों का, ऐतिहासिक विकास के दौरान, अस्तित्व समाप्त हो गया है।

इस बीच घोषणापत्र एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ बन गया है जिसमें परिवर्तन करने का हमें कोई अधिकार नहीं रह गया है। हो सकता है कि बाद में निकलने वाले पुनर्संस्करण में सन् 1847 से वर्तमान तक के बीच की खाई को पाटने के लिए इसमें भूमिका जोड़ना आवश्यक समझा जाये। यह संस्करण तो इतना अप्रत्याशित था कि हमें उस तरह की भूमिका लिखने का समय ही नहीं मिला।

कार्ल मार्क्स       फ्रेडरिक एंगेल्स

लन्दन, 24 जून, 1872 

1882 के रूसी संस्करण की भूमिका

कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र के बाकुनिन द्वारा किये गये अनुवाद का प्रथम रूसी संस्करण सातवें दशक के आरम्भ में[9] कोलोकोल[10] के मुद्रण कार्यालय से प्रकाशित हुआ था। उस समय पश्चिम घोषणापत्र के रूसी संस्करण में केवल साहित्यिक कौतुक ही देख सकता था। परन्तु अब इस तरह का दृष्टिकोण असम्भव है।

उस समय (दिसम्बर 1847) सर्वहारा आन्दोलन का कितना सीमित दायरा था, उसे घोषणापत्र का आख़िरी अध्याय विभिन्न विरोधी पार्टियों के सम्बन्ध में कम्युनिस्टों की स्थिति सर्वाधिक स्पष्टता के साथ प्रदर्शित कर देता है। इसमें रूस तथा संयुक्त राज्य अमेरिका ही ग़ायब हैं। यह वह ज़माना था जब रूस सारे यूरोपीय प्रतिक्रियावाद की आख़िरी बड़ी आरक्षित शक्ति था, जब अमेरिका ने आप्रवासन के माध्यम से यूरोप की सारी बेशी सर्वहारा शक्तियों को अपने अन्दर खपा लिया था। दोनों देश यूरोप को कच्चा माल मुहैया कर रहे थे और साथ ही वे उसके औद्योगिक माल की खपत की मण्डियाँ भी थे। उस समय दोनों इस या उस रूप में विद्यमान यूरोपीय व्यवस्था के आधार-स्तम्भ थे।

आज स्थिति कितनी बदल चुकी है! ठीक यही यूरोपीय आप्रवासन अथाह कृषि उत्पादन के लिए उत्तरी अमेरिका के वास्ते उपयुक्त सिद्ध हुआ, जिसके साथ होड़, आज छोटे-बड़े सारे यूरोपीय भूस्वामित्व की नींवों को ही हिला रही है। इसके अलावा उसने अमेरिका को अपने विपुल औद्योगिक संसाधन इतनी स्फूर्ति के साथ तथा इतने बड़े पैमाने पर अपने लाभार्थ उपयोग में लाने में सक्षम बनाया कि उससे पश्चिमी यूरोप और ख़ास तौर पर इंग्लैण्ड की अब तक मौजूद इज़ारेदारी की जल्द ही कमर टूट जायेगी। दोनों परिस्थितियों का स्वयं अमेरिका पर क्रान्तिकारी ढंग से प्रभाव पड़ रहा है। किसानों का लघु तथा मध्यम दर्जे का भूस्वामित्व पूरी राजनीतिक संरचना का आधार है, वह क़दम-ब-क़दम विराट फ़ार्मों के साथ होड़ में ढहता जा रहा है। इसके साथ ही औद्योगिक क्षेत्रों में पहली बार बहुत बड़ी संख्या वाले सर्वहारा वर्ग का तथा पूँजियों के कल्पनातीत संकेन्द्रण का विकास हो रहा है।

और अब रूस! 1848-1849 की क्रान्ति के दौरान यूरोपीय राजाओं ने ही नहीं, वरन यूरोपीय बुर्जुआ वर्ग ने भी सर्वहारा वर्ग से, जो अभी जाग ही रहा था, अपनी मुक्ति मात्र रूसी हस्तक्षेप में पायी। ज़ार को यूरोपीय प्रतिक्रियावाद का सरदार घोषित कर दिया गया। आज वह गातचिना में अपने महल में बैठा है, क्रान्ति का युद्धबन्दी है[11] और रूस यूरोप में क्रान्तिकारी आन्दोलन का हरावल बन गया है।

कम्युनिस्ट घोषणापत्र ने आधुनिक बुर्जुआ सम्पत्ति सम्बन्धों के अवश्यम्भावी आसन्न विघटन की उद्घोषणा को अपना लक्ष्य बनाया था। परन्तु रूस में हम तेज़ी से विकसित हो रही पूँजीवादी व्यवस्था तथा बुर्जुआ भूस्वामित्व को देख सकते हैं जिसने अभी-अभी विकसित होना आरम्भ किया है, साथ ही, हम आधी से अधिक ऐसी भूमि पाते हैं जिस पर किसानों का समान स्वामित्व है। सवाल यह है क्या रूसी ओबश्चीन[12], जो काफ़ी कमजोर हो जाने के बावजूद भूमि के आदिकालीन साझा स्वामित्व का रूप है, सीधे कम्युनिस्ट ढंग के साझा स्वामित्व के उच्चतर रूप में प्रवेश कर सकता है? या इसके विपरीत उसे भी क्या विघटन की उसी प्रक्रिया से गुज़रना पड़ेगा जो पश्चिम के ऐतिहासिक विकासक्रम के लिए लाक्षणिक है?

इस समय इस प्रश्न का एकमात्र उत्तर यह है यदि रूसी क्रान्ति पश्चिम में सर्वहारा क्रान्ति के लिए इस तरह का संकेत बन जाये कि वे दोनों एक-दूसरे के परिपूरक बन सकें तो भूमि का वर्तमान रूसी सामुदायिक स्वामित्व कम्युनिस्ट विकास के लिए प्रस्थान-बिन्दु बन सकता है।

कार्ल मार्क्स  फ्रे़डरिक एंगेल्स

लन्दन, 21 जनवरी, 1882

1883 के जर्मन संस्करण की भूमिका

अफ़सोस है कि वर्तमान संस्करण की भूमिका पर मुझे अकेले हस्ताक्षर करने पड़ रहे हैं। मार्क्स, जिनका यूरोप तथा अमेरिका का सारा मज़दूर वर्ग इतना ऋणी है जितना किसी और का नहीं है, हाईगेट समाधि-स्थली में विश्राम कर रहे हैं और उनकी समाधि के ऊपर घास के पहले पौधे बढ़ने भी लगे हैं। उनकी मृत्यु[13] के बाद घोषणापत्र को संशोधित करने अथवा अनुपूरित करने की बात तो और भी नहीं सोची जा सकती। इसलिए मैं यहाँ फिर निम्नलिखित बात स्पष्ट रूप से कहना ज़रूरी मानता हूँ।

घोषणापत्र में शुरू से लेकर आख़िर तक विद्यमान मूल चिन्तन, यह चिन्तन विशुद्ध रूप से मार्क्स का है कि प्रत्येक ऐतिहासिक युग का आर्थिक उत्पादन तथा उससे अनिवार्यतः उत्पन्न होने वाला सामाजिक ढाँचा उस युग के राजनीतिक तथा बौद्धिक इतिहास की आधारशिला हुआ करते हैं कि इसके परिणामस्वरूप (भूमि के आदिम सामुदायिक स्वामित्व के विघटन के बाद से) पूरा इतिहास निरन्तर सामाजिक विकास की भिन्न-भिन्न मंजिलों में वर्ग संघर्षों, शोषितों तथा शोषकों के बीच, शासितों तथा शासकों के बीच संघर्षों का इतिहास रहा है कि यह संघर्ष अब उस मंजिल में पहुँच चुका है जहाँ शोषित तथा उत्पीड़ित वर्ग (सर्वहारा वर्ग) पूरे समाज को शोषण, उत्पीड़न तथा वर्गसंघर्ष से सदा-सर्वदा के लिए मुक्त किये बिना उत्पीड़न तथा शोषण करने वाले वर्ग (बुर्जुआ वर्ग) से अपने को मुक्त नहीं कर सकता।

यह मूल विचार सबसे पहले मार्क्स, और केवल मार्क्स ने प्रस्तुत किया था।[14]

मैं यह बात पहले भी कई बार कह चुका हूँ परन्तु अब यह ज़रूरी है कि स्वयं घोषणापत्र  के प्राक्कथन में यह बात मौजूद रहे।

फ्रेडरिक एंगेल्स

लन्दन, 28 जून, 1883

1888 के अंग्रेज़ी संस्करण की भूमिका

घोषणापत्र कम्युनिस्ट लीग नामक मज़दूर संघ के कार्यक्रम के रूप में प्रकाशित किया गया था, जो आरम्भ में पूरी तरह जर्मन, आगे चलकर अन्तरराष्ट्रीय, और 1848 तक महाद्वीप की राजनीतिक परिस्थितियों के अन्तर्गत अपरिहार्य रूप से एक गुप्त संस्था थी। नवम्बर, 1847 में लन्दन में हुई लीग की कांग्रेस में मार्क्स और एंगेल्स को एक सम्पूर्ण सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक पार्टी कार्यक्रम प्रकाशनार्थ तैयार करने का कार्य सौंपा गया। जनवरी, 1848 में जर्मन में रची गयी पाण्डुलिपि को 24 फ़रवरी की फ्रांसीसी क्रान्ति के कुछ ही हफ़्ते पहले लन्दन में मुद्रक को भेजा गया था। एक फ्रांसीसी अनुवाद पेरिस में 1848 के जून विद्रोह के कुछ ही पहले प्रकाशित किया गया। पहला अंग्रेज़ी अनुवाद, जो मिस हेलेन मैकफ़र्लेन ने किया था, 1850 में लन्दन में जॉर्ज जूलियन हॉर्नी के रेड रिपब्लिकन में प्रकट हुआ। डेनिश तथा पोलिश संस्करण भी प्रकाशित हो चुके थे।

जून, 1848 के पेरिस विद्रोह सर्वहारा तथा बुर्जुआ के बीच पहली बड़ी लड़ाई की पराजय ने यूरोपीय मज़दूर वर्ग की सामाजिक तथा राजनीतिक आकांक्षाओं को, कुछ समय के लिए, फिर से पार्श्वभूमि में धकेल दिया। उसके बाद से प्रभुत्व के लिए संघर्ष फ़रवरी क्रान्ति[15] के पहले की ही तरह फिर से केवल सम्पत्तिधारी वर्ग के भिन्न-भिन्न तबकों के बीच ही रह गया। मज़दूर वर्ग राजनीतिक सुविधाएँ पाने के वास्ते संघर्ष करने और मध्यवर्गीय आमूल परिवर्तनवादियों के चरम पक्ष की स्थिति में ही पहुँचने के लिए मजबूर हो गया था। जहाँ भी स्वतन्त्र सर्वहारा आन्दोलन जीवन के लक्षण प्रकट करते रहे, उन्हें निर्ममतापूर्वक कुचल दिया गया। इस प्रकार, प्रशियाई पुलिस ने कम्युनिस्ट लीग के केन्द्रीय बोर्ड को, जो उस समय कोलोन में स्थित था, खोज निकाला। सदस्य गिरफ़्तार कर लिये गये और 18 माह तक बन्दी रखने के बाद उन पर अक्टूबर, 1852 में मुक़दमा चलाया गया। यह मशहूर कोलोन कम्युनिस्ट मुक़दमा 4 अक्टूबर से 12 नवम्बर तक चला बन्दियों में से सात को तीन साल से लेकर छह साल तक एक किले में कै़द की सज़ा दी गयी। सज़ा सुनाये जाने के फ़ौरन बाद बाक़ी सदस्यों द्वारा लीग को औपचारिक रूप से भंग कर दिया गया। जहाँ तक घोषणापत्र की बात है, ऐसा लगता था कि अब वह विस्मृति के गर्त में चला जायेगा।

जब यूरोप के मज़दूर वर्ग ने शासक वर्गों पर एक और प्रहार करने के लिए पर्याप्त शक्ति फिर से संचित कर ली, तो अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर संघ[16] का जन्म हुआ। परन्तु यह संघ, जो यूरोप तथा अमरीका के सारे संघर्षशील सर्वहारा को एकजुट करने के निश्चित उद्देश्य से बनाया गया था, घोषणापत्र में निरूपित सिद्धान्तों को एकदम ही घोषित नहीं कर सकता था। इण्टरनेशनल के लिए ऐसे कार्यक्रम का होना अनिवार्य था, जो इतना व्यापक हो कि इंग्लैण्ड की ट्रेड-यूनियनों, फ्रांस, बेल्जियम, इटली तथा स्पेन में प्रूदों के अनुयायियों[17] और जर्मनी में लासालपन्थियों[18] को स्वीकार्य हो सके। मार्क्स को, जिन्होंने उस कार्यक्रम की रचना सभी पक्षों के लिए सन्तोषजनक ढंग से की, मज़दूर वर्ग के बौद्धिक विकास पर पूरा भरोसा था, जिसका संयुक्त कार्यकलाप तथा पारस्परिक विचार-विमर्श के फलस्वरूप पैदा होना अवश्यम्भावी था। स्वयं घटनाएँ और पूँजी के विरुद्ध संघर्ष में उतार-चढ़ाव विजयों से भी ज़्यादा पराजयें लोगों के दिमाग़ों में अपने विभिन्न प्रिय नीम-हकीमी नुस्ख़ों के अपर्याप्त होने की बात को बिठाये और मज़दूर वर्ग की मुक्ति की वास्तविक शर्तों को ज़्यादा पूरी तरह समझने का रास्ता प्रशस्त किये बिना नहीं रह सकते थे। और मार्क्स सही सिद्ध हुए। 1874 में इण्टरनेशनल ने अपने विघटन के समय मज़दूरों को जैसा छोड़ा, वे, उसने उन्हें 1864 में जैसा पाया था, उससे दूसरी ही क़िस्म के लोग थे। फ्रांस में प्रूदोंपन्थ तथा जर्मनी में लासालपन्थ दम तोड़ रहे थे, और रूढ़िवादी ब्रिटिश ट्रेड-यूनियनें तक  हालाँकि उनमें से अधिकांश इण्टरनेशनल से अपना नाता कभी का तोड़ चुकी थीं धीरे-धीरे उस बिन्दु पर पहुँच रही थीं, जहाँ पिछले साल स्वानसी में उनके अध्यक्ष[19] उनके नाम पर कह सके कि महाद्वीपीय समाजवाद हमारे लिए आतंक नहीं रह गया है। वस्तुतः घोषणापत्र के सिद्धान्त सभी देशों के मज़दूरों के बीच काफ़ी प्रचलित हो चुके थे।

इस प्रकार, घोषणापत्र स्वयं फिर सामने आ गया। जर्मन मूलपाठ 1850 के बाद से कई बार स्विट्ज़रलैण्ड, इंग्लैण्ड तथा अमेरिका में फिर छप चुका था। 1872 में वह न्यूयार्क में अंग्रेज़ी में अनूदित हुआ, जहाँ अनुवाद वुडहल एण्ड क्लैफ्रि़लन्स वीकली में प्रकाशित हुआ। इस अंग्रेज़ी रूपान्तर से एक फ्रांसीसी अनुवाद न्यूयार्क के ल सोशलिस्ट में प्रकाशित हुआ। तब से न्यूनाधिक विकृत कम से कम दो और अंग्रेज़ी अनुवाद अमरीका में प्रकाशित हुए हैं तथा उनमें से एक का ब्रिटेन में पुनर्मुद्रण हुआ है। पहला रूसी अनुवाद, जो बाकुनिन ने किया था, 1863 के आस-पास जेनेवा में हज़ेर्न के ‘कोलोकोल’ कार्यालय से प्रकाशित हुआ था; एक दूसरा, वीरांगना वेरा ज़ासूलिच का किया हुआ अनुवाद[20] 1882 में जेनेवा में भी प्रकाशित हुआ। एक नया डेनिश संस्करण कोपेनहैगन के सोशल-डेमोक्रेटिस्क बिब्लियोथेक, 1885 में छपा; एक ताज़ा फ्रांसीसी अनुवाद पेरिस के ल सोशलिस्ट, 1885 में निकला था। इस फ्रांसीसी अनुवाद से स्पेनी में एक रूपान्तरण किया गया और 1886 में मैड्रिड में प्रकाशित हुआ। जर्मन पुनर्मुद्रणों की बात करने की आवश्यकता नहीं है, उनकी संख्या कम से कम बारह है। मुझे बताया गया है कि आर्मीनियाई भाषा में अनुवाद, जिसे कुस्तुनतुनिया में कुछ महीने पहले प्रकाशित होना था, इसलिए प्रकाशित नहीं हो सका कि प्रकाशक मार्क्स के नाम से पुस्तक छापने से डरता था, जबकि अनुवादक ने उसे अपनी रचना कहने से इन्कार कर दिया। अन्य भाषाओं में अनुवादों की बात मैंने सुनी है, परन्तु उन्हें देखा नहीं है। इस प्रकार, घोषणापत्र का इतिहास काफ़ी हद तक आधुनिक मज़दूर आन्दोलन के इतिहास को प्रतिबिम्बित करता है; इस समय यह, निस्सन्देह, सबसे व्यापक, पूरे समाजवादी साहित्य में सबसे अधिक अन्तरराष्ट्रीय कृति है, साइबेरिया से लेकर कैलिफ़ोर्निया तक लाखों मेहनतकशों द्वारा स्वीकृत सामान्य कार्यक्रम है।

फिर भी, जब वह लिखा गया था, तब हम उसे समाजवादी घोषणापत्र नहीं कह सकते थे। 1847 में दो तरह के लोग समाजवादी माने जाते थे: एक ओर, विभिन्न यूटोपियाई पद्धतियों के अनुयायी – इंग्लैण्ड में ओवेनपन्थी[21] और फ्रांस में फ़ूरियेपन्थी[22], ये दोनों पहले ही मात्र संकीर्ण पन्थों में बदल चुके थे और धीरे-धीरे ख़त्म हो रहे थे; दूसरी ओर थे अत्यधिक नानारूप सामाजिक नीमहकीम, जो पूँजी तथा मुनाफ़े को ज़रा भी क्षति पहुँचाये बिना, सब तरह की टाँकासाज़ी के बल पर सब क़िस्म की सामाजिक व्यथाओं का निवारण कर देने का दम भरते थे। ये दोनों ही तरह के लोग मज़दूर आन्दोलन के बाहर थे और समर्थन के लिए “शिक्षित” वर्गों की तरफ़ ही देखते थे। मज़दूर वर्ग का जो भी हिस्सा इसका क़ायल हो चुका था कि मात्र राजनीतिक क्रान्तियाँ पर्याप्त नहीं हैं और जो आमूल सामाजिक परिवर्तन की आवश्यकता का ऐलान कर चुका था, वह उस समय अपने को कम्युनिस्ट कहता था। यह भोंड़ा, अनगढ़, शुद्धतः सहज प्रेरणात्मक क़िस्म का कम्युनिज़्म था; फिर भी वह आधारभूत बिन्दु को स्पर्श करता था और मज़दूर वर्ग में वह इतना शक्तिशाली था कि उसने यूटोपियाई कम्युनिज़्म को जन्म दिया – फ्रांस में काबे के और जर्मनी में वाइटलिंग के यूटोपियाई कम्युनिज़्म[23] को। इस प्रकार, 1847 में समाजवाद एक मध्यवर्गीय आन्दोलन था, तो कम्युनिज़्म मज़दूरवर्गीय आन्दोलन था। कम से कम महाद्वीप में समाजवाद “प्रतिष्ठित” था, जबकि कम्युनिज़्म इसका ठीक उलटा था। और चूँकि हमारी धारणा बिल्कुल आरम्भ से ही यह थी कि “मज़दूर वर्ग की मुक्ति स्वयं मज़दूर वर्ग द्वारा हासिल की जानी चाहिए”[24], इसलिए इसमें सन्देह की कोई गुंजाइश नहीं थी कि हमें इन दोनों में से कौन-सा नाम अपनाना चाहिए। और न तब से इस नाम का त्याग करने का ही हमें कभी ख़याल हुआ है।

हालाँकि घोषणापत्र हमारी संयुक्त रचना है, फिर भी मैं यह कहना अपना कर्त्तव्य समझता हूँ कि इसकी आधारभूत प्रस्थापना, जो इसका नाभिक है, मार्क्स की है। वह प्रस्थापना यह है कि प्रत्येक ऐतिहासिक युग में आर्थिक उत्पादन तथा विनिमय का प्रचलित ढंग और उससे अनिवार्यतः उत्पन्न सामाजिक संरचना उस आधार को बनाते हैं, जिस पर उस युग के राजनीतिक तथा बौद्धिक इतिहास का निर्माण होता है और सिर्फ़ जिससे ही उसकी व्याख्या की जा सकती है; कि उसके परिणामस्वरूप मानवजाति का समूचा इतिहास (आदिम क़बायली समाज के, जिसमें भूमि पर सामूहिक स्वामित्व था, विघटन से लेकर) वर्ग संघर्षों का, शोषकों तथा शोषितों, शासकों तथा शासितों के बीच संघर्षों का इतिहास रहा है; कि इन वर्ग संघर्षों का इतिहास विकासक्रम का एक ऐसा सिलसिला है, जिसमें आज वह मंजिल आ गयी है, जहाँ शोषित तथा उत्पीड़ित वर्ग – सर्वहारा – पूरे समाज को सारे शोषण, उत्पीड़न, वर्ग विभेदों और वर्ग संघर्षों से सदा-सर्वदा के लिए मुक्त किये बिना अपने आपको शोषक तथा शासक वर्ग – बुर्जुआ वर्ग – के जुवे से मुक्त नहीं कर सकता।

बाद में मैंने अंग्रेज़ी अनुवाद की भूमिका में लिखा था, “मेरी राय में यह प्रस्थापना इतिहास के क्षेत्र में अवश्यम्भावी रूप से वही करने जा रही है जो डारविन के सिद्धान्त ने जीव विज्ञान के क्षेत्र में किया था। इस प्रस्थापना की ओर हम दोनों 1845 से कुछ सालों तक धीरे-धीरे बढ़ते रहे थे। मैं उसकी ओर स्वतन्त्र रूप से कहाँ तक बढ़ सका, इंग्लैण्ड में मज़दूर वर्ग की दशा[25] नामक मेरी रचना सर्वोत्तम ढंग से प्रदर्शित करती है। परन्तु जब मैं 1845 के वसन्त में मार्क्स से पुनः ब्रसेल्स में मिला तो इस विचार को वह पहले से ही विकसित कर चुके थे और उसे उन्होंने मेरे सामने जिस रूप में प्रस्तुत किया, वह प्रायः उतना ही स्पष्ट था जितने स्पष्ट रूप में मैंने यहाँ बयान किया है।

1872 में जर्मन संस्करण की हमारी संयुक्त भूमिका से मैं निम्नलिखित अंश उद्धृत कर रहा हूँ:

“पिछले पच्चीस वर्षों के दौरान परिस्थितियाँ चाहे जितनी बदल गयी हों तो भी इस दस्तावेज़ में निरूपित आम सिद्धान्त समग्र रूप में आज भी उतने ही सही हैं जितने कि वे पहले थे। तफ़सीलों में एकाध जगह छोटा-मोटा सुधार किया जा सकता है। जैसाकि घोषणापत्र में कहा भी जा चुका है कि सिद्धान्तों का क्रियान्वयन, हर जगह और हमेशा विद्यमान ऐतिहासिक परिस्थितियों पर निर्भर करेगा। इसीलिए दूसरे अध्याय के अन्त में प्रस्तावित क्रान्तिकारी कार्रवाइयों पर हमने विशेष ज़ोर नहीं दिया है। कई पहलुओं के दृष्टिगत आज यह भाग भिन्न रूप में लिखा जाता। 1848 से आधुनिक उद्योग की ज़बरदस्त तरक़्क़ी और उसके साथ मज़दूर वर्ग के संगठन में आये सुधार और विस्तार को देखते हुए[26]; इसके साथ मज़दूर वर्ग के पार्टी संगठन में वृद्धि के मद्देनज़र; फ़रवरी क्रान्ति के दौरान प्राप्त अनुभव के मद्देनज़र और उससे भी ज़्यादा पेरिस कम्यून के दो माह के अस्तित्व के दौरान, जब पहली बार सर्वहारा राजनीतिक सत्ता पर काबिज़ रहा था, प्राप्त व्यावहारिक अनुभव के मद्देनज़र, इस कार्यक्रम की कुछ तफ़सीलें पुरानी पड़ गयी हैं। कम्यून ने एक बात तो ख़ास तौर से साबित कर दी, वह यह कि ‘मज़दूर वर्ग बनी-बनायी राज्य मशीनरी पर क़ब्ज़ा करके ही उसे अपने उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल नहीं कर सकता।’ (देखिये, ‘फ्रांस में गृहयुद्ध; अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर संघ की जनरल कौंसिल की चिट्ठी’, लन्दन, ट्रन्न्लव, 1871, पृष्ठ 15[27], जहाँ इस बात की और विस्तृत विवेचना की गयी है।) इसके अलावा, यह स्वतःस्पष्ट है कि इसमें की गयी समाजवादी साहित्य की आलोचना वर्तमान समय में इसलिए भी अपूर्ण है कि इसमें 1847 तक प्रकाशित रचनाओं का ही ज़िक्र है। इसके अलावा विभिन्न विरोधी पार्टियों के साथ कम्युनिस्टों के सम्बन्ध के बारे में जो टिप्पणियाँ की गयी हैं (देखें अध्याय चार), वे यद्यपि सैद्धान्तिक रूप से अभी भी प्रासंगिक हैं तथापि वे व्यवहार में पुरानी पड़ गयी हैं क्योंकि तब से राजनीतिक परिस्थितियों में समग्र परिवर्तन हो चुका है और इसलिए भी कि जिन पार्टियों का यहाँ ज़िक्र किया गया है उनमें से अधिकांश पार्टियों का, ऐतिहासिक विकास के दौरान, अस्तित्व समाप्त हो गया है।

“इस बीच घोषणापत्र एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ बन गया है जिसमें परिवर्तन करने का हमें कोई अधिकार नहीं रह गया है।”

प्रस्तुत अनुवाद श्री सैमुअल मूर का है, जो मार्क्स की ‘पूँजी’ के अधिकांश के अनुवादक हैं। हमने मिलकर इसे संशोधित किया है और मैंने व्याख्यात्मक ऐतिहासिक टिप्पणियाँ जोड़ दी हैं।

फ्रेडरिक एंगेल्स

लन्दन, 30 जनवरी, 1888

1890 के जर्मन संस्करण की भूमिका

उपरिलिखित पंक्तियों[28] के लिखे जाने के बाद घोषणापत्र के एक नये जर्मन संस्करण का प्रकाशन आवश्यक हो गया है तथा घोषणापत्र के साथ भी कई बातें ऐसी हो चुकी हैं, जिन्हें यहाँ दर्ज किया जाना चाहिए।

द्वितीय रूसी अनुवाद, जो वेरा ज़ासूलिच ने किया है, जेनेवा में 1882 में प्रकाशित हुआ था, उस संस्करण की भूमिका मार्क्स तथा मैंने लिखी थी। दुर्भाग्यवश मूल जर्मन पाण्डुलिपि कहीं खो गयी है, इसलिए मुझे रूसी से दोबारा अनुवाद करना पड़ेगा। लेकिन इससे मूलपाठ में किसी तरह का सुधार होने नहीं जा रहा है![29] उसमें लिखा हुआ है:

“कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणापत्र के बाकुनिन द्वारा किये गये अनुवाद का प्रथम रूसी संस्करण सातवें दशक के आरम्भ में ‘कोलोकोल’ के मुद्रण कार्यालय से प्रकाशित हुआ था। उस समय पश्चिम घोषणापत्र के रूसी संस्करण में केवल साहित्यिक कौतुक ही देख सकता था। परन्तु अब इस तरह का दृष्टिकोण असम्भव है।

“उस समय (दिसम्बर 1847) सर्वहारा आन्दोलन का कितना सीमित दायरा था, उसे घोषणापत्र का आख़िरी अध्याय – विभिन्न विरोधी पार्टियों के सम्बन्ध में कम्युनिस्टों की स्थिति – सर्वाधिक स्पष्टता के साथ प्रदर्शित कर देता है। इसमें रूस तथा संयुक्त राज्य अमेरिका ही ग़ायब हैं। यह वह ज़माना था जब रूस सारे यूरोपीय प्रतिक्रियावाद की आख़िरी बड़ी आरक्षित शक्ति था, जब अमेरिका ने आप्रवासन के माध्यम से यूरोप की सारी बेशी सर्वहारा शक्तियों को अपने अन्दर खपा लिया था। दोनों देश यूरोप को कच्चा माल मुहैया कर रहे थे और साथ ही वे उसके औद्योगिक माल की खपत की मण्डियाँ भी थे। उस समय दोनों इस या उस रूप में विद्यमान यूरोपीय व्यवस्था के आधार-स्तम्भ थे।

“आज स्थिति कितनी बदल चुकी है! ठीक यही यूरोपीय आप्रवासन अथाह कृषि उत्पादन के लिए उत्तरी अमेरिका के वास्ते उपयुक्त सिद्ध हुआ, जिसके साथ होड़, आज छोटे-बड़े सारे यूरोपीय भूस्वामित्व की नींवों को ही हिला रही है। इसके अलावा उसने अमेरिका को अपने विपुल औद्योगिक संसाधन इतनी स्फूर्ति के साथ तथा इतने बड़े पैमाने पर अपने लाभार्थ उपयोग में लाने में सक्षम बनाया कि उससे पश्चिमी यूरोप और ख़ास तौर पर इंग्लैण्ड की अब तक मौजूद इज़ारेदारी की जल्द ही कमर टूट जायेगी। दोनों परिस्थितियों का स्वयं अमेरिका पर क्रान्तिकारी ढंग से प्रभाव पड़ रहा है। किसानों का लघु तथा मध्यम दर्जे का भूस्वामित्व पूरी राजनीतिक संरचना का आधार है, वह क़दम-ब-क़दम विराट फ़ार्मों के साथ होड़ में ढहता जा रहा है। इसके साथ ही औद्योगिक क्षेत्रों में पहली बार बहुत बड़ी संख्या वाले सर्वहारा वर्ग का तथा पूँजियों के कल्पनातीत संकेन्द्रण का विकास हो रहा है।

“और अब रूस! 1848-1849 की क्रान्ति के दौरान यूरोपीय राजाओं ने ही नहीं, वरन यूरोपीय बुर्जुआ वर्ग ने भी सर्वहारा वर्ग से, जो अभी जाग ही रहा था, अपनी मुक्ति मात्र रूसी हस्तक्षेप में पायी। ज़ार को यूरोपीय प्रतिक्रियावाद का सरदार घोषित कर दिया गया। आज वह गातचिना में अपने महल में बैठा है, क्रान्ति का युद्धबन्दी है और रूस यूरोप में क्रान्तिकारी आन्दोलन का हरावल बन गया है।

“कम्युनिस्ट घोषणापत्र ने आधुनिक बुर्जुआ सम्पत्ति सम्बन्धों के अवश्यम्भावी आसन्न विघटन की उद्घोषणा को अपना लक्ष्य बनाया था। परन्तु रूस में हम तेज़ी से विकसित हो रही पूँजीवादी व्यवस्था तथा बुर्जुआ भूस्वामित्व को देख सकते हैं जिसने अभी-अभी विकसित होना आरम्भ किया है, साथ ही, हम आधी से अधिक ऐसी भूमि पाते हैं जिस पर किसानों का समान स्वामित्व है। सवाल यह है – क्या रूसी ओब्श्चीन, जो काफ़ी कमज़ोर हो जाने के बावजूद भूमि के आदिकालीन साझा स्वामित्व का रूप है, सीधे कम्युनिस्ट ढंग के साझा स्वामित्व के उच्चतर रूप में प्रवेश कर सकता है? या इसके विपरीत उसे भी क्या विघटन की उसी प्रक्रिया से गुज़रना पड़ेगा जो पश्चिम के ऐतिहासिक विकासक्रम के लिए लाक्षणिक है?

“इस समय इस प्रश्न का एकमात्र उत्तर यह है – यदि रूसी क्रान्ति पश्चिम में सर्वहारा क्रान्ति के लिए इस तरह का संकेत बन जाये कि वे दोनों एक-दूसरे के परिपूरक बन सकें तो भूमि का वर्तमान रूसी सामुदायिक स्वामित्व कम्युनिस्ट विकास के लिए प्रस्थान-बिन्दु बन सकता है।

कार्ल मार्क्स  फ्रेडरिक एंगेल्स

लन्दन, 21 जनवरी, 1882”

लगभग उसी वक़्त जेनेवा में एक नया पोलिश संस्करण प्रकाशित हुआ: Manifest Kommunistyczny.

इसके अलावा 1885 में कोपेनहेगेन की सोशल डेमोक्रेटिक लाइब्रेरी द्वारा एक नया डेनिश अनुवाद प्रकाशित हुआ। दुर्भाग्यवश वह पर्याप्त रूप से पूर्ण नहीं है; कतिपय नितान्त महत्त्वपूर्ण अंशों को, जिन्होंने लगता है कि अनुवादक के सामने कठिनाइयाँ पैदा कीं, छोड़ दिया गया है। इसके अलावा उसमें यत्र-तत्र लापरवाही के चिह्न मिलते हैं; वे इस कारण आँखों को और भी ज़्यादा खटकते हैं कि अनुवाद से पता चलता है कि यदि अनुवादक ने थोड़ी-सी और मेहनत की होती तो वह बहुत सुन्दर काम सम्पन्न करते।

1885 में एक नया फ्रांसीसी अनुवाद ल सोशलिस्त में छपा; वह अब तक के अनुवादों में सर्वोत्तम है।

इस फ्रांसीसी अनुवाद से उसी वर्ष एक स्पेनिश अनुवाद पहले मैड्रिड के एल सोशलिस्ता में छपा तथा फिर एक पुस्तिका के रूप में प्रकाशित किया गया – Manifesto del Partido Comunista, कार्ल मार्क्स तथा फ्रेडरिक एंगेल्स, मैड्रिड, एल सोशलिस्ता प्रकाशन गृह, एर्नार कोर्तेस मार्ग, 8।

इस दिलचस्प तथ्य की भी चर्चा कर दूँ कि 1887 में कुस्तुनतुनिया के एक प्रकाशक से एक आर्मीनियाई अनुवाद की पाण्डुलिपि छापने का प्रस्ताव किया गया। परन्तु उस भले आदमी में मार्क्स के नाम से जुड़ी कोई चीज़ छापने की हिम्मत नहीं हुई। उसने अनुवादक को लेखक के रूप में अपना नाम देने का सुझाव दिया, परन्तु उसने ऐसा करने से इन्कार कर दिया।

अमेरिका में किये गये कई अनुवाद इंग्लैण्ड में सिलसिलेवार छपते रहे जो न्यूनाधिक रूप से अशुद्ध थे। अन्ततः प्रामाणिक अनुवाद 1888 में तैयार हो गया। यह मेरे मित्र सैमुअल मूर का काम था और उसे प्रेस में भेजने से पहले हम दोनों ने मिलकर उस पर नज़र डाली। उसका नाम है, “कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र, कार्ल मार्क्स तथा फ्रेडरिक एंगेल्स। प्रामाणिक अंग्रेज़ी अनुवाद, सम्पादन तथा नोट्स फ्रेडरिक एंगेल्स द्वारा, 1888, लन्दन, विलियम रीव्स, 185, फ्लीट स्ट्रीट, ई.सी.।” मैंने उस संस्करण के कुछ नोट्स प्रस्तुत संस्करण में शामिल किये हैं।

घोषणापत्र का अपना एक अलग इतिहास रहा है। प्रकाशन के साथ ही उसका वैज्ञानिक समाजवाद के हरावलों द्वारा, जिनकी संख्या अभी बिल्कुल ही अधिक न थी, उत्साहपूर्ण स्वागत हुआ (जैसाकि पहली भूमिका में उल्लिखित अनुवादों द्वारा स्पष्ट है), किन्तु थोड़े ही समय बाद, जून 1848 में पेरिस के मज़दूरों की पराजय से शुरू होने वाली प्रतिक्रिया के साथ उसे पृष्ठभूमि में ढकेल दिया गया, और अन्त में जब नवम्बर 1852 में कोलोन के कम्युनिस्टों को सज़ा दी गयी तो वह “क़ानूनी तौर पर” बहिष्कृत कर दिया गया। फ़रवरी क्रान्ति के साथ जिस मज़दूर आन्दोलन का सूत्रपात हुआ था, उसके सार्वजनिक रंगमंच से ओझल हो जाने के बाद घोषणापत्र भी पृष्ठभूमि में चला गया।

जब यूरोप के मज़दूर वर्ग ने शासक वर्गों की सत्ता पर एक और प्रहार करने के लिए पर्याप्त शक्ति फिर से संचित कर ली, तो अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर संघ का जन्म हुआ। उसका उद्देश्य यूरोप और अमेरिका के समूचे जुझारू मज़दूर वर्ग को एक विशाल सेना के रूप में एकजुट करना था। इसलिए संघ घोषणापत्र में स्थापित सिद्धान्तों को प्रस्थान-बिन्दु मानकर नहीं चल सकता था। उसका ऐसा कार्यक्रम होना लाज़िमी था जिससे इंग्लैण्ड की ट्रेड-यूनियनों, फ्रांस, बेल्जियम, इटली और स्पेन के प्रूदोंपन्थियों तथा जर्मनी के लासालपन्थियोंऽ के लिए दरवाज़ा बन्द न हो जाये। इस तरह के कार्यक्रम को – इण्टरनेशनल की नियमावली के प्राक्कथन को – मार्क्स ने बड़ी ख़ूबी के साथ लिखा जिसे बाकुनिन और अराजकतावादियों तक ने माना। जहाँ तक घोषणापत्र में निरूपित सिद्धान्तों की अन्तिम विजय का प्रश्न है, मार्क्स ने मज़दूर वर्ग के बौद्धिक विकास पर, जो संयुक्त कार्यकलाप तथा पारस्परिक विचार-विमर्श के फलस्वरूप निश्चित रूप से पैदा होता, पूर्णतया भरोसा किया। एकजुट कार्रवाइयों और विचार-विमर्श से प्रशिक्षित होकर मज़दूर धीरे-धीरे इन सिद्धान्तों को समझेंगे और अपनायेंगे। घटनाएँ तथा पूँजी के विरुद्ध संघर्ष के बराबर उतार-चढ़ाव – विजयों से ज़्यादा पराजयें – लड़ाकों के सामने यह बात प्रत्यक्ष किये बिना नहीं रह सकती थीं कि उनके विभिन्न प्रिय नीम-हकीमी नुस्ख़े अपर्याप्त हैं जिन पर वे अभी तक टिके हुए थे और उनके दिमाग़ों को मज़दूरों की मुक्ति की वास्तविक शर्तों को पूरी तरह समझने के लिए अधिक ग्रहणशील बनाये बिना नहीं सकती थीं। और मार्क्स सही सिद्ध हुए। 1874 में जब इण्टरनेशनल भंग हो गया तो उस समय का मज़दूर वर्ग, 1864 की तुलना में, जब उसकी स्थापना हुई थी, एकदम भिन्न था। लैटिन देशों में प्रूदोंपन्थ और जर्मनी का विशिष्ट लासालपन्थ दम तोड़ रहे थे, और घोर दकियानूसी ब्रिटिश ट्रेड यूनियनें तक धीरे-धीरे उस बिन्दु पर पहुँच रही थीं जहाँ 1887 में स्वानसी कांग्रेस में उनके अध्यक्ष उसके नाम पर यह एलान कर सके कि “महाद्वीपीय समाजवाद हमारे लिए आतंक नहीं रह गया है”। जबकि 1887 तक महाद्वीपीय समाजवाद लगभग पूर्णतः वही सिद्धान्त था जिसकी घोषणापत्र ने घोषणा की थी। चुनाँचे घोषणापत्र का इतिहास 1848 के बाद से आधुनिक मज़दूर आन्दोलन के इतिहास को एक हद तक प्रतिबिम्बित करता है। आज तो निस्सन्देह घोषणापत्र समस्त समाजवादी साहित्य की सबसे अधिक प्रचलित, सबसे अधिक अन्तरराष्ट्रीय कृति है और वह साइबेरिया से लेकर कैलिफ़ोर्निया तक सभी देशों के करोड़ों मज़दूरों का समान कार्यक्रम है।

फिर भी उसके प्रकाशन के समय हम उसे समाजवादी घोषणापत्र नहीं कह सकते थे। 1847 में दो तरह के लोग समाजवादी माने जाते थे। एक ओर विभिन्न कल्पनावादी पद्धतियों के अनुयायी – ख़ासकर इंग्लैण्ड में ओवेनपन्थी और फ्रांस में फ़ूरियेपन्थी, ये दोनों मात्र मरणासन्न संकीर्ण पन्थ बनकर रह गये थे; दूसरी ओर थे नाना प्रकार के सामाजिक नीम-हकीम, जो पूँजी तथा मुनाफ़े को जरा भी क्षति पहुँचाये बिना, सब तरह की टाँकासाज़ी के बल पर सब क़िस्म की सामाजिक बुराइयों का अन्त कर देना चाहते थे। ये दोनों ही तरह के लोग मज़दूर आन्दोलन के बाहर थे तथा समर्थन के लिए “शिक्षित” वर्गों पर आस लगाये बैठे रहते थे। इसके विपरीत, मज़दूर वर्ग के जिस हिस्से को यह पूरा विश्वास हो चुका था कि मात्र राजनीतिक क्रान्तियाँ पर्याप्त नहीं हैं तथा जो समाज के आमूल पुनर्निर्माण की माँग करता था, वह उस समय अपने को कम्युनिस्ट कहता था। यह भोंड़ा, बेडौल, विशुद्ध रूप से सहज प्रेरणात्मक क़िस्म का कम्युनिज़्म था; फिर भी उसमें इतनी शक्ति थी कि उसने काल्पनिक कम्युनिज़्म की दो पद्धतियों को जन्म दिया – फ्रांस में काबे के “इकारियन” कम्युनिज़्म और जर्मनी में वाइटलिग के कम्युनिज़्म को। 1847 में समाजवाद बुर्जुआ आन्दोलन तथा कम्युनिज़्म मज़दूर आन्दोलन था। कम से कम महाद्वीप में समाजवाद काफ़ी प्रतिष्ठाप्राप्त था जबकि कम्युनिज़्म इसके ठीक विपरीत स्थिति में था। और चूँकि हमारी उस समय ही यह पक्की राय बन चुकी थी कि “मज़दूर वर्ग की मुक्ति स्वयं मज़दूर वर्ग का कार्य ही हो सकता है”, इसलिए इसमें सन्देह की कोई गुंजाइश नहीं थी कि हमें इन दोनों में से कौन-सा नाम अपनाना चाहिए था। तभी से इस नाम का त्याग करने का हमें कभी ख़याल नहीं आया।

“दुनिया के मज़दूरो, एक हो!” जब यह नारा हमने आज से बयालीस साल पहले – प्रथम पेरिस क्रान्ति के ठीक पहले जब सर्वहारा वर्ग स्वयं अपनी माँगों को लेकर सामने आया था – बुलन्द किया था, तब बहुत थोड़े लोगों ने उसे प्रतिध्वनित किया था। किन्तु 28 सितम्बर, 1864 को पश्चिमी यूरोप के अधिकांश देशों के सर्वहाराओं ने मिलकर अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर संघ की स्थापना की जिसकी स्मृति गौरवपूर्ण है। यह सच है कि इण्टरनेशनल स्वयं केवल नौ साल जीवित रहा। किन्तु उसने सभी देशों के सर्वहाराओं का जो अविनाशी एका क़ायम कर दिया था वह आज भी जीवित है और पहले से कहीं अधिक शक्तिशाली है। इसका सबसे बड़ा साक्षी आज का यह दिन है, क्योंकि आज के दिन[30], जब मैं ये पंक्तियाँ लिख रहा हूँ, यूरोप और अमेरिका के सर्वहारा अपनी जुझारू शक्तियों का पुनरीक्षण कर रहे हैं जो पहली बार एक सेना की तरह, एक झण्डे के नीचे, एक तात्कालिक उद्देश्य के लिए – 1866 में इण्टरनेशनल की जेनेवा कांग्रेस द्वारा और फिर 1889 में पेरिस की मज़दूर कांग्रेस द्वारा घोषित आठ घण्टे के काम के दिन को क़ानून द्वारा स्थापित कराने के उद्देश्य से – मैदान में उतारी गयी हैं। और आज के दृश्य से सभी देशों के पूँजीपतियों और ज़मींदारों की आँखें खुल जायेंगी और वे देख लेंगे कि सभी देशों के मेहनतकश लोग आज सचमुच एक हैं।

काश, आज मार्क्स भी अपनी आँखों से इस दृश्य को देखने के लिए मेरे साथ होते!

फ्रेडरिक एंगेल्स

लन्दन, 1 मई 1890

1892 के पोलिश संस्करण की भूमिका

कम्युनिस्ट घोषणापत्र का एक नया पोलिश संस्करण निकालना आवश्यक हो गया है, यह तथ्य नाना प्रकार के विचारों को जन्म देता है।

सबसे पहले यह उल्लेखनीय है कि इधर घोषणापत्र यूरोपीय महाद्वीप में बड़े पैमाने के उद्योग के विकास का एक तरह का सूचक बन गया है। किसी देशविशेष में बड़े पैमाने का उद्योग जितना विकसित होता है, उस देश के मज़दूरों में सम्पत्तिधारी वर्गों के सम्बन्ध में मज़दूर वर्ग के रूप में अपनी स्थिति का ज्ञान हासिल करने की माँग उतनी ही बढ़ती जाती है। उनके मध्य समाजवादी आन्दोलन उतना ही फैलता जाता है तथा घोषणापत्र की माँग उतनी ही बढ़ती जाती है। इस तरह किसी भी देश में उसकी भाषा में घोषणापत्र का जितनी संख्या में प्रसार होता है, उससे मज़दूर आन्दोलन की स्थिति को ही नहीं, वरन बड़े पैमाने के उद्योग के विकास के परिमाण को भी मापा जा सकता है।

इसलिए नया पोलिश संस्करण उद्योग की निश्चित प्रगति इंगित करता है। इसमें सन्देह की कोई गुंजाइश नहीं है कि दस साल पहले प्रकाशित संस्करण के बाद वस्तुतः यह प्रगति हुई है। रूसी पोलैण्ड, कांग्रेसीय पोलैण्ड[31], रूसी साम्राज्य का बहुत बड़ा औद्योगिक क्षेत्र बन गया है। बड़े पैमाने का रूसी उद्योग जहाँ यत्र-तत्र बिखरा हुआ है – एक हिस्सा फ़िनलैण्ड की खाड़ी के आसपास, दूसरा मध्य भाग में (मास्को तथा व्लादीमिर में), तीसरा काला सागर और अज़ोव सागर के तटवर्ती क्षेत्रों तथा और भी अन्य स्थानों में – वहाँ पोलिश उद्योग को अपेक्षाकृत छोटे इलाक़े में ठूँस दिया गया है और वह इस तरह के संकेन्द्रण के लाभ तथा हानि दोनों भोग रहा है। रूसी उद्योगपतियों ने लाभों को उस समय स्वीकारा जब उन्होंने पोलों को रूसी बनाने की उत्कट इच्छा के बावजूद पोलैण्ड के विरुद्ध संरक्षणात्मक सीमाशुल्कों की माँग की। हानि – पोलिश उद्योगपतियों तथा रूसी सरकार के लिए – पोलिश मज़दूरों के बीच समाजवादी विचारों के द्रुत प्रसार तथा घोषणापत्र की बढ़ती हुई माँग में प्रत्यक्ष है।

परन्तु पोलिश उद्योग की यह तीव्र गति, जो रूस के उद्योग के विकास की रफ्तार को पीछे छोड़ रही है, अपनेआप में पोलिश जनता की अनन्त जीवन्तता तथा उसके आसन्न राष्ट्रीय पुनरुत्थान की नयी गारण्टी है। और एक स्वतन्त्र, मज़बूत पोलैण्ड का पुनरुत्थान ऐसा मामला है जो केवल पोलों से ही नहीं, वरन हम सबसे भी सरोकार रखता है। यूरोपीय राष्ट्रों का ईमानदारी भरा अन्तरराष्ट्रीय सहयोग तभी सम्भव है जब इनमें से हर राष्ट्र अपने घर में पूर्णतया स्वायत्तशासी हो। 1848 की क्रान्ति ने, जिसने सर्वहारा के झण्डे के नीचे सर्वहारा योद्धाओं से केवल बुर्जुआ वर्ग का काम कराया, अपनी वसीयत के निष्पादकों – लूई बोनापार्त तथा बिस्मार्क – के ज़रिये इटली, जर्मनी तथा हंगरी के लिए भी आज़ादी हासिल की; परन्तु पोलैण्ड को, जिसके द्वारा 1791 से क्रान्ति के लिए किया जाने वाला कार्य इन तीनों देशों के कुल कार्य से अधिक था, उस समय जब उसने 1863 में दस गुना अधिक रूसी शक्ति के सामने शिकस्त खायी[32], अपने संसाधनों के सहारे छोड़ दिया गया। अभिजात वर्ग पोलिश स्वतन्त्रता को न तो बरकरार रख सका और न उसे फिर से हासिल कर सका। बुर्जुआ वर्ग के लिए यह स्वतन्त्रता आज कम से कम ऐसी तो है ही जिसके प्रति वह उदासीन रह सकता है। फिर भी यूरोपीय राष्ट्रों के सामंजस्यपूर्ण सहयोग के लिए यह आवश्यक है। उसे केवल तरुण पोलिश सर्वहारा वर्ग हासिल कर सकता है और उसके हाथों में वह सुरक्षित भी है। बात यह है कि यूरोप के बाक़ी सभी मज़दूरों के लिए पोलैण्ड की स्वतन्त्रता उतनी ही आवश्यक है जितनी वह स्वयं पोलिश मज़दूरों के लिए है।

फ्रेडरिक एंगेल्स

लन्दन, 10 फ़रवरी 1892

1893 के इतालवी संस्करण की भूमिका

इतालवी पाठक के नाम

कहा जा सकता है कि कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र के प्रकाशन का 18 मई 1848 के दिन के साथ, मिलान तथा बर्लिन में उन क्रान्तियों के दिन के साथ संयोग हुआ है जो उन दो राष्ट्रों के सशस्त्र विद्रोह थे जिनमें से एक तो यूरोपीय महाद्वीप के तथा दूसरा भूमध्यसागर क्षेत्र के केन्द्र में स्थित है। ये दो राष्ट्र तब तक फूट तथा आन्तरिक कलह के कारण दुर्बल पड़े हुए थे तथा इस कारण वे विदेशी आधिपत्य के चंगुल में फँस गये। जहाँ इटली ऑस्ट्रिया के सम्राट के मातहत था, वहाँ जर्मनी रूसी साम्राज्य के ज़ारों के जुवे के मातहत था, जो अधिक परोक्ष होते हुए भी कम कारगर नहीं था। 18 मार्च 1848 के नतीजों ने इटली तथा जर्मनी दोनों का यह कलंक धो दिया; अगर 1848 से 1871 तक ये दो महान राष्ट्र पुनर्गठित हुए और फिर से स्वतन्त्र हो गये तो इसकी वजह, जैसाकि मार्क्स कहा करते थे, यह थी कि जिन लोगों ने 1848 की क्रान्ति को कुचला था वे ही न चाहते हुए भी उसकी वसीयत के निष्पादक बन गये।

वह क्रान्ति सर्वत्र मज़दूर वर्ग का कार्य थी। मज़दूर वर्ग ने ही बैरीकेडों का निर्माण किया था और अपना ख़ून देकर इस क्रान्ति की क़ीमत चुकायी थी। सिर्फ़ पेरिस के मज़दूर ही ऐसे थे जिनका सरकार का तख़्ता पलटने के पीछे बुर्जुआ वर्ग के पूरे शासन को उखाड़ फेंकने का एक निश्चित इरादा था। वे अपने वर्ग तथा बुर्जुआ वर्ग के बीच विद्यमान अपरिहार्य विरोध से अवश्य अवगत थे, फिर भी न देश की आर्थिक प्रगति और न आम फ्रांसीसी मज़दूरों का बौद्धिक विकास अभी ऐसी मंजिल पर पहुँच पाये थे जो सामाजिक पुनर्निर्माण को सम्भव बनाते। अतः, अन्ततोगत्वा क्रान्ति के फल बुर्जुआ वर्ग द्वारा बटोरे गये। दूसरे देशों में, इटली, जर्मनी तथा ऑस्ट्रिया में, मज़दूर बुर्जुआ वर्ग को सत्ता तक पहुँचाने के अलावा और कुछ नहीं कर सके। परन्तु किसी भी देश में बुर्जुआ वर्ग का शासन राष्ट्रीय स्वाधीनता के बिना असम्भव है। अतः 1848 की क्रान्ति भी उन राष्ट्रों की एकता तथा स्वायत्तता को अपने साथ-साथ लेकर आयी थी जिसका इटली, जर्मनी और हंगरी में अभाव था। अब पोलैण्ड की बारी है।

इस तरह 1848 की क्रान्ति भले ही समाजवादी क्रान्ति न रही हो, परन्तु उसने उसके लिए पथ प्रशस्त किया, उसकी आधारभूमि तैयार की। सभी देशों में बड़े पैमाने के उद्योग के विकास के कारण बुर्जुआ समाज ने पिछले पैंतालीस वर्षों के दौरान सर्वत्र बहुत बड़ी तादाद वाले, संकेन्द्रित तथा सशक्त सर्वहारा वर्ग का निर्माण किया। इस तरह उसने, घोषणापत्र के शब्दों में, अपनी क़ब्र खोदने वाले तैयार कर दिये। हर राष्ट्र की स्वायत्तता तथा एकता को पुनर्स्थापित किये बिना सर्वहारा वर्ग की अन्तरराष्ट्रीय एकता अथवा समान लक्ष्यों की प्राप्ति में इन राष्ट्रों का शान्तिपूर्ण सचेतन सहयोग हासिल करना असम्भव होगा। ज़रा 1848 के पूर्व की राजनीतिक अवस्थाओं में इतालवी, हंगेरियाई, जर्मन, पोलिश तथा रूसी मज़दूरों की संयुक्त अन्तरराष्ट्रीय कार्रवाई की कल्पना तो कीजिये।

इसलिए 1848 की लड़ाइयाँ बेकार नहीं लड़ी गयीं। उस क्रान्तिकारी युग से हमें अलग करने वाले पैंतालीस वर्ष भी निरुद्देश्य नहीं रहे। फल परिपक्व हो रहे हैं, और मैं केवल यही कामना करता हूँ कि इस इतालवी अनुवाद का प्रकाशन इतालवी सर्वहारा की विजय के लिए उसी तरह शुभ हो जिस तरह मूल का प्रकाशन अन्तरराष्ट्रीय क्रान्ति के लिए शुभ रहा।

घोषणापत्र अतीत में पूँजीवाद द्वारा अदा की गयी क्रान्तिकारी भूमिका के साथ पूरा न्याय करता है। पहला पूँजीवादी राष्ट्र इटली था। सामन्ती मध्ययुग के अन्त तथा आधुनिक पूँजीवादी युग के समारम्भ का द्योतक एक विराट मानव है, वह है एक इतालवी दान्ते, मध्ययुग का अन्तिम कवि तथा आधुनिक युग का प्रथम कवि। सन 1330 की भाँति आज भी नूतन ऐतिहासिक युग समीप आता जा रहा है। क्या इटली हमें ऐसा नया दान्ते देगा जो इस नये सर्वहारा युग के जन्म की घड़ी का द्योतक होगा?

फ्रेडरिक एंगेल्स

लन्दन, 1 फ़रवरी 1893

कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र

यूरोप को एक हौआ आतंकित कर रहा है – कम्युनिज़्म का हौआ। इस हौअे को भगाने के लिए पोप और ज़ार, मेटरनिख़ और गीज़ो[33], फ्रांसीसी उग्रवादी और जर्मन खुफ़िया पुलिस – बूढ़े यूरोप की सभी शक्तियों ने पवित्र गठबन्धन बना लिया है।

कौन-सी ऐसी विरोधी पार्टी है जिसे उसके सत्तारूढ़ विरोधियों ने कम्युनिस्ट कहकर बदनाम न किया हो। कौन-सी ऐसी विरोधी पार्टी है जिसने पलटकर अपने से अधिक आगे बढ़ी हुई विरोधी पार्टियों और अपने प्रतिक्रियावादी विरोधियों – दोनों पर ही कम्युनिस्ट होने का आरोप लगाकर उनकी भर्त्सना न की हो।

इस तथ्य से दो बातें निकलती हैं:

  1. यूरोप की सभी शक्तियों ने स्वीकार कर लिया है कि कम्युनिज़्म स्वयं एक शक्ति है।
  2. अब समय आ गया है कि कम्युनिस्ट खुलेआम पूरी दुनिया के सामने अपने विचारों, अपने उद्देश्यों और अपनी प्रवृत्तियों को प्रकाशित करें और कम्युनिज़्म के हौअे की इस नानी-दादी की कहानी का पार्टी के अपने एक घोषणापत्र द्वारा ख़ात्मा कर दें।

इसी उद्देश्य से विभिन्न राष्ट्रों के कम्युनिस्ट लन्दन में जमा हुए और उन्होंने निम्नलिखित “घोषणापत्र” तैयार किया जो अंग्रेज़ी, फ्रांसीसी, जर्मन, इतालवी, फ्लेमिश और डेनिश भाषाओं में प्रकाशित किया जायेगा।

  1. बुर्जुआ और सर्वहारा[34]

अभी तक आविर्भूत समस्त समाज का इतिहास[35] वर्ग संघर्षों का इतिहास रहा है।

स्वतन्त्र मनुष्य और दास, पेट्रीशियन और प्लेबियन, सामन्ती प्रभु और भूदास, शिल्प-संघ का उस्ताद-कारीगर[36] और मज़दूर-कारीगर[37] – संक्षेप में उत्पीड़क और उत्पीड़ित बराबर एक-दूसरे का विरोध करते आये हैं। वे कभी छिपे, तो कभी प्रकट रूप से लगातार एक-दूसरे से लड़ते रहे हैं, जिस लड़ाई का अन्त हर बार या तो पूरे समाज के क्रान्तिकारी पुनर्गठन में, या संघर्षरत वर्गों की बरबादी में हुआ है।

इतिहास के विगत युगों में हम प्रायः हर जगह विभिन्न सामाजिक श्रेणियों में विभाजित समाज का एक पेचीदा ढाँचा – सामाजिक श्रेणियों की नानारूपी दर्जाबन्दी पाते हैं। प्राचीन रोम में पेट्रीशियन, नाइट, प्लेबियन और दास मिलते हैं। मध्ययुग में सामन्ती प्रभु, अधीनस्थ जागीरदार, उस्ताद-कारीगर, मज़दूर-कारीगर, भूदास दिखायी देते हैं; और लगभग इन सभी वर्गों में अधीनस्थ दर्जाबन्दियाँ होती हैं।

आधुनिक बुर्जुआ समाज ने, जो सामन्ती समाज के ध्वंस से पैदा हुआ है, वर्ग विरोधों को ख़त्म नहीं किया। उसने केवल पुराने के स्थान पर नये वर्ग, उत्पीड़न की पुरानी अवस्थाओं के स्थान पर नयी अवस्थाएँ और संघर्ष के पुराने रूपों की जगह नये रूप खड़े कर दिये हैं।

किन्तु दूसरे युगों की तुलना में हमारे युग की, बुर्जुआ युग की विशेषता यह है कि उसने वर्ग विरोधों को सरल बना दिया है: आज पूरा समाज दो विशाल शत्रु शिविरों में, एक-दूसरे के ख़िलाफ़ खड़े दो विशाल वर्गों में – बुर्जुआ वर्ग और सर्वहारा वर्ग में – अधिकाधिक विभक्त होता जा रहा है।

मध्ययुग के भूदासों से प्रारम्भिक शहरों के अधिकारपत्र प्राप्त बर्गर[38] पैदा हुए थे। इन्हीं बर्गरों से आगे चलकर प्रथम बुर्जुआ तत्त्वों का विकास हुआ।

अमेरिका की खोज और उत्तम आशा अन्तरीप का रास्ता[39] निकाल लेने से उदीयमान बुर्जुआ वर्ग के प्रसार के लिए नया क्षेत्र खुल गया। ईस्ट इण्डीज़ और चीनी बाज़ारों, अमेरिका के उपनिवेशीकरण, उपनिवेशों के साथ व्यापार, विनिमय के साधनों और माल उत्पादन में आम वृद्धि ने वाणिज्य, नौपरिवहन और उद्योग को, और फलस्वरूप लड़खड़ाते हुए सामन्ती समाज में क्रान्तिकारी तत्त्वों को, तेज़ी के साथ विकास करने का अभूतपूर्व अवसर दिया।

उद्योग की सामन्ती प्रणाली, जिसमें औद्योगिक उत्पादन पर बन्द शिल्प-संघों का एकाधिकार होता था, नये बाज़ारों की बढ़ती हुई ज़रूरतों की पूर्ति के लिए अब काफ़ी नहीं रह गयी थी। अतः उसकी जगह मैन्युफ़ैक्चर[40] की प्रथा ने ले ली। शिल्प-संघ के उस्ताद-कारीगरों को मैन्युफ़ैक्चरिग करने वाले मध्यम वर्ग ने धकेलकर एक ओर कर दिया। अलग-अलग निगमित शिल्प-संघों का श्रम विभाजन प्रत्येक पृथक-पृथक वर्कशॉप के श्रम विभाजन के आगे लुप्त हो गया।

इस बीच बाज़ार बराबर बढ़ते गये और माल की माँग भी बराबर बढ़ती गयी। ऐसी दशा में मैन्युफ़ैक्चर की प्रथा भी नाकाफ़ी सिद्ध होने लगी। तब भाप और मशीन के उपयोग ने औद्योगिक उत्पादन में क्रान्ति पैदा कर दी। अतः अब मैन्युफ़ैक्चर का स्थान दैत्याकार आधुनिक उद्योग ने, और औद्योगिक मध्यम वर्ग का स्थान औद्योगिक धन्नासेठों ने, पूरी की पूरी औद्योगिक फ़ौजों के नेताओं ने, आधुनिक बुर्जुआ वर्ग ने ले लिया।

आधुनिक उद्योग ने विश्व बाज़ार की स्थापना की है, जिसके लिए अमेरिका की खोज ने पथ प्रशस्त कर दिया था। इस बाज़ार ने वाणिज्य, नौपरिवहन और स्थल संचार की ज़बरदस्त उन्नति की है। इस उन्नति का प्रभाव उद्योग के विस्तार पर पड़ा है, और जिस अनुपात में उद्योग, वाणिज्य, नौपरिवहन और रेलवे में वृद्धि हुई, उसी अनुपात में बुर्जुआ वर्ग ने उन्नति की और उसकी पूँजी बढ़ी और उसने मध्ययुग से चले आ रहे प्रत्येक वर्ग को पृष्ठभूमि में धकेल दिया।

चुनाँचे हम देखते हैं कि किस तरह आधुनिक बुर्जुआ वर्ग स्वयं एक लम्बे विकासक्रम की, उत्पादन और विनिमय की प्रणालियों में हुई अनेक क्रान्तियों की उपज है।

बुर्जुआ वर्ग के विकास के हर क़दम के साथ उस वर्ग की तदनुरूप राजनीतिक उन्नति भी हुई। सामन्ती अभिजातों के प्रभुत्व काल में वह एक उत्पीड़ित वर्ग था; मध्ययुगीन कम्यून[41] में वह सशस्त्र और स्वशासित संघ था; कहीं पर (जैसे इटली और जर्मनी में) स्वतन्त्र शहरी प्रजातन्त्र और कहीं पर (जैसे फ्रांस में) राजतन्त्र की कराधीन “तृतीय श्रेणी”; बाद में मैन्युफ़ैक्चर की प्रथा के दौरान उसने अभिजात वर्ग के प्रतिसन्तुलन के रूप में अर्द्धसामन्ती तत्त्वों अथवा पूर्ण निरंकुश राजतन्त्र की सेवा की और शक्तिशाली राजतन्त्रों की आधारशिला का काम किया तथा अन्ततः आधुनिक उद्योग और विश्व बाज़ार की स्थापना के बाद आधुनिक प्रातिनिधिक राज्य में अनन्य रूप से अपने लिए पूर्ण राजनीतिक प्रभुत्व जीत लिया। आधुनिक राज्य का कार्यकारी मण्डल पूरे बुर्जुआ वर्ग के सम्मिलित हितों का प्रबन्ध करने वाली कमेटी के अलावा और कुछ नहीं है।

बुर्जुआ वर्ग ने इतिहास में बहुत ही क्रान्तिकारी भूमिका अदा की है।

बुर्जुआ वर्ग ने, जहाँ पर भी उसका पलड़ा भारी हुआ, वहाँ सभी सामन्ती, पितृसत्तात्मक और काव्यात्मक सम्बन्धों का अन्त कर दिया। उसने मनुष्य को अपने “स्‍वाभाविक बड़ों” के साथ बाँध रखने वाले नाना प्रकार के सामन्ती सम्बन्धों को निर्ममता से तोड़ डाला; और नग्न स्वार्थ के, “नक़द पैसे-कौड़ी” के हृदयशून्य व्यवहार के सिवा मनुष्यों के बीच और कोई दूसरा सम्बन्ध बाक़ी नहीं रहने दिया। धार्मिक श्रद्धा के स्वर्गोपम आनन्दातिरेक को, वीरोचित उत्साह और कूपमण्डूकतापूर्ण भावुकता को उसने आना-पाई के स्वार्थी हिसाब-किताब के बफ़ीर्ले पानी में डुबो दिया है। मनुष्य के वैयक्तिक मूल्य को उसने विनिमय मूल्य बना दिया है, और पहले के अनगिनत अनपहरणीय अधिकारपत्र द्वारा प्रदत्त स्वातन्त्रयों की जगह अब उसने एक ऐसे अन्तःकरणशून्य स्वातन्त्रय की स्थापना की है जिसे मुक्त व्यापार कहते हैं। संक्षेप में, धार्मिक और राजनीतिक भ्रमजाल के पीछे छिपे शोषण के स्थान पर उसने नग्न, निर्लज्ज, प्रत्यक्ष और पाशविक शोषण की स्थापना की है।

जिन पेशों के सम्बन्ध में अब तक लोगों के मन में आदर और श्रद्धा की भावना थी, उन सबका प्रभामण्डल बुर्जुआ वर्ग ने छीन लिया। डॉक्टर, वकील, पुरोहित, कवि और वैज्ञानिक, सभी को उसने अपना उज़रती मज़दूर बना लिया है।

बुर्जुआ वर्ग ने पारिवारिक सम्बन्धों के ऊपर से भावुकता का परदा उतार फेंका है और पारिवारिक सम्बन्ध को केवल धन-सम्बन्ध में बदल डाला है।

बुर्जुआ वर्ग ने दिखा दिया है कि मध्ययुग में शक्ति के उन बर्बर प्रदर्शनों के साथ-साथ, जिनकी प्रतिगामी लोग इतनी तारीफ़ करते हैं, अकर्मण्यता और आलस्य कैसे जुड़े हुए थे। उसने ही सबसे पहले दिखलाया कि मानव की क्रियाशक्ति क्या कुछ कर सकती है। उसने जो जादू कर दिखाया है वह मिड्ड के पिरामिडों, रोम की जल प्रणाली और गोथिक गिरजाघरों से कहीं अधिक आश्चर्यजनक है। उसने जैसे बड़े-बड़े अभियान आयोजित किये हैं, उनके सामने पुराने समय में जातियों के समस्त निष्क्रमण और धर्मयुद्ध[42] फीके पड़ जाते हैं।

उत्पादन के औज़ारों में लगातार क्रान्तिकारी परिवर्तन और उसके फलस्वरूप उत्पादन के सम्बन्धों में, और साथ-साथ समाज के सारे सम्बन्धों में क्रान्तिकारी परिवर्तन के बिना बुर्जुआ वर्ग जीवित नहीं रह सकता। इसके विपरीत, उत्पादन के पुराने तरीक़ों को ज्यों का त्यों बनाये रखना पहले के सभी औद्योगिक वर्गों के जीवित रहने की पहली शर्त थी। उत्पादन में निरन्तर क्रान्तिकारी परिवर्तन, सभी सामाजिक अवस्थाओं में लगातार उथल-पुथल, शाश्वत अनिश्चितता और हलचल – ये चीज़ें बुर्जुआ युग को पहले के सभी युगों से अलग करती हैं। सभी स्थिर और जड़ीभूत सम्बन्ध, जिनके साथ प्राचीन और पूज्य पूर्वाग्रहों तथा मतों की एक पूरी  शृंखला जुड़ी हुई होती है, मिटा दिये जाते हैं, और सभी नये बनने वाले सम्बन्ध जड़ीभूत होने के पहले ही पुराने पड़ जाते हैं। जो कुछ भी ठोस है वह हवा में उड़ जाता है, जो कुछ पावन है वह भ्रष्ट हो जाता है, और आख़िरकार मनुष्य संजीदा नज़र से जीवन के वास्तविक हालात को, मानव-मानव के आपसी सम्बन्धों को देखने के लिए मजबूर हो जाता है।

अपने माल के लिए बराबर फैलते हुए बाज़ार की ज़रूरत के कारण बुर्जुआ वर्ग दुनिया के कोने-कोने की ख़ाक छानता है। वह हर जगह घुसने को, हर जगह पैर जमाने को, हर जगह सम्पर्क क़ायम करने को बाध्य होता है।

विश्व बाज़ार को अपने लाभ के लिए इस्तेमाल कर बुर्जुआ वर्ग ने हर देश में उत्पादन और खपत को एक सार्वभौमिक रूप दे दिया है। प्रतिगामियों की भावनाओं को गहरी चोट पहुँचाते हुए उसने उद्योग के पैरों के नीचे से उस राष्ट्रीय आधार को खिसका दिया है जिस पर वह खड़ा था। पुराने जमे-जमाये सभी राष्ट्रीय उद्योग या तो नष्ट कर दिये गये हैं या नित्यप्रति नष्ट किये जा रहे हैं। उनका स्थान ऐसे नये-नये उद्योग ले रहे हैं जिनकी स्थापना सभी सभ्य देशों के लिए जीवन-मरण का प्रश्न बन जाती है; उनका स्थान ऐसे नये उद्योग ले रहे हैं जो उत्पादन के लिए अब सिर्फ़ अपने देश का ही कच्चा माल इस्तेमाल नहीं करते बल्कि दूर-दूर देशों से लाया हुआ कच्चा माल इस्तेमाल करते हैं; उनका स्थान ऐसे उद्योग ले रहे हैं जिनके उत्पादन की खपत सिर्फ़ उसी देश में नहीं, बल्कि पृथ्वी के कोने-कोने में होती है। उन पुरानी आवश्यकताओं की जगह, जिन्हें स्वदेश की बनी चीज़ों से पूरा किया जाता था, अब ऐसी नयी-नयी आवश्यकताएँ पैदा हो गयी हैं जिन्हें पूरा करने के लिए दूर-दूर के देशों और भू-भागों से माल मँगाना होता है। पुरानी स्थानीय और राष्ट्रीय पृथकता और आत्मनिर्भरता का स्थान चौतरफ़ा पारस्परिक सम्पर्क ने, सार्वभौमिक अन्तरनिर्भरता ने ले लिया है। और भौतिक उत्पादन की ही तरह, बौद्धिक कृतियाँ सार्वभौमिक सम्पत्ति बन गयी हैं। राष्ट्रीय एकांगीपन और संकुचित दृष्टिकोण – दोनों ही अधिकाधिक असम्भव होते जा रहे हैं, और अनेक राष्ट्रीय और स्थानीय साहित्यों से एक विश्व साहित्य उत्पन्न हो रहा है।

उत्पादन के सभी औज़ारों में तीव्र उन्नति और संचार साधनों की विपुल सुविधाओं के कारण बुर्जुआ वर्ग सभी राष्ट्रों को, यहाँ तक कि बर्बर से बर्बर राष्ट्रों को भी सभ्यता की परिधि में खींच लाता है। उसके माल की सस्ती क़ीमत एक ऐसा तोपख़ाना है जिसके ज़रिये वह सभी चीनी दीवारों को ढहा देता है, और विदेशियों के प्रति तीव्र और घोर घृणा रखने वाली बर्बर जातियों को आत्मसमर्पण के लिए मजबूर कर देता है। प्रत्येक राष्ट्र को, इस भय से कि अन्यथा वह लुप्त हो जायेगा, वह पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली अपनाने के लिए मजबूर कर देता है; वह उन्हें जिस चीज़ के लिए मजबूर करता है उसे वह सभ्यता कहता है ताकि वे भी अपने बीच सभ्यता क़ायम करें अर्थात ख़ुद बुर्जुआ बन जायें। संक्षेप में, बुर्जुआ वर्ग सारी दुनिया को अपने ही साँचे में ढाल देता है।

बुर्जुआ वर्ग ने देहातों को शहरों के अधीन कर दिया है। उसने बहुत-बड़े-बड़े शहर बसाये हैं और देहातों की तुलना में शहरों की जनसंख्या में प्रचण्ड वृद्धि की है, और इस प्रकार जनसंख्या के एक बड़े भाग को देहाती जीवन की जड़ता से मुक्त किया है। जिस तरह बुर्जुआ वर्ग ने देहातों को शहरों का आश्रित बना दिया है, उसी तरह उसने बर्बर और अर्द्धबर्बर देशों को सभ्य देशों का, कृषक राष्ट्रों को औद्योगिक राष्ट्रों का, पूरब को पश्चिम का आश्रित बना दिया है।

आबादी, उत्पादन के साधनों और सम्पत्ति की बिखरी हुई अवस्था को बुर्जुआ वर्ग अधिकाधिक ख़त्म करता जाता है। बिखरी हुई आबादियों को उसने एक जगह जमा किया है, उत्पादन के साधनों का केन्द्रीकरण किया है और सम्पत्ति को चन्द लोगों के हाथों में संकेन्द्रित कर दिया है। राजनीतिक केन्द्रीकरण इसका अवश्यम्भावी परिणाम था। जो प्रान्त पहले स्वतन्त्र या ढीले-ढाले ढंग से सम्बद्ध थे और जिनके हित और क़ानून, जिनकी सरकारें और कर प्रणालियाँ अलग-अलग थीं, वे समूहबद्ध होकर, एक सरकार, एक विधि-संहिता, एक राष्ट्रीय वर्ग हित, एक सीमा और कर प्रणाली के साथ आज एक राष्ट्र बन गये हैं।

मुश्किल से अपने एक शताब्दी के शासनकाल में बुर्जुआ वर्ग ने जितनी शक्तिशाली और प्रचण्ड उत्पादक शक्तियाँ उत्पन्न की हैं, उतनी पिछली सभी पीढ़ियों में मिलाकर भी नहीं उत्पन्न हुईं। प्राकृतिक शक्तियों का मनुष्य द्वारा वशीभूत किया जाना, मशीनों का उपयोग, उद्योग और खेतीबारी में रसायन का प्रयोग, भाप-नौपरिवहन, रेलवे, बिजली के तार, पूरे के पूरे महाद्वीपों का खेती करने लायक बनाया जाना, नदियों से नहरें निकाला जाना, पूरी आबादियों का मानो छूमन्तर से पैदा हो जाना – क्या पिछली शताब्दियों में कोई यह सोच भी सकता था कि सामाजिक श्रम के गर्भ में ऐसी उत्पादक शक्तियाँ सोयी पड़ी हैं?

इस तरह हम देखते हैं: उत्पादन और विनिमय के वे साधन, जिनकी बुनियाद पर बुर्जुआ वर्ग ने अपना निर्माण किया है, सामन्ती समाज में ही पैदा हो गये थे। लेकिन उत्पादन और विनिमय के इन साधनों के विकास की एक ख़ास मंजिल पर वे अवस्थाएँ, जिनमें सामन्ती समाज उत्पादन और विनिमय करता था, अर्थात कृषि और उद्योग का सामन्ती संगठन, या यूँ कहिये कि स्वामित्व के सामन्ती सम्बन्ध, नवोन्नत उत्पादक शक्तियों से बिल्कुल बेमेल हो गये; वे बहुत सारी बेड़ियाँ बन गये। उन्हें तोड़ फेंकना आवश्यक हो गया और उन्हें तोड़ फेंका गया।

उनका स्थान बुर्जुआ वर्ग के आर्थिक और राजनीतिक प्रभुत्व और अनुकूल सामाजिक और राजनीतिक ढाँचे के साथ मुक्त होड़ ने ले लिया।

आज हमारे सामने ठीक इसी तरह की गति हो रही है। उत्पादन, विनिमय और स्वामित्व के बुर्जुआ सम्बन्धों सहित आधुनिक बुर्जुआ समाज, वह समाज जिसने मानो तिलिस्म से उत्पादन और विनिमय के ऐसे विशाल साधनों को खड़ा कर दिया है, एक ऐसे जादूगर के समान है जिसने अपने जादू के ज़ोर से पाताल लोक की शक्तियों को बुला तो लिया है, लेकिन अब उन्हें क़ाबू में रखने में वह असमर्थ है। पिछले कई दशकों से उद्योग और वाणिज्य का इतिहास आधुनिक उत्पादक शक्तियों का उत्पादन की समकालीन अवस्थाओं के ख़िलाफ़, स्वामित्व के उन सम्बन्धों के ख़िलाफ़ विद्रोह का ही इतिहास है, जो बुर्जुआ वर्ग और उसके शासन के अस्तित्व की शर्तें हैं। यहाँ पर उन वाणिज्यिक संकटों का ज़िक्र कर देना काफ़ी है जिनके नियतकालिक आवर्तन द्वारा बुर्जुआ समाज के अस्तित्व की हर बार अधिकाधिक सख़्ती के साथ परीक्षा होती है। इन संकटों में न केवल मौजूदा पैदावार के ही, बल्कि पहले से उत्पन्न उत्पादक शक्तियों के भी एक बड़े भाग को समय-समय पर नष्ट कर दिया जाता है। इन संकटों के समय एक महामारी फैल जाती है जो पिछले सभी युगों में एक बिल्कुल बेतुकी बात समझी जाती – अर्थात अतिउत्पादन की महामारी। समाज अचानक अपने को क्षणिक बर्बरता की अवस्था में लौटा हुआ पाता है; ऐसा लगता है कि उसके जीवन निर्वाह के सभी साधनों को किसी अकाल या सर्वनाशी विश्वयुद्ध ने एकबारगी ख़त्म कर दिया है; उद्योग और वाणिज्य नष्ट हो गये प्रतीत होते हैं। और यह सब क्यों? इसलिए कि समाज में सभ्यता का, जीवन निर्वाह के साधनों का, उद्योग और वाणिज्य का अतिशय हो गया है। समाज की मौजूदा उत्पादक शक्तियाँ बुर्जुआ स्वामित्व की अवस्थाओं को अब उन्नत नहीं करतीं; बल्कि वे इन अवस्थाओं के लिए अतीव सशक्त बन जाती हैं, जिनकी बेड़ियों में वे जकड़ी हुई होती हैं; और जैसे ही वे इन बेड़ियों को तोड़ देती हैं वैसे ही वे पूरे बुर्जुआ समाज में अव्यवस्था पैदा कर देती हैं, बुर्जुआ स्वामित्व को ख़तरे में डाल देती हैं। बुर्जुआ समाज की अवस्थाएँ उनके द्वारा उत्पादित सम्पत्ति को समाविष्ट करने के लिए बहुत संकुचित हो जाती हैं। बुर्जुआ वर्ग इन संकटों से किस प्रकार अपने को उबारता है? एक ओर उत्पादक शक्तियों के एक बड़े भाग को ज़बरदस्ती नष्ट करके और दूसरी ओर नये-नये बाज़ारों पर क़ब्ज़ा जमाकर और साथ ही पुराने बाज़ारों का और भी मुकम्मल तौर पर इस्तेमाल कर – यानी और भी वृहत और विनाशकारी संकटों के लिए पथ प्रशस्त कर, और इन संकटों को रोकने की क्षमता को घटाकर।

जिन हथियारों से बुर्जुआ वर्ग ने सामन्तवाद को मार गिराया था, वे ही अब बुर्जुआ वर्ग के ख़िलाफ़ मोड़ दिये जाते हैं।

किन्तु बुर्जुआ वर्ग ने ऐसे हथियारों को ही नहीं गढ़ा है जो उसका अन्त कर देंगे, बल्कि उसने ऐसे लोगों को भी पैदा किया है जो इन हथियारों का इस्तेमाल करेंगे – आधुनिक मज़दूर वर्ग – सर्वहारा वर्ग।

जिस अनुपात में बुर्जुआ वर्ग का, अर्थात पूँजी का विकास होता है, उसी अनुपात में सर्वहारा वर्ग का, आधुनिक मज़दूर वर्ग का, उन श्रमजीवियों के वर्ग का विकास होता है, जो तभी तक ज़िन्दा रह सकते हैं जब तक उन्हें काम मिलता जाये, और उन्हें काम तभी तक मिलता है, जब तक उनका श्रम पूँजी में वृद्धि करता है। ये श्रमजीवी, जो अपने को अलग-अलग बेचने के लिए लाचार हैं, अन्य व्यापारिक माल की तरह ख़ुद भी माल हैं, और इसलिए वे होड़ के उतार-चढ़ाव तथा बाज़ार की हर तेज़ी-मन्दी के शिकार होते हैं।

मशीनों के विस्तृत इस्तेमाल तथा श्रम विभाजन के कारण सर्वहाराओं के काम का वैयक्तिक चरित्र नष्ट हो गया है और इसलिए यह काम उनके लिए आकर्षक नहीं रह गया है। मज़दूर मशीन का पुछल्ला बन जाता है और उससे सबसे सरल, सबसे नीरस और आसानी से अर्जित योग्यता की माँग की जाती है। इसलिए मज़दूर के उत्पादन पर ख़र्च लगभग पूर्णतः उसके जीवन निर्वाह और वंश वृद्धि के लिए आवश्यक साधनों तक सीमित रह गया है। लेकिन हर माल का, और इसलिए श्रम का भी दाम[43] उसके उत्पादन में लगे हुए ख़र्च के बराबर होता है। अतः जिस अनुपात में काम की अरुचिकरता में वृद्धि होती है उसी अनुपात में मज़दूरी घटती है। यही नहीं, जिस मात्र में मशीनों का इस्तेमाल तथा श्रम विभाजन बढ़ता है उसी मात्र में श्रम का बोझ भी बढ़ता जाता है, चाहे यह काम के घण्टे बढ़ाने के ज़रिये हो या निर्धारित समय में मज़दूरों से अधिक काम लेने या मशीन की रफ्तार बढ़ाने आदि के ज़रिये।

आधुनिक उद्योग ने पितृसत्तात्मक उस्ताद-कारीगर के छोटे-से वर्कशाप को औद्योगिक पूँजीपति के विशाल कारख़ाने में बदल दिया है। कारख़ाने में भरे झुण्ड के झुण्ड श्रमजीवी सैनिकों की तरह संगठित किये जाते हैं। औद्योगिक फ़ौज के सिपाहियों की तरह वे बाक़ायदा एक दरजावार तरतीब में बँटे हुए अफ़सरों और सार्जेण्टों की कमान में रखे जाते हैं। वे केवल बुर्जुआ वर्ग और बुर्जुआ राज्य के ही ग़ुलाम नहीं हैं; बल्कि हर दिन, हर घण्टे वे मशीन के, ओवरसियर के और सर्वोपरि ख़ुद बुर्जुआ कारख़ानेदार के ग़ुलाम होते हैं। यह तानाशाही जितना ही अधिक खुलकर यह घोषित करती है कि मुनाफ़ा ही उसका लक्ष्य और उद्देश्य है, उतना ही अधिक वह तुच्छ, घृणित और कटु होती है।

शारीरिक श्रम में जितनी ही प्रवीणता और मशक़्क़त की ज़रूरत कम होती जाती है अर्थात जितनी ही आधुनिक उद्योग में प्रगति होती जाती है, उतना ही अधिक पुरुषों का स्थान स्त्रियाँ लेती जाती हैं। जहाँ तक मज़दूर वर्ग का प्रश्न है, आयु और लिगभेद का कोई विशिष्ट सामाजिक महत्त्व नहीं रह गया है। सभी श्रम के औज़ार हैं – आयु और लिगभेद के अनुसार किसी पर कम ख़र्च बैठता है, तो किसी पर ज़्यादा।

कारख़ानेदार द्वारा मज़दूर के शोषण का फ़िलहाल अन्त हुआ नहीं, और उसे नक़द मज़दूरी मिली नहीं कि फ़ौरन बुर्जुआ वर्ग के अन्य भाग – मकान-मालिक, दूकानदार, गिरवी रखने वाला महाजन, आदि – उस पर टूट पड़ते हैं।

मध्यम वर्ग के निम्न स्तर – छोटे कारोबारी, दूकानदार, आम तौर पर किरायाजीवी, दस्तकार और किसान – ये सब धीरे-धीरे सर्वहारा वर्ग की स्थिति में पहुँच जाते हैं। कुछ तो इसलिए कि जिस पैमाने पर आधुनिक उद्योग चलता है उसके लिए उनकी छोटी पूँजी पूरी नहीं पड़ती और बड़े पूँजीपतियों के साथ होड़ में वह डूब जाती है; और कुछ इसलिए कि उत्पादन के नये-नये तरीक़ों के निकल आने के कारण उनके विशिष्टीकृत कौशल का कोई मूल्य नहीं रह जाता है। इस प्रकार आबादी के सभी वर्गों से सर्वहारा वर्ग की भर्ती होती है।

सर्वहारा वर्ग विकास की विभिन्न मंज़िलों से गुज़रता है। जन्म काल से ही बुर्जुआ वर्ग से उसका संघर्ष शुरू हो जाता है। शुरू में अकेले-दुकेले मज़दूर लड़ते हैं, फिर एक कारख़ाने के मज़दूर मिलकर लड़ते हैं, तब फिर एक उद्योग के एक इलाक़े के सब मज़दूर एक साथ उस पूँजीपति से मोर्चा लेते हैं जो उनका सीधे-सीधे शोषण करता है। उनका हमला उत्पादन की बुर्जुआ अवस्थाओं पर नहीं होता बल्कि ख़ुद उत्पादन के औज़ारों पर होता है। वे अपनी मेहनत के साथ होड़ करने वाले बाहर से मँगाये गये सामानों को नष्ट कर देते हैं, मशीनों को चूर कर देते हैं, फ़ैक्टरियों में आग लगा देते हैं और मध्ययुग के कारीगर की खोई हुई हैसियत को फिर से क़ायम करने की बलपूर्वक कोशिश करते हैं।

इस अवस्था में मज़दूर देशभर में बिखरे हुए, असम्बद्ध और अपनी ही आपसी होड़ के कारण बँटे हुए जन-समुदाय होते हैं। अगर कहीं मिलकर वे अपना एक ठोस संगठन बना भी लेते हैं तो यह अभी उनकी सक्रिय एकता का फल नहीं, बल्कि बुर्जुआ वर्ग की एकता का फल होता है, क्योंकि बुर्जुआ वर्ग को अपने राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए पूरे सर्वहारा वर्ग को गतिशील करना पड़ता है और वह ऐसा करने में अभी कुछ समय तक समर्थ भी होता है। इसलिए इस अवस्था में सर्वहारा वर्ग अपने शत्रुओं से नहीं, बल्कि अपने शत्रुओं के शत्रुओं से, निरंकुश राजतन्त्र के अवशेषों, भूस्वामियों, ग़ैर-औद्योगिक बुर्जुआओं, निम्न-बुर्जुआओं से लड़ता है। इस प्रकार, इतिहास की समस्त गतिविधि के सूत्र बुर्जुआ वर्ग के हाथों में केन्द्रित रहते हैं; इस प्रकार हासिल की गयी हर जीत बुर्जुआ वर्ग की जीत होती है।

लेकिन उद्योग के विकास के साथ-साथ सर्वहारा वर्ग की संख्या में ही वृद्धि नहीं होती, बल्कि वह बड़ी-बड़ी जमातों में संकेन्द्रित हो जाता है, उसकी ताक़त बढ़ जाती है और उसे अपनी इस ताक़त का अधिकाधिक अहसास होने लगता है। मशीनें जिस अनुपात में श्रम के सभी भेदों को मिटाती जाती हैं और लगभग सभी जगह मज़दूरी को एक ही निम्न स्तर पर लाती जाती हैं, उसी अनुपात में सर्वहारा वर्ग की पाँतों में नाना प्रकार के हित और जीवन की अवस्थाएँ अधिकाधिक एकसम होती जाती हैं। बुर्जुआ वर्ग की बढ़ती हुई आपसी होड़ और उससे पैदा होने वाले व्यापारिक संकटों के कारण मज़दूरी और भी अस्थिर हो जाती है। मशीनों में लगातार सुधार, जो निरन्तर तेज़ी के साथ बढ़ता जाता है, मज़दूरों की जीविका को अधिकाधिक अनिश्चित बना देता है। अलग-अलग मज़दूरों और अलग-अलग पूँजीपतियों की टक्करें अधिकाधिक रूप से दो वर्गों के बीच की टक्करों की शक्ल अख़्तियार करती जाती हैं। और तब बुर्जुआ वर्ग के विरुद्ध मज़दूर अपने संगठन (ट्रेड यूनियनें) बनाने लगते हैं, मज़दूरी की दर को क़ायम रखने के लिए वे संघबद्ध होते हैं; समय-समय पर होने वाली इन टक्करों के लिए पहले से तैयार रहने के निमित्त वे स्थायी संघों की स्थापना करते हैं। जहाँ-तहाँ उनकी लड़ाई बलवों का रूप धारण कर लेती है।

जब-तब मज़दूरों की जीत भी होती है लेकिन केवल वक़्ती तौर पर। उनकी लड़ाइयों का असली फल तात्कालिक नतीजों में नहीं, बल्कि मज़दूरों की निरन्तर बढ़ती हुई एकता में है। आधुनिक उद्योग द्वारा उत्पन्न किये गये संचार साधनों से, जो अलग-अलग जगहों के मज़दूरों को एक-दूसरे के सम्पर्क में ला देते हैं, एकता के इस काम में मदद मिलती है। एक ही प्रकार के अनगिनत स्थानीय संघर्षों को केन्द्रीकृत करके उन्हें एक राष्ट्रीय वर्ग संघर्ष का रूप देने के लिए बस इसी प्रकार के सम्पर्क की ज़रूरत होती है। लेकिन प्रत्येक वर्ग संघर्ष एक राजनीतिक संघर्ष होता है। और उस एकता को, जिसे हासिल करने के लिए पुराने ज़माने में यातायात की घोर असुविधाओं के कारण मध्ययुग के बर्गरों को सदियाँ लगी थीं, रेलों की कृपा से आधुनिक सर्वहारा कुछ ही वर्षों में हासिल कर लेते हैं।

सर्वहाराओं का एक वर्ग के रूप में संगठन और फलतः एक राजनीतिक पार्टी के रूप में उनका संगठन उनकी आपसी होड़ के कारण बराबर गड़बड़ी में पड़ जाता है। लेकिन हर बार वह फिर उठ खड़ा होता है – पहले से भी अधिक मज़बूत, दृढ़ और शक्तिशाली बनकर। ख़ुद बुर्जुआ वर्ग की भीतरी फूटों का फ़ायदा उठाकर वह मज़दूरों के अलग-अलग हितों को क़ानूनी तौर पर भी मनवा लेता है। इंग्लैण्ड में दस घण्टे के काम के दिन का क़ानून इसी तरह पारित हुआ था।

पुराने समाज के विभिन्न वर्गों के बीच टकराव कुल मिलाकर सर्वहारा वर्ग के विकास को अनेक रूपों में मदद ही पहुँचाते हैं। बुर्जुआ वर्ग अपने को लगातार संघर्ष में फँसा पाता है: पहले अभिजात वर्ग के विरुद्ध, फिर ख़ुद बुर्जुआ वर्ग के उन भागों के विरुद्ध, जिनके हित औद्योगिक प्रगति के प्रतिकूल हो जाते हैं और अन्ततः विदेशों के बुर्जुआ वर्ग के विरुद्ध तो हमेशा ही। इन सभी लड़ाइयों में वह सर्वहारा वर्ग से अपील करने के लिए, उससे मदद माँगने के लिए और इस प्रकार उसे राजनीतिक अखाड़े में खींच लाने के लिए मजबूर होता है। अतः बुर्जुआ वर्ग ख़ुद ही सर्वहारा वर्ग को अपने राजनीतिक और सामान्य शिक्षण के तत्त्वों से सम्पन्न कर देता है, अर्थात उनके हाथ में बुर्जुआ वर्ग से लड़ने के लिए हथियार थमा देता है।

इसके अलावा, जैसाकि हम ऊपर देख चुके हैं, उद्योग की उन्नति के कारण, शासक वर्गों के पूरे के पूरे समूह सर्वहाराओं की अवस्था में पहुँचा दिये जाते हैं, या कम से कम उनके अस्तित्व की अवस्थाओं के लिए ख़तरा पैदा हो जाता है। ये लोग भी सर्वहारा वर्ग को ज्ञानोद्दीप्ति और प्रगति के नये तत्त्व प्रदान करते हैं।

अन्त में, वर्ग संघर्ष जब निर्णायक घड़ी के नज़दीक पहुँच जाता है तब शासक वर्ग में, वास्तव में सम्पूर्ण पुराने समाज के अन्दर, हो रही विघटन की प्रक्रिया इतना प्रचण्ड और प्रत्यक्ष रूप धारण कर लेती है कि शासक वर्ग का एक छोटा-सा हिस्सा उससे अलग होकर क्रान्तिकारी वर्ग के साथ – उस वर्ग के साथ जिसके हाथ में भविष्य होता है – आ मिलता है। इसलिए, जिस तरह पहले के युग में सामन्तों का एक भाग टूटकर बुर्जुआ वर्ग से आ मिला था, उसी तरह अब बुर्जुआ वर्ग का एक हिस्सा और ख़ास तौर से बुर्जुआ विचारकों का एक हिस्सा जिसने इतिहास की समग्र गति को सैद्धान्तिक रूप में समझने के योग्य स्तर पर ख़ुद को पहुँचा दिया है, सर्वहारा वर्ग से आकर मिल जाता है।

बुर्जुआ वर्ग के मुक़ाबले में आज जितने भी वर्ग खड़े हैं, उन सबमें सर्वहारा ही वास्तव में क्रान्तिकारी वर्ग है। दूसरे वर्ग आधुनिक उद्योग के समक्ष ह्रासोन्मुख होकर अन्ततः विलुप्त हो जाते हैं; सर्वहारा वर्ग ही उसकी मौलिक और विशिष्ट उपज है।

निम्न मध्यम वर्ग के लोग – छोटे कारख़ानेदार, दूकानदार, दस्तकार और किसान – ये सब मध्यम वर्ग के अंश के रूप में अपने अस्तित्व को नष्ट होने से बचाने के लिए बुर्जुआ वर्ग से लोहा लेते हैं। इसलिए वे क्रान्तिकारी नहीं, रूढ़िवादी हैं। इतना ही नहीं, चूँकि वे इतिहास के चक्र को पीछे की ओर घुमाने की कोशिश करते हैं, इसलिए वे प्रतिगामी हैं। अगर कहीं वे क्रान्तिकारी हैं तो सिर्फ़ इसलिए कि उन्हें बहुत जल्द सर्वहारा वर्ग में मिल जाना है; चुनाँचे वे अपने वर्तमान नहीं, बल्कि भविष्य के हितों की रक्षा करते हैं; अपने दृष्टिकोण को त्यागकर वे सर्वहारा का दृष्टिकोण अपना लेते हैं।

“ख़तरनाक वर्ग,”[44] समाज का कचरा, पुराने समाज के निम्नतम स्तरों में से निकला हुआ और निष्क्रियता के कीचड़ में सड़ता हुआ समुदाय जहाँ-तहाँ सर्वहारा क्रान्ति की आँधी में पड़कर आन्दोलन में खिंच आ सकता है; लेकिन उसके जीवन की अवस्थाएँ उसे प्रतिक्रियावादी षड्यन्त्र के भाड़े के टट्टू का काम करने के लिए कहीं अधिक मौजूँ बना देती हैं।

सर्वहारा वर्ग की मौजूदा अवस्था में पुराने समाज की अवस्थाओं का वस्तुतः अब नाम-निशान तक बाक़ी नहीं रह गया है। सर्वहारा के पास कोई सम्पत्ति नहीं है; अपनी स्त्री और अपने बच्चों के साथ उसका जो सम्बन्ध है वह बुर्जुआ पारिवारिक सम्बन्धों से बिल्कुल ही भिन्न है। आधुनिक औद्योगिक श्रम ने, पूँजी के आधुनिक जुवे ने – जो इंग्लैण्ड, फ्रांस, अमेरिका और जर्मनी, सब जगह एक ही जैसा है – उसके राष्ट्रीय चरित्र के सभी चिह्नों का अन्त कर दिया है। क़ानून, नैतिकता, धर्म – ये सब उसके लिए बुर्जुआ पूर्वाग्रह मात्र हैं, जिनकी ओट में घातक बुर्जुआ हित छिपे हुए हैं।

आज तक जिन-जिन वर्गों का पलड़ा भारी हुआ है, उन सबने अपने पहले से हासिल दरजे को मज़बूत बनाने के लिए समाज को अपनी हस्तगतकरण प्रणाली के अधीन करने की कोशिश की है। सर्वहारा वर्ग अपनी अब तक की हस्तगतकरण प्रणाली का और उसके साथ-साथ पहले की प्रत्येक हस्तगतकरण प्रणाली का अन्त किये बिना समाज की उत्पादक शक्तियों का स्वामी नहीं बन सकता। सर्वहारा वर्ग के पास बचाने और सुरक्षित रखने के लिए अपना कुछ भी नहीं है; उसका लक्ष्य निजी स्वामित्व की पुरानी सभी गारण्टियों और ज़मानतों को नष्ट कर देना है।

पहले के सभी ऐतिहासिक आन्दोलन अल्पमत के आन्दोलन रहे हैं या अल्पमत के फ़ायदे के लिए रहे हैं। किन्तु सर्वहारा आन्दोलन विशाल बहुमत का, विशाल बहुमत के फ़ायदे के लिए होने वाला चेतन तथा स्वतन्त्र आन्दोलन है। हमारे वर्तमान समाज का सबसे निचला स्तर, सर्वहारा वर्ग, शासकीय समाज की सभी ऊपरी परतों को पलटे बिना हिल तक नहीं सकता, किसी प्रकार अपने को ऊपर नहीं उठा सकता।

बुर्जुआ वर्ग के ख़िलाफ़ सर्वहारा वर्ग का संघर्ष, यद्यपि सारतत्त्व की दृष्टि से नहीं, तथापि रूप की दृष्टि से शुरू में राष्ट्रीय संघर्ष होता है। हर देश के सर्वहारा वर्ग को, ज़ाहिर है, पहले अपने ही बुर्जुआ वर्ग से निबटना होगा।

सर्वहारा वर्ग के विकास की सबसे सामान्य अवस्थाओं का वर्णन करते हुए हमने वर्तमान समाज के अन्दर न्यूनाधिक प्रच्छन्न रूप से चलने वाले गृहयुद्ध का उसी बिन्दु तक चित्रण किया है जहाँ वह युद्ध प्रत्यक्ष क्रान्ति के रूप में भड़क उठता है और जहाँ बुर्जुआ वर्ग को बलपूर्वक उखाड़ फेंकना सर्वहारा वर्ग के शासन के लिए आधार प्रस्तुत करता है।

अभी तक जैसाकि हम देख चुके हैं, हर तरह का समाज उत्पीड़क और उत्पीड़ित वर्गों के विरोध पर क़ायम रहा है। लेकिन किसी भी वर्ग का उत्पीड़न करने के लिए यह ज़रूरी है कि उसे कम से कम ऐसी सुविधाएँ दी जायें जिससे और न सही तो, एक ग़ुलाम वर्ग के रूप में, वह ज़िन्दा रह सके। भूदास व्यवस्था के युग में भूदास ने उन्नति कर कम्यून की सदस्यता हासिल कर ली थी, उसी तरह जैसे निम्न-बुर्जुआ सामन्ती निरंकुशता के जुवे के नीचे बुर्जुआ बनने में सफल हो गया था। लेकिन आधुनिक मज़दूर की दशा बिल्कुल उल्टी है। उद्योग की उन्नति के साथ, ऊपर उठने के बजाय, वह स्वयं अपने वर्ग के अस्तित्व के लिए आवश्यक अवस्थाओं के स्तर से नीचे गिरता जाता है। वह कंगाल हो जाता है और उसकी मुफ़लिसी आबादी और दौलत से भी ज़्यादा तेज़ी से बढ़ती है। ऐसी स्थिति में यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि बुर्जुआ वर्ग अब समाज का शासक बने रहने के और समाज पर अपने अस्तित्व की अवस्थाओं को, अनिवार्य नियम के रूप में, लादने के अयोग्य है। बुर्जुआ वर्ग शासन करने के अयोग्य है क्योंकि वह अपने ग़ुलाम को ग़ुलामी की हालत में ज़िन्दा रहने की गारण्टी देने में असमर्थ है, क्योंकि वह उसके जीवन स्तर में ऐसी गिरावट नहीं रोक सकता जिसके फलस्वरूप वह उसकी कमाई खाने के बजाय उसका पेट भरने को मजबूर हो जाता है। समाज अब बुर्जुआ वर्ग के मातहत नहीं रह सकता – दूसरे शब्दों में, बुर्जुआ वर्ग का अस्तित्व अब समाज से मेल नहीं खाता।

बुर्जुआ वर्ग के अस्तित्व और प्रभुत्व की लाज़िमी शर्त पूँजी का निर्माण और वृद्धि है; और पूँजी की शर्त है उज़रती श्रम। उज़रती श्रम पूर्णतया मज़दूरों की आपसी होड़ पर निर्भर करता है। उद्योग की उन्नति, जिसे बुर्जुआ वर्ग अनिवार्यतः अग्रसर करता है, होड़ के कारण उत्पन्न मज़दूरों के अलगाव की जगह पर उनका संसर्गजनित क्रान्तिकारी एका क़ायम कर देती है। इस तरह आधुनिक उद्योग का विकास बुर्जुआ वर्ग के पैरों के नीचे से उस ज़मीन को ही खिसका देता है जिसके आधार पर वह उत्पादन करता है और पैदावार को हड़प लेता है। अतः बुर्जुआ वर्ग सर्वोपरि अपनी क़ब्र खोदने वालों को पैदा करता है। उसका पतन और सर्वहारा वर्ग की विजय दोनों समान रूप से अनिवार्य हैं।

  1. सर्वहारा और कम्युनिस्ट

समग्र रूप में सर्वहारा वर्ग के साथ कम्युनिस्टों का क्या सम्बन्ध है?

कम्युनिस्ट मज़दूर वर्ग की दूसरी पार्टियों के मुक़ाबले में अपनी कोई अलग पार्टी नहीं बनाते।

समग्र रूप में सर्वहारा वर्ग के हितों के अलावा और उनसे पृथक उनके कोई हित नहीं हैं।

वे सर्वहारा आन्दोलन को किसी ख़ास नमूने पर ढालने या उसे विशेष रूप प्रदान करने के लिए अपना कोई संकीर्णतावादी सिद्धान्त स्थापित नहीं करते।

कम्युनिस्टों और दूसरी मज़दूर पार्टियों में सिर्फ़ यह अन्तर है कि:

  1. विभिन्न देशों के सर्वहाराओं के राष्ट्रीय संघर्षों में राष्ट्रीयता के सभी भेदभावों को छोड़कर वे पूरे सर्वहारा वर्ग के सामान्य हितों का पता लगाते हैं और उन्हें सामने लाते हैं; 2. बुर्जुआ वर्ग के ख़िलाफ़ सर्वहारा वर्ग का संघर्ष जिन विभिन्न मंज़िलों से गुज़रता हुआ आगे बढ़ता है उनमें हमेशा और हर जगह वे समग्र आन्दोलन के हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं।

अतः एक ओर, व्यावहारिक दृष्टि से, कम्युनिस्ट हर देश की मज़दूर पार्टियों के सबसे उन्नत और कृतसंकल्प हिस्से होते हैं, ऐसे हिस्से जो औरों को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं; दूसरी ओर, सैद्धान्तिक दृष्टि से, सर्वहारा वर्ग के विशाल जन-समुदाय की अपेक्षा वे इस अर्थ में उन्नत हैं कि वे सर्वहारा आन्दोलन के आगे बढ़ने के रास्ते की, उसके हालात और सामान्य अन्तिम नतीजों की सुस्पष्ट समझ रखते हैं।

कम्युनिस्टों का तात्कालिक ध्येय वही है जो दूसरी सर्वहारा पार्टियों का है – यानी सर्वहारा को एक वर्ग के रूप में संगठित करना, बुर्जुआ प्रभुत्व का तख़्ता पलटना और राजनीतिक सत्ता पर सर्वहारा वर्ग का अधिकार क़ायम करना।

कम्युनिस्टों के सैद्धान्तिक निष्कर्ष जगत-सुधारक होने का दम भरने वाले इस या उस व्यक्ति द्वारा ईजाद किये गये या ढूँढ़ निकाले गये विचारों या सिद्धान्तों पर क़तई आधारित नहीं हैं।

वे केवल मौजूदा वर्ग संघर्ष से, हमारी नज़रों के सामने हो रही ऐतिहासिक गतिविधि से उत्पन्न यथार्थ सम्बन्धों की सामान्य अभिव्यक्ति हैं। मौजूदा स्वामित्व सम्बन्धों का उन्मूलन कम्युनिज़्म की कोई लाक्षणिक विशेषता हरगिज़ नहीं है।

इतिहास में सभी स्वामित्व सम्बन्ध ऐतिहासिक अवस्थाओं में परिवर्तन होने पर निरन्तर ऐतिहासिक परिवर्तन के अधीन रहे हैं।

उदाहरण के लिए, फ्रांसीसी क्रान्ति ने बुर्जुआ स्वामित्व के हक़ में सामन्ती स्वामित्व को नष्ट कर दिया।

कम्युनिज़्म की लाक्षणिक विशेषता यह नहीं है कि यह स्वामित्व को आम तौर से ख़त्म कर देना चाहता है, बल्कि यह है कि वह बुर्जुआ स्वामित्व को ख़त्म कर देना चाहता है। लेकिन आधुनिक बुर्जुआ निजी स्वामित्व उत्पादन तथा उपज के हस्तगतकरण की उस प्रणाली की अन्तिम तथा सबसे सर्वांगपूर्ण अभिव्यक्ति है, जो वर्ग विरोध और मुट्ठीभर लोगों द्वारा बहुतों के शोषण पर आश्रित है।

इस अर्थ में कम्युनिस्टों के सिद्धान्त को केवल एक वाक्य में यूँ कहा जा सकता है: निजी स्वामित्व का उन्मूलन।

हम कम्युनिस्टों पर आरोप लगाया गया है कि हम स्वयं अपनी मेहनत से पैदा की गयी सम्पत्ति हासिल करने के मनुष्य के अधिकार का अपहरण कर लेना चाहते हैं, जिस सम्पत्ति के बारे में कहा जाता है कि वह समस्त वैयक्तिक स्वतन्त्रता, क्रियाशीलता और स्वाधीनता का मूल आधार है।

सख़्त मशक़्क़त से कमायी गयी, ख़ुद हासिल की गयी, ख़ुद पैदा की गयी सम्पत्ति! आपका मतलब क्या छोटे दस्तकार और छोटे किसान की सम्पत्ति से है, स्वामित्व के उस रूप से है जो बुर्जुआ रूप से पहले था? उसको मिटाने की कोई ज़रूरत नहीं है; उद्योग के विकास ने पहले ही उसको बहुत-कुछ नष्ट कर दिया है और जो कुछ रहा-सहा है, उसे भी वह दिनोदिन नष्ट करता जा रहा है।

क्या फिर आपका मतलब आधुनिक बुर्जुआ निजी सम्पत्ति से है?

लेकिन क्या उज़रती श्रम श्रमजीवी के लिए कोई सम्पत्ति पैदा करता है? हरगिज़ नहीं। यह तो पूँजी पैदा करता है, यानी ऐसी सम्पत्ति पैदा करता है जो उज़रती श्रम का शोषण करती है, और जिसके बढ़ने की शर्त ही यह है कि वह नये शोषण के लिए उज़रती श्रम को पैदा करती जाये। अपने वर्तमान रूप में स्वामित्व पूँजी और उज़रती श्रम के विरोध पर क़ायम है। आइये, इस विरोध के दोनों पहलुओं पर ग़ौर करें।

पूँजीपति होना उत्पादन में केवल व्यक्तिगत ही नहीं, बल्कि एक सामाजिक हैसियत रखना है। पूँजी एक सामूहिक उपज है, और समाज के केवल अनेक सदस्यों की संयुक्त कार्रवाई से ही, बल्कि अन्ततोगत्वा समाज के सभी सदस्यों की मिली-जुली कार्रवाई से ही उसे गतिशील किया जा सकता है।

इस तरह पूँजी व्यक्तिगत न होकर एक सामाजिक शक्ति है।

इसलिए पूँजी जब साझा सम्पत्ति बना दी जाती है, जब उसे समाज के सभी सदस्यों की सम्पत्ति का रूप दे दिया जाता है, तब वैयक्तिक स्वामित्व सामाजिक स्वामित्व में नहीं बदल जाता। तब स्वामित्व का केवल सामाजिक रूप बदल जाता है। उसका वर्ग रूप मिट जाता है।

आइये, अब उज़रती श्रम के पहलू पर विचार करें।

उज़रती श्रम का औसत दाम न्यूनतम मज़दूरी है, अर्थात निर्वाह साधन की वह मात्रा, जो मज़दूर की हैसियत से मज़दूर की ज़िन्दगी क़ायम रखने के लिए बिल्कुल ज़रूरी हो। इसलिए, उज़रती मज़दूर को अपने श्रम से जो कुछ हस्तगत होता है, वह उसके अस्तित्व को बनाये रखने और प्रजनन के लिए ही काफ़ी होता है। हम श्रम की उपज के इस व्यक्तिगत हस्तगतकरण का अन्त नहीं करना चाहते, जो मुश्किल से मानव जीवन क़ायम रखने और प्रजनन के लिए किया जाता है और जिसमें ऐसी बचत की गुंजाइश नहीं होती जिससे दूसरों के श्रम को वशीभूत किया जा सके। हम जिस चीज़ को ख़त्म कर देना चाहते हैं वह है इस हस्तगतकरण का वह दयनीय रूप, जिसके अन्तर्गत मज़दूर पूँजी बढ़ाने के लिए ही ज़िन्दा रहता है, और उसे उसी हद तक ज़िन्दा रहने दिया जाता है जिस हद तक शासक वर्ग के स्वार्थों को उसकी ज़रूरत होती है।

बुर्जुआ समाज में जीवित श्रम संचित श्रम को बढ़ाने का केवल एक साधन है। कम्युनिस्ट समाज में संचित श्रम मज़दूर के जीवन को व्यापक, सम्पन्न और उन्नत बनाने का साधन है।

इस प्रकार, बुर्जुआ समाज में वर्तमान के ऊपर अतीत हावी होता है; कम्युनिस्ट समाज में अतीत के ऊपर वर्तमान हावी होता है। बुर्जुआ समाज में पूँजी स्वतन्त्र है और उसकी वैयक्तिकता होती है; किन्तु जीवित व्यक्ति परतन्त्र है और उसकी कोई वैयक्तिकता नहीं होती।

फिर भी बुर्जुआ वर्ग कहता है कि इस परिस्थिति को ख़त्म कर देने का मतलब वैयक्तिकता और स्वतन्त्रता को ख़त्म कर देना है! और यह ठीक ही है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि हम बुर्जुआ वैयक्तिकता, बुर्जुआ स्वतन्त्रता और बुर्जुआ स्वाधीनता को जड़-मूल से ख़त्म कर देना चाहते हैं।

मौजूदा बुर्जुआ अवस्थाओं के अन्तर्गत स्वाधीनता का अर्थ है मुक्त व्यापार, मुक्त क्रय-विक्रय।

लेकिन अगर क्रय-विक्रय मिट जाता है, तो मुक्त क्रय-विक्रय भी मिट जायेगा। हमारे पूँजीपतियों की मुक्त क्रय-विक्रय की बातों को, आम स्वाधीनता के बारे में उनकी सभी “बड़ी-बड़ी बातों” को, अगर मध्य युग के सीमित क्रय-विक्रय के या उस समय के बन्धनों में जकड़े हुए व्यापारियों के मुक़ाबले में देखा जाये, तो उनका कुछ मतलब हो सकता है; लेकिन क्रय-विक्रय, उत्पादन की बुर्जुआ अवस्थाओं और स्वयं बुर्जुआ वर्ग के कम्युनिस्ट उन्मूलन के मुक़ाबले में वे निरर्थक हैं।

हम निजी स्वामित्व को ख़त्म कर देना चाहते हैं, इसे सुनकर आपके रोंगटे खड़े हो जाते हैं। लेकिन आपके मौजूदा समाज में दस में से नौ आदमियों के लिए निजी स्वामित्व अभी से ही ख़त्म हो चुका है; चन्द लोगों के पास यदि निजी सम्पत्ति है भी तो उसका एकमात्र कारण यही है कि दस में नौ आदमियों के पास वह है ही नहीं। इसलिए, आप हमारे ख़िलाफ़ स्वामित्व की ऐसी व्यवस्था को ख़त्म कर देने की इच्छा रखने का अरोप लगाते हैं जिसके अस्तित्व के लिए ज़रूरी शर्त यह है कि समाज के अधिकांश के पास कोई सम्पत्ति न हो।

संक्षेप में आपका आरोप यह है कि हम आपका स्वामित्व ख़त्म कर देना चाहते हैं। तो यह बिल्कुल ठीक है। हम ठीक यही करना चाहते हैं।

आपका कहना है कि श्रम का ज्यों ही पूँजी, मुद्रा या लगान के रूप में – एक ऐसी सामाजिक शक्ति के रूप में जिस पर इज़ारेदारी क़ायम की जा सकती है – रूपान्तरण बन्द हो जायेगा, यानी ज्यों ही वैयक्तिक स्वामित्व का बुर्जुआ स्वामित्व में, पूँजी में, रूपान्तरण बन्द हो जायेगा, त्यों ही वैयक्तिक्ता का लोप हो जायेगा।

तो आपको यह क़बूल करना होगा कि “व्‍यक्ति” का आपके लिए एक ही अर्थ है – बुर्जुआ या सम्पत्ति का बुर्जुआ स्वामी। इस व्यक्ति को तो अवश्य ही ख़त्म कर देना चाहिए!

कम्युनिज़्म किसी आदमी को समाज की उपज हस्तगत करने की शक्ति से वंचित नहीं करता; वह केवल इस हस्तगतकरण के ज़रिये दूसरों के श्रम को वशीभूत करने की शक्ति से उसे वंचित करता है।

यह कहा गया है कि यदि निजी स्वामित्व को ख़त्म कर दिया गया तो सारा कामकाज ठप हो जायेगा और दुनियाभर में आलस्य छा जायेगा।

इसके अनुसार तो बुर्जुआ समाज को घोर आलस्य के कारण न जाने कब का रसातल में पहुँच जाना चाहिए था, क्योंकि इस समाज के जो सदस्य मेहनत करते हैं वे कुछ नहीं प्राप्त करते और जो प्राप्त करते हैं, वे काम नहीं करते। वास्तव में यह पूरा तर्क इसी द्विरुक्ति की एक अभिव्यक्ति है कि अगर पूँजी नहीं रह जायेगी तो उज़रती श्रम भी नहीं रह जायेगा।

भौतिक वस्तुओं के उत्पादन और हस्तगतकरण की कम्युनिस्ट प्रणाली के सम्बन्ध में जो आरोप लगाये गये हैं, वे ही आरोप उसी तरह से बौद्धिक रचनाओं के उत्पादन और हस्तगतकरण की कम्युनिस्ट प्रणालियों के सम्बन्ध में भी लगाये जाते हैं। जिस तरह से वर्ग स्वामित्व का विलोपन बुर्जुआ वर्ग को उत्पादन का ही विलोपन प्रतीत होता है, उसी तरह से वर्ग संस्कृति का विलोपन उसे सारी संस्कृति का विलोपन प्रतीत होता है।

वह संस्कृति, जिसके विनाश के बारे में वह इतना रोता-धोता है, अधिकांश जनता के लिए महज़ मशीन की तरह काम करने का प्रशिक्षण मात्र है।

लेकिन हमसे उलझने से तब तक कोई लाभ नहीं है जब तक बुर्जुआ स्वामित्व के उन्मूलन के हमारे इरादे को आप आज़ादी, संस्कृति, क़ानून आदि की अपनी बुर्जुआ धारणाओं के मापदण्ड से नापते हैं; आपके विचार स्वयं ही बुर्जुआ उत्पादन और बुर्जुआ स्वामित्व की अवस्थाओं की उपज हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह कि आपका क़ानून केवल आपके वर्ग की इच्छा मात्र है जिसे क़ानून बनाकर आपने सबके ऊपर लाद दिया है, एक ऐसी इच्छा जिसका मूलभूत स्वरूप और जिसकी दिशा आपके वर्ग के अस्तित्व की आर्थिक अवस्थाओं द्वारा निर्धारित होती है।

उत्पादन एवं सम्पत्ति के मौजूदा सामाजिक स्वरूपों तथा उत्पादन के विकास के सिलसिले में उत्पन्न और विलीन होने वाले ऐतिहासिक सम्बन्धों को प्रकृति और तर्कबुद्धि के शाश्वत नियमों में रूपान्तरित करने के लिए अन्ध स्वार्थ का भ्रामक बोध आपको विवश कर देता है – इस भ्रामक बोध का शिकार बने रहने में आप अपने पूर्ववर्ती शासक वर्गों के साथ सहभागी हैं। प्राचीन युग के स्वामित्व के सम्बन्ध में जिस चीज़ को आप स्पष्टता से देखते हैं, सामन्ती स्वामित्व के सम्बन्ध में जिस चीज़ को आप स्वीकार करते हैं, उसे ख़ुद अपने बुर्जुआ स्वामित्व के सम्बन्ध में मंज़ूर करना आपके लिए निश्चय ही गुनाह है।

परिवार का उन्मूलन! कम्युनिस्टों के इस कलंकपूर्ण प्रस्ताव से कट्टर से कट्टर आमूल परिवर्तनवादी भी भड़क उठते हैं।

मौजूदा परिवार, बुर्जुआ परिवार, किस आधार पर खड़ा है? पूँजी पर, निजी फ़ायदे पर। अपने पूर्ण विकसित रूप में इस तरह का परिवार केवल बुर्जुआ वर्ग के बीच पाया जाता है। यह स्थिति अपना पूरक सर्वहारा वर्ग में परिवार के व्यवहारतः अभाव और बाज़ारू वेश्यावृत्ति में पाती है।

यह पूरक जब मिट जायेगा तो सामान्य क्रम में बुर्जुआ परिवार भी मिट जायेगा, और पूँजी के मिटने के साथ-साथ ये दोनों मिट जायेंगे।

क्या आप हमारे ऊपर यह आरोप लगाते हैं कि हम बच्चों का उनके माता-पिता द्वारा शोषण किया जाना बन्द कर देना चाहते हैं? इस अपराध को हम स्वीकार करते हैं।

लेकिन आप कहेंगे कि घरेलू शिक्षा की जगह पर सामाजिक शिक्षा क़ायम करके हम एक अत्यन्त पवित्र सम्बन्ध को नष्ट कर देते हैं।

और आपकी शिक्षा! क्या वह भी सामाजिक नहीं है और उन सामाजिक अवस्थाओं से निर्धारित नहीं होती है जिनमें आप समाज के प्रत्यक्ष या परोक्ष हस्तक्षेप से स्कूलों आदि के ज़रिये शिक्षा देते हैं? शिक्षा में समाज का हस्तक्षेप कम्युनिस्टों की ईजाद नहीं है; कम्युनिस्ट तो केवल इस हस्तक्षेप के स्वरूप को बदल देना चाहते हैं और शासक वर्ग के प्रभाव से शिक्षा का उद्धार करना चाहते हैं।

जैसे-जैसे आधुनिक उद्योग की क्रिया द्वारा सर्वहारा वर्ग में समस्त पारिवारिक सम्बन्धों की धज्जियाँ उड़ती जा रही हैं और मज़दूरों के बच्चे तिज़ारत के मामूली सामान और श्रम के औज़ार बनते जा रहे हैं वैसे-वैसे परिवार और शिक्षा तथा माता-पिता और बच्चों के पुनीत अन्योन्य सम्बन्ध के बारे में बुर्जुआ वर्ग की बकवास और भी घिनौनी दिखायी देने लगती है।

लेकिन पूरा का पूरा बुर्जुआ वर्ग गला फाड़कर एक स्वर से चिल्ला उठता है – तुम कम्युनिस्ट तो औरतों को सामुदायिक भोग की वस्तु बना दोगे!

बुर्जुआ अपनी पत्नी को उत्पादन के एक औज़ार के सिवा और कुछ नहीं समझता। उसने सुन रखा है कि कम्युनिस्ट समाज में उत्पादन के औज़ारों का सामूहिक रूप में उपयोग होगा। इसलिए, स्वभावतः, वह इसके अलावा और कोई निष्कर्ष नहीं निकाल पाता कि उस समाज में सभी चीज़ों की तरह औरतें भी सभी के साझे की हो जायेंगी।

वह स्वप्न में भी नहीं सोच सकता कि दरअसल मक़सद यह है कि औरतों की उत्पादन के औज़ार जैसी स्थिति को ख़त्म कर दिया जाये।

कुछ भी हो, स्त्रियों के समाजीकरण के ख़िलाफ़ बुर्जुआ के सदाचारी आक्रोश से अधिक हास्यास्पद दूसरी और कोई चीज़ नहीं है। वे यह समझने का बहाना करते हैं कि कम्युनिज़्म के अन्तर्गत स्त्रियों का समाजीकरण खुल्लम-खुल्ला और आधिकारिक तौर पर स्थापित किया जायेगा। कम्युनिस्टों को स्त्रियों का समाजीकरण स्थापित करने की कोई ज़रूरत नहीं है, क्योंकि यह स्थिति तो लगभग अनादिकाल से चली आ रही है।

हमारे बुर्जुआ वर्ग के सदस्यों को मज़दूरों की बहू-बेटियों को अपनी मर्जी के मुताबिक़ इस्तेमाल करने से सन्तोष नहीं होता, वेश्याओं से भी उनका मन नहीं भरता, इसलिए एक-दूसरे की बीवियों पर हाथ साफ़ करने में उन्हें विशेष आनन्द प्राप्त होता है।

बुर्जुआ विवाह वास्तव में पत्नियों की साझेदारी की ही एक व्यवस्था है, इसलिए कम्युनिस्टों के ख़िलाफ़ अधिक से अधिक यही आरोप लगाया जा सकता है कि वे स्त्रियों की सर्वोपभोग्यता की मौजूदा ढोंगपूर्ण और गुप्त प्रथा को खुला, क़ानूनी रूप दे देना चाहते हैं। कुछ भी हो, बात अपनेआप साफ़ है कि उत्पादन की वर्तमान व्यवस्था जब ख़त्म हो जायेगी, तब स्त्रियों की उस व्यवस्था से उत्पन्न सर्वोपभोग्यता का अर्थात खुली और ख़ानगी, दोनों प्रकार की वेश्यावृत्ति का अनिवार्यतः अन्त हो जायेगा।

कम्युनिस्टों पर यह आरोप भी लगाया जाता है कि वे स्वदेश और राष्ट्रीयता को मिटा देना चाहते हैं।

मज़दूरों का कोई स्वदेश नहीं है। जो उनके पास है ही नहीं उसे उनसे छीना नहीं जा सकता है। चूँकि सर्वहारा वर्ग को सबसे पहले राजनीतिक प्रभुत्व प्राप्त करना है, राष्ट्र में प्रधान वर्ग का स्थान ग्रहण करना है, ख़ुद अपने को राष्ट्र के रूप में संगठित करना है, अतः इस हद तक वह स्वयं राष्ट्रीय चरित्र रखता है, गोकि इस शब्द के बुर्जुआ अर्थ में नहीं।

बुर्जुआ वर्ग के विकास, वाणिज्य की स्वाधीनता, विश्व बाज़ार और उत्पादन प्रणाली में तथा तदनुरूप जीवन की अवस्थाओं में एकरूपता के कारण जनगण के राष्ट्रीय भेदभाव और विरोध दिनोदिन मिटते जा रते हैं।

सर्वहारा वर्ग का प्रभुत्व होने पर ये और भी तेज़ी से मिटेंगे। सर्वहारा वर्ग के निस्तार की पहली शर्त यह है कि कम से कम प्रमुख सभ्य देश मिलकर एक साथ क़दम उठायें।

जिस अनुपात में एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति का शोषण ख़त्म होगा, उसी अनुपात में एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र का शोषण भी ख़त्म होगा।

जिस अनुपात में एक राष्ट्र के अन्दर वर्गों का विरोध ख़त्म होगा, उसी अनुपात में राष्ट्रों का आपसी बैरभाव भी दूर होगा।42

धार्मिक, दार्शनिक और सामान्यतः विचारधारात्मक दृष्टि से कम्युनिज़्म के ख़िलाफ़ जो आरोप लगाये जाते हैं, वे इस लायक नहीं हैं कि उन पर गम्भीरता के साथ विचार किया जाये।

क्या यह समझने के लिए गहरी अन्तर्दृष्टि की ज़रूरत है कि मनुष्य के विचार, मत और उसकी धारणाएँ – संक्षेप में उसकी चेतना – उसके भौतिक अस्तित्व की अवस्थाओं, उसके सामाजिक सम्बन्धों और सामाजिक जीवन के प्रत्येक परिवर्तन के साथ बदलती हैं?

विचारों का इतिहास इसके सिवा और क्या साबित करता है कि जिस अनुपात में भौतिक उत्पादन में परिवर्तन होता है, उसी अनुपात में बौद्धिक उत्पादन का स्वरूप परिवर्तित होता है! हर युग के प्रभुत्वशील विचार सदा उसके शासक वर्ग के ही विचार रहे हैं।

जब लोग समाज में क्रान्ति ला देने वाले विचारों की बात करते हैं, तब वे केवल इस तथ्य को व्यक्त करते हैं कि पुराने समाज के अन्दर एक नये समाज के तत्त्व पैदा हो गये हैं और पुराने विचारों का विघटन अस्तित्व की पुरानी अवस्थाओं के विघटन के साथ क़दम मिलाकर चलता है।

प्राचीन दुनिया जिस समय अपनी अन्तिम साँसें गिन रही थी, उस समय प्राचीन धर्मों को ईसाई धर्म ने पराभूत किया था। जब अठारहवीं शताब्दी में ईसाई मत तर्कबुद्धिवादी विचारों के सामने धराशायी हुआ, उस समय सामन्ती समाज ने तत्कालीन क्रान्तिकारी बुर्जुआ वर्ग से अपनी मौत की लड़ाई लड़ी थी। धर्म और अन्तःकरण की स्वतन्त्रता की बातें ज्ञान जगत में मुक्त होड़ के प्रभुत्व को ही व्यक्त करती थीं।

कहा जायेगा कि यह ठीक है कि इतिहास के विकासक्रम में धार्मिक, नैतिक, दार्शनिक, राजनीतिक और क़ानून सम्बन्धी विचार बदलते आये हैं; लेकिन धर्म, नैतिकता, दर्शन, राजनीति और क़ानून तो सदा इस परिवर्तन से बचे रहे हैं।

“इसके अलावा स्वाधीनता, न्याय, आदि ऐसे शाश्वत सत्य भी हैं जो हर सामाजिक अवस्था में समान रूप से लागू होते हैं। लेकिन उन्हें नये आधार पर प्रतिष्ठित करने के बजाय कम्युनिज़्म सभी शाश्वत सत्यों को ख़त्म कर देता है, वह समस्त धर्म और समस्त नैतिकता को मिटा देता है; इसलिए कम्युनिज़्म विगत इतिहास के समस्त अनुभव के विपरीत आचरण करता है।”

इस आरोप का सारतत्त्व क्या है? पिछले प्रत्येक समाज का इतिहास वर्ग विरोधों के विकास का इतिहास है, उन वर्ग विरोधों का जिन्होंने भिन्न युगों में भिन्न रूप धारण किया था।

पर उन्होंने चाहे जो भी रूप धारण किया हो, पिछले सभी युगों में एक चीज़ हर अवस्था में मौजूद थी – समाज के एक हिस्से द्वारा दूसरे हिस्से का शोषण। अतः यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि विगत युगों की सामाजिक चेतना अनेकानेक विविधताओं और विभिन्नताओं के बावजूद जिन सामान्य रूपों या सामान्य विचारों के दायरे में गतिशील रही है, वे वर्ग विरोधों के पूर्ण रूप से विलुप्त होने के पहले पूरी तरह नहीं मिट सकते।

कम्युनिस्ट क्रान्ति समाज के परम्परागत स्वामित्व सम्बन्धों से एक आमूल विच्छेद है; फिर इसमें आश्चर्य क्या कि इस क्रान्ति के विकास का अर्थ है समाज के परम्परागत विचारों से आमूल सम्बन्ध विच्छेद?

लेकिन कम्युनिज़्म के ख़िलाफ़ बुर्जुआ के आरोपों की कथा अब समाप्त की जाये।

ऊपर हम देख आये हैं कि मज़दूर वर्ग की क्रान्ति का पहला क़दम सर्वहारा वर्ग को ऊपर उठाकर शासक वर्ग के आसन पर बैठाना और जनवाद के लिए होने वाली लड़ाई को जीतना है।

सर्वहारा वर्ग अपना राजनीतिक प्रभुत्व बुर्जुआ वर्ग से धीरे-धीरे कर सारी पूँजी छीनने के लिए, उत्पादन के सारे औज़ारों को राज्य, अर्थात शासक वर्ग के रूप में संगठित सर्वहारा वर्ग के हाथों में केन्द्रीकृत करने के लिए तथा समग्र उत्पादक शक्तियों में यथाशीघ्र वृद्धि के लिए इस्तेमाल करेगा।

निस्सन्देह, आरम्भ में यह काम स्वामित्व के अधिकारों पर और बुर्जुआ उत्पादन पद्धतियों पर निरंकुश हमलों के बिना नहीं हो सकता; अतः ऐसे उपायों के बिना नहीं हो सकता जो आर्थिक दृष्टि से अपर्याप्त और अव्यावहारिक प्रतीत होते हैं, पर जो विकासक्रम में अपनी सीमा को लाँघ जायेंगे, पुरानी समाज व्यवस्था के और भी गहन भेदन को अनिवार्य बना देंगे और जो उत्पादन प्रणाली में पूर्णतया क्रान्ति लाने के साधन के रूप में अनिवार्य होंगे।

निस्सन्देह, भिन्न-भिन्न देशों में ये उपाय भिन्न-भिन्न होंगे।

फिर भी नीचे दिये हुए तरीक़े सबसे आगे बढ़े हुए देशों में आम तौर से लागू हो सकेंगे:

  1. भूस्वामित्व का उन्मूलन और समस्त लगान का सार्वजनिक प्रयोजन के लिए उपयोग।
  2. भारी वर्द्धमान या आरोही आयकर।
  3. उत्तराधिकार का उन्मूलन।
  4. सभी उत्प्रवासियों और विद्रोहियों की सम्पत्ति की ज़ब्ती।
  5. सरकारी पूँजी और पूर्ण एकाधिकार से सम्पन्न राष्ट्रीय बैंक द्वारा राज्य के हाथ में उधार का केन्द्रीकरण।
  6. संचार और यातायात के साधनों का राज्य के हाथों में केन्द्रीकरण।
  7. राजकीय कारख़ानों और उत्पादन के औज़ारों का विस्तार करना; एक आम योजना बनाकर परती ज़मीन को जोतना और ख़ेती की ज़मीन का सामान्यतः सुधार करना।
  8. हर एक के लिए काम करना समान रूप से अनिवार्य किया जाना। विशेषकर कृषि के लिए औद्योगिक सेनाएँ क़ायम करना।
  9. कृषि के साथ मैन्युफ़ैक्चरिंग उद्योगों का संयोजन; धीरे-धीरे देहातों और शहरों का अन्तर मिटा देना।
  10. सार्वजनिक पाठशालाओं में सभी बच्चों के लिए मुफ्त शिक्षा व्यवस्था। वर्तमान रूप में कारख़ानों में बच्चों से काम लेना ख़त्म कर देना। शिक्षा और औद्योगिक उत्पादन का संयोजन, आदि।

विकासक्रम में जब वर्गों के भेद मिट जायेंगे और सारा उत्पादन पूरे राष्ट्र के एक विशाल संघ के हाथ में संकेन्द्रित हो जायेगा, तब सार्वजनिक सत्ता अपना राजनीतिक स्वरूप खो देगी। राजनीतिक सत्ता, इस शब्द के असली अर्थ में, एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग का उत्पीड़न करने की संगठित शक्ति ही है। बुर्जुआ वर्ग के ख़िलाफ़ अपने संघर्ष के दौरान, परिस्थितियों से मजबूर होकर सर्वहारा को यदि अपने को एक वर्ग के रूप में संगठित करना पड़ता है, यदि क्रान्ति के ज़रिये वह स्वयं अपने को शासक वर्ग बना लेता है, और इस तरह उत्पादन की पुरानी अवस्थाओं का बलपूर्वक अन्त कर देता है, तो उन अवस्थाओं के साथ-साथ वह वर्ग विरोधों के अस्तित्व और आम तौर पर ख़ुद वर्गों की अवस्थाओं का ख़ात्मा कर देता है और इस प्रकार वह एक वर्ग के रूप में स्वयं अपने प्रभुत्व का भी ख़ात्मा कर देता है।

तब वर्गों और वर्ग विरोधों से बिधे पुराने समाज के स्थान पर एक ऐसे संघ की स्थापना होगी जिसमें व्यष्टि का स्वतन्त्र विकास समष्टि के स्वतन्त्र विकास की शर्त होगा।

  1. समाजवादी और कम्युनिस्ट साहित्य

(1) प्रतिक्रियावादी समाजवाद

(क) सामन्ती समाजवाद

फ्रांस और इंग्लैण्ड के अभिजातों की ऐतिहासिक स्थिति ऐसी थी कि आधुनिक बुर्जुआ समाज के ख़िलाफ़ पैम्‍फ़लेट लिखना उनका धन्धा बन गया। जुलाई 1830 की फ्रांसीसी क्रान्ति में और इंग्लैण्ड के सुधार आन्दोलन[45] में ये अभिजात पुनः इन घृणास्पद नवप्रतिष्ठित अनभिजातों द्वारा पराभूत हुए। उसके बाद कोई महत्त्वपूर्ण राजनीतिक लड़ाई लड़ने की सम्भावना न रह गयी। केवल साहित्यिक लड़ाई ही अब सम्भव थी। लेकिन साहित्य के क्षेत्र में भी पुनर्स्थापन काल[46] के पुराने नारों का प्रयोग असम्भव हो गया था।

लोगों की सहानुभूति हासिल करने के लिए इन अभिजातों को बाह्यतः अपने हितों को आँखों से ओझल करना पड़ा और केवल शोषित मज़दूर वर्ग के हित को लेकर उन्होंने बुर्जुआ वर्ग के विरुद्ध अपना अभियोग पत्र तैयार किया। चुनाँचे अभिजात वर्ग ने अपने नये प्रभु के ख़िलाफ़ विद्रूपात्मक रचनाएँ लिखकर और उसके कानों में उसके आने वाले सर्वनाश की भयानक भविष्योक्तियाँ फुसफुसाकर उससे अपना बदला लिया।

सामन्ती समाजवाद की उत्पत्ति इसी तरह हुई: कुछ रोना-धोना, कुछ विद्रूपात्मक रचनाओं के तीर चलाना; कुछ अतीत को प्रतिध्वनित करना, कुछ भविष्य का भय दिखाना; कभी-कभी अपनी कटु व्यंग्यपूर्ण और पैनी आलोचना द्वारा बुर्जुआ वर्ग के मर्मस्थल को चोट पहुँचाना; किन्तु आधुनिक इतिहास की प्रगति को हृदयंगम करने में अपनी सम्पूर्ण असमर्थता के कारण अपने प्रभाव में सदा हास्यास्पद रह जाना।

जनता को अपनी तरफ़ करने के लिए इन अमीर-उमरा ने सर्वहारा की भीख की झोली को अपना झण्डा बनाया। लेकिन जब-जब जनता उनके साथ हुई, उसने उनके कूल्हों पर सामन्तों के वंश-चिह्नों के ठप्पे ही लगे देखे, और वह हँसी के ज़ोरदार और तिरस्कारपूर्ण ठहाकों के साथ उन्हें छोड़कर चली गयी।

फ्रांसीसी लेजिटिमिस्टों[47] के एक हिस्से और “तरुण इंग्लैण्ड”[48] ने यही नज़ारा पेश किया।

यह कहते समय कि उनके शोषण का तरीक़ा बुर्जुआ वर्ग के शोषण के तरीक़े से भिन्न था, सामन्तवादी भूल जाते हैं कि जिन परिस्थितियों और अवस्थाओं में वे शोषण करते थे, वे बिल्कुल भिन्न थीं और अब पुरानी पड़ चुकी थीं। यह साबित करते समय कि उनके शासन में आधुनिक सर्वहारा वर्ग का कोई अस्तित्व नहीं था, वे भूल जाते हैं कि आधुनिक बुर्जुआ वर्ग उन्हीं की सामाजिक व्यवस्था की अनिवार्य सन्तान है।

कुछ भी हो, अपनी आलोचना के प्रतिक्रियावादी स्वरूप को वे इतना कम छिपाते हैं कि बुर्जुआ वर्ग के ख़िलाफ़ उनका सबसे बड़ा इल्ज़ाम यह होता है कि बुर्जुआ शासन में एक ऐसा वर्ग पनप रहा है जो पुरानी समाज व्यवस्था को समूल उखाड़ फेंकेगा।

बुर्जुआ वर्ग को उनका उलाहना इस बात के लिए उतना नहीं है कि वह सर्वहारा वर्ग को उत्पन्न कर रहा है, जितना इस बात के लिए कि वह क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग को जन्म दे रहा है।

इसलिए, अपने राजनीतिक व्यवहार में वे मज़दूर वर्ग के ख़िलाफ़ प्रयोग की जाने वाली सभी दमनकारी कार्रवाइयों का समर्थन करते हैं, और अपनी बड़ी-बड़ी डींगों के बावजूद रोज़मर्रा के जीवन में उद्योग के कल्पवृक्ष से गिरे सोने के फलों को बीनने के लिए और ऊन, चुकन्दर की चीनी तथा आलू की बनी स्पिरिट के व्यापार के लिए वे सत्य, प्रेम और सम्मान का सौदा करने के लिए सदैव तैयार रहते हैं।[49]

जिस तरह पादरी और ज़मींदार का चोली-दामन का साथ रहा है, उसी तरह ईसाई समाजवाद और सामन्ती समाजवाद दोनों जन्म के साथी हैं।

ईसाइयों की वैराग्य भावना को समाजवाद का रंग दे देने से अधिक आसान काम दूसरा नहीं है। क्या ईसाई धर्म निजी स्वामित्व, विवाह और राज्य के ख़िलाफ़ फ़तवे नहीं देता रहा है? इन चीज़ों के बदले क्या उसने दानपुण्य और ग़रीबी, ब्रह्मचर्य और शारीरिक तप, मठ-निवास और मातृ गिरजाघर की शरण लेने का उपदेश नहीं दिया है? ईसाई समाजवाद केवल वह पवित्र जल है जिसके छींटे मारकर पादरी अमीर-उमरा के सन्तप्त हृदयों का पवित्रीकरण करता है।

(ख) निम्न-बुर्जुआ समाजवाद

सामन्ती अभिजात वर्ग अकेला वर्ग नहीं है जिसे बुर्जुआ वर्ग ने बरबाद किया, वही एकमात्र वर्ग नहीं है जिसके अस्तित्व की अवस्थाएँ आधुनिक समाज के वातावरण में घुटकर रह गयी हैं और दम तोड़ चुकी हैं। मध्ययुग के बर्गर और छोटे किसान भूस्वामी आधुनिक बुर्जुआ वर्ग के पूर्वज थे। उन देशों में, जो उद्योग और वाणिज्य की दृष्टि से अल्पविकसित हैं, ये दोनों वर्ग अब भी उदीयमान बुर्जुआ वर्ग के साथ पनप रहे हैं।

उन देशों में जहाँ आधुनिक सभ्यता का पूरा विकास हो चुका है, निम्न-बुर्जुआ वर्ग का एक नया वर्ग बन गया है जो सर्वहारा वर्ग और बुर्जुआ वर्ग के बीच झूला करता है और बुर्जुआ समाज के एक पूरक अंग के रूप में सदा अपना नवीनीकरण करता रहता है। लेकिन होड़ की चक्की में पिसकर इस वर्ग के अलग-अलग सदस्य टूट-टूटकर बराबर सर्वहारा वर्ग में शामिल होते जाते हैं; और आधुनिक उद्योग का विकास होने के साथ वे उस क्षण को भी नज़दीक आता देखते हैं जब आधुनिक समाज के एक स्वतन्त्र अंग के रूप में उनका बिल्कुल ख़ात्मा हो जायेगा और उद्योग, खेती और वाणिज्य के क्षेत्र में ओवरसियर, नाज़िर और दूकान-कर्मचारी उनका स्थान ले लेंगे।

फ्रांस जैसे देशों में, जहाँ आधी से कहीं अधिक आबादी किसानों की है, यह स्वाभाविक था कि जो लेखक बुर्जुआ वर्ग के ख़िलाफ़ सर्वहारा वर्ग का साथ देते थे, वे बुर्जुआ शासन व्यवस्था की अपनी आलोचना में किसानों और निम्न-बुर्जुआ वर्ग के मानदण्ड का प्रयोग करते और मज़दूर वर्ग के समर्थन में इन्हीं मध्यम वर्गों के दृष्टिकोण से आवाज़ उठाते। निम्न-बुर्जुआ समाजवाद की उत्पत्ति इसी तरह हुई। न केवल फ्रांस में, बल्कि इंग्लैण्ड में भी इस मत के नेता सिसमोन्दी थे।

समाजवाद की इस शाखा के अनुयायियों ने आधुनिक उत्पादन की अवस्थाओं के अन्तरविरोधों का बहुत ही बारीक़ी के साथ विश्लेषण किया। अर्थशास्त्रियों की ढोंगपूर्ण वक़ालतों का उन्होंने पर्दाफ़ाश किया। मशीनों के उपयोग और श्रम विभाजन के विनाशकारी परिणाम, पूँजी और भूमि का मुट्ठीभर लोगों के हाथों में संकेन्द्रित होना, अति-उत्पादन और संकट, इन सबको उन्होंने अकाट्य रूप से प्रमाणित किया, उन्होंने निम्न-बुर्जुआ वर्ग और किसानों की बरबादी की अवश्यम्भाविता, सर्वहारा वर्ग की दुर्दशा, उत्पादन में अराजकता, धन के वितरण में घोर असमानता, एक-दूसरे को ख़त्म कर देने के लिए राष्ट्रों के बीच औद्योगिक युद्ध, पुराने नैतिक बन्धनों के विच्छेदन, पुराने पारिवारिक सम्बन्धों और पुरानी जातियों के विघटन की ओर इशारा किया।

किन्तु अपने सकारात्मक उद्देश्यों में इस तरह का समाजवाद या तो यह चाहता है कि उत्पादन और विनिमय के पुराने साधनों को और उनके साथ पुराने सम्पत्ति सम्बन्धों को और पुराने समाज को फिर से क़ायम कर दिया जाये, या उत्पादन और विनिमय के आधुनिक साधनों को उन्हीं पुराने सम्पत्ति सम्बन्धों के शिकंजे में कस दिया जाये जिन्हें उन्होंने तोड़ दिया था और जिनका इन साधनों के ज़रिये टूटना अनिवार्य था। हर सूरत में यह समाजवाद प्रतिक्रियावादी और कल्पनावादी दोनों है।

उसके अन्तिम शब्द हैं: उद्योग को चलाने के लिए निगमित शिल्पसंघ बनाये जायें और खेती में पितृसत्तात्मक सम्बन्ध क़ायम हों।

अन्त में जब कठोर ऐतिहासिक तथ्यों ने आत्मवंचना का नशा उतार दिया, तो समाजवाद का यह रूप ख़ुमारी के दौरे में ख़त्म हो गया।

(ग) जर्मन या “सच्चा” समाजवाद

फ्रांस का समाजवादी और कम्युनिस्ट साहित्य, वह साहित्य जो सत्तारूढ़ बुर्जुआ वर्ग के दबाव में पैदा हुआ था, और जो उसके ख़िलाफ़ होने वाले संघर्ष की अभिव्यक्ति था, जर्मनी में उस समय लाया गया जब उस देश में सामन्ती निरंकुशता के ख़िलाफ़ वहाँ के बुर्जुआ वर्ग ने अपनी लड़ाई अभी शुरू ही की थी।

जर्मनी के दार्शनिकों, अधकचरे दार्शनिकों और बुद्धिविलासियों ने उस साहित्य को बड़ी उत्सुकता के साथ अपनाया। वे केवल यह भूल गये कि जब वह साहित्य फ्रांस से जर्मनी आया था तो उसके साथ फ्रांस की सामाजिक परिस्थितियाँ नहीं आयी थीं। जर्मनी की सामाजिक अवस्थाओं के सम्पर्क में इस फ्रांसीसी साहित्य ने अपना सारा तात्कालिक व्यावहारिक महत्त्व खो दिया और विशुद्ध साहित्यिक रूप ग्रहण कर लिया। चुनाँचे अठारहवीं शताब्दी के जर्मन दार्शनिकों की निगाह में पहली फ्रांसीसी क्रान्ति की माँगें “व्‍यावहारिक तर्कबुद्धि” की सामान्य माँगों के अलावा और कुछ न थीं और क्रान्तिकारी फ्रांसीसी बुर्जुआ वर्ग की इच्छा की अभिव्यक्ति उनकी दृष्टि में शुद्ध इच्छा, अपरिहार्य इच्छा, सामान्यतः सच्ची मानवीय इच्छा के नियमों का द्योतक थी।

जर्मन साहित्यकारों का एकमात्र काम यह था कि वे फ्रांस के इन नये विचारों का अपने प्राचीन दार्शनिक विवेक के साथ सामंजस्य स्थापित करें, या यूँ कहिये कि अपने दार्शनिक दृष्टिकोण को छोड़े बिना इन फ्रांसीसी विचारों को अपना लें।

अपना लेने का यह काम उसी तरह पूरा किया गया जिस तरह कि किसी विदेशी भाषा को आत्मसात किया जाता है, यानी अनुवाद के ज़रिये।

सुविदित है कि मठवासी किस प्रकार उन पाण्डुलिपियों के ऊपर, जिनमें प्राचीन मूर्तिपूजकों की क्लासिकी रचनाएँ लिखी हुई थीं, कैथोलिक सन्तों की फूहड़ जीवनियाँ लिखा करते थे। जर्मन साहित्यकारों ने अपवित्र फ्रांसीसी साहित्य के सम्बन्ध में इस प्रक्रिया को उलट दिया। अपनी दार्शनिक बकवास को उन्होंने मूल फ्रांसीसी कृतियों की पुश्त पर लिखा। उदाहरण के लिए, मुद्रा की आर्थिक क्रियाओं की फ्रांसीसी आलोचना की पुश्त पर उन्होंने लिखा “मानवता का विच्छेद” और बुर्जुआ राज्य की फ्रांसीसी आलोचना की पुश्त पर “सामान्य प्रवर्ग का सत्ताच्युत किया जाना”, आदि, आदि।

फ्रांसीसी ऐतिहासिक समालोचनाओं की पुश्त पर इन दार्शनिक उक्तियों की प्रस्तावनाओं को उन्होंने “कर्म दर्शन,” “सच्चा समाजवाद,” “समाजवाद का जर्मन विज्ञान,” “समाजवाद का दार्शनिक आधार,” आदि भारी-भरकम नाम दिये।

इस तरह फ्रांसीसी समाजवादी और कम्युनिस्ट साहित्य बिल्कुल शक्तिहीन बना दिया गया। और, चूँकि जर्मनों के हाथ में पड़कर उसने एक वर्ग के विरुद्ध दूसरे वर्ग के संघर्ष को अभिव्यक्त करना छोड़ दिया, इसलिए उन्हें ऐसा बोध हुआ कि उन्होंने “फ्रांसीसी एकांगीपन” पर काबू पा लिया है और सच्ची आवश्यकताओं का नहीं, बल्कि सच्चाई की आवश्यकताओं का प्रतिनिधित्व किया है; सर्वहारा वर्ग के हितों का नहीं, बल्कि मानव स्वभाव के हितों का, मनुष्य मात्र के हितों का प्रतिनिधित्व किया है जो किसी वर्ग का नहीं है, जिसका कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं है, जो केवल हवाई दार्शनिक कल्पनालोक का प्राणी है।

इस जर्मन समाजवाद ने, जिसने स्कूली बच्चे के जैसे अपने मामूली कार्यभार को इतनी संजीदगी और सत्यनिष्ठा के साथ ग्रहण किया था और अपनी “फीके पकवान वाली ऊँची दूकान” का ढिढोरा पीटा था, धीरे-धीरे अपनी पाण्डित्यपूर्ण मासूमियत खो दी।

अभिजात वर्ग और निरंकुश राजतन्त्र के ख़िलाफ़ जर्मन बुर्जुआ वर्ग, और ख़ास तौर से प्रशियाई बुर्जुआ वर्ग का संघर्ष – दूसरे शब्दों में, उदारवादी आन्दोलन – अधिक गम्भीर बन गया।

इससे “सच्चे” समाजवादियों को चिरवांछित यह मौक़ा मिला कि राजनीतिक आन्दोलन के सामने वे अपनी समाजवादी माँगें रखें; उदारवाद, प्रतिनिधिमूलक सरकार, बुर्जुआ होड़, बुर्जुआ प्रेस स्वातन्त्रय, बुर्जुआ क़ानून, बुर्जुआ स्वतन्त्रता और समानता, आदि को परम्परागत लानतें भेजें और जनसाधारण को बतायें कि इस बुर्जुआ आन्दोलन से उन्हें कोई फ़ायदा नहीं, बल्कि नुक़सान ही नुक़सान होगा। जर्मन समाजवाद ने बड़े मौक़े से इस बात को भुला दिया कि फ्रांसीसी मीमांसा, जिसकी वह एक बेहूदा प्रतिध्वनि मात्र था, आधुनिक बुर्जुआ समाज के अस्तित्व की, उसके अस्तित्व की तदनुरूप आर्थिक परिस्थितियों की और उसके अनुरूप ढले राजनीतिक विधान की, अर्थात ठीक उन्हीं चीज़ों की पूर्वकल्पना करके चलती है, जिनकी प्राप्ति जर्मनी में अभी तक चल रहे अनिर्णीत संघर्ष का लक्ष्य थी।

निरंकुश सरकारों को, उनके पादरियों, प्रोफ़ेसरों, देहाती रईसों और नौकरशाहों को ख़तरनाक बुर्जुआ वर्ग की ज़बरदस्त बढ़त को रोकने का इस समाजवाद के रूप में एक मनचाहा हौआ मिल गया।

हण्टरों और गोलियों की कड़वी ख़ुराक के बाद, जो इन्हीं सरकारों ने उस समय जर्मनी के विद्रोही मज़दूरों को पिलायी थी, यह अन्त में दी गयी एक मीठी गोली थी।

इस प्रकार जहाँ यह “सच्चा” समाजवाद जर्मन बुर्जुआ वर्ग के ख़िलाफ़ लड़ाई में सरकारों का अस्त्र बन गया, वहीं प्रत्यक्ष रूप से उसने एक प्रतिक्रियावादी हित, जर्मन कूपमण्डूकों के हित का प्रतिनिधित्व किया। जर्मनी में निम्न-बुर्जुआ वर्ग ही, जो सोलहवीं शताब्दी का एक अवशेष है और तब से बारम्बार विभिन्न रूप धारण करके प्रगट होता रहा है, वहाँ की वर्तमान अवस्था का वास्तविक सामाजिक आधार है।

इस वर्ग को बरक़रार रखना जर्मनी की वर्तमान अवस्था को बरकरार रखना है। बुर्जुआ वर्ग का औद्योगिक और राजनीतिक प्रभुत्व, एक ओर तो पूँजी के संकेन्द्रण द्वारा और दूसरी ओर क्रान्तिकारी सर्वहारा वर्ग के उदय द्वारा, उसके निश्चित विनाश का ख़तरा पैदा करता है। लगता था कि “सच्चा” समाजवाद एक ही तीर से इन दोनों चिड़ियों को ख़त्म कर देगा। अतः “सच्चा” समाजवाद एक महामारी की तरह फैल गया।

जर्मन समाजवादियों ने अपने करुणाजनक “शाश्वत सत्यों” की ठठरी को जब कल्पनामय भावों के झीने आवरण में लपेटा, इस आवरण में आलंकारिक भाषा रूपी फूलदार सलमा-सितारों की क़सीदाकारी की, और उसे रुग्ण भावुकता के नीहार-जल में भिगोकर बाज़ारों में ले आये, तो फिर क्या कहना था, ऐसे ख़रीदारों के बीच उनके इस माल की ख़ूब खपत हुई।

और अपनी ओर से जर्मन समाजवाद ने निम्न-बुर्जुआ कूपमण्डूक के आडम्बरपूर्ण प्रतिनिधि होने के अपने पेशे को अधिकाधिक स्वीकार किया।

जर्मन समाजवादियों ने घोषणा की कि जर्मन राष्ट्र ही आदर्श राष्ट्र है और जर्मनी का तुच्छ कूपमण्डूक ही आदर्श मानव है। इस आदर्श मानव की हर अपराधपूर्ण नीचता की उन्होंने एक रहस्यमय, उच्च, समाजवादी व्याख्या की – असलियत के बिल्कुल विपरीत व्याख्या। अन्त में तो वे कम्युनिज़्म की “पाशविक विनाशकारी” प्रवृत्ति का सीधे-सीधे विरोध करने और सभी वर्ग संघर्षों के प्रति अपनी घोर, पक्षपातहीन अवज्ञा घोषित करने की पराकाष्ठा तक पहुँच गये। जर्मनी में आजकल (1847) समाजवादी और कम्युनिस्ट साहित्य के नाम से जिन चीज़ों का प्रचार हो रहा है, उनमें से बहुत थोड़े को छोड़कर बाक़ी सब इसी गन्दे और क्षयकारी साहित्य की कोटि में आते हैं।[50]

(II) रूढ़िवादी या बुर्जुआ समाजवाद

बुर्जुआ वर्ग का एक हिस्सा समाज की बुराइयों को इसलिए दूर करना चाहता है ताकि बुर्जुआ समाज को बरकरार रखा जा सके।

अर्थशास्त्री, परोपकारी, मानवतावादी, श्रमजीवी वर्गों की हालत सुधारने के आकांक्षी, ख़ैरात बँटवाने वाले प्रबन्धक, पशु-रक्षा समितियों के सदस्य, दारूबन्दी के दीवाने, प्रत्येक कल्पनीय प्रकार के छोटे-मोटे सुधारक – सभी इस श्रेणी में आते हैं। इसके अलावा, इस तरह के समाजवाद का एक सम्पूर्ण पद्धति के रूप में विशदीकरण तक कर दिया गया है।

समाजवाद के इस रूप के उदाहरण के रूप में हम प्रूदों की पुस्तक Philosophie de la Misère (दरिद्रता का दर्शन) को ले सकते हैं।

बुर्जुआ समाजवादी आधुनिक सामाजिक अवस्थाओं का पूरा लाभ उठाना चाहते हैं, लेकिन आधुनिक अवस्थाओं में अनिवार्यतः उत्पन्न संघर्षों और ख़तरों से दूर रहकर ही। वे मौजूदा सामाजिक व्यवस्था को चाहते हैं, लेकिन बग़ैर उसके क्रान्तिकारी और विघटनशील तत्त्वों के ही। वे चाहते हैं कि बुर्जुआ वर्ग हो, लेकिन सर्वहारा न हो। बुर्जुआ वर्ग जिस दुनिया में सर्वेसर्वा है स्वभावतः वह उसी दुनिया को सर्वश्रेष्ठ मानता है; बुर्जुआ समाजवाद इसी सुखद अवधारणा को कमोबेश एक सम्पूर्ण पद्धति का रूप दे देता है। इसलिए बुर्जुआ समाजवादी लोग जब सर्वहारा से यह अपेक्षा करते हैं कि वह इस तरह की पद्धति क़ायम करेगा और ऐसा करके सीधे नये यरुशलम[51] में पहुँच जायेगा तो दरअसल वे यह अपेक्षा करते हैं कि सर्वहारा वर्ग वर्तमान समाज की सीमाओं का उल्लंघन न करे और बुर्जुआ वर्ग के बारे में अपनी सभी घृणापूर्ण भावनाओं को तिलांजलि दे दे।

इस समाजवाद का एक दूसरा, अधिक व्यावहारिक परन्तु कम व्यवस्थित रूप वह है जो प्रत्येक क्रान्तिकारी आन्दोलन को मज़दूर वर्ग की दृष्टि में यह दिखाकर गिराना चाहता है कि उसे मात्र राजनीतिक सुधारों द्वारा नहीं, अपितु जीवन की भौतिक अवस्थाओं, आर्थिक सम्बन्धों में परिवर्तन द्वारा ही कोई लाभ हो सकता है। लेकिन जीवन की भौतिक अवस्थाओं में परिवर्तन से इस समाजवाद का मतलब यह कदापि नहीं है कि उत्पादन की पूँजीवादी पद्धतियों को समाप्त कर दिया जाये, जिसे क्रान्ति के ज़रिये ही समाप्त किया जा सकता है, बल्कि उसका मतलब इन्हीं सम्बन्धों पर आधारित प्रशासकीय सुधारों से है, अर्थात ऐसे सुधारों से जो किसी हालत में पूँजी और श्रम के सम्बन्धों में परिवर्तन नहीं लाते और ज़्यादा से ज़्यादा बुर्जुआ सरकार का ख़र्च कम कर देते हैं और उसके प्रशासकीय कार्यों को कुछ सरल बना देते हैं।

बुर्जुआ समाजवाद पर्याप्त अभिव्यक्ति तभी और सिर्फ़ तभी प्राप्त करता है जब वह केवल भाषा का एक अलंकार बन जाता है।

मुक्त व्यापार: मज़दूर वर्ग की भलाई के लिए। संरक्षण शुल्क: मज़दूर वर्ग की भलाई के लिए। जेल सुधार: मज़दूर वर्ग की भलाई के लिए। बुर्जुआ समाजवाद का यही हर्फ़े-आख़िर है, बस यही एक हर्फ़ है जिसे वह संजीदगी से मानता है।

उसका लुब्बे लुबाब इस मुहावरे में है: बुर्जुआ, बुर्जुआ है मज़दूर वर्ग की भलाई के लिए!

(III) आलोचनात्मक-कल्पनावादी समाजवाद और कम्युनिज़्म

यहाँ पर हम बाब्येफ़ और दूसरे लेखकों की कृतियों की तरह के उस साहित्य की चर्चा नहीं कर रहे हैं जिसने प्रत्येक महान आधुनिक क्रान्ति में सर्वहारा वर्ग की माँगों को सदा मुखरित किया है।

अपने वर्ग लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए सर्वहारा की पहली सीधी-सीधी कोशिशें सार्वभौमिक उत्तेजना के काल में की गयी थीं, जब सामन्ती समाज का तख़्ता पलटा जा रहा था। सर्वहारा की उस समय की अविकसित अवस्था के कारण और साथ ही उसकी मुक्ति के लिए आवश्यक आर्थिक अवस्थाओं के अभाव के कारण – उन अवस्थाओं के कारण, जिन्हें अभी उत्पन्न होना था और जो आसन्न बुर्जुआ युग द्वारा ही उत्पन्न हो सकती थीं – इन कोशिशों का असफल होना अनिवार्य था। सर्वहारा वर्ग के इन प्रथम आन्दोलनों के साथ-साथ जो क्रान्तिकारी साहित्य सृजित हुआ, उसका अनिवार्यतः प्रतिक्रियावादी चरित्र था। उसने सार्वभौमिक वैराग्य और भोंड़े रूप में सामाजिक बराबरी की भावनाएँ पैदा कीं।

सेण्ट सीमों, फ़ूरिये, ओवेन तथा दूसरे लोगों की पद्धतियों का जन्म – जिन्हें वास्तव में समाजवादी और कम्युनिस्ट पद्धतियाँ कहा जा सकता था – सर्वहारा और बुर्जुआ वर्ग के संघर्ष के उपरोक्त आरम्भिक अविकसित काल में हुआ था। (देखिये अध्याय 1, “बुर्जुआ और सर्वहारा”)

इसमें सन्देह नहीं कि इन पद्धतियों के संस्थापक तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में वर्ग विरोधों तथा विघटनशील तत्त्वों की क्रिया को देखते थे। किन्तु उनकी दृष्टि में सर्वहारा, जो अभी अपने शैशव काल में था, ऐसा वर्ग था जिसमें न तो ऐतिहासिक पेशक़दमी थी और न ही स्वतन्त्र राजनीतिक आन्दोलन की कोई क्षमता थी।

चूँकि वर्ग विरोध का विकास उद्योग के विकास के साथ क़दम मिलाकर चलता है, इसलिए वे उस समय जैसी आर्थिक स्थिति पाते हैं, वह अभी उन्हें सर्वहारा की मुक्ति के लिए आवश्यक भौतिक अवस्थाएँ प्रदान नहीं करती। इसलिए वे इन अवस्थाओं को उत्पन्न करने में समर्थ नये सामाजिक विज्ञान की, नये सामाजिक नियमों की तलाश करते हैं।

उन्होंने चाहा कि ऐतिहासिक क्रिया का स्थान उनकी व्यक्तिगत आविष्कारक क्रिया ले ले; इतिहास द्वारा सृजित सर्वहारा की मुक्ति की अवस्थाओं का काम उनकी कल्पित अवस्थाएँ पूरा कर दें; सर्वहारा के धीरे-धीरे और स्वतः पैदा होने वाले वर्ग संगठन का काम इन आविष्कारकों द्वारा विशेष तौर से आविष्कृत एक समाज संगठन कर दे। उनकी दृष्टि में भावी इतिहास उनकी सामाजिक योजनाओं के प्रचार और उनके व्यावहारिक क्रियान्वयन का औज़ार मात्र बनकर रह जाता है।

अपनी योजनाएँ तैयार करते हुए, उन्हें सर्वाधिक पीड़ित वर्ग होने के नाते सबसे ज़्यादा मज़दूर वर्ग के हितों का ख़याल रहता है। उनकी दृष्टि में सर्वहारा के अस्तित्व का केवल एक ही अर्थ है – सर्वाधिक पीड़ित वर्ग।

वर्ग संघर्ष की अविकसित अवस्था और स्वयं अपने परिवेश के कारण इस तरह के समाजवादी अपने को सभी वर्ग विरोधों से बहुत ऊपर समझते हैं। समाज के प्रत्येक सदस्य की, सबसे अधिक सम्पन्न सदस्यों की भी हालत को वे बेहतर बनाना चाहते हैं। इसलिए वे आदतन वर्ग भेद का लिहाज़ किये बिना पूरे समाज से या यूँ कहिये ख़ास तौर से शासक वर्ग से अपील करते हैं। वे सोचते हैं कि भला ऐसा कैसे हो सकता है कि उनकी प्रणाली को एक बार समझ लेने के बाद लोग यह न देखें कि वह समाज की यथासम्भव सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था के लिए यथासम्भव सर्वश्रेष्ठ योजना है?

इसलिए, सभी राजनीतिक, और ख़ास तौर से क्रान्तिकारी कार्रवाइयों को वे ठुकरा देते हैं। अपने उद्देश्यों को वे शान्तिमय तरीक़ों से हासिल करना चाहते हैं, और छोटे-छोटे प्रयोगों के ज़रिये, जिनकी असफलता अवश्यम्भावी है, और नमूने के ज़ोर से वे अपने नवीन सामाजिक दिव्य-सन्देश के लिए मार्ग प्रशस्त करने की कोशिश करते हैं।

भावी समाज के ये हवाई चित्र, जो ऐसे समय में बनाये जाते हैं जबकि सर्वहारा वर्ग अभी बहुत अविकसित दशा में होता है और उसकी स्वयं अपनी ही स्थिति के बारे में एक अत्यन्त काल्पनिक धारणा होती है, समाज के आम पुनर्निर्माण की उसकी प्रथम नैसर्गिक आकांक्षाओं से मेल खाते हैं।

किन्तु इन समाजवादी और कम्युनिस्ट प्रकाशनों में आलोचना का भी एक तत्त्व रहता है। वे वर्तमान समाज के प्रत्येक सिद्धान्त पर प्रहार करते हैं। इसलिए मज़दूर वर्ग के प्रबोधन के लिए उनके अन्दर अत्यन्त मूल्यवान सामग्री मौजूद रहती है। उनमें भावी समाज के बारे में जो भी अमली तजवीज़ें पेश की गयी हैं – यह कि शहर और देहात का फ़र्क़ मिटा दिया जाये, परिवार की प्रथा का, अलग-अलग व्यक्तियों के निजी फ़ायदे के लिए उद्योग चलाने की पद्धति का तथा मज़दूरी व्यवस्था का अन्त कर दिया जाये, सामाजिक सामंजस्य की स्थापना की जाये, राज्य की क्रिया का केवल उत्पादन के निरीक्षण में रूपान्तरण किया जाये – ये सब तजवीज़ें उन वर्ग विरोधों की समाप्ति की दिशा में इंगित करती हैं जो उस समय भड़कने लगे थे और जो इन प्रकाशनों में केवल अपने सबसे प्रारम्भिक, अस्पष्ट और अपरिभाषित रूप में अभिव्यक्त हुए हैं। इन तजवीज़ों का स्वरूप, इसलिए, विशुद्ध काल्पनिक है।

आलोचनात्मक-कल्पनावादी समाजवाद और कम्युनिज़्म का महत्त्व इतिहास के विकासक्रम के साथ घटता जाता है। आधुनिक वर्ग संघर्ष जैसे-जैसे बढ़ता है और निश्चित आकार ग्रहण करता है, वैसे-वैसे इस संघर्ष से दूर खड़े रहने की बेतुकी स्थिति का, इस संघर्ष का विरोध करने की बेतुकी बातों का सारा व्यावहारिक महत्त्व और सैद्धान्तिक औचित्य भी ख़त्म होता जाता है। फलतः यद्यपि इन पद्धतियों के संस्थापक बहुत बातों में क्रान्तिकारी थे, तथापि उनके शिष्यों ने सदैव प्रतिक्रियावादी संकीर्ण गुट ही बनाये हैं। सर्वहारा के प्रगतिशील ऐतिहासिक विकास के विपरीत वे अपने गुरुओं के मूल विचारों से चिपके हुए हैं। इसलिए वे हमेशा वर्ग संघर्ष को चेतनाशून्य करने और विरोधी वर्गों में मेल-मिलाप कराने की कोशिश करते हैं। वे अभी भी अपनी काल्पनिक सामाजिक व्यवस्थाओं को प्रयोगात्मक रूप में चरितार्थ करने, इक्के-दुक्के “फालांस्तेर” खड़े करने, “गृह-उपनिवेश” (Home-colonies) स्थापित करने, एक नयी “छोटी इकारिया”[52] – नये यरुशलम का जेबी संस्करण – क़ायम करने के सपने देखते हैं, और इन सभी हवाई क़िलों को अमली शक्ल देने के लिए वे बुर्जुआ वर्ग की भावनाओं और उनकी थैलियों का आश्रय लेने को मजबूर होते हैं। धीरे-धीरे ये लोग भी प्रतिक्रियावादी रूढ़िवादी समाजवादियों की जमात में पहुँच जाते हैं, जिनका ऊपर चित्रण किया गया है। अन्तर केवल इतना रहता है कि उनकी अपेक्षा इनका पाण्डित्य ज़्यादा व्यवस्थित होता है और वे अपने सामाजिक विज्ञान की चमत्कारिक शक्ति में कट्टर और मूढ़ग्राही विश्वास रखते हैं।

इसलिए, मज़दूर वर्ग की हर राजनीतिक कार्रवाई का वे प्रचण्ड विरोध करते हैं। उनके मुताबिक़ ऐसी कार्रवाइयाँ केवल नये दिव्य-सन्देश में अन्ध अविश्वास का ही परिणाम हो सकती हैं।

इंग्लैण्ड में ओवेनपन्थी चार्टिस्टों[53] का, और फ्रांस में फ़ूरियेपन्थी सुधारवादियों[54] का विरोध करते हैं जो अपने विचार “ला रिफ़ॉर्म” में प्रस्तुत करते हैं।

  1. विभिन्न विरोधी पार्टियों के सम्बन्ध में कम्युनिस्टों का रुख़

दूसरे अध्याय में मज़दूर वर्ग की वर्तमान काल की पार्टियों के साथ, जैसेकि इंग्लैण्ड में चार्टिस्टों के साथ और अमेरिका में कृषि सुधारकों के साथ, कम्युनिस्टों का सम्बन्ध स्पष्ट किया जा चुका है।

कम्युनिस्ट मज़दूरों के तात्कालिक लक्ष्यों के लिए लड़ते हैं, उनके सामयिक हितों की रक्षा के लिए प्रयत्न करते हैं; किन्तु वर्तमान के आन्दोलन में वे इस आन्दोलन के भविष्य का भी प्रतिनिधित्व करते हैं और उसका ध्यान रखते हैं। फ्रांस में रूढ़िवादी और आमूल परिवर्तनवादी बुर्जुआओं के ख़िलाफ़ कम्युनिस्ट समाजवादी जनवादियों[55] के साथ एका क़ायम करते हैं; लेकिन ऐसा करते हुए वे महान क्रान्ति के दिनों से परम्परागत रूप में चली आती हुई लफ्फ़ाज़ी और भ्रान्तियों के प्रति आलोचना का रुख़ अपनाने के अपने अधिकार को सुरक्षित रखते हैं।

स्विट्ज़रलैण्ड में वे आमूल परिवर्तनवादियों का समर्थन करते हैं; लेकिन इस बात को भुलाये बिना कि यह पार्टी परस्पर-विरोधी तत्त्वों के मेल से बनी है: कुछ तो उसमें फ्रांसीसी क़िस्म के जनवादी समाजवादी हैं और कुछ उग्र परिवर्तनवादी बुर्जुआ।

पोलैण्ड में वे उस पार्टी का समर्थन करते हैं जो कृषि क्रान्ति को राष्ट्रीय आज़ादी की पहली शर्त मानती है और जिसने 1846 में क्रैको विद्रोह[56] की आग सुलगायी थी।

जर्मनी में वहाँ का बुर्जुआ वर्ग जहाँ तक क्रान्तिकारी ढंग से कार्रवाई करता है, वहाँ तक वे उसके साथ मिलकर निरंकुश राजतन्त्र, सामन्ती भूस्वामियों और निम्नबुर्जुआओं के ख़िलाफ़ लड़ते हैं।

लेकिन वे मज़दूर वर्ग को सर्वहारा और बुर्जुआ वर्ग के शत्रुतापूर्ण विरोध का यथासम्भव स्पष्ट से स्पष्ट बोध कराने का काम, क्षणभर के लिए भी नहीं रोकते, ताकि जर्मन मज़दूर उन सामाजिक और राजनीतिक अवस्थाओं को, जिन्हें बुर्जुआ वर्ग अपने प्रभुत्व के साथ अनिवार्यतः लागू करेगा, फ़ौरन बुर्जुआ वर्ग के विरुद्ध, हथियारों के रूप में इस्तेमाल करना शुरू कर सकें, ताकि जर्मनी में प्रतिक्रियावादी वर्गों के पतन के बाद स्वयं बुर्जुआ वर्ग के ख़िलाफ़ तुरन्त ही लड़ाई की शुरुआत हो जाये।

जर्मनी की ओर कम्युनिस्ट ख़ास तौर से इसलिए ध्यान देते हैं कि वह देश ऐसी बुर्जुआ क्रान्ति के द्वार पर खड़ा है जो अनिवार्यतः यूरोपीय सभ्यता की अधिक उन्नत अवस्थाओं में, तथा इंग्लैण्ड की सत्रहवीं शताब्दी और फ्रांस की अठारहवीं शताब्दी की तुलना में, एक अधिक उन्नत सर्वहारा को लेकर सम्पन्न होगी; और इसलिए कि जर्मनी की यह बुर्जुआ क्रान्ति उसके बाद तुरन्त ही होने वाली सर्वहारा क्रान्ति की पूर्वपीठिका होगी।

संक्षेप में, कम्युनिस्ट सर्वत्र मौजूदा सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था के ख़िलाफ़ हर क्रान्तिकारी आन्दोलन का समर्थन करते हैं।

इन सभी आन्दोलनों में वे प्रमुख प्रश्न के रूप में सम्पत्ति के प्रश्न को, चाहे उस समय उसका जिस अंश में भी विकास हुआ हो, सर्वोपरि स्थान देते हैं।

अन्त में, वे सर्वत्र सभी देशों की जनवादी पार्टियों के बीच एकता और समझौता कराने की कोशिश करते हैं।

कम्युनिस्ट अपने विचारों और उद्देश्यों को छिपाना अपनी शान के ख़िलाफ़ समझते हैं। वे खुलेआम एलान करते हैं कि उनके लक्ष्य पूरी वर्तमान सामाजिक व्यवस्था को बलपूर्वक उलटने से ही सिद्ध किये जा सकते हैं। कम्युनिस्ट क्रान्ति के भय से शासक वर्गों को काँपने दो। सर्वहारा के पास खोने के लिए अपनी बेड़ियों के सिवा कुछ नहीं है। जीतने के लिए उनके सामने सारी दुनिया है।

दुनिया के मज़दूरो, एक हो!

मार्क्स और एंगेल्स द्वारा दिसम्बर, 1847-जनवरी, 1848 में लिखित

पहले-पहल लन्दन में फ़रवरी, 1848 में जर्मन में प्रकाशित

अंग्रेज़ी से अनूदित

परिशिष्ट – कम्युनिज़्म के सिद्धान्त[57]

फ्रेडरिक एंगेल्स

प्रश्न 1: कम्युनिज़्म क्या है?

उत्तर: कम्युनिज़्म सर्वहारा की मुक्ति की शर्तों का सिद्धान्त है।

प्रश्न 2: सर्वहारा क्या है?

उत्तर: सर्वहारा समाज का वह वर्ग है जो अपनी आजीविका के साधन पूर्णतया तथा केवल अपने श्रम की बिक्री से हासिल करता है, किसी पूँजी से हासिल किये गये मुनाफ़े से नहीं; जिसकी ख़ुशहाली और बदहाली, जिसकी ज़िन्दगी और मौत, जिसका पूरा अस्तित्व श्रम की माँग पर, इस कारण अच्छे कारोबार के समय तथा बुरे कारोबार के समय की अदला-बदली पर, बेलगाम होड़ से पैदा होने वाले उतार-चढ़ावों पर निर्भर करता है। संक्षेप में, सर्वहारा अथवा सर्वहारा वर्ग उन्नीसवीं शताब्दी का श्रमजीवी वर्ग है।

प्रश्न 3: तो क्या, इसका मतलब यह हुआ कि सर्वहारा हमेशा से विद्यमान नहीं रहे हैं?

उत्तर: हाँ, नहीं रहे। ग़रीब लोग तथा श्रमजीवी वर्ग हमेशा से रहे हैं तथा श्रमजीवी वर्ग अधिकतर ग़रीब रहे हैं। परन्तु ऐसे ग़रीब, ऐसे मज़दूर अर्थात सर्वहारा, जो अभी-अभी वर्णित अवस्थाओं के अन्दर रहते हैं, हमेशा से उसी तरह अस्तित्वमान नहीं रहे हैं जिस तरह होड़ हमेशा से मुक्त तथा बेलगाम नहीं रही है।

प्रश्न 4: सर्वहारा का जन्म कैसे हुआ?

उत्तर: सर्वहारा उस औद्योगिक क्रान्ति के फलस्वरूप पैदा हुआ जो गत शताब्दी के उत्तरार्द्ध में इंग्लैण्ड में प्रकट हुई थी और जिसकी तब से संसार के समस्त सभ्य देशों में पुनरावृत्ति होती रही है। भाप-इंजन, बुनाई की विविध मशीनों, यान्त्रिक करघों तथा बहुत बड़ी संख्या में अन्य यान्त्रिक उपकरणों के आविष्कार ने इस औद्योगिक क्रान्ति को जन्म दिया था। इन मशीनों ने, जो बहुत महँगी थीं और फलस्वरूप जिन्हें केवल बड़े पूँजीपति ही ख़रीद सकते थे, उत्पादन की अब तक विद्यमान समस्त उत्पादन पद्धति को बदल दिया तथा अब तक विद्यमान मज़दूरों को बेदख़ल कर दिया क्योंकि अपने अपरिष्कृत चरखों तथा हथकरघों से काम करने वाले मज़दूरों के मुक़ाबले मशीनें अधिक सस्ते तथा बेहतर माल उत्पादित कर रही थीं। इस प्रकार इन मशीनों ने उद्योग को पूरी तरह बड़े पूँजीपतियों के हवाले कर दिया तथा मज़दूरों की अत्यल्प सम्पत्ति (औज़ार, हथकरघे आदि) को बेकार बना दिया, इससे पूँजीपति शीघ्र हर चीज़ के मालिक बन गये और मज़दूरों के पास कुछ भी नहीं रह गया। इस प्रकार वस्त्र उत्पादन के क्षेत्र में फ़ैक्टरी प्रणाली चालू की गयी।

मशीनों तथा फ़ैक्टरी प्रणाली की उत्प्रेरणा मिलनेभर की देर थी कि उसने उद्योग की सभी अन्य शाखाओं पर, विशेष रूप से कपड़े पर छपाई तथा पुस्तक-मुद्रण के व्यवसायों, मिट्टी के बरतन बनाने और लोहे की चीज़ें बनाने वाले उद्योग पर तेज़ी से धावा बोल दिया। श्रम अनेकानेक मज़दूरों के बीच अधिकाधिक बँटता चला गया, इस कारण जो मज़दूर पहले पूरी वस्तु तैयार करता था, वह अब वस्तु का मात्र एक भाग बनाने लगा। इस श्रम विभाजन ने माल को अधिक शीघ्रतापूर्वक और इस कारण अधिक सस्ते दामों पर मुहैया करना सम्भव बना दिया। उसने हर मज़दूर के श्रम को बहुत ही सरल, निरन्तर दोहरायी जाने वाली यन्त्रवत क्रिया की स्थिति में पहुँचा दिया, जिसे मशीन उतनी अच्छी तरह ही नहीं, वरन उससे कहीं बेहतर ढंग से कर सकती थी। इस प्रकार उद्योग की ये सभी शाखाएँ बुनाई तथा कताई उद्योगों की ही तरह एक-एक कर भाप-शक्ति, मशीनों तथा फ़ैक्टरी प्रणाली के आधिपत्य के अन्तर्गत होती चली गयीं। परन्तु इससे वे सबकी सब बड़े पूँजीपतियों के हाथों में पहुँच गयीं, और यहाँ भी मज़दूर स्वतन्त्रता के अन्तिम अंशों से वंचित कर दिये गये। वास्तविक मैन्युफ़ैक्चर के साथ-साथ धीरे-धीरे दस्तकारियाँ भी उसी तरह अधिकाधिक मात्र में फ़ैक्टरी प्रणाली के आधिपत्य के अन्तर्गत होती चली गयीं क्योंकि यहाँ भी बड़े पूँजीपतियों ने बड़े-बड़े वर्कशाप बनाकर, जिनमें बहुत सारा ख़र्चा बच जाता था तथा मज़दूरों के बीच श्रम का सुविधापूर्वक विभाजन किया जा सकता था, छोटे स्वतन्त्र कारीगरों को बाहर धकेल दिया। इस तरह परिणाम यह हुआ है कि सभी सभ्य देशों में श्रम की लगभग सभी शाखाएँ फ़ैक्टरी प्रणाली के अन्तर्गत संचालित होती हैं, और लगभग इन सभी शाखाओं में से दस्तकारी तथा मैन्युफ़ैक्चर को बड़े पैमाने के उद्योग ने बाहर धकेल दिया है। फलस्वरूप पहले के मध्य वर्ग, ख़ास तौर पर छोटे दर्जे के उस्ताद-कारीगर बरबादी के क़गार पर पहुँच गये हैं, मज़दूरों की पहले की स्थिति बिल्कुल बदल चुकी है, तथा दो नये वर्ग अस्तित्व में आ गये हैं, जो धीरे-धीरे सभी अन्य वर्गों को अपने अन्दर समाते जा रहे हैं, अर्थात –

  1. बड़े पूँजीपतियों का वर्ग, जो सभी सभ्य देशों में अब जीवन-निर्वाह के सारे साधनों तथा कच्चे माल और औज़ारों (मशीनों, फ़ैक्टरियों आदि) का, जिनकी जीवन-निर्वाह के इन साधनों के उत्पादन के लिए ज़रूरत पड़ती है, प्रायः पूर्णतया स्वामी है। यह बुर्जुआ वर्ग अथवा बुर्जुआ है।
  2. उन लोगों का वर्ग जिनके पास बिल्कुल कुछ नहीं है, जो इस कारण पूँजीपतियों को अपना श्रम बेचने के लिए बाध्य होते हैं ताकि बदले में जीवन-निर्वाह के आवश्यक साधन हासिल कर सकें। इस वर्ग को सर्वहारा वर्ग अथवा सर्वहारा कहा जाता है।

प्रश्न 5: सर्वहाराओं के श्रम की पूँजीपतियों के हाथ बिक्री किन परिस्थितियों में होती है?

उत्तर: श्रम किसी भी दूसरे माल की भाँति एक माल है तथा उसका दाम भी अन्य मालों के दाम की ही तरह उन्हीं क़ानूनों से निर्धारित होता है। बड़े पैमाने के उद्योग अथवा मुक्त होड़ के आधिपत्य के अन्तर्गत – जैसाकि हम देखेंगे, यह एक ही चीज़ है – किसी माल का दाम औसतन हमेशा उस माल की उत्पादन लागत के बराबर होता है। इसलिए श्रम का दाम श्रम की उत्पादन लागत के बराबर है। श्रम की उत्पादन लागत जीवन-निर्वाह के साधनों की ठीक वह राशि है जिसकी ज़रूरत इसलिए पड़ती है कि मज़दूर को काम करने योग्य रखा जा सके और मज़दूर वर्ग को मरकर ख़त्म होने से रोका जा सके। अतः मज़दूर को अपने श्रम के बदले उससे अधिक नहीं मिलेगा जितना उस उद्देश्य के लिए आवश्यक होता है; श्रम का दाम अथवा मज़दूरी, न्यूनतम आजीविका बनाये रखने योग्य सिर्फ़ न्यूनतम का भुगतान होता है। चूँकि कारोबार की हालत कभी बुरी होती है तथा कभी बेहतर हो जाती है, इसलिए मज़दूर को कभी कम, तो कभी ज़्यादा मिलता है, ठीक उसी तरह जिस तरह कारख़ानेदार को अपने माल के लिए कभी ज़्यादा और कभी कम मिलता है। परन्तु वक़्त चाहे अच्छा हो या बुरा, कारख़ानेदार को औसतन अपने माल के लिए उसकी उत्पादन लागत से जिस तरह न तो अधिक मिलता है और न कम, उसी तरह मज़दूर को उस न्यूनतम से न तो अधिक मिलेगा और न कम। श्रम की सभी शाखाओं को बड़े पैमाने का उद्योग ज्यों-ज्यों अधिकाधिक अपने क़ब्ज़े में करता जायेगा, मज़दूरी का यह आर्थिक नियम उतनी ही कड़ाई से लागू होगा।

प्रश्न 6: औद्योगिक क्रान्ति से पहले कौन से श्रमजीवी वर्ग विद्यमान थे?

उत्तर: सामाजिक विकास की भिन्न-भिन्न मंज़िलों के अनुसार श्रमजीवी वर्ग भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में रहते थे और सम्पत्तिधारी तथा सत्ताधारी वर्गों से उनके सम्बन्ध भिन्न-भिन्न प्रकार के होते थे। प्राचीन काल में मेहनतकश लोग अपने मालिकों के दास थे, ठीक उसी तरह जिस तरह वे कई पिछड़े हुए देशों तथा संयुक्त राज्य अमेरिका तक के दक्षिणी भाग में आज भी हैं। मध्य युग में वे भूमि के मालिक अभिजात वर्ग के भूदास थे, ठीक उसी तरह जिस तरह वे आज भी हंगरी, पोलैण्ड तथा रूस में हैं। मध्य युग में तथा औद्योगिक क्रान्ति होने तक शहरों में दस्तकार भी थे जो निम्न-बुर्जुआ उस्तादों की नौकरी करते थे। मैन्युफ़ैक्चर के विकास के साथ-साथ धीरे-धीरे मैन्युफ़ैक्चर मज़दूरों का उद्भव होने लगा जिन्हें कमोबेश बड़े पूँजीपतियों ने काम पर रख लिया था।

प्रश्न 7: सर्वहारा दास से किस मायने में भिन्न है?

उत्तर: दास सीधे-सीधे बेच दिया जाता है, सर्वहारा को रोज़-रोज़, घड़ी-घड़ी अपने को बेचना पड़ता है। हर दास के लिए, जो एक ही मालिक की सम्पत्ति होता है, भले ही मालिक के हितार्थ, जीवन-निर्वाह की – वह चाहे कितना ही घटिया क्यों न हो – गारण्टी रहती है; हर सर्वहारा के लिए, जो पूरे बुर्जुआ वर्ग की सम्पत्ति होता है और जिसका श्रम केवल उसी समय ख़रीदा जाता है जब किसी को उसकी ज़रूरत पड़ती है, गारण्टीशुदा जीवन-निर्वाह की व्यवस्था नहीं होती। सर्वहारा के लिए केवल एक समग्र वर्ग के रूप में ही जीवन-निर्वाह की गारण्टी की जाती है। दास होड़ से बाहर रहता है, सर्वहारा उसके अन्दर रहता है और उसके सारे उतार-चढ़ाव को अनुभव करता है। दास को मात्र एक वस्तु माना जाता है, नागरिक समाज का सदस्य नहीं। सर्वहारा को व्यक्ति के रूप में, नागरिक समाज के सदस्य के रूप में देखा जाता है। इसलिए दास सर्वहारा से बेहतर जीवन बिता सकता है, परन्तु सर्वहारा समाज के विकास की उच्चतर मंजिल का मनुष्य होता है और स्वयं दास से उच्चतर मंजिल में होता है। दास निजी स्वामित्व के सभी सम्बन्धों में केवल दासत्व का सम्बन्ध भंग करके ही अपने को मुक्त करता है और इस प्रकार स्वयं सर्वहारा बन जाता है। सर्वहारा सामान्य रूप से निजी स्वामित्व को मिटाकर ही अपने को मुक्त कर सकता है।

प्रश्न 8: सर्वहारा भूदास से किस मायने में भिन्न है?

उत्तर: भूदास के पास उत्पादन का औज़ार – ज़मीन का एक टुकड़ा – होता है, जिसके बदले वह उपज का एक हिस्सा दे देता है या कुछ काम करता है। सर्वहारा उत्पादन के उन औज़ारों से काम करता है जो दूसरे के होते हैं, वह इस दूसरे के लिए काम करने के बदले आमदनी का एक हिस्सा पाता है। भूदास देता है, सर्वहारा को दिया जाता है। भूदास के लिए जीवन-निर्वाह की गारण्टी होती है, सर्वहारा के लिए नहीं। भूदास होड़ से बाहर होता है, सर्वहारा उसके अन्दर। भूदास या तो शहर भागकर और वहाँ दस्तकार बनकर अपने को स्वतन्त्र करता है अथवा अपने मालिक को श्रम या उपज देने के बदले धन देकर तथा इस तरह मुक्त पट्टेदार बनकर, अथवा सामन्ती मालिक को भगाकर तथा स्वयं मालिक बनकर, संक्षेप में, इस या उस तरह सम्पत्तिधारी वर्ग तथा होड़ में शामिल होकर अपने को स्वतन्त्र करता है। सर्वहारा होड़, निजी स्वामित्व तथा समस्त वर्गविभेद मिटाकर अपने को स्वतन्त्र करता है।

प्रश्न 9: सर्वहारा दस्तकार से किस मायने में भिन्न है?[58]

प्रश्न 10: सर्वहारा मैन्युफ़ैक्चर मज़दूर से किस मायने में भिन्न है?

उत्तर: सोलहवीं सदी से लेकर अठारहवीं सदी तक के मैन्युफ़ैक्चर मज़दूर लगभग सभी जगह उस समय भी उत्पादन के अपने औज़ार – अपने करघों, घरेलू चरख़ों तथा ज़मीन के उस छोटे टुकड़े का स्वामी हुआ करता था जिस पर वह फ़ुरसत के वक़्त काश्त किया करता था। सर्वहारा के पास इनमें से कुछ भी नहीं है। मैन्युफ़ैक्चर मज़दूर प्रायः देहात में अपने भूस्वामी या अपने मालिक के साथ पितृसत्तात्मक सम्बन्धों के अन्तर्गत रहता है; सर्वहारा अधिकतर बड़े शहरों में बसता है और अपने मालिक के साथ उसका सम्बन्ध विशुद्ध रूप से मुद्रा सम्बन्ध हुआ करता है। मैन्युफ़ैक्चर मज़दूर, जिसे बड़े पैमाने का उद्योग पितृसत्तात्मक सम्बन्धों से बाहर ले आता है, वह सम्पत्ति खो बैठता है जिस पर उस समय तक उसका स्वामित्व होता था और इस तरह वह स्वयं सर्वहारा बन जाता है।

प्रश्न 11: औद्योगिक क्रान्ति के तथा समाज के पूँजीपतियों और सर्वहाराओं में बँट जाने के तात्कालिक परिणाम क्या थे?

उत्तर: पहला, मशीनी श्रम के कारण औद्योगिक उत्पादों की क़ीमतें चूँकि निरन्तर घटती जा रही थीं, अतः शारीरिक श्रम पर आधारित मैन्युफ़ैक्चर या उद्योग की पुरानी प्रणाली संसार के सभी देशों में पूर्णतया नष्ट हो गयी। समस्त अर्द्ध-बर्बर देशों को, जो अभी तक ऐतिहासिक विकास से कमोबेश अलग- थलग थे तथा जिनका उद्योग अभी तक मैन्युफ़ैक्चर पर आधारित था, उन्हें उनके अलगाव से इस प्रकार ज़बरदस्ती बाहर ले आया गया। उन्होंने अंग्रेज़ों का अधिक सस्ता माल ख़रीदा तथा अपने मैन्युफ़ैक्चर मज़दूरों को नष्ट होने दिया। इससे हुआ यह कि जो देश, उदाहरण के लिए भारत, सहस्त्राब्दियों तक गतिरोध की स्थिति में रहे, उनका ऊपर से नीचे तक क्रान्तिकरण हो गया, और चीन भी अब क्रान्ति की ओर अग्रसर हो रहा है। इस तरह हुआ यह कि आज इंग्लैण्ड में जिस मशीन का आविष्कार होता है, वह एक साल के अन्दर चीन में लाखों-लाख मज़दूरों की रोज़ी-रोटी छीन लेती है। इस तरह बड़े पैमाने का उद्योग पृथ्वी के सभी जनगण को एक-दूसरे के साथ सम्बन्धों के दायरे में ले आया है, सभी छोटी स्थानीय मण्डियों को बटोरकर एक विश्व मण्डी बना डाला है, सर्वत्र सभ्यता तथा प्रगति के लिए पथ प्रशस्त किया है और स्थिति ऐसे बिन्दु पर पहुँच गयी है कि सभ्य देशों में होने वाली हर घटना सभी अन्य देशों को प्रभावित करती है। इस प्रकार यदि इंग्लैण्ड या फ्रांस के मज़दूर अब अपने को स्वतन्त्र कर लें तो इससे अन्य सभी देशों में क्रान्तियों को प्रेरणा मिलेगी जिनके फलस्वरूप देर-सबेर वहाँ भी मज़दूरों की मुक्ति हो जायेगी।

दूसरा, बड़े पैमाने के उद्योग ने जहाँ कहीं मैन्युफ़ैक्चर की जगह ली है, वहाँ औद्योगिक क्रान्ति ने बुर्जुआ वर्ग, उसकी दौलत तथा उसकी शक्ति का अधिकतम मात्रा में विकास किया तथा उसे देश में प्रथम वर्ग बना दिया। परिणामस्वरूप जहाँ कहीं ऐसा हुआ, बुर्जुआ वर्ग ने राजनीतिक सत्ता अपने हाथों में ले ली तथा तब तक के सत्ताधारी वर्गों को – अभिजात वर्ग, शिल्प संघ के बर्गरों तथा इन दोनों का प्रतिनिधित्व करने वाले निरंकुश राजतन्त्र को – बाहर खदेड़ दिया। बुर्जुआ वर्ग ने भूसम्पत्ति के उत्तराधिकार या उसकी बिक्री पर पाबन्दी मिटाकर तथा अभिजात वर्ग के विशेषाधिकार मिटाकर अभिजात वर्ग अथवा सामन्त वर्ग की शक्ति को नष्ट कर दिया। बुर्जुआ वर्ग ने सारे शिल्प संघों तथा दस्तकारी के विशेषाधिकारों को मिटाकर शिल्प संघीय बर्गरों की ताक़त ख़त्म कर दी। उसने इन दो की जगह मुक्त होड़ को रखा, यानी समाज की एक ऐसी प्रणाली रखी जिसमें हर एक को उद्योग की किसी भी शाखा में संलग्न होने का अधिकार रहता है और जहाँ आवश्यक पूँजी के अभाव को छोड़कर और कोई चीज़ उसके लिए बाधा नहीं बन सकती। इसलिए मुक्त होड़ का प्रचलन इस बात की सार्वजनिक घोषणा है कि समाज के सदस्य अब से केवल उसी हद तक असमान हैं जिस हद तक उनकी पूँजी असमान है, कि पूँजी निर्णायक शक्ति है और इस कारण पूँजीपति अर्थात बुर्जुआ समाज का प्रथम वर्ग बन गया है। परन्तु मुक्त होड़ बड़े पैमाने के उद्योग के आरम्भिक काल में ही आवश्यक है क्योंकि समाज की केवल यही एकमात्र अवस्था है जिसमें बड़े पैमाने का उद्योग पनप सकता है। बुर्जुआ वर्ग इस तरह सामन्तों तथा शिल्प संघीय बर्गरों की सामाजिक शक्ति ज्योंही नष्ट करता है, वह उनकी राजनीतिक शक्ति भी नष्ट कर देता है। समाज में प्रथम वर्ग बनने के बाद बुर्जुआ वर्ग ने अपने को राजनीतिक क्षेत्र में भी प्रथम वर्ग घोषित कर दिया। यह काम उसने प्रतिनिधिमूलक प्रणाली स्थापित करके किया जो क़ानून के सामने समानता के बुर्जुआ सिद्धान्त तथा मुक्त होड़ की क़ानूनी मान्यता पर आधारित है और जिसे यूरोपीय देशों में संवैधानिक राजतन्त्र के रूप में प्रचलित किया गया था। इन संवैधानिक राजतन्त्रों के अन्तर्गत केवल वे लोग ही निर्वाचक होते हैं जिनके पास कुछ मात्र में पूँजी होती है, अर्थात, जो पूँजीपति होते हैं; वे पूँजीपति निर्वाचक प्रतिनिधि चुनते हैं और ये बुर्जुआ प्रतिनिधि अनुदान से इन्कार करने के अधिकार के बल पर बुर्जुआ सरकार चुना करते हैं।

तीसरा, औद्योगिक क्रान्ति ने सर्वहारा वर्ग का उसी हद तक निर्माण किया जिस हद तक उसने बुर्जुआ वर्ग का निर्माण किया। बुर्जुआ वर्ग जिस हिसाब से दौलत हासिल करता गया, सर्वहाराओं की तादाद भी उसी हिसाब से बढ़ती गयी। चूँकि सर्वहाराओं को केवल पूँजी ही काम पर लगा सकती है और चूँकि पूँजी तभी बढ़ सकती है जब वह मज़दूरों को रोज़गार पर रखे, सर्वहारा वर्ग की वृद्धि पूँजी की वृद्धि के साथ बिल्कुल क़दम से क़दम मिलाकर चलती है। साथ ही पूँजी बड़े शहरों में, जहाँ उद्योग को सबसे अधिक लाभप्रद ढंग से चलाया जा सकता है, पूँजीपतियों तथा सर्वहाराओं को जमा कर देती है। नतीजतन एक ही जगह लोगों के विशाल समूह का यह जमाव ही सर्वहारा को अपनी शक्ति का बोध कराता है। इसके अलावा, इसका जितना अधिक विकास होता है, जितनी ही ज़्यादा मशीनें, जो शारीरिक श्रम को बाहर ठकेल देती हैं, ईज़ाद की जाती हैं, बड़े पैमाने का उद्योग, जैसाकि हम पहले ही कह चुके हैं, मज़दूरी को उतना ही ज़्यादा संकुचित कर न्यूनतम बिन्दु पर ले आता है तथा इस प्रकार सर्वहारा की परिस्थितियों को अधिकाधिक असहनीय बनाता जाता है। इस प्रकार एक ओर सर्वहारा के बढ़ते हुए असन्तोष से तथा दूसरी ओर उसकी बढ़ती हुई शक्ति के ज़रिये औद्योगिक क्रान्ति सर्वहारा द्वारा सामाजिक क्रान्ति के पथ को प्रशस्त करती है।

प्रश्न 12: औद्योगिक क्रान्ति के और क्या परिणाम निकले?

उत्तर: भाप के इंजन तथा अन्य मशीनों के रूप में बड़े पैमाने के उद्योग ने ऐसे साधनों का निर्माण किया जिनसे अत्यल्प समय में और मामूली ख़र्चे पर औद्योगिक उत्पादन को असीमित रूप से बढ़ाना सम्भव हुआ। मुक्त होड़ ने, जो बड़े पैमाने के उद्योग का अपरिहार्य परिणाम है, उत्पादन की अनुकूल स्थितियों की बदौलत शीघ्र अतीव गहन स्वरूप ग्रहण कर लिया; पूँजीपति बहुत बड़ी तादाद में उद्योग में घुसे। और उससे इतना अधिक पैदा होने लगा कि उसका इस्तेमाल नहीं हो सकता था। फल यह हुआ कि तैयार माल बेचा नहीं जा सकता और वाणिज्यिक संकट शुरू हो गया। कारख़ाने ठप्प हो गये, उनके मालिक दिवालिया हो गये तथा मज़दूरों को रोजी-रोटी से हाथ धोना पड़ा। भारी तंगहाली शुरू हुई। कुछ समय बाद अतिरिक्त माल बिक गया, कारख़ाने फिर चालू हो गये, मज़दूरी फिर बढ़ गयी, और धीरे-धीरे कारोबार पहले से कहीं अधिक तेज़ हो गया। लेकिन बहुत अधिक समय नहीं गुज़रा था कि फिर बहुत ही अधिक परिमाण में माल उत्पादित होने लगा जिससे एक और संकट शुरू हुआ और उसने भी पूर्ववर्ती संकट का रास्ता पकड़ा। इस प्रकार इस शताब्दी के आरम्भ से उद्योग की हालत बराबर समृद्धि के दौरों तथा संकट के दौरों के बीच झूलती रही; और इस तरह का संकट पाँच-सात साल के प्रायः नियमित अन्तरालों में पैदा होता रहा, हर बार वह अपने साथ मज़दूरों के लिए असहनीय विपत्तियाँ, आम क्रान्तिकारी उफ़ान, तथा पूरी मौजूदा व्यवस्था के लिए सबसे बड़ा संकट लाता गया।

प्रश्न 13: नियमित रूप से सामने आने वाले इन संकटों से क्या निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं?

उत्तर: पहला, अपने विकास की आरम्भिक मंज़िलों में बड़े पैमाने के उद्योग ने यद्यपि स्वयं मुक्त होड़ को जन्म दिया, पर अब मुक्त होड़ की परिधि उसके लिए छोटी पड़ गयी है; होड़ तथा सामान्यतया अलग-अलग व्यक्तियों द्वारा औद्योगिक उत्पादन का संचालन बड़े पैमाने के उद्योग के पाँवों में बेड़ियाँ बन गये हैं, जिन्हें उसे तोड़ना है तथा जिन्हें वह तोड़ देगा; बड़े पैमाने का उद्योग जब तक वर्तमान आधार पर संचालित होता रहेगा, वह हर सात साल बाद अपने को दोहराने वाली आम अव्यवस्था के ज़रिये ही ज़िन्दा रह सकता है, जो हर बार सर्वहाराओं को कष्टों के कुण्ड में झोंककर ही नहीं, वरन बहुत बड़ी तादाद में पूँजीपतियों को भी बरबाद कर पूरी सभ्यता को खतरे में डाल देता है; इसलिए या तो बड़े पैमाने के उद्योग का परित्याग करना होगा, जो सर्वथा असम्भव है, अथवा वह समाज का एक बिल्कुल नया संगठन सर्वथा आवश्यक बना देता है जिसमें एक-दूसरे से होड़ करने वाले पृथक-पृथक कारख़ानेदार नहीं, वरन पूरा समाज एक निश्चित योजना के अनुसार तथा सबकी आवश्यकताओं के अनुसार औद्योगिक उत्पादन का संचालन करे।

   दूसरा, बड़े पैमाने के उद्योग तथा उसके द्वारा सम्भव बनाये जाने वाले उत्पादन का असीम विकास ऐसी सामाजिक व्यवस्था को जन्म दे सकता है जिसमें जीवन की सभी आवश्यक वस्तुओं का इतना बड़ा उत्पादन होगा कि समाज का हर सदस्य अपनी सारी शक्तियों तथा योग्यताओं का पूर्णतम स्वतन्त्रता के साथ विकास तथा उपयोग करने में समर्थ होगा। इस तरह बड़े पैमाने के उद्योग का वह गुण, जो आज के समाज में सारी ग़रीबी तथा सारे व्यापार संकटों को जन्म देता है, ठीक वही गुण है जो एक भिन्न सामाजिक संगठन में उस दरिद्रता को तथा इन विनाशकारी उतार-चढ़ावों को नष्ट कर देगा।

अतः यह स्पष्टतया सिद्ध हो जाता है:

  1. अब से इन सारी बुराइयों के लिए उस सामाजिक व्यवस्था को उत्तरदायी ठहराया जा सकता है जो विद्यमान परिस्थितियों से मेल नहीं खाती।
  2. इन बुराइयों को एक नयी सामाजिक व्यवस्था की स्थापना के माध्यम से पूरी तरह मिटाने के साधन उपलब्ध हैं।

प्रश्न 14: यह नयी सामाजिक व्यवस्था किस तरह की होनी चाहिए?

उत्तर: सबसे पहले नयी सामाजिक व्यवस्था आम तौर पर उद्योग तथा उत्पादन की सभी शाखाओं के संचालन का काम अपने बीच होड़ करने वाले अलग-अलग व्यक्तियों के हाथों से छीनकर अपने हाथ में ले लेगी और फिर समूचे समाज की ओर से, अर्थात एक सामाजिक योजना के अनुसार तथा समाज के सभी सदस्यों की शिरकत के साथ उत्पादन की इन शाखाओं का संचालन करेगी। इस तरह वह होड़ का अन्त कर देगी तथा उसके स्थान पर साहचर्य को प्रतिष्ठित कर देगी। चूँकि अलग-अलग व्यक्तियों द्वारा उद्योग का संचालन अवश्यम्भावी रूप से निजी स्वामित्व की ओर ले जाता है और चूँकि होड़ उस तौर-तरीक़े के अलावा और कुछ नहीं है जिससे उद्योग को अलग-अलग निजी सम्पत्तिधारियों द्वारा संचालित किया जाता है, इसीलिए निजी स्वामित्व को उद्योग के वैयक्तिक संचालन तथा होड़ से पृथक नहीं किया जा सकता। इस कारण निजी स्वामित्व को मिटाना होगा तथा उसके स्थान पर उत्पादन के औज़ारों का समान उपयोग होगा तथा सभी वस्तुओं का वितरण समान सहमति से होगा, अथवा तथाकथित वस्तुओं की साझेदारी होगी। निजी स्वामित्व का उन्मूलन समूची सामाजिक व्यवस्था के रूपान्तरण की, जो उद्योग के विकास से अनिवार्यतः जन्म लेता है, सबसे अधिक संक्षिप्त तथा सबसे अधिक सामान्यीकृत अभिव्यक्ति है, इसलिए यह उचित ही है कि यह कम्युनिस्टों की मुख्य माँग बन गयी है।

प्रश्न 15: तो क्या इसका अर्थ यह हुआ कि निजी स्वामित्व का पहले उन्मूलन असम्भव था?

उत्तर: बिल्कुल ठीक। सामाजिक व्यवस्था में प्रत्येक परि‍वर्तन, स्वामित्व सम्बन्धों में होने वाली प्रत्येक क्रान्ति, पुराने स्वामित्व सम्बन्धों से मेल नहीं खाने वाली नयी उत्पादक शक्तियों के सृजन का अवश्यम्भावी परिणाम है। स्वयं निजी स्वामित्व का भी इसी प्रकार उद्भव हुआ। बात यह है कि निजी स्वामित्व हमेशा से तो विद्यमान नहीं रहा है; मध्य युग के अन्त के समय, जब मैन्युफ़ैक्चर के रूप में उत्पादन की नयी प्रणाली चालू हुई, जिसे उस समय मौजूद सामन्ती तथा शिल्प संघीय स्वामित्व के अधीन नहीं रखा जा सकता था तो मैन्युफ़ैक्चर ने, जो पुराने स्वामित्व सम्बन्धों की परिधि से बाहर निकल चुका था स्वामित्व के एक नये रूप का – निजी स्वामित्व का – सृजन किया। मैन्युफ़ैक्चर और बड़े पैमाने के उद्योग की पहली मंजिल के दौरान निजी स्वामित्व के अलावा स्वामित्व का और कोई रूप सम्भव ही नहीं था। निजी स्वामित्व की नींव पर आधारित व्यवस्था के अलावा समाज की और कोई व्यवस्था नहीं हो सकती थी। जब तक उत्पादन इतना पर्याप्त नहीं होता कि सबके लिए केवल आपूर्ति ही नहीं, बल्कि सामाजिक पूँजी की वृद्धि के लिए तथा उत्पादक शक्तियों के और आगे विकास के लिए भी वस्तुएँ बेशी मात्र में मुहैया करायी जा सकें, तब तक समाज की उत्पादक शक्तियों पर शासन करने वाला एक प्रभुत्वशाली वर्ग तथा एक ग़रीब, उत्पीड़ित वर्ग हमेशा बने रहेंगे। ये वर्ग किस तरह बनते हैं, यह उत्पादन के विकास की मंजिल पर निर्भर करेगा। मध्य युग में, जो कृषि पर आश्रित था, हमें भूस्वामी तथा भूदास मिलते हैं, उत्तर-मध्य युग के शहर हमारे सामने शिल्प संघ के उस्ताद-कारीगर, उसके शागिर्द तथा दिहाड़ी पर काम करने वाले मज़दूर को सामने लाते हैं; सत्रहवीं शताब्दी में मैन्युफ़ैक्चरर तथा मैन्युफ़ैक्चर मज़दूर; उन्नीसवीं शताब्दी में बड़े कारख़ानेदार तथा सर्वहारा सामने आते हैं। यह स्पष्ट है कि उत्पादक शक्तियाँ अभी तक इतनी व्यापक रूप से विकसित नहीं हो पायी थीं कि वे सबके लिए काफ़ी पैदा कर पातीं और निजी स्वामित्व को इन उत्पादक शक्तियों के लिए बेड़ियाँ, अवरोध बना सकतीं। परन्तु अब – जबकि बड़े पैमाने के उद्योग के विकास ने पहले, पूँजी तथा उत्पादक शक्तियों का अभूतपूर्व पैमाने पर सृजन कर दिया है तथा इन उत्पादक शक्तियों को अत्यल्प समय में अनवरत रूप से विकसित करने वाले साधन विद्यमान हैं; जबकि दूसरे, ये उत्पादक शक्तियाँ चन्द पूँजीपतियों के हाथों में संकेन्द्रित हैं और उधर बहुत बड़ा जन-समुदाय अधिकाधिक संख्या में सर्वहारा की क़तारों में पहुँचता जा रहा है और उसकी हालत उसी मात्र में अधिकाधिक दयनीय तथा असह्य होती जा रही है जिस मात्र में बुर्जुआ वर्ग की दौलत बढ़ती जाती है; जबकि तीसरे, ये शक्तिशाली तथा सुगम ढंग से विकसित होने वाली उत्पादक शक्तियाँ निजी स्वामित्व तथा बुर्जुआ वर्ग से इतनी अधिक बढ़ चुकी हैं कि वे सामाजिक व्यवस्था के अन्दर प्रचण्ड उथल-पुथल पैदा कर रही हैं – निजी स्वामित्व को मिटाना सम्भव ही नहीं, बल्कि नितान्त अनिवार्य भी हो गया है।

प्रश्न 16: क्या निजी स्वामित्व को शान्तिपूर्ण उपायों से मिटाना सम्भव होगा?

उत्तर: वांछनीय तो यही है और निश्चय ही कम्युनिस्ट आख़िरी लोग होंगे जो इसका विरोध करेंगे। कम्युनिस्ट बहुत अच्छी तरह जानते हैं कि षड्यन्त्र निरर्थक ही नहीं, हानिप्रद तक होते हैं। वे बहुत अच्छी तरह जानते हैं कि क्रान्तियाँ जानबूझकर और मनमाने ढंग से नहीं रची जातीं, वे तो सर्वत्र और सर्वदा उन परिस्थितियों का अवश्यम्भावी परिणाम थीं जो अलग-अलग पार्टियों तथा पूरे के पूरे वर्गों की इच्छा और नेतृत्व से पूर्णतः स्वतन्त्र थीं। परन्तु वे यह भी देखते हैं कि सर्वहारा वर्ग के विकास को लगभग हर सभ्य देश में बलपूर्वक कुचल दिया जाता है तथा कम्युनिस्टों के विरोधी इस तरह क्रान्ति को बढ़ावा देने वाले हर तरह के काम करते हैं। यदि उत्पीड़ित सर्वहारा वर्ग को अन्ततः क्रान्ति में धकेल दिया जाता है तो हम कम्युनिस्ट तब सर्वहाराओं के ध्येय की रक्षा अपनी करनी से उसी तरह करेंगे जिस तरह इस समय कथनी से करते हैं।

प्रश्न 17: क्या निजी स्वामित्व को एक ही झटके में मिटाना सम्भव है?

उत्तर: नहीं, यह उसी तरह असम्भव है जिस तरह एक ही झटके में मौजूदा उत्पादक-शक्तियों को उतनी मात्र में बढ़ाना असम्भव है, जो समुदाय का निर्माण करने के लिए आवश्यक है। इसलिए सर्वहारा क्रान्ति, जो सारी सम्भावनाओं को देखते हुए समीप आती जा रही है, मौजूदा समाज को धीरे-धीरे ही रूपान्तरित कर सकेगी और वह निजी स्वामित्व को तभी मिटा सकेगी जब उत्पादन के साधनों का आवश्यक परिमाण में निर्माण हो जायेगा।

प्रश्न 18: इस क्रान्ति का विकास का क्रम कैसा होगा?

उत्तर: पहले तो वह एक जनवादी व्यवस्था को और इस प्रकार प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सर्वहारा के राजनीतिक शासन को स्थापित करेगी। प्रत्यक्ष रूप से इंग्लैण्ड में, जहाँ सर्वहारा इस समय भी आबादी की बहुसंख्या है। परोक्ष रूप से फ्रांस तथा जर्मनी में, जहाँ लोगों के बहुलांश में सर्वहाराओं के अतिरिक्त ऐसे छोटे किसान तथा पूँजीपति भी आते हैं जिनका इस समय सर्वहाराकरण हो रहा है, और जो अपने हितार्थ सर्वहारा पर अधिकाधिक आश्रित होते जा रहे हैं और इसलिए जिन्हें शीघ्र ही सर्वहारा की माँगों के आगे झुकना होगा। इसके लिए शायद एक और संघर्ष ज़रूरी हो, जिसका अन्त सिर्फ़ सर्वहारा वर्ग की विजय में होगा।

   यदि जनवाद को सीधे निजी स्वामित्व पर प्रहार करने तथा सर्वहारा का अस्तित्व सुनिश्चित करने के लिए कार्रवाइयाँ सम्पन्न करने के साधन के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जाता तो वह सर्वहारा के लिए बिल्कुल बेकार होगा। इन कार्रवाइयों में, जो इस समय भी विद्यमान सम्बन्धों के परिणाम हैं, मुख्य निम्नलिखित हैं,

  1. वर्द्धमान आयकरों, ऊँचे उत्तराधिकार करों, सगोत्रीय वंशानुक्रम (भाई, भतीजे आदि) के उत्तराधिकार के उन्मूलन, अनिवार्य ऋण, आदि साधनों से निजी स्वामित्व को सीमित करना।
  2. अंशतः राजकीय उद्योग की ओर से होड़ के ज़रिये तथा अंशतः करेंसी नोटों में मुआवज़े की अदायगी के ज़रिये भूस्वामियों, कारख़ानेदारों, रेलों और जहाज़ों के स्वामियों का क्रमिक स्वत्वहरण करना।
  3. बहुसंख्यक जनता के ख़िलाफ़ विद्रोह करने वालों तथा उत्प्रवासियों की सम्पत्ति को ज़ब्त कर लेना।
  4. राष्ट्रीय जमीनों पर, राष्ट्रीय कारख़ानों तथा वर्कशापों में सर्वहाराओं के श्रम या व्यवसाय का संगठन करना तथा इस प्रकार स्वयं मज़दूरों के बीच होने वाली होड़ का अन्त कर देना तथा जब तक कारख़ानेदार मौजूद रहते हैं, तब तक उन्हें उतनी ही ऊँची मज़दूरी देने के लिए बाध्य करना, जितनी राज्य देता है।
  5. निजी स्वामित्व का पूर्ण उन्मूलन होने तक समाज के सभी सदस्यों के लिए काम करने की समान अनिवार्यता। औद्योगिक सेनाओं का गठन, विशेष रूप से कृषि के लिए।
  6. राजकीय पूँजी वाले राष्ट्रीय बैंक के माध्यम से तथा समस्त निजी बैंकों बैंकपतियों पर पाबन्दी लगाकर ऋण तथा बैंक कार्यप्रणाली का राज्य के हाथों में केन्द्रीकरण।
  7. जिस अनुपात में राष्ट्र के पास मौजूद पूँजी की मात्र तथा श्रमिकों की संख्या बढ़ती है, उसी अनुपात में राष्ट्रीय कल-कारख़ानों, वर्कशापों, रेलों और जलपोतों की संख्या में वृद्धि करना, सारी बिना जोती ज़मीन को काश्त में लाना तथा पहले से जोती ज़मीन में सुधार करना।
  8. सभी बच्चों को, ज्योंही वे इतने बड़े हो जायें कि उन्हें माँ की देखभाल की ज़रूरत न रहे, राष्ट्रीय संस्थानों में तथा राष्ट्रीय ख़र्च पर शिक्षा; शिक्षा उत्पादन से जुड़ी हो।
  9. उद्योग और साथ ही कृषि में काम करने वाले नागरिकों के समुदायों के लिए राष्ट्रीय जमीनों पर साझे आवासगृहों के रूप में बड़े-बड़े प्रासादों का निर्माण तथा शहरी और देहाती जीवन के लाभों को इस तरह संयोजित करना कि नागरिकों को उनमें से किसी एक की एकांगिता तथा असुविधाएँ न झेलनी पड़ें।
  10. सभी अस्वास्थ्यकर तथा कुनिर्मित मकानों तथा मुहल्लों को गिरा देना।
  11. नाजायज़ तथा जायज़ बच्चों द्वारा उत्तराधिकार का समान रूप से उपभोग।
  12. परिवहन के सभी साधनों का राष्ट्र के हाथों में संकेन्द्रण।

निस्सन्देह ये सारी कार्रवाइयाँ फ़ौरन लागू नहीं की जा सकतीं। परन्तु एक हमेशा दूसरे को जन्म देगी। निजी स्वामित्व पर एक बार पहला मूलगामी आघात हुआ नहीं कि, सर्वहारा और आगे बढ़ने तथा राज्य के हाथों में सारी पूँजी, सारी कृषि, सारे उद्योग, सारे परिवहन, विनिमय के सारे साधनों को संकेन्द्रित करने के लिए ख़ुद को बाध्य पायेगा। ये सब कार्रवाइयाँ ऐसे परिणाम की तरफ़ ले जाती हैं; और देश की उत्पादक शक्तियाँ सर्वहारा के श्रम से जिस अनुपात में बढ़ती जायेंगी ये कार्रवाइयाँ उतनी ही साध्य होती जायेंगी और केन्द्रीकरण करने वाले उनके परिणामों का विकास होता जायेगा। अन्ततः जब सारी पूँजी, सारे उत्पादन और सारे विनिमय का राष्ट्र के हाथों में संकेन्द्रण हो जायेगा, तो निजी स्वामित्व का अस्तित्व अपनेआप मिट जायेगा, मुद्रा अनावश्यक हो जायेगी तथा उत्पादन इतना बढ़ जायेगा और लोग इतने बदल जायेंगे कि पुराने सामाजिक सम्बन्धों के अन्तिम रूप तक धराशायी हो सकेंगे।

प्रश्न 19: क्या यह सम्भव है कि यह क्रान्ति अकेले एक ही देश में सम्पन्न हो?

उत्तर: नहीं। बड़े पैमाने के उद्योग ने विश्व मण्डी का पहले ही निर्माण कर पृथ्वी के समस्त जनगण तथा विशेष रूप से सभ्य जनगण को इस तरह सूत्रबद्ध कर दिया है कि हर जनसमुदाय  दूसरे के साथ घटित होने वाली बातों पर निर्भर होता है। इसके अतिरिक्त बड़े पैमाने के उद्योग ने सभी सभ्य देशों का सामाजिक विकास को इस धरातल पर ला दिया है कि इन सभी देशों में पूँजीपति तथा सर्वहारा समाज के दो निर्णायक वर्ग बन गये हैं तथा उनके बीच संघर्ष आज का मुख्य संघर्ष बन चुका है। अतएव कम्युनिस्ट क्रान्ति सिर्फ राष्ट्रीय क्रान्ति ही नहीं होगी, वह सभी सभ्य देशों में, अर्थात कम से कम इंग्लैण्ड, अमेरिका, फ्रांस तथा जर्मनी में एक साथ सम्पन्न होगी[59]। इनमें से हर देश में उसे विकसित होने में अधिक या कम समय लगेगा, जो इस बात पर निर्भर करेगा कि किसके पास अधिक विकसित उद्योग, अधिक दौलत तथा उत्पादक शक्तियों की अधिक मात्र है। इसलिए जर्मनी में उसकी सबसे धीमी गति होगी तथा उसे सम्पन्न करना सबसे कठिन होगा; इंग्लैण्ड में वह सबसे शीघ्र तथा सुगमतापूर्वक सम्पन्न होगी। वह विश्व के अन्य देशों पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव डालेगी और उनके विकास के अब तक विद्यमान तरीक़े को पूरी तरह बदल देगी तथा उसके रफ्तार को बहुत तेज़ कर देगी। यह एक विश्व-व्यापी क्रान्ति है और इसलिए पूरा संसार उसका रंगमंच बनेगा।

प्रश्न 20: निजी स्वामित्व के अन्तिम उन्मूलन के क्या परिणाम होंगे?

उत्तर: निजी पूँजीपति सभी उत्पादक शक्तियों, संचार के साधनों, साथ ही उत्पादित वस्तुओं के विनिमय तथा वितरण का जो उपयोग करते हैं, उसका समाज द्वारा हस्तगतकरण तथा उपलब्ध साधनों और समग्र रूप में समाज की आवश्यकताओं पर आधारित एक योजना के अनुसार समाज द्वारा उनका प्रबन्ध सबसे पहले उन कुपरिणामों का उन्मूलन कर देंगे जो बड़े पैमाने के उद्योग में आज अपरिहार्य हैं। संकट ख़त्म हो जायेंगे; विस्तारित उत्पादन, जिसके परिणामस्वरूप समाज की वर्तमान व्यवस्था में अति उत्पादन होता है तथा जो दरिद्रता का इतना सशक्त कारण है, तब पर्याप्त नहीं रह जायेगा और उसे आगे विस्तारित करना पड़ेगा। समाज की तात्कालिक आवश्यकताओं से अधिक अतिरिक्त उत्पादन अपने साथ दरिद्रता लाने के बजाय सबकी ज़रूरतें पूरी करेगा, नयी ज़रूरतें और उसके साथ ही उनकी पूर्ति के नये साधन पैदा करेगा। वह और अधिक प्रगति की शर्त तथा प्रेरक शक्ति बन जायेगा, प्रगति करते समय वह पूरी सामाजिक व्यवस्था को अस्त-व्यस्त नहीं करेगा जैसाकि अब तक हमेशा होता आया है। निजी स्वामित्व के जुवे से एक बार मुक्त हो चुकने के बाद बड़े पैमाने का उद्योग इतने बड़े पैमाने पर विकसित होगा कि उसके सामने उसके विकास का वर्तमान स्तर उसी तरह तुच्छ लगने लगेगा जिस तरह हमारे ज़माने में बड़े उद्योग की तुलना में मैन्युफ़ैक्चर प्रणाली तुच्छ लगती है। उद्योग का यह विकास समाज को इतनी मात्र में वस्तुएँ मुहैया करायेगा कि वे सबकी आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए पर्याप्त होंगी। कृषि भी, जिसे निजी स्वामित्व का दबाव तथा ज़मीन का विखण्डन उपलब्ध सुधारों तथा वैज्ञानिक उपलब्धियों का उपयोग करने से रोके हुए थे, नयी उन्नति करेगी और समाज को प्रचुर मात्र में उत्पाद उपलब्ध करायेगी। इस तरह समाज इतने पर्याप्त उत्पाद पैदा करेगा कि जिससे ऐसा वितरण किया जा सके, जो उसके सारे सदस्यों की आवश्यकता की पूर्ति कर दे। इससे समाज का विभिन्न विरोधी वर्गों में विभाजन अनावश्यक हो जायेगा। वह सिर्फ अनावश्यक ही नहीं, अपितु एक नयी सामाजिक व्यवस्था के साथ असंगत भी होगा। वर्ग श्रम- विभाजन के जरिये अस्तित्व में आये थे और अपने मौजूदा स्वरूप में श्रम विभाजन पूरी तरह विलुप्त हो जायेगा। औद्योगिक तथा कृषि उत्पादन को वर्णित ऊँचाइयों तक विकसित करने के लिए यान्त्रिक तथा रासायनिक साधन ही काफ़ी नहीं होंगे, इन साधनों का उपयोग करने वाले लोगों की योग्यता भी उतनी ही विकसित होनी चाहिए। जिस तरह पिछली शताब्दी में बड़े पैमाने के उद्योग के अन्तर्गत लाये गये किसानों तथा मैन्युफ़ैक्चर मज़दूरों को अपने जीवन का पूरा रंग-ढंग बदलना पड़ा था, और वे स्वयं बिल्कुल भिन्न प्रकार के लोग बन गये थे, ठीक उसी तरह समग्र रूप से समाज द्वारा उत्पादन का संयुक्त संचालन तथा फलस्वरूप उत्पादन का नया विकास बिल्कुल भिन्न लोगों की अपेक्षा करते हैं तथा उनका सृजन भी करेंगे। उत्पादन का संयुक्त संचालन ऐसे लोगों द्वारा – जिस रूप में वे आज हैं – नहीं किया जा सकता जिसमें हर व्यक्ति उत्पादन की किसी एक शाखा से सम्बन्धित है, उससे बँधा हुआ है, उस द्वारा शोषित किया जाता है, जिनमें से हर एक अपनी अन्य सभी योग्यताओं को कुण्ठित कर अपनी केवल एक ही योग्यता का विकास करता है, जो पूरे उत्पादन की केवल एक ही शाखा अथवा एक शाखा के एक ही भाग के काम आती है। समकालीन उद्योग तक के लिए ऐसे लोगों की आवश्यकता कम होती जाती है। जो उद्योग पूरे समाज द्वारा संयुक्त रूप से तथा एक योजना के अनुसार संचालित होता हो, उसके लिए ऐसे लोगों की दरकार है जिनकी योग्यताओं का सर्वतोमुखी विकास हो, जो उत्पादन की समूची प्रणाली का सर्वेक्षण करने की क्षमता रखते हों। फलस्वरूप श्रम विभाजन, जिसकी जड़ें मशीनी व्यवस्था पहले ही खोद चुकी है, जो एक व्यक्ति को किसान, दूसरे को मोची, तीसरे को मज़दूर, चौथे को शेयर मार्केट का सट्टेबाज़ बनाती है, इस प्रकार पूर्णतया लुप्त हो जायेगा। शिक्षा नौजवानों को इस योग्य बनायेगी कि वे उत्पादन की पूरी प्रणाली से शीघ्रतापूर्वक परिचित हो सकेंगे, वह उन्हें सामाजिक आवश्यकताओं अथवा उनके स्वयं की रुचियों के अनुसार बारी-बारी से उद्योग की एक शाखा से दूसरी शाखा में प्रवेश करने में समर्थ बनायेगी। अतः, वह उन्हें विकास के उस एकांगीपन से मुक्त कर देगी जिसे वर्तमान श्रम विभाजन ने उन पर थोप रखा है।  इस प्रकार कम्युनिस्ट ढंग से संगठित समाज अपने सदस्यों को व्यापक रूप से विकसित अपनी योग्यताओं को व्यापक ढंग से उपयोग में लाने का सुअवसर प्रदान करेगा। इसके साथ  ही विभिन्न वर्ग अनिवार्यतः विलुप्त हो जायेंगे। इस प्रकार, कम्युनिस्ट ढंग से संगठित समाज, एक ओर, वर्गों के अस्तित्व से मेल नहीं खाता तथा दूसरी ओर, इस समाज का निर्माण ही इन वर्ग विभेदों को मिटाने के साधन मुहैया कराता है।

इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि शहर तथा देहात के बीच अन्तर भी इसी प्रकार विलुप्त हो जायेगा। दो भिन्न वर्गों के बजाय एक-से लोगों द्वारा कृषि तथा औद्योगिक उत्पादन का कार्य किया जाना – भले ही विशुद्ध भौतिक कारणों से ही – कम्युनिस्ट साहचर्य के लिए एक अनिवार्य शर्त है। बड़े शहरों में औद्योगिक आबादी के जमाव के साथ-साथ कृषक आबादी का देशभर में बिखराव कृषि तथा उद्योग की अविकसित मंजिल के ही अनुकूल है, वह आगे के विकास की, जो इस समय भी अपने को अत्यधिक प्रत्यक्ष करता जा रहा है, राह में एक बाधा है।

उत्पादक शक्तियों के समान तथा नियोजित उपयोग के लिए समाज के सभी सदस्यों का आम साहचर्य; इस हद तक उत्पादन का विकास कि वह सबकी आवश्यकताएँ पूरी कर सके; ऐसी अवस्था की समाप्ति, जिसमें कुछ लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति दूसरों की क़ीमत पर होती हो; वर्गों तथा उनके विरोधों का पूर्ण उन्मूलन; अब तक प्रचलित श्रम-विभाजन के उन्मूलन द्वारा, औद्योगिक शिक्षा द्वारा, गतिविधियों के परिवर्तन द्वारा, सभी के सर्जित वरदानों में सबकी सहभागिता द्वारा, शहर तथा देहात के परस्पर विलय द्वारा समाज के सभी सदस्यों की योग्यताओं का सर्वतोमुखी विकास – ऐसे हैं निजी स्वामित्व के उन्मूलन के मुख्य फल।

प्रश्न 21: समाज की कम्युनिस्ट ढंग की व्यवस्था का परिवार पर क्या प्रभाव पड़ेगा?

उत्तर: वह पुरुषों तथा स्त्रियों के बीच सम्बन्धों को विशुद्ध रूप से निजी मामला बना देगी जिसका केवल सम्बन्धित व्यक्तियों से सरोकार होगा तथा जो समाज से किसी भी तरह के हस्तक्षेप की अपेक्षा नहीं करेगा। यह निजी स्वामित्व के उन्मूलन तथा बच्चों के सार्वजनिक शिक्षा की बदौलत सम्भव होगा। इस तरह प्रचलित विवाह प्रणाली की दोनों आधारशिलाएँ नष्ट कर दी जाती हैं – निजी स्वामित्व के माध्यम से पत्नी का अपने पति पर तथा बच्चों की अपने माँ-बाप पर निर्भरता। पत्नियों के कम्युनिस्टों द्वारा समाजीकरण के विरुद्ध नैतिकता का उपदेश झाड़ने वाले कूपमण्डूकों की चिल्ल-पों का यह उत्तर है। पत्नियों का समाजीकरण ऐसा सम्बन्ध है जो पूरी तरह बुर्जुआ समाज का चारित्रिक लक्षण है और आज वेश्यावृत्ति की शक्ल में आदर्श रूप में विद्यमान है। परन्तु वेश्यावृत्ति की जड़ें तो निजी स्वामित्व के अन्दर हैं और वह उसके साथ ही मिटेगी। इसलिए कम्युनिस्ट ढंग का संगठन पत्नियों के समाजीकरण की स्थापना के बजाय इसका अन्त कर देगा।

प्रश्न 22: विद्यमान जातियों के प्रति कम्युनिस्ट ढंग के संगठन का क्या रुख़ होगा?

वही[60]

प्रश्न 23: विद्यमान धर्मों के प्रति उसका क्या रुख़ होगा?

वही

प्रश्न 24: कम्युनिस्ट समाजवादियों से किस मायने में भिन्न हैं?

उत्तर: तथाकथित समाजवादियों को तीन समूहों में बाँटा जा सकता है।

पहले समूह में उस सामन्ती तथा पितृसत्तात्मक समाज के समर्थक आते हैं, जो बड़े पैमाने के उद्योग तथा विश्व व्यापार द्वारा और बुर्जुआ समाज द्वारा, जिसे इन दोनों ने जन्म दिया है, नष्ट किया जा चुका है या अब भी नित्यप्रति किया जा रहा है। वर्तमान समाज के मौजूद कष्टों से यह समूह निष्कर्ष निकालता है कि सामन्ती तथा पितृसत्तात्मक समाज की फिर से स्थापना होनी चाहिए क्योंकि वह इन कष्टों से मुक्त था। उनके सारे प्रस्ताव प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इसी ओर लक्षित हैं। सर्वहारा के दुख-कष्टों के लिए उसकी दिखाऊ सहानुभूति तथा उन पर घड़ियाली आँसू बहाने के बावजूद प्रतिक्रियावादी समाजवादियों के इस समूह का कम्युनिस्ट इन कारणों से डटकर विरोध करेंगे:

  1. वे ऐसी चीज़ की कामना करते हैं जो सर्वथा असम्भव है;
  2. वे अभिजात वर्ग, शिल्प संघों के उस्तादों तथा मैन्युफ़ैक्चररों और उनके सारे अमले चाकर – निरंकुश अथवा सामन्ती राजाओं, पदाधिकारियों, सैनिकों, पुरोहित-पादरियों के राज को, ऐसे समाज को फिर से क़ायम करना चाहते हैं, जो वर्तमान समाज की ख़ामियों से मुक्त होने के बावजूद अपने ही अनेकानेक कष्टों से ग्रस्त था और जिसमें उत्पीड़ित मज़दूरों को कम्युनिस्ट ढंग के संगठन से मुक्त करने की कोई सम्भावना नहीं थी;
  3. वे अपने असल इरादों को हमेशा उस समय प्रकट करते हैं जब सर्वहारा क्रान्तिकारी तथा कम्युनिस्ट बन जाता है; उस दशा में वे तुरन्त सर्वहारा के विरुद्ध हमेशा बुर्जुआ वर्ग के साथ हो जाते हैं।

दूसरा समूह वर्तमान समाज के पक्षधरों को लेकर बना है। इस समाज की व्याधियों ने, जो उसके अवश्यम्भावी परिणाम हैं, उनमें उसके अस्तित्व के लिए चिन्ता पैदा कर दी है। अतः वे इस चीज़ के लिए प्रयत्नशील रहते हैं कि वर्तमान समाज से जुड़ी हुई व्याधियों का तो अन्त कर दिया जाये परन्तु इस समाज को अक्षुण्ण रखा जाये। इसके लिए उनमें से कुछ विविध कल्याणकारी उपाय सुझाते हैं तो दूसरे विराट सुधार प्रणालियों की वकालत करते हैं जो समाज के पुनर्गठन के बहाने वर्तमान समाज की आधारशिलाओं को और इस तरह स्वयं समाज को क़ायम रखेंगी। कम्युनिस्टों को इन बुर्जुआ समाजवादियों का निरन्तर विरोध करना होगा क्योंकि वे कम्युनिस्टों के दुश्मनों के हितार्थ काम करते हैं तथा उस समाज की रक्षा कर रहे हैं जिसे कम्युनिस्ट नष्ट करने के लिए कटिबद्ध हैं।

आख़िर में, तीसरा समूह जनवादी समाजवादियों को लेकर बना है, जो कम्युनिस्टों की ही तरह प्रश्न—ऽ में उल्लिखित कार्रवाइयों को अंशतः चाहते हैं, परन्तु वे कम्युनिज़्म में संक्रमण के साधन के रूप में नहीं, वरन वर्तमान समाज की दरिद्रता तथा दुख-कष्टों का अन्त करने के उपाय के रूप में चाहते हैं। ये जनवादी समाजवादी या तो सर्वहारा हैं जिन्हें अपने वर्ग की मुक्ति की अवस्थाओं के बारे में पर्याप्त ज्ञान नहीं हुआ है, अथवा वे निम्न-बुर्जुआ वर्ग के, एक ऐसे वर्ग के प्रतिनिधि हैं जिसके हित जनवाद के हासिल होने तथा उससे सम्बन्धित समाजवादी कार्रवाइयों के पूर्ण होने तक कई मामलों में सर्वहारा वर्ग के हितों के सदृश रहते हैं। अतः कार्रवाई करने के मौक़ों पर कम्युनिस्टों को जनवादी समाजवादियों के साथ समझौता करना पड़ेगा तथा जब सम्भव हो, उनके साथ कम से कम कुछ समय तक, जब तक ये समाजवादी सत्ताधारी बुर्जुआ वर्ग की चाकरी नहीं करने लगते तथा कम्युनिस्टों पर प्रहार नहीं करते, आमतौर पर एक समान नीति का पालन करना पड़ेगा। यह स्पष्ट है कि यह साझा कार्रवाई उनके साथ मतभेदों पर बहस करने की सम्भावना को ख़ारिज नहीं करती।

प्रश्न 25: आज (1847 – स.) की अन्य पार्टियों के प्रति कम्युनिस्टों का क्या रुख़ है?

उत्तर: यह रुख़ अलग-अलग देशों के अनुसार अलग-अलग है। इंग्लैण्ड, फ्रांस तथा बेल्जियम में, जहाँ बुर्जुआ वर्ग का शासन है, फ़िलहाल कम्युनिस्टों और विभिन्न जनवादी पार्टियों के समान हित हैं, ये जनवादी जिन समाजवादी कार्रवाइयों की इस समय सर्वत्र वकालत कर रहे हैं, उनमें कम्युनिस्टों के लक्ष्यों के जितने ही समीप वे आते हैं, अर्थात सर्वहारा वर्ग के हितों की जितनी अधिक स्पष्टता और जितनी अधिक निश्चितता के साथ समर्थन करते हैं और जितना अधिक वे सर्वहारा वर्ग का सहारा लेते है, उनके हितों का यह साम्य उतना ही अधिक होगा। उदाहरण के लिए इंग्लैण्ड में चार्टिस्ट, जो सभी मज़दूर हैं, जनवादी निम्न-पूँजीपतियों अथवा तथाकथित उग्रवादियों की तुलना में कम्युनिस्टों के अधिक निकट हैं।

अमेरिका में जहाँ जनवादी संविधान प्रचलित हो चुका है, कम्युनिस्टों को उस पार्टी का पक्ष लेना चाहिए जो इस संविधान को बुर्जुआ वर्ग के विरुद्ध लागू करेगी तथा उसे सर्वहारा वर्ग के हित में इस्तेमाल करेगी, अर्थात उन्हें राष्ट्रीय कृषि सुधारकों का पक्ष लेना होगा।

स्विट्ज़रलैण्ड में आमूल परिवर्तनवादी हालाँकि अब भी बहुत ही मिली-जुली पार्टी के लोग हैं, फिर भी केवल वे ही ऐसे लोग हैं जिनके साथ कम्युनिस्ट समझौता कर सकते हैं, और इन आमूल परिवर्तनवादियों के बीच वोद तथा जेनेवा के आमूल परिवर्तनवादी सबसे प्रगतिशील हैं।

आख़िर में जर्मनी आता है, जहाँ बुर्जुआ वर्ग तथा राजतन्त्र के बीच निर्णायक संघर्ष अभी दूर है। परन्तु कम्युनिस्ट चूँकि बुर्जुआ वर्ग के सत्ता में आने के बाद ही उसके विरुद्ध निर्णायक संघर्ष करने के भरोसे नहीं बैठे रह सकते, इसलिए यह कम्युनिस्टों के ही हित में है कि वे बुर्जुआ वर्ग को शीघ्रातिशीघ्र सत्ता हासिल करने में मदद दें ताकि उसे जितनी जल्दी सम्भव हो, पलटा जा सके। अतः कम्युनिस्टों को हमेशा सरकारों के ख़िलाफ़ उदारवादी बुर्जुआओं का साथ देना चाहिए परन्तु इस बारे में उन्हें सतर्क रहना चाहिए कि वे बुर्जुआ वर्ग की ही तरह आत्मवंचना के शिकार न बन जायें अथवा बुर्जुआ वर्ग की इन लुभावनी घोषणाओं पर विश्वास न करने लगें कि उसकी विजय से सर्वहारा के लिए लाभदायी फल निकलेंगे। बुर्जुआ वर्ग की विजय से कम्युनिस्टों को मात्र ये लाभ हो सकते हैं: 1. विभिन्न रियायतें, जो कम्युनिस्टों के लिए अपने सिद्धान्तों की रक्षा, उन पर विचार-विमर्श तथा उनके प्रसार को अधिक सुगम बनायेंगी तथा इस प्रकार सर्वहारा का एक ठोस, संघर्षशील तथा सुसंगठित वर्ग में एकीकरण को सुगम बनायेंगी; और 2. यह सुनिश्चित हो जायेगा कि जिस दिन निरंकुश सरकारों का तख़्ता पलट जायेगा, उस दिन से  पूँजीपतियों तथा सर्वहाराओं के बीच संघर्ष की बारी आ जायेगी। और उस दिन से ही कम्युनिस्टों की पार्टी नीति वही होगी जो उन देशों में है जहाँ बुर्जुआ वर्ग अभी सत्तारूढ़ है।

एंगेल्स द्वारा अक्टूबर –                            अंग्रेज़ी से अनूदित।

नवम्बर, 1847 में लिखित।

पहली बार 1914 में

पृथक रूप में प्रकाशित।

टिप्‍पणियां

[1] कम्युनिस्ट लीग – सर्वहारा का पहला अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट संगठन, जिसकी स्थापना 1847 के जून में मार्क्स तथा एंगेल्स के नेतृत्व में हुई। कम्युनिस्ट लीग ने पुराने, वर्गों के परस्पर विरोध पर आधारित बुर्जुआ समाज के उन्मूलन और वर्गों तथा निजी स्वामित्व से मुक्त नये समाज की स्थापना को अपना लक्ष्य बनाया। उसके निर्देश पर मार्क्स और एंगेल्स ने ‘कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र’ लिखा। कम्युनिस्ट लीग ने सर्वहारा क्रान्तिकारियों के शिक्षा केन्द्र और सर्वहारा पार्टी के भ्रूण तथा पहले इण्टरनेशनल के पूर्ववर्ती के रूप में महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक भूमिका निभायी। नवम्बर, 1852 में लीग भंग कर दी गयी।

[2] यहाँ इशारा फ्रांस में 1848 की फ़रवरी क्रान्ति की ओर है।

[3] द रेड रिपब्लिकन (लाल गणतन्त्रवादी) – लन्दन में जून से नवम्बर, 1850 तक जॉर्ज जूलियन हॉर्नी द्वारा प्रकाशित चार्टिस्ट साप्ताहिक। उसके अंक 21-24 में घोषणापत्र संक्षिप्त रूप में प्रकाशित हुआ था।

[4] यहाँ इशारा पेरिस के मज़दूरों के 23-26 जून, 1848 के शौर्यपूर्ण विद्रोह की ओर है, जिसे फ्रांसीसी बुर्जुआओं ने घोर पाशविकता के साथ कुचल दिया। यह विद्रोह सर्वहारा तथा बुर्जुआ के बीच पहला बड़ा गृहयुद्ध था।

[5] ल सोशलिस्ट (समाजवादी) – न्यूयार्क में अक्टूबर, 1871 से मई, 1873 तक फ्रांसीसी भाषा में प्रकाशित साप्ताहिक पत्र। वह इण्टरनेशनल के उत्तर-अमरीकी संघ की फ्रांसीसी शाखा का मुखपत्र था। हेग कांग्रेस के बाद इस पत्र ने इण्टरनेशनल से अपना नाता तोड़ लिया। कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र का उल्लिखित फ्रांसीसी अनुवाद इस पत्र में जनवरी-मार्च, 1872 में प्रकाशित हुआ था।

[6] यहाँ इशारा कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र के प्रथम रूसी संस्करण की ओर है, जो 1869 में जेनेवा में प्रकाशित हुआ था। यह बाकुनिन का अनुवाद था, जिसमें उन्होंने कुछ अंशों को तोड़-मरोड़ दिया था। पहले संस्करण की त्रुटियाँ जेनेवा में 1882 में प्रकाशित संस्करण से निकाल दी गयीं। यह अनुवाद प्लेख़ानोव ने किया था। इसी संस्करण ने घोषणापत्र में निहित विचारों के रूस में व्यापक प्रसार की शुरुआत की नींव रखी।

[7] 1871 का पेरिस कम्यून – पेरिस में सर्वहारा क्रान्ति द्वारा स्थापित मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी सरकार; यह इतिहास में सर्वहारा अधिनायकत्व के निर्माण का पहला अनुभव था। पेरिस कम्यून 18 मार्च से 28 मई, 1871 तक, 72 दिन टिका रहा।

[8] का. मार्क्स, फ्रे. एंगेल्स, संकलित रचनाएँ, तीन खण्डों में, खण्ड 2, भाग 1, हिन्दी संस्करण, प्रगति प्रकाशन, मास्को, 1977, पृष्ठ 285 – स.

[9] यहाँ तथा 1888 के अंग्रेज़ी संस्करण के लिए एंगेल्स द्वारा लिखी गयी भूमिका में घोषणापत्र के पहले रूसी अनुवाद के प्रकाशन की तारीख सही नहीं है।

[10] यहाँ इशारा ‘स्वतन्त्र रूसी मुद्रणालय’ की ओर है, जो कोलोकोल (‘घण्टा’) छापा करता था। इस क्रान्तिकारी-जनवादी समाचारपत्र को रूसी प्रवासी क्रान्तिकारी अलेक्सान्द्र हज़ेर्न तथा निकोलाई ओगार्योव रूसी में प्रकाशित करते थे। हज़ेर्न द्वारा स्थापित यह मुद्रणालय 1865 तक लन्दन में रहा, फिर उसे जेनेवा स्थानान्तरित किया गया। 1869 में इस मुद्रणालय ने घोषणापत्र का रूसी संस्करण प्रकाशित किया था। देखें टिप्पणी 6।

[11] लेखक यहाँ 1879 में स्थापित नरोदनाया वोल्या (जनता की आज़ादी) नामक गुप्त रूसी क्रान्तिकारी संगठन के सदस्यों द्वारा 1 मार्च, 1881 को रूसी सम्राट अलेक्सान्द्र द्वितीय की हत्या के बाद रूस में पैदा हुई स्थिति की चर्चा कर रहे हैं। उसका उत्तराधिकारी अलेक्सान्द्र तृतीय नरोदनाया वोल्या की गुप्त कार्यकारी समिति द्वारा और ज़्यादा आतंकवादी कार्रवाइयाँ किये जाने के डर से पीटर्सबर्ग के निकट स्थित गातचिना से बाहर नहीं निकलता था।

[12] ग्राम समुदाय – स.

[13] मार्क्स का निधन 14 मार्च, 1883 को लन्दन में हुआ था।

[14] बाद में मैंने अंग्रेज़ी अनुवाद की भूमिका में लिखा था, “मेरी राय में यह प्रस्थापना इतिहास के क्षेत्र में अवश्यम्भावी रूप से वही करने जा रही है जो डारविन के सिद्धान्त ने जीव विज्ञान के क्षेत्र में किया था। इस प्रस्थापना की ओर हम दोनों 1845 से कुछ सालों तक धीरे-धीरे बढ़ते रहे थे। मैं उसकी ओर स्वतन्त्र रूप से कहाँ तक बढ़ सका,   इसे इंग्लैण्ड में मज़दूर वर्ग की दशा नामक मेरी रचना सर्वोत्तम ढंग से प्रदर्शित करती है। परन्तु जब मैं 1845 के वसन्त में मार्क्स से पुनः ब्रसेल्स में मिला तो इस विचार को वह पहले से ही विकसित कर चुके थे और उसे उन्होंने मेरे सामने जिस रूप में प्रस्तुत किया, वह प्रायः उतना ही स्पष्ट था जितने स्पष्ट रूप में मैंने यहाँ बयान किया है।” (1890 के जर्मन संस्करण की भूमिका में एंगेल्स की टिप्पणी)

[15] देखिये टिप्पणी 2।

[16] अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर संघ (पहला इण्टरनेशनल) – सर्वहारा का पहला व्यापक अन्तरराष्ट्रीय संगठन, जिसकी स्थापना ब्रिटिश तथा फ्रांसीसी मज़दूरों की पहल पर लन्दन में 1864 में बुलाये गये अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर सम्मेलन में की गयी थी। उसका केन्द्रीय निदेशनकारी निकाय जनरल कौंसिल थी। कार्ल मार्क्स पहले इण्टरनेशनल के संगठनकर्त्ता, नेता और उसकी ‘उद्घाटन घोषणा’, नियमावली तथा अन्य कार्यक्रम व कार्यनीति सम्बन्धी दस्तावेज़ों के लेखक थे। पहले इण्टरनेशनल ने विभिन्न देशों के मज़दूरों के आर्थिक और राजनीतिक संघर्ष का मार्गदर्शन और उनकी अन्तरराष्ट्रीय एकता का सुदृढ़ीकरण किया। उसने मार्क्सवाद का प्रसार करने और समाजवाद को मज़दूर आन्दोलन से जोड़ने में बहुत बड़ी भूमिका निभायी। पहला इण्टरनेशनल 1874 तक बना रहा।

[17] प्रूदोंपन्थी – फ्रांसीसी अराजकतावादी, निम्नबुर्जुआ वर्ग के विचारधारा- निरूपक प्रूदों के अनुयायी। प्रूदों ने पूँजीवाद की कटु आलोचना की, किन्तु उसका विकल्प उन्हें पूँजीवादी उत्पादन की पद्धति के, जो अनिवार्यतः ग़रीबी, असमानता और मेहनतकशों के शोषण को जन्म देती है, ख़ात्मे में नहीं, बल्कि पूँजीवाद के “संशोधन” में, कतिपय सुधारों द्वारा उसकी कमियों और दोषों को दूर करने में ही दिखाई देता था। वह छोटे निजी स्वामित्व को शाश्वत बनाने के स्वप्न देखते थे और उन्होंने इसके लिए “सार्वजनिक” और “विनिमय” बैंक स्थापित करने का सुझाव दिया, जिनकी मदद से मज़दूर, उनकी राय में, अपने उत्पादन साधन खरीद सकते थे। वर्ग संघर्ष, सर्वहारा क्रान्ति और सर्वहारा अधिनायकत्व के प्रति प्रूदों का रवैया नकारात्मक रहा। वह अराजकतावादी दृष्टिकोण से राज्य की आवश्यकता से भी इन्कार करते थे। पहले इण्टरनेशनल पर अपना दृष्टिकोण थोपने की प्रूदों की कोशिशों का मार्क्स और एंगेल्स ने निरन्तर विरोध किया।

[18] लासालपन्थी – जर्मन निम्नबुर्जुआ समाजवादी फ़र्दीनान्द लासाल के अनुयायी तथा समर्थक, आम जर्मन मज़दूर संघ के सदस्य, जिसकी स्थापना 1863 में लाइपिज़ग में मज़दूर संघों की कांग्रेस में हुई थी। आम जर्मन मज़दूर संघ के प्रथम अध्यक्ष लासाल थे, जिन्होंने उसका कार्यक्रम तथा उसकी कार्यनीति के मूल सिद्धान्त तैयार किये। मज़दूर वर्ग की एक आम राजनीतिक पार्टी की स्थापना, निस्सन्देह, जर्मनी में मज़दूर आन्दोलन के विकास में एक नया क़दम था। परन्तु सिद्धान्त तथा नीति के बुनियादी प्रश्नों पर लासाल तथा उनके अनुयायियों ने अवसरवादी रुख़ अपनाया। लासालपन्थियों ने सामाजिक प्रश्न के समाधान के हेतु प्रशियाई राज्य का उपयोग सम्भव माना तथा प्रशियाई सरकार के प्रधान बिस्मार्क से बातचीत करने की कोशिश की। कार्ल मार्क्स तथा फ्रेडरिक एंगेल्स ने लासालपन्थियों के सिद्धान्त, कार्यनीति तथा संगठनात्मक उसूलों को जर्मन मज़दूर आन्दोलन में अवसरवादी प्रवृत्तियाँ बताकर उनकी तीखी आलोचना की।

[19] लासाल स्वयं हमेशा यही कहते थे कि वह मार्क्स के शिष्य हैं और इसी नाते घोषणापत्र को आधार के रूप में ग्रहण करते हैं। परन्तु 1862-64 के अपने सार्वजनिक आन्दोलन में वह कभी राजकीय ऋणों से समर्थित सहकारी कार्यशालाओं की माँग से आगे नहीं गये। (एंगेल्स की टिप्पणी)

[20] बाद में स्वयं एंगेल्स ने Internationales aus dem Volksstaat (1871&75), बर्लिन, 1894 में प्रकाशित ‘रूस में सामाजिक सम्बन्ध’ शीर्षक लेख के उपसंहार में ठीक ही इंगित किया कि असली अनुवादक गे.वा.प्लेख़ानोव थे। – स.

[21] ओवेनपन्थी – ब्रिटिश यूटोपियाई समाजवादी रॉबर्ट ओवेन के अनुयायी तथा समर्थक। रॉबर्ट ओवेन ने पूँजीवादी व्यवस्था की घोर आलोचना की, लेकिन पूँजीवाद के अन्तरविरोधों की वास्तविक जड़ों को प्रकाश में लाने में असफल रहे, क्योंकि उनका विश्वास था कि सामाजिक विषमता का मुख्य कारण स्वयं उत्पादन की पूँजीवादी प्रणाली नहीं, वरन लोगों की अपर्याप्त शिक्षा है। उनका ख़याल था कि यह विषमता ज्ञान के प्रसार तथा सामाजिक सुधारों के ज़रिये मिटायी जा सकती है और उन्होंने इस प्रकार के सुधारों का एक व्यापक कार्यक्रम पेश किया। उन्होंने भावी “विवेकसम्मत” समाज की छोटे-छोटे स्वायत्तशासी कम्यूनों के एक स्वतन्त्र संघ के रूप में कल्पना की। परन्तु अपने विचारों को यथार्थ में परिणत करने की उनकी सारी चेष्टाएँ विफल रहीं।

[22] फ़ूरियेपन्थी – फ्रांसीसी यूटोपियाई समाजवादी शार्ल फ़ूरिये के अनुयायी तथा समर्थक। फ़ूरिये पूँजीवादी समाज के कटु आलोचक थे। वह एक ऐसे भावी “सामंजस्यपूर्ण” मानव समाज का स्वप्न देखते थे, जिसे मानवीय भावावेगों के संज्ञान पर आधारित होना था। उन्होंने यह मानते हुए कि आदर्श फ़ालांस्तेरों (समाजवादी बस्तियों) के, जिनमें स्वैच्छिक तथा आकर्षक श्रम मानव आवश्यकता बन जायेगा, शान्तिमय प्रचार के माध्यम से भावी समाजवादी समाज में संक्रमण किया जा सकता है, बलपूर्वक क्रान्ति का विरोध किया। परन्तु फ़ूरिये निजी स्वामित्व मिटाना नहीं चाहते थे, उनके फ़ालांस्तेरों में धनवानों तथा ग़रीबों, दोनों का अस्तित्व बना रहता।

[23] यहाँ इशारा फ्रांसीसी निम्नबुर्जुआ पत्रकार काबे तथा जर्मन मज़दूर आन्दोलन के कार्यकर्त्ता वाइटलिंग के विचारों की व्यवस्था की ओर है।

काबे ने इकारिया की यात्रा नामक पुस्तक लिखी, जिसमें यूटोपियाई कम्युनिस्ट समाज का वर्णन है। वह मानते थे कि पूँजीवादी शासन प्रणाली की त्रुटियाँ समाज के शान्तिपूर्ण कायाकल्प द्वारा दूर की जा सकती हैं। बाद में काबे ने अमरीका में एक कम्युनिस्ट समुदाय स्थापित करके अपने विचारों को कार्यरूप देने का प्रयास किया, परन्तु यह प्रयोग पूरी तरह विफल रहा।

वाइटलिंग यूटोपियाई समतावादी कम्युनिज़्म के पैरोकार थे।

[24] मार्क्स तथा एंगेल्स ने 19वीं शताब्दी के पाँचवें दशक से अपनी अनेक रचनाओं में इस सैद्धान्तिक प्रस्थापना का प्रतिपादन किया था। यहाँ जिस रूप में उसे सूत्रबद्ध किया गया है, उसे अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर संघ की नियमावली में देखा जा सकता है (देखें का. मार्क्स, फ़्रे. एंगेल्स, संकलित रचनाएँ, तीन खण्डों में, खण्ड 2, भाग 1, हिन्दी संस्करण, प्रगति प्रकाशन, मास्को, 1977, पृष्ठ 19)।

[25] The Condition of the Working Closs in England in 1844. By Frederick Engels. Translated by Florence K. Wishnewetzky, New York, Lowell-London,  W. Reeves, 1888, (एंगेल्स की टिप्पणी)

[26] 1872 के जर्मन मूलपाठ में यह वाक्य किंचित दूसरे शब्दों में व्यक्त किया गया है। – स.

[27] का. मार्क्स, फ्रे. एंगेल्स, संकलित रचनाएँ, तीन खण्डों में, खण्ड 2, भाग 1, प्रगति प्रकाशन, मास्को, 1977, पृष्ठ 285 – स.

[28] एंगेल्स का आशय 1883 के जर्मन संस्करण की अपनी भूमिका से है। – स.

[29] मार्क्स और एंगेल्स द्वारा लिखित इस भूमिका की मूल पाण्डुलिपि खोज ली गयी है और यह मास्को में मार्क्सवाद-लेनिनवाद संस्थान के अभिलेखागार में रखी हुई है। इस भूमिका का यह अनुवाद इस जर्मन मूल पाठ के आधार पर ही किया गया है। – स.

[30] यह भूमिका एंगेल्स ने 1 मई, 1890 को उस दिन लिखी थी, जब दूसरे इण्टरनेशनल की पेरिस कांग्रेस के निर्णयानुसार (जुलाई, 1889) अनेक यूरोपीय तथा अमरीकी देशों में मज़दूरों के प्रदर्शन हुए, हड़तालें तथा सभाएँ हुईं। मज़दूरों ने 8 घण्टे के कार्य-दिवस की माँग की तथा कांग्रेस द्वारा प्रस्तुत अन्य माँगों की पूर्ति के लिए आवाज़ उठायी। तब से सभी देशों के मज़दूर हर साल पहली मई को सर्वहारा की अन्तरराष्ट्रीय एकता के दिवस के रूप में मनाते हैं।

[31] कांग्रेसीय पोलैण्ड – पोलैण्ड का वह हिस्सा, जिसे 1814-1815 की वियेना कांग्रेस के निर्णयानुसार पोलिश सल्तनत के नाम से रूस में मिला दिया गया था।

[32] यहाँ इशारा ज़ारशाही उत्पीड़न के विरुद्ध 1863-1864 में पोलिश राष्ट्रीय विद्रोह की ओर है, जिसे ज़ारशाही सेनाओं ने निर्दयतापूर्वक कुचल दिया था। विद्रोह के कुछ नेताओं को पश्चिमी सरकारों द्वारा हस्तक्षेप किये जाने की उम्मीद थी, लेकिन उन्होंने अपने को राजनयिक कार्रवाइयों तक सीमित रखा और वस्तुतः विद्रोहियों के साथ ग़द्दारी की।

[33] पोप पायस नवें को, जो 1846 में कैथोलिक चर्च के परमधर्माध्यक्ष निर्वाचित हुए थे, उस समय “उदार” माना जाता था, परन्तु समाजवाद के प्रति उनका रुख़ रूसी ज़ार निकोलाई प्रथम से कम शत्रुतापूर्ण नहीं था, जो 1848 की क्रान्ति से पहले ही यूरोपीय पुलिसमैन की भूमिका अदा कर चुके थे। आस्ट्रियाई साम्राज्य के चांसलर तथा पूरे यूरोपीय प्रतिक्रियावाद के माने हुए नेता मेटरनिख़ उस समय इतिहासकार तथा फ्रांसीसी मन्त्री गीज़ो के ख़ास तौर पर समीप थे, जो बड़े वित्तीय तथा औद्योगिक बुर्जुआ वर्ग के सिद्धान्तकार तथा सर्वहारा के घोर शत्रु थे। प्रशियाई सरकार की माँग पर गीज़ो ने मार्क्स को पेरिस से निकाल दिया। जर्मन पुलिस जर्मनी में ही नहीं, वरन फ्रांस और बेल्जियम, यहाँ तक कि स्विट्जरलैण्ड में भी कम्युनिस्टों का पीछा करती रही तथा उनके प्रचार की राह में बाधाएँ खड़ी करने के लिए सब तरह के हथकण्डे अपनाती रही।

[34] बुर्जुआ से मतलब आधुनिक पूँजीपति वर्ग से, अर्थात सामाजिक उत्पादन के साधनों के स्वामियों, उजरती श्रम का उपयोग करनेवालों से है। सर्वहारा से मतलब आधुनिक उजरती मज़दूरों से है, जिनके पास उत्पादन का स्वयं अपना कोई साधन नहीं होता, इसलिए जो जीवित रहने के लिए अपनी श्रम-शक्ति बेचने को विवश होते हैं। (1888 के अंग्रेज़ी संस्करण में एंगेल्स की टिप्पणी)

[35] अर्थात समस्त लिपिबद्ध इतिहास। 1847 में समाज का पूर्व-इतिहास, अर्थात लिखित इतिहास के पहले का सामाजिक संगठन, सर्वथा अज्ञात था। उसके बाद हैक्स्टहाउजे़न ने रूस में भूमि के सामुदायिक स्वामित्व का पता लगाया; मोरेर ने सिद्ध किया कि यही वह सामाजिक आधार था, जिससे सभी ट्यूटन जातियों ने इतिहास में पदार्पण किया, और धीरे-धीरे यह प्रकट हुआ कि ग्राम-समुदाय ही भारत से लेकर आयरलैण्ड तक हर जगह समाज का आदि रूप था या रहा होगा। इस आदिम कम्युनिस्ट समाज के आन्तरिक संगठन का अपने ठेठ रूप में स्पष्टीकरण मोर्गन की गोत्र के असली स्वरूप और कबीले के साथ उसके वास्तविक सम्बन्ध की महती खोज द्वारा किया गया। इस आदिम समुदाय के विघटन के साथ समाज अलग-अलग और अन्ततः विरोधी वर्गों में विभेदित होने लगता है। मैंने अपनी पुस्तक Der Ursprung des Familie, des Privateigentums und des Staats, 2. Aufl. Stuttgart, 1886 (‘परिवार, निजी सम्पत्ति तथा राज्य की उत्पत्ति’, दूसरा जर्मन संस्करण, स्टुटगार्ट, 1886) में इन ग्राम-समुदायों के विघटन की प्रक्रिया को दर्शाने की कोशिश की है। (1888 के अंग्रेज़ी संस्करण में एंगेल्स की टिप्पणी)

[36] गिल्ड-मास्टर (या शिल्प संघ का उस्ताद-कारीगर – स-) से मतलब गिल्ड के अध्यक्ष से नहीं, उसके पूर्ण अधिकारप्राप्त सदस्य से है, जिसे गिल्ड के भीतर मास्टर का स्थान प्राप्त था। (1888 के अंग्रेज़ी संस्करण में एंगेल्स की टिप्पणी)

[37] ये सभी वर्ग समाज के उदय के बाद विभिन्न सामाजिक संरचनाओं में विभिन्न वर्गों को द्योतित करते हैं।

प्रारम्भिक दासप्रधान समाज में दो मुख्य वर्ग थे दासस्वामी और दास। दासों को किसी भी तरह के कोई अधिकार प्राप्त नहीं थे, यही नहीं, उन्हें मनुष्य तक नहीं समझा जाता था। दासस्वामियों और दासों के अलावा इस समाज में स्वतन्त्र नागरिक – किसान, दस्तकार, आदि – थे, जो समाज के सदस्य माने जाते थे।

प्राचीन रोमन समाज में दो मुख्य वर्ग थे पैट्रीशियन अथवा कुलीन और प्लेबियन अथवा सामान्यजन, जिनको कोई भी राजनीतिक तथा नागरिक अधिकार प्राप्त नहीं थे।

मशीनों और कल-कारखानों के युग के आगमन के पूर्व कृषि के सिवा सारा आर्थिक जीवन दस्तकारी और व्यापार पर आधारित था। मध्ययुग में व्यापारियों और दस्तकारों के अपने शिल्प-संघ – गिल्ड – थे, जो अपने सदस्यों के विशेषाधिकारों और हितों की रक्षा करते थे। गिल्ड में पूर्ण सदस्यता सिर्फ़ निपुण दस्तकार को ही प्राप्त होती थी, जिसकी अपनी कार्यशाला होती थी। अपनी स्थिति की बदौलत कार्यशाला का मालिक मास्टर कहलाता था। उसके यहाँ काम सीखने तथा साथ ही रोजी कमाने के लिए कमेरे और शागिर्द भी काम करते थे।

[38] स्‍वतन्‍त्र नागरिक

[39] भारत के समुद्री रास्ते को 1497-1499 में पुर्तगाली वास्को द गामा ने खोजा, जो अफ्रीका के दक्षिणी छोर – उत्तम आशा अन्तरीप (केप ऑफ़ गुड होप) – को पार करके भारत पहुँचा।

[40] मैन्युफ़ैक्चर (manufacture) – औद्योगिक पूँजीवाद के विकास में बड़े पैमाने के मशीनी उद्योगों से पहले का दौर। मैन्युफ़ैक्चर के दौर के विशिष्ट लक्षण हैं: कार्यशालाओं में पूँजीपतियों की देखरेख में मज़दूरों का जमाव, उत्पादन में हाथ के काम का प्राधान्य और विस्तृत श्रमविभाजन।

[41] फ्रांस में नवोदित नगरों ने अपने सामन्ती प्रभुओं और मालिकों से स्थानीय स्वशासन और “तृतीय श्रेणी” के रूप में राजनीतिक अधिकार जीतने के भी पहले “कम्यून” का नाम ग्रहण कर लिया था। यहाँ, सामान्यतया, बुर्जुआ वर्ग के आर्थिक विकास के सम्बन्ध में इंग्लैण्ड को और राजनीतिक विकास के सम्बन्ध में फ्रांस को लाक्षणिक देश माना गया है। (1888 के अंग्रेज़ी संस्करण में एंगेल्स की टिप्पणी)

  इटली और फ्रांस के नगरवासियों ने अपने नगर समुदायों को, सामन्ती प्रभुओं से स्वशासन के अपने प्रारम्भिक अधिकारों को खरीद लेने या छीन लेने के बाद, यही नाम दिया था। (1890 के जर्मन संस्करण में एंगेल्स की टिप्पणी)

[42] धर्मयुद्ध (क्रूसेड) – बड़े-बड़े पश्चिमी सामन्त सरदारों और बड़े-बड़े इतावली व्यापारियों द्वारा यरूशलम में ईसाई गिरजाघरों और अन्य तीर्थस्थानों को मुसलमानों के हाथों से मुक्त करने के धार्मिक नारे की आड़ में संगठित 11वीं-13वीं सदियों के सैनिक-औपनिवेशिक अभियान। कैथोलिक चर्च और पोप, जो विश्व पर प्रभुत्व स्थापित करने के आकांक्षी थे, इन अभियानों के सिद्धान्तकार और प्रेरक तथा सामन्त-सरदार उनकी मुख्य सैनिक शक्ति थे। सामन्ती अत्याचारों से मुक्ति पाने की आशा में यूरोपीय किसानों ने भी इनमें भाग लिया। धर्मयोद्धा यरुशलम के रास्ते जिन-जिन देशों से गुजरते थे, वहाँ मुसलमानों और ईसाइयों, दोनों को लूटते-खसोटते और उनके विरुद्ध हिंसा का प्रयोग करते। वे केवल सीरिया, फ़िलस्तीन, मिस्र और ट्यूनीशिया जैसे मुस्लिम राज्यों को ही नहीं, वरन पूर्वी रोमन साम्राज्य – बैजंतिया – जैसे ईसाई राज्यों को भी जीतना चाहते थे। लेकिन पूर्वी भूमध्यसागरीय क्षेत्र में उन्हें कोई स्थिर विजय नहीं प्राप्त हुई। यह क्षेत्र शीघ्र ही फिर मुसलमानों के हाथों में चला गया।

[43] मार्क्स तथा एंगेल्स ने अपनी बाद की कृतियों में “श्रम का मूल्य” तथा “श्रम का दाम” शब्दों के स्थान पर मार्क्स द्वारा प्रचलित इन अधिक सटीक शब्दों का उपयोग किया है – “श्रम शक्ति का मूल्य” तथा “श्रम शक्ति का दाम”।

[44] यहाँ इशारा वर्गच्युत तत्त्वों, लम्पट सर्वहारा की ओर है, जिसमें पतित, अमानवीकृत सर्वहारा, यानी आवारा, भिखारी, चोर आदि शामिल हैं। संगठित राजनीतिक संघर्ष करने की अक्षमता, नैतिक अस्थिरता, मुहिमबाज़ी की प्रवृत्ति के कारण बुर्जुआ वर्ग उन्हें हड़तालतोड़कों, उत्पातियों और सामूहिक दंगे करानेवाले गिरोहों के रूप में इस्तेमाल करने में सफल रहता है।

[45] यहाँ इशारा इंग्लैण्ड में निर्वाचन-कानून में सुधार के लिए चलनेवाले आन्दोलन की ओर है। जनता के दबाव के सामने ब्रिटिश संसद के दोनों सदनों को इसके बारे में एक विधेयक स्वीकार करना पड़ा। (1831 में निम्न सदन – हॉउस ऑफ कॉमन्स – और जून, 1832 में उच्च सदन – हॉउस ऑफ़ लॉर्ड्स)। यह सुधार भूमिधारी तथा वित्तीय अभिजात वर्ग की राजनीतिक इजारेदारी के खिलाफ़ लक्षित था। उसने औद्योगिक बुर्जुआओं के लिए संसद के द्वार खोल दिये। सर्वहाराओं तथा निम्नबुर्जुआओं को, जो सुधार के लिए संघर्ष की मुख्य शक्ति थे, उदारपन्थी बुर्जुआओं ने धोखा दिया और उन्हें उस समय निर्वाचन-अधिकार प्रदान नहीं किये गये।

[46] इंग्लैण्ड में 1660 से 1689 का पुनर्स्थापन काल नहीं, बल्कि फ्रांस में 1814 से 1830 का पुनर्स्थापन-काल। (1888 के अंग्रेज़ी संस्करण में एंगेल्स की टिप्पणी) {1660-1689 का पुनर्स्थापन – इंग्लैण्ड में स्टुअर्ट राजवंश के द्वितीय शासन-काल का नाम। 17वीं शताब्दी की क्रान्ति ने इस राजवंश का तख़्ता पलट दिया। 1814-1830 का पुनर्स्थापन – फ्रांस में बूर्बों राजवंश के द्वितीय शासन-काल का नाम। 1830 की जुलाई क्रान्ति ने अभिजात वर्ग तथा पादरीशाही के हितों का प्रतिनिधित्व करनेवाले बूर्बों राजवंश का तख़्ता पलट दिया।}

[47] फ्रांसीसी लेजिटिमिस्ट (वैध राजवंशवादी) – 1830 में सत्ताच्युत “वैध” बूर्बों राजवंश के पक्षधर। यह राजवंश बड़े-बड़े वंशानुगत भूसामन्तों के हितों का प्रतिनिधित्व करता था। सत्तारूढ़ ओर्लेआं राजवंश (1830-1848) के विरुद्ध, जो वित्तीय प्रभुओं और बड़े बुर्जुआओं के समर्थन पर निर्भर था, संघर्ष में लेजिटिमिस्टों का एक हिस्सा यह दिखाते हुए कि वह बुर्जुआ वर्ग द्वारा किये जानेवाले शोषण के विरुद्ध मेहनतकश जनता का रक्षक है, अकसर सामाजिक नारेबाज़ी का सहारा लेता था।

[48] ‘तरुण इंग्लैण्ड’ – ब्रिटिश टोरी पार्टी के राजनीतिज्ञों तथा साहित्यकारों का एक गुट, जो 19वीं शताब्दी के पाँचवें दशक के शुरू में स्थापित हुआ। बुर्जुआ वर्ग की बढ़ती हुई आर्थिक तथा राजनीतिक शक्ति के प्रति सामन्ती अभिजात वर्ग के असन्तोष को व्यक्त करते हुए ‘तरुण इंग्लैण्ड’ के नेता मज़दूर वर्ग को अपने प्रभाव में लाने और उसे बुर्जुआ वर्ग के विरुद्ध अपने संघर्ष में इस्तेमाल करने के लिए जनोत्तेजक लफ्फ़ाज़ी का उपयोग करते थे।

[49] यह मुख्यतया जर्मनी पर लागू होता है, जहाँ भूसम्पत्तिधारी अभिजात और युंकर (युंकर – संकीर्ण अर्थ में पूर्वी प्रशा का सामन्ती अभिजात वर्ग। व्यापक अर्थ में – जर्मन जागीरदारों का वर्ग।) अपनी ज़मीन के बहुत बड़े हिस्से पर अपनी ओर से गुमाश्तों से काश्त करवाते हैं और, इसके अलावा, बड़े पैमाने पर चुकन्दर से चीनी और आलू से स्पिरिट बनाने का भी धन्धा करते हैं। ब्रिटेन के अधिक धनी अभिजात अभी इस हद तक नहीं गिरे हैं; लेकिन वे भी जानते हैं कि किस तरह न्यूनाधिक सन्दिग्ध ज्वाइंट स्टाक कम्पनियों के प्रवर्तकों में अपना नाम देकर लगान की घटती हुई आमदनी को पूरा किया जाये। (1888 के अंग्रेज़ी संस्करण में एंगेल्स की टिप्पणी)

[50] 1848 की क्रान्तिकारी आँधी ने इस पूरी लीचड़ प्रवृत्ति का सफ़ाया कर दिया और उसके समर्थकों की समाजवाद में टाँग अड़ाने की इच्छा को दूर कर दिया। इस प्रवृत्ति के मुख्य और क्लासिकी प्रतिनिधि श्री कार्ल ग्रून हैं। (1890 के जर्मन संस्करण में एंगेल्स की टिप्पणी)

[51] नया यरुशलम एक मिथकीय नगर है, जहाँ बाइबल के अनुसार ईशु के नवागमन और अन्तिम न्याय के दिन के पश्चात सभी भक्तों के निमित्त स्वर्गीय राज कायम किया जायेगा। हमारे संदर्भ में यह उक्ति आदर्श समाज की समानार्थक है। मार्क्स तथा एंगेल्स ने नया यरुशलम का व्यंग्यात्मक अर्थ में उपयोग किया है।

[52] “फ़ालांस्तेर” शार्ल फ़ूरिये की योजना पर आधारित समाजवादी बस्तियाँ थीं; “इकारिया” काबे द्वारा अपनी कल्पना-नगरी (यूटोपिया) को और बाद में अमरीका की अपनी कम्युनिस्ट बस्ती को भी दिया गया नाम था। (1888 के अंग्रेज़ी संस्करण में एंगेल्स की टिप्पणी)

  ओवेन अपने आदर्श कम्युनिस्ट समाजों को “Home Colonies” (“गृह-उपनिवेश”) कहते थे। “फ़ालांस्तेर” फ़ूरिये द्वारा कल्पित सार्वजनिक प्रासादों को दिया गया नाम था। “इकारिया” उन कल्पना-देश को दिया नाम था, जिसकी कम्युनिस्ट संस्थाओं को काबे ने चित्रित किया था। (1890 के जर्मन संस्करण में एंगेल्स की टिप्पणी)

[53] चार्टिस्ट – 19वीं शताब्दी के चौथे दशक से लेकर छठे दशक तक चलनेवाले ब्रिटिश मज़दूरों के देशव्यापी राजनीतिक आन्दोलन में भाग लेनेवालों को दिया गया नाम। यह आन्दोलन मज़दूरों की विषम आर्थिक दशा और राजनीतिक अधिकारों के अभाव का फल था। आन्दोलनकारियों ने अपनी माँगों को एक जन-चार्टर में सूत्रित किया था, जिस पर देश भर में हस्ताक्षर करवाये गये थे और जो तीन बार संसद के आगे पेश किया गया था। उसमें सार्विक मताधिकार की तथा मज़दूरों के लिए यह अधिकार सुनिश्चित करनेवाली अनेक शर्तें पूरी करने की माँग की गयी थी। लेनिन के शब्दों में चार्टिज़्म सर्वहारा का पहला व्यापक, वस्तुतः जनव्यापी, राजनीतिक स्वरूप का क्रान्तिकारी आन्दोलन था।

[54] यहाँ इशारा पेरिस से 1843 से 1850 तक प्रकाशित फ्रांसीसी समाचारपत्र ला रिफ़ॉर्म (सुधार) की नीति पर चलनेवाले निम्नबुर्जुआ गणतन्त्रवादी- जनवादियों तथा निम्नबुर्जुआ समाजवादियों की ओर है। ये लोग गणतन्त्र की स्थापना का और जनवादी तथा सामाजिक सुधारों का समर्थन करते थे।

[55] उस समय इस पार्टी का प्रतिनिधित्व संसद में लेद्रू-रोलें, साहित्य में लूई ब्लाँ और दैनिक पत्रों में ला रिफ़ॉर्म करता था। सामाजिक-जनवाद का नाम इसके आविष्कारकों के अनुसार जनवादी अथवा गणतन्त्रवादी पार्टी के उस हिस्से का द्योतक था, जो कमोबेश समाजवाद के रंग में रँगा था। (1888 के अंग्रेज़ी संस्करण में एंगेल्स की टिप्पणी)

  फ्रांस में उस समय जो पार्टी अपने को समाजवादी-जनवादी कहती थी, उसका प्रतिनिधित्व राजनीतिक जीवन में लेद्रू-रोलें और साहित्य में लूई ब्लाँ करते थे; इस प्रकार, वह आज के जर्मन सामाजिक-जनवाद से बिल्कुल ही भिन्न पार्टी थी। (1890 के जर्मन संस्करण में एंगेल्स की टिप्पणी)

[56] फ़रवरी, 1846 में सारे पोलिश प्रदेशों में राष्ट्रीय मुक्ति के हेतु विद्रोह के लिए तैयारियाँ की गयीं। पोलैण्ड के क्रान्तिकारी जनवादी (देम्बोव्स्की, आदि) इस विद्रोह के मुख्य प्रेरक और प्रोत्साहक थे। लेकिन पोलिश अभिजात वर्ग के एक भाग द्वारा विश्वासघात और प्रशियाई पुलिस द्वारा विद्रोह के कर्णधारों की गिरफ्तारी के कारण संगठित विद्रोह की जगह छिटपुट बलवे ही हो सके। केवल क्रैको में, जो 1815 से आस्ट्रिया, रूस और प्रशा के संयुक्त नियन्त्रण में था, 22 फ़रवरी को विद्रोहियों की विजय हुई। उन्होंने वहाँ एक राष्ट्रीय सरकार की स्थापना की, जिसने एक घोषणापत्र जारी करके सामन्ती प्रभुओं के लिए की जानेवाली अनिवार्य सेवाएँ रद्द कर दीं। मार्च, 1846 में क्रैको विद्रोह कुचल दिया गया। नवम्बर, 1846 में आस्ट्रिया, प्रशा और रूस के बीच एक सन्धि हुई, जिसके अनुसार क्रैको आस्ट्रियाई साम्राज्य में शामिल कर दिया गया।

[57] कम्युनिज़्म के सिद्धान्त कम्युनिस्ट लीग के कार्यक्रम का मसौदा है, जिसे एंगेल्स ने पेरिस में लीग की जिला समिति के आदेश पर तैयार किया था। उसे आरम्भिक मसौदा मानते हुए एंगेल्स ने 23-24 नवम्बर, 1847 को मार्क्स को लिखी चिट्ठी में सुझाव दिया कि प्रश्नोत्तर के रूप का त्याग कर दिया जाये और कम्युनिस्ट घोषणापत्र के रूप में लीग का कार्यक्रम तैयार किया जाये। कम्युनिस्ट लीग की 29 नवम्बर से 8 दिसम्बर तक हुई दूसरी कांग्रेस में मार्क्स और एंगेल्स के विचारों को पूर्ण समर्थन प्राप्त हुआ और उन्हें लीग का कार्यक्रम – कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र – तैयार करने का काम सौंपा गया। घोषणापत्र लिखते समय मार्क्सवाद के संस्थापकों ने कम्युनिज़्म के सिद्धान्त में प्रस्तुत प्रस्थापनाओं में से कुछ का उपयोग किया। कम्युनिज़्म के सिद्धान्त में एंगेल्स ने सर्वहारा पार्टी के कुछ सबसे महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम तथा कार्यनीति सम्बन्धी सिद्धान्तों को निरूपित किया और सत्ता जीतने के बाद विजयी सर्वहारा को पूँजीवाद से समाजवाद में संक्रमण करने के लिए सक्षम बनानेवाले उपाय बताये।

[58] पाण्डुलिपि में एंगेल्स ने आधा पृष्ठ ख़ाली छोड़ दिया है। इसका उत्तर “कम्युनिस्ट विश्वास की स्वीकारोक्ति का मसौदा” में है ( देखें मार्क्स-एंगेल्स, कलेक्टेड वर्क्स, खण्ड 6, पृष्ठ 101)। – स.

[59] सर्वहारा क्रान्ति समस्त उन्नत पूँजीवादी देशों में एक साथ ही सम्पन्न की जा सकती है और इस कारण अकेले एक देश में क्रान्ति की विजय असम्भव है – यह निष्कर्ष, जिसे एंगेल्स की रचना कम्युनिज़्म के सिद्धान्त में अन्तिम अभिव्यक्ति प्राप्त हुई, इजारेदार पूँजीवाद से पहले के दौर के लिए सही था। लेनिन ने साम्राज्यवाद के युग में पूँजीवाद के असमान आर्थिक तथा राजनीतिक विकास के जिस नियम की खोज की, उसके आधार पर वह एक नये निष्कर्ष पर पहुँचे। उन्होंने इंगित किया कि नयी ऐतिहासिक परिस्थितियों में, इजारेदार पूँजीवाद के दौर में, समाजवादी क्रान्ति पहले चन्द देशों में, यहाँ तक कि एक देश तक में विजयी हो सकती है और समस्त या अधिकांश देशों में क्रान्ति की एक साथ विजय असम्भव है। यह नियम सर्वप्रथम लेनिन के ‘यूरोप के संयुक्त राज्य का नारा’ शीर्षक लेख में (1915) निरूपित किया गया था।

[60] प्रश्न 22 और 23 के उत्तरों की जगह पाण्डुलिपि में “वही” शब्द लिखा हुआ है। प्रत्यक्षतः इसका अर्थ यह है कि यहाँ वही उत्तर रहना था, जिसे कम्युनिस्ट लीग के कार्यक्रम के एक आरम्भिक मसौदे में सूत्रबद्ध किया गया था, जो हमें प्राप्त नहीं हो सका है।

नाम-निर्देशिका

एंगेल्स    (Engels),     फ्रे़डरिक (1820-1895)  –   वैज्ञानिक कम्युनिज़्म  के  संस्थापकों  में  एक, अन्तरराष्ट्रीय सर्वहारा वर्ग के नेता, कार्ल मार्क्स के मित्र तथा सहयोगी।

ओवेन  (Owen),  रॉबर्ट  (1771-1858) – ब्रिटेन के विख्यात यूटोपियाई समाजवादी।

काबे  (Cabet),  एत्येन  (1788-1856) –  फ्रांसीसी पत्रकार, 19वीं शताब्दी के चौथे तथा पाँचवे दशक में सर्वहारा के राजनीतिक आन्दोलन में भाग लिया, शान्तिपूर्ण यूटोपियाई कम्युनिज़्म के सिद्धान्तकार, ‘इकारिया की यात्रा’ के लेखक।

केल्ली-विश्नेवेत्स्की   (Kelley-Wischnewetzky),    फ्ऱलोरेन्स (1859-1932)   –   अमरीकी समाजवादी, एंगेल्स की इंग्लैण्ड में मज़दूर वर्ग की दशा पुस्तक की अंग्रेज़ी में अनुवादिका; बाद में सुधारवादी रुख़ अपनाया।

गीज़ो (Guizot), फ्रांसुआ पियेर गिल्योम (1787-1874) – फ्रांसीसी बुर्जुआ इतिहासकार तथा राजनीतिज्ञ; 1840 से 1848 तक फ्रांस की गृह तथा विदेश नीति के वास्तविक सूत्रधार।

ग्रून (Grun), कार्ल (1817. 1887) – जर्मनी के निम्नबुर्जुआ पत्रकार; पाँचवें दशक के मध्य भाग में “सच्चे” समाजवाद के एक मुख्य प्रतिनिधि।

ज़ासूलिच, वेरा इवानोव्ना (1849. 1919) – रूस के नरोदवादी और फिर सामाजिक-जनवादी आन्दोलन की सक्रिय कार्यकर्त्ता; 1900 में लेनिनवादी समाचारपत्र ईस्क्रा (चिनगारी) के सम्पादकमण्डल में काम किया; बाद में मेंशेविक, अवसरवादी रुख़ अपनाया।

डार्विन (Darwin), चार्ल्स रॉबर्ट (1809-1882) – महान अंग्रेज़ वैज्ञानिक, भौतिकवादी जीवविज्ञान के जन्मदाता, प्रजातियों के उद्भव विषयक विकासवादी सिद्धान्त के प्रणेता।

दान्ते   आलिगियेरी   (Dante Alighieri)   (1265-1321) – इतालवी महाकवि।

नेपोलियन तृतीय (Napoleon III), (लूई नेपोलियन बोनापार्त) (1808. 1873) – नेपोलियन प्रथम का भतीजा, दूसरे फ्रांसीसी गणतन्त्र का राष्ट्रपति (1848-1851), फ्रांसीसी सम्राट (1852-1870)।

पायस नवें (Pius IX), (1792. 1878) – रोम के पोप (1846. 1878)।

प्रूदों (Proudhon), पियेर जोजे़फ़ (1809-1865) – फ्रांसीसी पत्रकार, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, निम्नबुर्जुआ विचारधारा-निरूपक तथा अराजकतावाद के एक प्रवर्तक।

प्लेख़ानोव, गेओर्गी वालेन्तीनोविच (1856-1918) – रूसी और अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर आन्दोलन के एक महान नेता और रूस में मार्क्सवाद के प्रथम प्रचारक।

फ़ूरिये (Fourier), शार्ल (1772. 1837) – महान फ्रांसीसी यूटोपियाई समाजवादी।

बाकुनिन, मिख़ाईल अलेक्सान्द्रोविच (1814-1876) – रूसी जनवादी, पत्रकार – जर्मनी की 1848-1849 की क्रान्ति में भाग लिया; अराजकतावाद के एक सिद्धान्तकार; पहले इण्टरनेशनल में मार्क्सवाद के कट्टर विरोधी। 1872 में हेग कांग्रेस में अपनी फूट डालने वाली नीति के कारण इण्टरनेशनल से निकाल दिये गये।

बाब्येफ़ (Babeuf) ग्राक्ख़ (असल नाम फ्रांस्वा नायल) (1760-1797) – फ्रांसीसी क्रान्तिकारी, यूटोपियाई समतावादी कम्युनिज़्म के प्रसिद्ध प्रतिनिधि। सशस्त्र विद्रोह तैयार करने के लिए एक गुप्त संस्था का संगठन किया; विद्रोह का उद्देश्य जनता के हितों की रक्षा करने के लिए क्रान्तिकारी अधिनायकत्व की स्थापना करना था। षड्यन्त्र का पता चल गया तथा 27 मई, 1797 को बाब्येफ़ को फाँसी दे दी गयी।

बिस्मार्क  (Bismarck),  ओटो एडुअर्ड लियोपोल्ड (1815-1898) – प्रशा तथा जर्मनी का राजनीतिज्ञ तथा राजनयिक। गृह तथा विदेश नीति में भूस्वामियों और बड़े पूँजीपतियों के हितों का पक्षधर। अपहारी युद्धों तथा राजनयिक चालों के ज़रिये 1871 में प्रशा के नेतृत्व में जर्मनी के एकीकरण में सफल हो गया। 1871 से 1890 तक जर्मन साम्राज्य का चांसलर रहा।

बेवन (Bevan), डब्ल्यू. – स्वानसी में ट्रेड-यूनियन परिषद के अध्यक्ष; 1887 में स्वानसी में हुई ट्रेड-यूनियन कांग्रेस के सभापति।

ब्लाँ (Blanc), लूई (1811-1882) – फ्रांसीसी निम्नबुर्जुआ समाजवादी, इतिहासकार, 1848-1849 की क्रान्ति के एक नेता; बुर्जुआ वर्ग से मेल-मिलाप के पैरोकार।

मार्क्स (Marx), कार्ल (1818. 1883) – वैज्ञानिक कम्युनिज़्म के संस्थापक, अन्तरराष्ट्रीय सर्वहारा के नेता।

मूर (Moore), सैमुअल (1830- 1912) – ब्रिटिश विधिशास्त्री; पहले इण्टरनेशनल के सदस्य; कार्ल मार्क्स तथा फ्रेडरिक एंगेल्स के मित्र; उनकी रचनाओं के अंग्रेज़ी में अनुवादक।

मेटरनिख़ (Metternich), क्लीमेंस (1773-1859) – आस्ट्रियाई साम्राज्य का  विदेशमन्त्री  (1809-1821), चांसलर (1821-1848), पूरे यूरोपीय प्रतिक्रियावाद का माना हुआ नेता; पवित्र गठबन्धन का एक संगठनकर्ता।

मैकफ़र्लेन  (Macfarlane),  हेलेन – 1848-1850 में चार्टिस्ट अख़बारों की सक्रिय संवाददाता; कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र का अंग्रेज़ी में अनुवाद किया।

मोरेर (Maurer), गेओर्ग लुडविग (1790-1872) – जर्मन इतिहासकार, प्राचीन और मध्ययुगीन जर्मनी की सामाजिक व्यवस्था के अध्ययनकर्ता; मध्ययुगीन कम्यून के इतिहास के अध्ययन में महत्त्वपूर्ण योग दिया।

मोर्गन (Morgan), लुइस हेनरी (1818-1881) – अमरीकी नृशास्त्री, पुरातत्ववेत्ता और इतिहासकार। आदिम सामुदायिक व्यवस्था के मुख्य रूप में गोत्र के विकास का सिद्धान्त निरूपित किया। वर्गपूर्व समाज के इतिहास का कालक्रम निर्धारण करने का प्रयत्न किया। मार्क्स और एंगेल्स ने मोर्गन की कृतियों का उच्च मूल्यांकन किया है।

लासाल  (Lassalle),  फ़र्दीनान्द (1825-1864) – जर्मन निम्नबुर्जुआ पत्रकार, वकील; आम जर्मन मज़दूर संघ के एक संस्थापक (1863); “ऊपर से”, प्रशा के नेतृत्व में जर्मनी के एकीकरण की नीति के समर्थक। जर्मन मज़दूर आन्दोलन में अवसरवादी प्रवृत्ति के संस्थापक।

लेद्रू-रोलाँ  (Ledru-Rollin), अलेक्सान्द्र ओग्यूस्त (1807-1874) – फ्रांसीसी पत्रकार और राजनीतिज्ञ, निम्नबुर्जुआ जनवादियों के एक नेता, ला रिफ़ॉर्म समाचारपत्र के सम्पादक; 1848 में अस्थायी सरकार के सदस्य; बाद में उत्प्रवासी।

वाइटलिंग (Weitling), विल्हेल्म (1808-1871) – जर्मन मज़दूर आन्दोलन के प्रारम्भिक काल के विख्यात नेता, यूटोपियाई समतावादी कम्युनिज़्म के सिद्धान्तकार।

विश्नेवेत्स्की – देखें केल्ली-विश्नेवेत्स्की।

सीसमोंदी (Sismondi), जान शार्ल लेओनार सीमोंद दे (1773-1842) – स्विस अर्थशास्त्री, इतिहासकार और निम्नबुर्जुआ समाजवाद के प्रतिनिधि। बड़े पूँजीवादी उत्पादन की प्रगतिशील प्रवृत्तियों को न समझ पाने के कारण पुरानी परम्पराओं और प्रणालियों को, उद्योग में गिल्ड-पद्धति तथा कृषि में पितृसत्तात्मक पद्धति को आदर्श मानते थे, जो परिवर्तित आर्थिक परिस्थितियों के बिल्कुल प्रतिकूल थीं।

सेण्ट-सीमों (Saint-Simon), आंरी क्लोद  (1760-1825)  –  महान फ्रांसीसी  यूटोपियाई  समाजवादी। पूँजीवादी व्यवस्था की आलोचना की, लेकिन राजनीतिक संघर्ष और क्रान्ति के बारे में नकारात्मक रवैया अपनाया; सर्वहारा के ऐतिहासिक मिशन को न समझ पाने के कारण यह माना कि सरकारी सुधारों और समाज की नैतिक शिक्षा से वर्ग विरोध समाप्त हो जायेंगे।

हर्ज़ेन, अलेक्सान्द्र इवानोविच (1812-1870) – रूसी क्रान्तिकारी जनवादी, भौतिकवादी दार्शनिक और लेखक; रूस छोड़कर विदेश चले गये, लन्दन में ‘स्वतन्त्र रूसी मुद्रणालय’ की स्थापना की और कोलोकोल नामक पत्रिका निकालने लगे (1857)। रूसी क्रान्तिकारी आन्दोलन के विकास में ‘कोलोकोल’ का बड़ा महत्त्व था।

हॉर्नी (Harney), जॉर्ज जूलियन (1817-1897) – ब्रिटेन में चार्टिस्ट आन्दोलन के वामपक्ष के एक नेता। अठारहवीं शताब्दी के पाँचवे दशक में कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स के सहयोगी; कम्युनिस्ट लीग के सदस्य, सातवें दशक में पहले इण्टरनेशनल के सदस्य।

हैक्स्टहाउज़न (Haxthausen), ऑगस्त (1792-1866) – प्रशियाई सामन्त, अधिकारी तथा लेखक। 1843-1844 में रूस में किसानों के जीवन का अध्ययन किया और रूस में कृषि सम्बन्धों में सामुदायिक व्यवस्था के अवशेषों पर एक कृति रची।


 

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