एल.जी. के मज़दूरों का संघर्ष ज़िन्दाबाद!

बिगुल संवाददाता

एलजी कम्पनी के मज़दूर अपनी माँगों को लेकर पिछले 2 सालों से संघर्षरत है। “लाइफ़ गुड्स” का दावा करने वाली यह बहुराष्ट्रीय कम्पनी अपने ही मज़दूरों की ज़िन्दगी के बदतर हालातों पर ध्यान नहीं दे रही। एलजी के मज़दूरों के संघर्ष की शुरुआत हुई जनवरी 2016 में जब अपने कार्य की नारकीय स्थिति के विरुद्ध मज़दूरों का वर्षों से दबा गुस्सा फूट पड़ा। जिसके बाद उन्होंने यूनियन बनाने की माँग पर ज़ोर देते हुए अपने संघर्ष को तेज़ किया। अगर एलजी मज़दूरों के काम के हालात पर निगाह डाली जाये तो यह साफ़ ज़ाहिर हो जाता है कि मज़दूरों को चार्ली चैपलिन की ‘मॉडर्न टाइम्स’ सरीखी फि़ल्म की तरह मशीन के पुर्जो में तब्दील कर दिया गया था। जिनसे कम्पनी सिर्फ़ और सिर्फ़ मुनाफ़ा निचोड़ने की आशा रखती थी। मज़दूरों के काम के घण्टे तय नहीं किये गये थे, सब सुबह 9:00 बजे कारख़ानों में घुस तो जाते थे पर वापिस कब निकलना है, यह निश्चित नहीं होता था। अगर एक बार मशीन चल पड़ी तो पलक झपकने की भी देरी होने से माल ख़राब हो जाने का डर रहता है। अधिक मुनाफ़ा निचोड़ने के लिए मशीन की रफ़्तार को भी लगातार तेज़ किया जाता जिसकी वजह से सभी मज़दूरों के लिए पानी, शौचालय जैसे कार्य भी दूभर हो गये थे। इन सब अत्याचारों के ख़िलाफ़ मज़दूरों ने यूनियन बनाने की माँग की। अप्रैल 2016 में मज़दूरों ने यूनियन के पंजीकरण के लिए नामांकन भरा पर बहुराष्ट्रीय कम्पनी के दबाव के कारण प्रशासन ने कई नुक्स बताकर पंजीकरण की अर्ज़ी रद्द कर दी। इसके बाद एलजी मैनेजमेण्ट ने 12 सक्रिय यूनियन सदस्यों का अलग-अलग इकाइयों में तबादला कर दिया और बाद में तीन को टर्मिनेट कर दिया गया, ताकि संघर्ष को कमजोर बना कर ख़त्म किया जा सके।

पहले पंजीकरण यूपी में करवाया जा रहा था। योगी राज में यूनियन का पंजीकरण सम्भव नहीं हुआ तो मज़दूर राष्ट्रीय स्तर पर एलजी कम्पनी की यूनियन बनाने के लिए एकजुट हुए और दिल्ली में पंजीकरण के लिए आये। यहाँ भी ढाक के तीन पात वाली हालत ही मिली। मज़दूरों के आक्रामक रुख से बौखला कर कम्पनी प्रशासन ने 6 सक्रिय सदस्यों को निलम्बित कर दिया और उनमें से तीन को बाद में बिना वजह निष्कासित कर दिया गया। 29 नवम्बर 2017 के बाद से कम्पनी ने मज़दूरों को डराना-धमकाना शुरू कर दिया।

एलजी कम्पनी फ्रि़ज़, टीवी आदि इलेक्ट्रॉनिक सामान बनाती है। नोएडा स्थित इकाई में प्रतिदिन 11 हज़ार फ्रि़ज़ बनाये जाते हैं। यहाँ क़रीब 2300 मज़दूर कार्यरत हैं जिनमें 850 परमानेण्ट और 1500 मज़दूर ठेके पर रखे गये हैं। ठेका मज़दूरों की हालत तो और भी बदतर है, जिन्हें न्यूनतम 12-12  घण्टे खटने के बाद भी 250 रुपये देहाड़ी मिलती है। ओवरटाइम का भुगतान परमानेण्ट और ठेका मज़दूरों दोनों को ही सिंगल रेट पर किया जाता है। इस संघर्ष को आगे बढ़ाते हुए मज़दूर नोएडा से दिल्ली श्रम मन्त्री गोपाल राय से भी मिलने गये। लेकिन श्रम मन्त्री ने झूठे आश्वासन देकर मज़दूरों को वापिस भेज दिया। संघर्षरत मज़दूरों के समर्थन में एलजी के कार्यरत मज़दूरों ने लंच और कैण्टीन का बहिष्कार कर अपने साथियों की लड़ाई में सहयोग दिया। 15 फ़रवरी 2018 से सभी मज़दूरों ने मिलकर अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल की शुरुआत की ।

इस पूरे संघर्ष में यह ज़ाहिर हो गया है कि सरकार और मालिक प्रशासन मज़दूरों की यूनियन बनाने की माँग से डरे हुए हैं, इसलिए हड़ताल को तोड़ने का हरसम्भव प्रयास प्रशासन की ओर से किया जा रहा है। लेकिन प्रशासन और प्रबन्धन की साँठ-गाँठ से डरे बिना मज़दूर पूरी बहादुरी से अपने संघर्ष को आगे बढ़ा रहे हैं। 25 फ़रवरी 2018 को एलजी के संघर्षरत श्रमिकों के परिवारवालों ने जि़ला मुख्यालय का घेराव कर प्रदर्शन किया और अपनी माँगों का ज्ञापन भी सौंपा। प्रशासन ने अपना अड़ियल और ग़ैर-ज़िम्मेदाराना रवैया बनाये रखा। अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर बैठे श्रमिकों के परिवारवालों से कोई भी ज़िम्मेदार अधिकारी बात करने या ज्ञापन लेने नहीं आया। उल्टे संघर्षरत श्रमिकों के परिवारवालों द्वारा की जा रही नारेबाज़ी से खौफ़ खाकर पुलिस बल की संख्या बढ़ा दी गयी है। प्रदर्शन कर रहे मज़दूरों के परिवारवालों ने ज़िला अधिकारी से माँग की कि वो जल्द से जल्द त्रिपक्षीय वार्ता बैठक में बातचीत के ज़रिये उनके मसले का निपटारा करवाये। लेकिन मज़दूर-विरोधी रवैया इसके बावजूद भी बरकरार रहा। प्रशासन के ग़ैर-ज़िम्मेदाराना रवैये का अनुमान इस बात से  लगाया जा सकता है कि एक अनशनकारी श्रमिक की सेहत बिगड़ने पर पुलिस उसे निजी अस्पताल ले जाकर छोड़ आयी जहाँ उन्हें इलाज़ का ख़र्च भी ख़ुद उठाना पड़ा। जबकि हड़ताल पर बैठे अनशनकारी की सेहत की जवाबदेही प्रशासन की बनती है। 26 फ़रवरी 2018 को एलजी के संघर्षरत मज़दूरों की अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल का 12वाँ दिन था। ज़िला न्यायाधीश (डीएम) और प्रशासन ने अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर बैठे मज़दूरों को 25 फ़रवरी को यह आश्वासन दिया था कि वह कम्पनी प्रबन्धन के साथ डीएलसी दफ़्तर पर त्रिपक्षीय वार्ता करवाकर उनके मसले का हल करने का प्रयास करेंगे। लेकिन 26 फ़रवरी, यानी वार्ता के दिन प्रशासन अपनी बात से मुकरता हुआ नज़र आया। संघर्षरत मज़दूरों के समर्थन में एलजी कम्पनी के कार्यरत स्थायी मज़दूर मास लीव लेकर पहुँचे थे। प्रशासन के टाल-मटोल करने के रवैये का विरोध करते हुए संघर्षरत मज़दूरों के एक हिस्से ने डीएलसी दफ़्तर के आगे की रोड जाम कर दी और मज़दूरों का एक ग्रुप डीएलसी दफ़्तर के अन्दर धरने पर बैठ गया। मज़दूरों के आक्रामक रुख को देख कर एएलसी ने दबाव में आकर मज़दूरों को यह आश्वासन दिया कि 27 फ़रवरी को डीएम दफ़्तर पर ही जहाँ मज़दूर भूख हड़ताल पर बैठे हैं, डीएलसी की मौजूदगी में त्रिपक्षीय बैठक का आयोजन किया जायेगा।  27 फ़रवरी 2018 को एएलसी ने मज़दूरों को आश्वासन दिया कि 6 मार्च तक वो उनके मसले को सुलझाने का पूरा प्रयास करेंगे और इसलिए वो भूख हड़ताल पर बैठे मज़दूरों की हड़ताल तुड़वा दे। अपने साथियों की बिगड़ती तबीयत और अपने संघर्ष की बेहतरी को ध्यान में रखते हुए भूख हड़ताल पर बैठे मज़दूरों का अनशन तुड़वाया गया और आगे की रणनीति पर विचार किया गया । लेकिन इसके बाद फिर एक बार प्रशासन ने अपना असली रंग दिखाते हुए मज़दूरों के आन्दोलन को कमज़ोर करने की मंशा से एलजी के 10 मज़दूरों को नामजद करते हुए और 150 अज्ञात मज़दूरों के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज करवायी। ज्ञात हो कि 27 फ़रवरी 2018 को मज़दूर डीएलसी के वादा करने पर ही डीएम ऑफि़स के बाहर इन्तज़ार कर रहे थे। डीएलसी ने ख़ुद 26 फ़रवरी 2018 को संघर्षरत मज़दूरों से वादा किया था कि वो 27 तारिख़ को डीएम दफ़्तर में कम्पनी प्रबन्धन के साथ उनकी वार्ता करवा कर उनके मसले का निपटारा करने का प्रयास करेंगे। लेकिन अपने वादे से मुकरकर जब डीएलसी साहब मुँह छिपाकर डीएम दफ़्तर से भागने की फ़िराक में थे। तब वहाँ मौजूद मज़दूरों ने शान्तिपूर्ण तरीक़े से उन्हें उनके वादे की याददिहानी कराते हुए बैठक करवाने को कहा। इस पूरे घटनाक्रम को उल्टा कर पुलिस का कहना है कि मज़दूरों ने डीएलसी को जबरन रोका। और इसी की बिनाह पर मज़दूरों पर केस दर्ज कर उन पर अपना संघर्ष वापिस लेने का दबाव बनाया जा रहा है। मज़दूरों को लगातार धमकाया जा रहा है कि या तो अपनी हड़ताल वापिस ले लो वरना इसी तरह फ़र्ज़ी केस लगाकर जेल में डाल दिये जाओगे। जिस क़ानून और पुलिस को मज़दूरों को उनका हक़ दिलाने के लिए काम करना चाहिए, वही पुलिस उनके हक़-अधिकारों का दमन कर रहे पूँजीपतियों की सेवा में लगी है। मज़दूर आन्दोलनों का लम्बा इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब भी मज़दूरों ने अपने हक़ के लिए आवाज़ उठायी है तब-तब पुलिस की बर्बरता का इस्तेमाल कर पूँजी की ताक़त ने उनके संघर्ष को कुचलने का प्रयास किया है। लेकिन वही इतिहास हमें यह भी बताता है कि मज़दूरों की एकजुटता के आगे बड़ी-बड़ी ताक़तों को भी झुकना पड़ा है। और इसीलिए मज़दूरों ने भी प्रशासन की इस चाल से ि‍बना घबराये हुए अपने संघर्ष को जारी रखने का फ़ैसला लिया है।

एलजी के मज़दूर लम्बे समय से अपनी माँगों को लेकर संघर्षरत हैं और उनकी प्रमुख माँगें हैं- 1) यूनियन के पंजीकरण की प्रक्रिया जल्द से जल्द पूरी की जाये; 2) काम के घण्टे निश्चित किये जाये;  3) निष्कासित किये गये मज़दूरों को काम पर वापिस बहाल किया जाये। इस पूरे संघर्ष को हमारे देश की मुख्यधारा का मीडिया न तो कवर कर रहा है और न ही इस मसले के बारे में किसी भी मुख्यधारा के चैनल पर कोई बहस की जा रही है। मज़दूर भी मुख्यधारा के पूँजीपतियों के हाथों की कठपुतली बनी मीडिया से किसी भी तरह की उम्मीद छोड़ चुके हैं और स्वतन्त्र रूप से फ़ेसबुक व ट्विटर आदि के माध्यम से अपनी आवाज़ जनता के बीच पहुँचाने का भरसक प्रयास कर रहे हैं। एक सवाल उन “बड़ी-बड़ी” ट्रेड यूनियनों के ऊपर भी उठता है, जिन्होंने इस संघर्ष में कोई भागीदारी नहीं की। कम्पनी प्रशासन का मानना था कि मज़दूर स्वतन्त्र यूनियन न बनाकर ऐसे ही बीएमएस, इण्टेक, एचएमएस जैसी यूनियनों से मान्यता हासिल कर ले। इसमें प्रशासन को कोई आपत्ति नही थी। इससे ऐसी दलाल यूनियनों का चरित्र भी नंगा हो जाता है जो मज़दूरों की आवाज़ होने का दम्भ भरती है, पर खेलती मालिकों के गोद में है। मज़दूरों ने ऐसी यूनियनों से मान्यता लेने से साफ़ इंकार कर दिया और अपनी स्वतन्त्र यूनियन बनाने की माँग को लेकर आज भी वह डटे है। बिगुल मज़दूर दस्ता एलजी के मज़दूरों के जुझारू संघर्ष का समर्थन करता है और इनकी लड़ाई में उनके साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर खड़ा है।

 

मज़दूर बिगुल, मार्च 2018


 

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