माओवादी चीन में रोज़मर्रा का जीवन
(इब्ने-इंशा के सफ़रनामे ‘चलते हों तो चीन को चलिए’ पर आधारित)

(पहली किश्त)

इब्ने-इंशा (1927-1978) पाकिस्तान के एक प्रसिद्ध लेखक हुए हैं। एक कवि और व्यंग्यकार के तौर पर तो उनको शोहरत मिली ही परन्तु एक सफ़रनामा-निगार और अख़बारनवीसी के चलते भी उनको जाना जाता है। जालन्धर के फ़िलौर में पैदा हुए इंशा ने जापान, हाँगकाँग, भारत, चीन, अफ़गानिस्तान, ईरान, तुर्की, फ़्रांस, अमरीका, इंग्लैण्ड आदि देशों के सफ़र किये और इनके बारे में अपनी यादों को अपने ही व्यंग्यमय अन्दाज़ में कलम किया। इसी तरह उनका उर्दू में एक सफ़रनामा चीन के बारे में है जिसका नाम है – ‘चलते हो तो चीन को चलें’। यह सफ़रनामा पाकिस्तान में तो जाना -पहचाना है, परन्तु भारत में सफ़रनामों में रुचि रखने वाले पाठकों तक ही अभी तक इसकी वाक़फ़ीयत और पहुँच है और यह संख्या भी काफ़ी कम ही है।

इंशा का यह चीनी सफ़रनामा ऐतिहासिक, सामाजिक और राजनीतिक ऐतबार से बेहद अहम है। यह हमें चीन के उस गुज़रे हुए इंक़लाबी दौर के रूबरू करवाता है जो दौर आज जा चुका है, लेकिन जिसके सबक़ आज भी इंसाफ़पसन्द, संजीदा लोगों को भूले नहीं हैं और आज भी ऐसे कितने ही लोग इस दौर की प्राप्तियों और कमज़ोरियों, दोनों से सबक़ लेकर इस समाज को बेहतर बनाने के प्रयासों में लगे हुए हैं। यह इंशा की तरफ़ से हमारी पीढ़ी को दिया गया एक बहुमूल्य तोहफ़ा कहा जा सकता है। यह किताब चीन के उस इंक़लाबी माओवादी दौर के समय में लिखी गयी थी जब चीनी लोग एक नये समाज के निर्माण के लिए पूरे जी-जान से लगे हुए थे, न सिर्फ़ भौतिक प्रगति के नये मानक क़ायम कर रहे थे, बल्कि मूलभूत तौर पर ही नये मूल्यों-मान्यताओं का पूरे देश के गहन अन्दर तक संचार हो रहा था – जीने का एक नया तरीक़ा, चीज़ों और लोगों को देखने और समझने की एक नयी दृष्टि, आपसी समन्वय की ऐसी मिसालें जो इतिहास में पहले कभी न देखी गयी थीं – समग्रता में कहें तो पूरी सामाजिक बनावट ही स्वस्थ हो रही थी। इस किताब में से भी चीन की समाजवादी जीवन-शैली की एक झलक हमें देखने को मिलती है – इंशा जी के अपने ही व्यंग्यमय टोटकों के साथ! ऐसा नहीं है कि चीन के बारे में किताबों की कोई किल्लत है। पश्चिम में आज भी और माओवादी दौर के समय में भी चीन के बारे में किताबों की भरमार होती थी। लेकिन इन सभी किताबों की जो ख़ासियत थी, वह यह थी कि इनमें से तक़रीबन सभी ही पश्चिम के बुर्जुआ पूर्वाग्रहों और चीनी क्रान्ति के प्रति तिरस्कार से लबरेज़ थीं। क्रान्तिकारी चीन, जहाँ पर कि उस वक़्त क्रान्तिकारी परिवर्तन घटित हो रहे थे, इस उथल-पुथल से हज़ारों मीलों की सुरक्षित दूरी बनाकर बैठे इन “महाविदों” ने अपने बन्द कमरों में से चीन के बारे में किताबों के ढेर लिख दिये जो वास्तविकताओं से मूलत: ही दूर थे। ख़ुद इंशा की सर्वग्राही नज़र ने ऐसी किताबें लिखे जाने के असल उद्देश्यों को ताड़ लिया था, इसी लिए तो इंशा अपनी इसी किताब के एक पाठ ‘वूहान चलो, वूहान चलो’ में लिखते हैं –

“…अफ़साने बनाना तो कोई हमारे पश्चिमी लेखकों से सीखे। चीन के मुत्तलिक़ अकेले अमरीका में इतनी किताबें छप चुकी हैं कि ऊपर तले रखें तो पहाड़ बन जाये लेकिन अक्सर इनमें से अधिकतर वाशिंगटन और न्यूयार्क में बैठकर लिखी गयी हैं। वहाँ रिसर्च के ऐसे अदारे हैं जो सीआईए की नेमतों से चलते हैं और ख़बरों के वाहिद नुमाइन्दे कहलाते हैं। चश्मदीद हालात लिखकर देने को तैयार हैं, आप सिर्फ़ उस पर अपना नाम दे दीजिए। बाअज़ प्रकाशक (मसलन प्राइगर) तो चलते ही सीआईए के पैसों से हैं। मशहूर रसाला एनकाउण्टर भी इन्हीं अदारों से साँठ-गाँठ रखता है। क़ीमत उसकी ढाई-तीन रुपये है लेकिन कराची के बुक-स्टालों पर एक-दो रुपए में मिल जाता है। मालूम हुआ कि पाकिस्तान में इल्म का नूर फैलाने के लिए उसकी क़ीमत ख़ास तौर पर रखी गयी है। हम चाहते हैं कि चीज़ें सस्ती हों लेकिन ऐसा नहीं कि कल-कलान्तर को अफ़ीम सस्ती हो जाये तो हम खाना शुरू कर दें और ज़हर की क़ीमत चौथाई रह जाये तो मौक़े का फ़ायदा उठाकर ख़ुदकुशी कर लें। आठ-आठ दस-दस आने की किताबों का सैलाब भी आया और बराबर आ रहा है जिनको स्टूडेण्ट एडिशन का नाम दिया जाता है। प्रोपेगैण्डा की किताबों में चन्द किताबें बेज़रर कि़स्म की भी डाल दी जाती हैं कि देखिए हमारा मक़सद तो फ़क़त शिक्षा का प्रसार करना है।”

“पिछले दिनों एक ऐसी किताब भी स्टाल पर देखी, जिसके लेखक के मुत्तल्क दावा किया गया है – कि उससे कोई बात चीन की छिपी हुई नहीं है। क्योंकि लेखक बरसों हांगकांग में रहा है। क्या ख़ूब! हांगकांग में बैठकर चीन के मुत्तल्क किताब लिखना ऐसा ही है जैसे कलकत्ते में बैठकर ढाके से प्रवास करके आने वाले धनी मारवाड़ियों से मुलाक़ात करके कोई पाकिस्तान के बारे में किताब लिख दे। चीन के कमियूनों से सम्बन्धित ऐसी-ऐसी हौलनाक किताबें और लेख पढ़ने में आये कि रातों की नींद हराम हो। मतला साफ़ हुआ तो देखा कि कुछ भी नहीं था। छोटे कोऑपरेटिव अदारों को बड़े कोऑपरेटिव अदारों में बदल दिया गया था कि वसाइल ज़ाया ना हों और उनसे ज़्यादा से ज़्यादा फ़ायदा उठाया जा सके। कोड़े लगा-लगा कर लोगों से मेहनत लेना महज़ लिखने वालों के ज़रखेज़ दिमाग़ की खोज है। कमियून क्या हैं ये हम भी देख आये हैं और हमसे पहले और बाद में जाने वाले भी। यहाँ टाइम, लाइफ़ और प्रोपेगैण्डा के दूसरे माध्यम शोर मचाते रह गये कि 1958 में Great Leap Forward ने चीन को दस साल पीछे पहुँचा दिया है। यह शोर थमा तो मालूम हुआ कि गहरी नींद सोये चीनी तो बीस साल और आगे बढ़ गये हैं। पीकिंग में दस माह के अरसे में दस अज़ीम आलीशान इमारतों की तामीर भी इसी “नाकाम” तहरीक़ के तहत हुई थी। यांग्सी दरिया, जहाँ कि आदम के समय से अभी तक पुल ना बना था, वहाँ का शानदार पुल भी इसी ‘जस्त’ में बना। शंघाई का भारी मशीनों का कारख़ाना देखिए तो अकल गुम हो जाये। बीच में रूस से बिगाड़ हुआ और रूसी सलाहकार मनसूबे अधूरे छोड़कर चीन से चले गये और कहा जाता है कि अपने मंसूबों के नक़्शे भी साथ ले गये। लेकिन बजाय इसके कि चीन के लोग बददिल होते, यह हरक़त उनके जज़्बों को चाबुक दे गयी।”

यदि इंक़लाबी दौर के समय में भी यह हालत थी तो सोचा जा सकता है कि जब 1976 में चीन में माओ की मृत्यु के बाद पूँजीवाद की पुनर्स्थापना हुई तब से लेकर आज तक ‘समाजवाद की हार’ के नाम पर क्या-क्या कुत्सा-प्रचार प्रकाशित किया गया होगा और किया जा रहा है। इसीलिए एक ऐसे शख़्स का सफ़रनामा और भी बर-मौक़ा हो जाता है जो उस इंक़लाबी दौर में ख़ुद चीन में समय बिताकर आया हो और वहाँ के लोगों को नज़दीक से देखकर आया हो। जब इंशा ख़ुद यह सफ़रनामा लिख रहे थे तो उन्हें भी शायद यह अनुमान था कि इंक़लाबी चीन की कामयाबी के बारे में जो-जो उन्होंने लिखा है, उसे शायद बहुत ही कम लोग सच मानें। शायद इसीलिए उन्होंने अपनी किताब की प्रस्तावना में ही लिख दिया था –

“हम क्या और हमारा जाना क्या! जहाज़ में बैठे और ज़मीन की तनाबें खेंच लीं। अन्दरून-ए-चीन भी उड़न खटोले और धुएँ की गाड़ी से वास्ता रहा। यह भी कोई सैर है, ना सिर में गर्द, ना पायों में छाले। सैर-सफ़र की मर्यादा तो मारको पोलो ने रखी थी, इब्ने बतूता ने रखी थी। साहिबो, उन दिनों एक शख़्स उठती जवानी में सैर-ओ-सफ़र पर निकलता था तो वापसी पर, अगर वापसी होती थी तो, उसके पोते उसका स्वागत करते थे। कइयों को तो पहचानने वाले भी न मिलते थे। कम से कम मारको पोलो के साथ तो यही गुज़री, और जब उसने यूरोप के अँधेरे युग में जी रहे लोगों को चीन की चकाचौंध की कहानियाँ सुनायीं तो लोगों ने उसे दुनिया के सबसे बड़े झूठे का खिताब दिया।”

और यक़ीन करना इसीलिए भी मुश्किल था और है क्योंकि आज जिस पूँजीवादी समाज में हम रह रहे हैं, उस समाज के अन्दर यह सभी बातें असम्भव लगती हैं। ख़ुद उस वक़्त अमरीका के साप्ताहिक अख़बार ‘न्यूज़वीक’ ने उन पत्रकारों के हवाले से लिखा था जो कि राष्ट्रपति निक्सन की चीन यात्रा के समय उनके साथ गये थे –

“यह लोग जो कुछ बताते हैं, वो एक ख़्वाब मालूम होता है। ना-मुमकिन नज़र आता है, भला रूए-ज़मीन पर कोई ऐसा देश भी हो सकता है जिसमें अपराध ना हों, जिन्सी बीमारियाँ ना हों, गन्दी बस्तियाँ और झुग्गियाँ ना हों, फ़ज़ा और पानी गन्दे ना हों, शराब के आदी और नशेबाज़ ना हों, यहाँ तक कि छोटे बड़े, अफ़सर और मातहत का फ़र्क़ भी ना हो।”

बेशक यह एक पूँजीवादी समाज में रह रहे लोगों के लिए अचम्भा था, उनके ख़्याल से परे की बात थी। लेकिन यह महज़ ‘सपना’ नहीं था जैसा कि ‘न्यूज़वीक’ ने लिखा, बल्कि यह हक़ीकत थी या यूँ कहा जाये कि मानव मुक्ति के सपने को अमली जामा पहनाने की की गयी एक बड़ी कोशिश थी। और अपनी इन्हीं कोशिशों के चलते चीनी लोगों ने पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा और नेपोलियन की इस उक्ति को सच कर दिखाया कि, “चीनी धरती को सोने दो, क्योंकि यदि वह जाग गयी तो पूरी दुनिया को हिलाकर रख देगी।” बकौल इंशा –

“बेशक जब तक अपनी आँखों से ना देखो, यह यक़ीन नहीं आता कि कोई देश तरक्की भी कर रहा हो और इन बुराइयों से भी परे हो जिनका ऊपर ज़िकर आया है। जहाँ चोर ना हों और लोगों को घरों में ताले ना लगाने पड़ते हों, अमीरशाही ना हो और ज़ख़ीरेबाज़ी ना हो, बेरोज़गारी ना हो, फ़हाशी ना हो, ठा-ठा फ़िल्में ना हों और मिलावट ना हो, ट्रैफि़क के हादसे ना हों और झूठी इश्तिहारबाज़ी ना हो। पूर्ण शिक्षा के साथ-साथ राजनीतिक शऊर का यह हाल कि ‘न्यूज़वीक’ ही के शब्दों में : “आप किसी चीनी किसान से कोई राजनीतिक सवाल कीजिए तो वह माकूल जवाब देगा। एशिया के किसी दूसरे देश के किसान की तरह बुद्धूओं की तरह मुँह नहीं ताक़ता रहेगा।”

“सेहत का यह इन्तज़ाम है कि डॉक्टर लोग शानदार दफ़्तरों में नहीं बैठते और देश से बाहर नौकरियों की तलाश नहीं करते, बल्कि लालटेन लेकर, दवाओं के बक्से उठाये गाँव-गाँव घूमते रहते हैं। यह वही चीनी लोग तो हैं जो कि सिर पर चोटियाँ रखे अफ़ीम के नशे में धुत्त रहते थे और जिनकी नैतिकता के नैन-नक्शों को अब भी हांगकांग और सिंगापोर की गलियों में देखा जा सकता है। लेकिन यह इंक़लाब – गहरी नींद सोये हुए चीनियों का इस तरह सँभलना कि चमत्कार मालूम होता है, कोई रातो-रात की बात नहीं, इसके पीछे जद्दो-जहद, क़ुर्बानियों और बेलूस क़ियादत की एक लम्बी दास्तान है।”

यह इब्ने-इंशा की ओर से अपने सफ़रनामे की लिखी गयी प्रस्तावना का हिस्सा था जिसमें वह इस बात पर ज़ोर देते हैं कि चीन के बारे में दूसरे नज़रिये से भी देखा जाना चाहिए और इस बात का अध्ययन करना चाहिए कि चीनियों ने यह कारनामा कैसे कर दिखाया। अभी हम इंशा के इस सफ़रनामे में से चुनिन्दा पाठ और हिस्सों को यहाँ पेश करेंगे। इस लेख का प्रारूप यह है कि मुख्यता यह मूल पुस्तक का अनुवाद ही है, जबकि जहाँ-जहाँ ज़रूरत पड़ी है, वहाँ कुछ बातें स्पष्ट करने के लिए टिप्पणियाँ की गयी हैं।

चीन में अख़बार तो होते हैं लेकिन ख़बरें नहीं

किसी क्षेत्र के लोग किस कि़स्म का साहित्य पढ़ते हैं, किस कि़स्म के राजनीतिक-सामाजिक मसलों में दिलचस्पी लेते हैं, इससे उस क्षेत्र के लोगों की मानसिक रुचि और सांस्कृतिक स्तर का भी पता चलता है। टीवी चैनलों वग़ैरा पर आते सास-बहू के सीरियल, साजि़शों के शो, पतित नाच-गाना, मसालेदार ‘ख़बरें’, सनसनी, आदि सभी हमारे मौजूदा भारतीय समाज की मानसिक गिरावट और बिगड़ी हुई सामाजिक बनावट का ही अक्स हैं। आइए सबसे पहले चीन के अख़बारों के बारे में इब्ने-इंशा के अनुभव को देखते हैं –

“अख़बार हमारी ज़िन्दगी का लाज़िम बन गया है। समझ में नहीं आता कि अख़बार न होते तो हम सुबह कैसे उठते और क्यों उठते? सुनते हैं देहात में लोग परिन्दों की हूक से बेदार होते हैं। लेकिन इस शहर में दरख़्त कहाँ कि इन पर परिन्दे बसर करें।”

“हम जो चीन गये तो सबसे पहला मसला यही पैदा हुआ। चीन में अख़बार होते तो हैं लेकिन चीनी ज़बान में। और वह भी शाम को निकलते हैं। सुबह निकलते तो कम से कम उनकी तस्वीरें देखने के लिए बाथरूम जाया जा सकता था। नतीजा अख़बार न देखने का यह हुआ कि हमारे अदीबों के वफ्द के अक्सर दोस्त क़ब्ज़ का शिकार हो गये। डॉक्टरों ने बहुत दवाएँ कीं लेकिन बेफ़ायदा। आखि़र हमने कहा – साहब पीआईए वालों से कहकर इनके लिए अख़बार मँगाना शुरू कीजिए। यह वह नशा नहीं है जिसे कड़वापन उतार दे। यह तो हमारे मेज़बानों के बस की बात न थी, क्योंकि हवाई जहाज़ हफ़्ते में फ़क़त दो दिन शंघाई जाता है। हाँ चीनी न्यूज़ एजेंसी का बुलेटिन उन्होंने भेजना शुरू कर दिया। इससे सूरते-हाल की पूरी तरह इस्लाह तो न हुई, लेकिन बाअज़ों का हाज़िमा पहले से बेहतर हो गया।”

“पीकिंग से जो हम वूहान रवाना हुए तो ख़बरों के इस बुलेटिन से भी अलहिदा हो गये। आखि़र हमने अपने तर्जमान से कहा कि भईया तुम हमें अख़बार पढ़कर सुनाया करो। क्योंकि जिन दिनों हम रवाना हुए हैं, अफ़्रीका के देशों में एक इंक़लाब रोज़ाना की औसत थी। बल्कि एक रोज़ तो दो दिन के अरसे में तीन इंक़लाब आये थे। उन्होंने कहा कि ऐसी कोई घटना इस दौरान में नहीं हुई। हमने कहा, अच्छा पहली सुर्खी पढ़ो, मालूम हुआ कि प्रधानमन्त्री चाओ एन लाई ने साम्राजियों को ख़बरदार किया है। हमने कहा, आगे बढ़ो। पता चला, आगे अल्बानिया के सदर का पैग़ाम आया है। हमने कहा, और कोई ख़बर है। बोले, हाँ। आप लोगों के वूहान पहुँचने की ख़बर है। हमने झुँझलाकर कहा। वह तो हमें भी मालूम है। ख़बर वह होती है जो हमें मालूम ना हो। कहीं चोरी-डकैती, अगवा, आगज़नी की ख़बर हो तो सुनाओ। और नहीं तो कोई ट्रैफि़क का हादसा तो हुआ होगा। तर्जमान ने सिर हिलाकर कहा कि इस कि़स्म की कोई वारदात आजकल यहाँ नहीं होती। ट्रैफि़क का हाल आपने ख़ुद ही देख लिया है। कारें कम-कम ही हैं और वह ड्राइवर लोग एहतियात से चलाते हैं, क्योंकि शाम को उन्हें अपने सेठ को कोई बँधी-टुकी रक़म नहीं देनी पड़ती। और यदि ऐसा कोई हादसा हो भी जाये तो वह ख़बर थोड़ा ही होती है? उसका अख़बार से क्या तालुक?”

“हमने कहा – सुखन शनास नेई हाफ़िज़ा ख़ता इंजास्त (तू ही सुखन को नहीं समझ सका तो यह तेरी ही ग़लती है)। इन बेचारों को क्या मालूम कि दूसरे देशों में ख़बर किसे कहते हैं? यहाँ तो अगर कहीं वारदात हो जाये तो एक फ़र्लांग दूर जिस दूध वाले की दूकान है उसकी, उसके बच्चों, उसके दूर के रिश्तेदारों की तस्वीरें और जीवनियाँ छपती हैं। बाक़ी रहे राजनीतिक वाक़ियात और लीडरों की तकरीरें। जिन लोगों के पास फ़ालतू वक़्त होता है, वह उन पर भी एक ग़लत अन्दाज़ नज़र डाल लेते हैं। वरना हादसों की ख़बरें और तस्वीरें देखीं, आज के फ़िल्मी मसाले पर नज़र डाली। व्यापारी ने बोनस वाउचर का भाव देखा और स्कूल के लड़कों ने खेलों का सफ़ा निकाल लिया। कोई बड़े मियाँ हुए तो जायदादों और रिश्ते के इश्तिहार भी सही, बाक़ी तो बस…”

 

मज़दूर बिगुल, मई 2018


 

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