एनआरएचएम के निविदा कर्मियों का संघर्ष

अमित, इलाहाबाद

उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के लागू होने के बाद देश में आम जनता के हितों को ध्यान में रखकर बनायी जाने वाली कल्याणकारी नीतियों का कल्याण कर दिया गया। इन नीतियों की सबसे ज़्यादा मार झेलने वाले विभागों  में से एक स्वास्थ्य विभाग भी है। देश की स्वास्थ्य सुविधाओं को इन नीतियों ने वेण्टिलेटर पर पहुँचा दिया है। लम्बे समय से यह माँग उठायी जाती रही है कि कुल जीडीपी का कम से कम 10% स्वास्थ्य पर ख़र्च किया जाना चाहिए। लेकिन स्थिति यह है कि हर साल चिकित्सा के बजट में कुछ न कुछ कटौती ही हो जाती है। ग्रामीण भारत के सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों (सीएचसी) पर लगभग 80% चिकित्सकों के पद ख़ाली पड़े हैं और उनमें भी सबसे बुरी स्थिति उत्तर प्रदेश और बिहार के सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों की है। मानक के हिसाब से बुनियादी सुविधाएँ  आपको बिरले ही किसी सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र पर देखने को मिलेंगी। शहरों में भी अस्पतालों में डॉक्टरों के सामने 200-250 मरीजों की क़तारें तो आम बात हो गयी हैं। देश-भर में डॉक्टरों के 2 लाख से ज़्यादा पद ख़ाली हैं।

आज जब केन्द्र में बैठी मोदी सरकार बेरहमी से डण्डा बरसाकर चिकित्सा, शिक्षा जैसी चीज़ों को भी छीनने में लगी हुई है तो देश के बहुत से बुद्धिजीवियों को कांग्रेस सरकार का कल्याणकारी समय याद आ रहा है। लेकिन वास्तव में इन नीतियों को अमल में लाने की प्रक्रिया और आज के समय में मोदी द्वारा और बर्बर तरीक़े से लूट सकने की ज़मीन वास्तव में कांग्रेस ने ही तैयार कर दी थी। विभागों में पदों को ख़ाली छोड़ देना, समाप्त कर देना, नयी भर्तियों की बजाय संविदा और ठेके के कामों को बढ़ावा देना इन नीतियों के लागू होने के बाद से आम नियम के तौर पर सामने आया है।

2005 में केन्द्र में बैठी कांग्रेस सरकार ने एक और ‘जनकल्याणकारी’ कार्यक्रम की शुरुआत की। सरकारी शब्दावली में “राज्य सरकारों को लचीला वित्त पोषण उपलब्ध कराकर ग्रामीण और शहरी स्वास्थ्य क्षेत्र को पुनर्जीवित करने का सरकार का स्वास्थ्य क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्यक्रम” राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम) शुरू किया। वास्तव में लच्छेदार शब्दों का यह जाल उन नीतियों पर पर्दा डालने के लिए इस्तेमाल किया गया था जिनकी वजह से स्वास्थ्य सेवाएँ आम जनता की पहुँच से और दूर होती जा रही हैं। बाद में राष्ट्रीय शहरी स्वास्थ्य मिशन को इसके साथ जोड़कर इन सेवाओं को (राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन) के अधीन कर दिया गया। इस बात को आसानी से समझा जा सकता है कि देश में स्वास्थ्य सेवाओं के बुनियादी ढाँचे पर बजट बढ़ाकर उनकी स्थिति सुधारने की बजाय ऐसे कार्यक्रमों की लफ़्फ़ाज़ी की असली सच्चाई यह है कि देश की समूची स्वास्थ्य व्यवस्था को ही ठेके पर सौंप दिया जाये।

इस कार्यक्रम के व्यवस्था सम्बन्धी कामों के लिए बहुत से कर्मचारियों को संविदा पर रखा गया। एनएचएम के संविदाकर्मी पिछले लम्बे समय से अपने अधिकारों के लिए आन्दोलनरत हैं। कर्मचारियों की माँग रही है कि अगर उनको उस काम के लिए वही वेतन दिया जाना चाहिए, जो उस काम को करने वाले नियमित प्रकृति के कर्मचारियों को मिलता है। इसके साथ ही साथ कर्मचारियों को मिलने वाली अन्य सुविधाएँ भी संविदा पर काम करने वाले कर्मचारियों को मिलनी चाहिए। इसी दौरान पिछली 16 मई को उत्तर प्रदेश सरकार ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के अनुबन्ध समाप्त होने की बात कहकर 18 लोगों को एक झटके में काम से बाहर कर दिया। 23 मई से प्रदेश-भर में एनएचएम के संविदाकर्मियों ने ‘राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन संविदा कर्मचारी संघ’ के बैनर तले अपनी पुरानी माँगों और इन कर्मचारियों के समर्थन में आन्दोलन की शुरुआत करते हुए प्रदेश-भर में कार्य बहिष्कार कर दिया। एनआरएचएम की शुरुआत के बाद से ही उसमें अपनी सेवाएँ दे रहे थे। अचानक इनको काम से निकाले जाने के बाद इन कर्मचारियों के सामने जीविका का संकट खड़ा हो गया। 25 मई को आन्दोलन के दबाव में वार्ता के बाद सरकार ने एक कमेटी बनायी जिसके बाद संविदाकर्मियों ने दोबारा काम शुरू किया। लेकिन अभी भी 16 कर्मचारियों के निलम्बन का मामला कोर्ट में ही है।

आज के समय में परिवहन, बिजली, बैंक, रेलवे, स्वास्थ्य समेत हर विभाग में, संविदा और नियमित प्रकृति के काम करने वाले कर्मचारी अपनी माँगों को लेकर संघर्ष कर रहे हैं। इन सभी आन्दोलनों की असली लड़ाई उदारीकरण-निजीकरण की उन नीतियों के खि़लाफ़ हैं जो इन कर्मचारियों की इन सुविधाओं में कटौती के लिए जि़म्मेदार हैं। लेकिन ऐसे आन्दोलनों में अधिकांश का नेतृत्व उन संशोधनवादियों के हाथों में है जो इन आन्दोलनों को इन नीतियों के खि़लाफ़ व्यापक संघर्ष की ओर बढ़ाने की बजाय वेतन-भत्ते की लड़ाई की चकरघिन्नी में घुमाते रहते हैं। वास्तव में एनएचएम के कर्मचारियों का यह संघर्ष एक सही दिशा में आगे तभी बढ़ सकता है, जब इन आन्दोलनों को और व्यापक बनाया जाये और इन लड़ाइयों को उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के खि़लाफ़ एक बड़े आन्दोलन की तरफ़ ले चला जाये।

 

मज़दूर बिगुल, जून 2018


 

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