बढ़ते असन्तोष से बौखलाये मोदी सरकार और संघ परिवार
विकास की गर्जना ठण्‍डी पड़ी और साम्‍प्रदायिक विद्वेष और अन्धराष्‍ट्रवाद का उन्‍मादी शोरगुल फैलाने की मुहिम शुरू
फ़ासीवाद को हराने के लिए लम्बी और निर्णायक लड़ाई की तैयारी करनी होगी

सम्पादक मंडल

अब ये साफ़ हो गया है कि 2019 के चुनाव तक मोदी सरकार और संघ परिवार देशभर में साम्‍प्रदायिक तनाव बढ़ाने, धर्म और जाति के आधार पर ध्रुवीकरण को तेज़ करने और हर तरह के विरोधियों को कुचलने के लिए किसी भी हद तक जाने से गुरेज़ नहीं करेंगे। अगले आम चुनाव में अब एक वर्ष से भी कम समय बचा है और जनता के बढ़ते असन्‍तोष से भारतीय जनता पार्टी और उसके भगवा गिरोह की नींद हराम होती जा रही है। कई उपचनुावों और कर्नाटक में हार तथा जगह-जगह सरकार-विरोधी आन्‍दोलनों से उन्‍हें जनता के ग़ुस्‍से का अन्‍दाज़ा बख़ूबी हो रहा है। पिछले दिनों राजस्‍थान में मोदी की रैली में काले झण्‍डे दिखाने की आंशका से घबराये हुए प्रशासन ने रैली में आये लोगों के काले कपड़े, दुपट्टे, पगड़ी, टोपी तक उतरवा डाली, फिर भी रैली में मोदी की हाय-हाय और ”मोदी वापस जाओ” के नारे जमकर लगे।

यही वजह है कि समूचा भगवा गिरोह अगले साल मतदान की फसल काटने के लिए ख़ून की बारिश करवाने में एड़ी चोटी का ज़ोर लगा रहा है। मोदी सरकार और संघ परिवार के किसी भी विरोध को ”देशद्रोह” और ”हिन्‍दू धर्म पर हमला” बताकर उसे बर्बर हमले और दमन का निशाना बनाया जा रहा है। इसकी सबसे घृणित मिसाल पिछले दिनों झारखण्‍ड में आर्यसमाजी सन्‍त और मानवाधिकार कार्यकर्ता स्‍वामी अग्निवेश पर भारतीय जनता युवा मोर्चा कार्यकर्ताओं के हमले के रूप में देखने में आयी। अग्निवेश की राजनीति से बहुत से लोगों को असहमति हो सकती है लेकिन एक 78 वर्ष के बुज़ुर्ग को जिस तरह गन्‍दी गालियाँ दी गयीं, सड़क पर गिराकर लात-घूँसों से बुरी तरह पीटा गया वह इन फ़ासिस्‍टों के असली चरित्र को दिखाता है। गाँधी की हत्‍या से लेकर दाभोलकर, पानसारे, कलबुर्गी जैसे बुज़ुर्गों और गौरी लंकेश जैसी महिला की हत्‍या सिर्फ़ वैचारिक विरोध के कारण करने वाले संघियों की ”भारतीय संस्‍कृति” यही है!

पिछले चार वर्षों के दौरान देशभर में नफ़रत की आँधी चलाकर और जुनूनी भीड़ को उकसाकर कमज़ोरों की हत्‍याएँ करवाने का जो घिनौना अभियान संघियों ने चलाया है उसके भयावह नतीजे अब जगह-जगह दिखायी दे रहे हैं। व्‍हाट्सऐप पर फैलाये गये झूठ और अफ़वाहों, अनजान शत्रु के ख़ि‍लाफ़ गु़स्‍से से भरे बेरोज़गार व हताश नौजवानों की फ़ौज, संघी संगठनों की साज़ि‍शों और सत्‍ता के खुले संरक्षण ने मिलकर हर राज्‍य में ऐसी हिंसक और तर्कहीन भीड़ तैयार की है जो ज़रा से उकसावे पर किसी की भी जान ले सकती है। असम में दो स्‍थानीय संगीतकारों, कर्नाटक में एक इंजीनियर और महाराष्‍ट्र में पाँच लोगों को बच्‍चा चोरी के झूठे शक़ में भीड़ ने पीट-पीटकर मार डाला। उत्‍तर प्रदेश के हापुड़ में एक मुस्लिम किसान को भीड़ ने बर्बरता से मार दिया तो उत्‍तराखण्‍ड में एक युवक को भीड़ से बचाने वाले पुलिस अधिकारी की ही जान के लाले पड़ गये। वेबपोर्टल ‘द क्विंट’ की रिपोर्ट के अनुसार 2015 से अब तक 65 लोग भीड़ की हिंसा में मारे जा चुके हैं। हत्‍यारी भीड़ को सत्‍ता का खुला-बेशर्म समर्थन है। पिछले साल केन्‍द्रीय मंत्री महेश शर्मा दादरी में अख़लाक के हत्‍यारे के शव को तिरंगे में लपेटवाने और श्रद्धांजलि देने पहुँचे थे तो अभी हाल में दूसरे केन्‍द्रीय मंत्री जयन्‍त सिन्‍हा झारखण्‍ड में दो मुस्लिमों की हत्‍या के अभियुक्‍तों की ज़मानत होने के मौक़े पर उनको माला पहनाने पहुँच गये। राजस्‍थान में एक ग़रीब मुस्लिम को ज़ि‍न्‍दा जलाने वाले शम्‍भू रैगर के समर्थन में प्रदर्शन करने और उसकी शोभायात्रा निकालने का धत्‍कर्म ये पहले ही कर चुके हैं।

दलितों, अल्‍पसंख्‍यकों, वामपंथी कार्यकर्ताओं के सत्‍ता द्वारा दमन की घटनाएँ बढ़ती जा रही हैं। जो कोई भी मोदी सरकार और संघ के ख़तरनाक एजेण्‍डे के विरोध में आवाज़ उठाये उसे फ़र्ज़ी मुक़दमे लगाकर जेल में डालना, उस पर भीड़ को उकसाकर हमले करवाना, उसके विरुद्ध झूठा दुष्‍प्रचार करवाना – ये है इनका लोकतंत्र! बेशर्मी और नंगई के लिए भाषा में जितने मुहावरे हैं वे नरेन्द्र मोदी और संघियों के लिए नाकाफ़ी साबित हो गये हैं।

दरअसल, यह सबकुछ संघियों की बढ़ती बदहवासी को दर्शा रहा है। अर्थव्‍यवस्‍था में छायी मन्दी और बढ़ती बेरोज़गारी के काले बादल दिन-ब-दिन घने होते जा रहे हैं और भगवाधारियों के दरबारी अर्थशास्‍त्री भी एक साल के भीतर उम्‍मीद की कोई किरण नहीं देख पा रहे हैं। तवलीन सिंह और चन्‍दन मित्रा जैसे मोदी की आरती गाने वालों के सुर बदलने का यही राज़ है। यही वजह है ‍कि सट्टा बाज़ार के सूचकांक में भले ही गिरावट देखने को मिल रही हो, लेकिन नफ़रत के सूचकांक में ज़बर्दस्‍त उछाल दिखायी दे रहा है। विकास की गर्जना अब शान्‍त हो चुकी है और साम्‍प्रदायिक विद्वेष व अन्धराष्‍ट्रवाद का उन्‍मादी शोरगुल देश भर में फैल रहा है। नरेन्‍द्र मोदी विकास की दहाड़ भूलकर अपने फिसड्डीपन का ठीकरा अतीत की सरकारों पर मढ़ने में लगे हुए हैं वहीं दूसरी ओर उनके संघी गिरोह के उपद्रवी बिरादर सड़कों पर आतंक मचाने से लेकर टीवी स्‍टूडियो और सोशल मीडिया, व्‍हाट्सऐप जैसे माध्‍यमों से अल्‍पसंख्‍यकों, दलितों, स्त्रियों और राजनीतिक विरोधियों के विरुद्ध निकृष्‍टतम स्‍तर के घृणि‍त विचारों का विषवमन करते दिख रहे हैं। हमेशा की तरह इनकी अगुवाई ख़ुद नरेन्‍द्र मोदी ने सँभाल रखी है। हाल में उत्‍तर प्रदेश के आज़मगढ़ में दिये अपने भाषण से उन्‍होंने अपनी लम्‍पट सेना को संकेत दे दिया है कि आने वाले दिनों में नफ़रत का तापमान कैसे बढ़ाना है।

स्‍पष्‍ट है कि राजस्‍थान, मध्‍य प्रदेश और छत्‍तीसगढ़ जैसे महत्‍वपूर्ण राज्‍यों में आगामी विधानसभा चुनावों में अपनी सरकारें बचाने और आगामी लोकसभा चुनाव से पहले मोदी सरकार के ख़ि‍लाफ़ बढ़ते जन असन्तोष की दिशा मोड़ने के लिए हिन्‍दुत्‍ववादी फ़ासिस्‍ट किसी भी हद से गुज़र सकते हैं। सत्‍ता खोने के भय वे और भी अधिक आक्रामक मुद्रा में आकर किसी बड़े षड्यंत्र को अंजाम देने से भी नहीं चूकेंगे। ऐसे में उनके गन्‍दे मंसूबों और जनविरोधी कारगुज़ारियों का पर्दाफ़ाश करना पहले से कहीं ज्‍़यादा ज़रूरी है। लेकिन इतना ही काफ़ी नहीं है। साम्‍प्रदायिक नफ़रत और अन्धराष्‍ट्रवाद की आग में देश को झोंकने की हिन्‍दुत्‍ववादी साज़ि‍शों को जनता के सामने उजागर करने के साथ-साथ रोज़गार, शिक्षा और स्‍वास्‍थ्‍य जैसी जीवन की बुनियादी ज़रूरतों के आधार पर आन्‍दोलन संगठित करने की आज सख़्त ज़रूरत है। मेहनतकश जनता के हितों की कीमत पर मोदी सरकार किस तरह अपने कॉरपोरेट आक़ाओं की तिजोरियाँ भरने के लिए सारे नियम-क़ानूनों को ताक पर धर रही है, कितने तरीक़ों से पूँजीपतियों की अवैध लूट के रास्‍ते खोले जा रहे हैं, देश के जल-जंगल-ज़मीन को कितने विनाशकारी ढंग से देशी-विदेशी लुटेरों के हवाले किया जा रहा है, इसका पर्दाफ़ाश लोगों के बीच लगातार करने की ज़रूरत है।

पूँजीपतियों के सबसे वफ़ादार चाकर के रूप में नरेंद्र मोदी और संघ जनता को लूटने-निचोड़ने की राह में हर बाधा को दूर करने के लिए तैयार हैं। यही फ़ासीवादी उभार का मकसद है। इसी के लिए मोदी को सत्‍ता में लाया गया है। भूलना नहीं चाहिए कि 2013 में जब ‘नीलसन-इकोनॉमिक टाइम्स सर्वेक्षण’ के दौरान भारत के सौ बड़े पूँजीपतियों से पूछा गया तो उनमें से 74 ने मोदी को प्रधानमन्‍त्री के रूप में देखना पसन्‍द किया। ‘सी.एल.एस.ए.’ और ‘गोल्डमैन साक्स’ और फिर जापानी ब्रोकरेज कम्पनी ‘नोमुरा’ को भी भारत में ‘मोदी लहर’ चलती दिखायी देने लगी यानी ज़्यादातर विदेशी कॉरपोरेट महाप्रभु भी मोदी पर ही दाँव लगा रहे थे। पूँजीपति तो सभी बुर्जुआ पार्टियों को उनकी औकात के हिसाब से पैसे देते हैं, पर 2014 में उन्होंने भाजपा के लिए अपनी थैलियों का मुँह कुछ ज़्यादा ही खोल दिया था। यह तथ्य सार्वजनिक न हो जाये, इसके लिए सारे पूँजीपति क़ानून में ऐसा बदलाव चाहते थे जिससे यह बताना ज़रूरी न हो कि किस पार्टी को किस घराने ने कितना चन्दा दिया। मोदी सरकार ने वित्‍त विधेयक में संशोधन करके उनकी यह माँग भी पूरी कर दी है। सत्‍ता में आने के बाद पूँजीपतियों के ”प्रधान सेवक” ने अपनी सेवा से उनका इतना दिल जीता कि 2017 में पूँजीपतियों से पार्टियों को मिलने वाले 956.77 करोड़ के चन्दे में से 705.81 करोड़ अकेले भाजपा को मिल गये। यह वह चन्‍दा था जो घोषित रूप से मिला। बाक़ी का तो हिसाब ही नहीं है।

झूठे मुद्दे उछालने, लम्‍बे-चौड़े हवाई वायदे करने, जुमलेबाज़ियों और नफ़रत फैलाने के ज़रिये असली मुद्दों को हाशिये पर धकेल देने की रणनीति में आर.एस.एस. हिटलर और मुसोलिनी का काबिल वारिस साबित हुआ है। इतिहास में हुई अपनी दुर्गति से सीखकर आज फ़ासीवादी राजनीति खुले-नंगे रूप की जगह संसद और संवैधानिक संस्थाओं का आवरण ओढ़कर अपनी नीतियों को लागू कर रही है। सेना-पुलिस-न्‍यायपालिका और चुनाव आयोग सहित तमाम संवैधानिक संस्‍थाओं और शिक्षा-संस्‍कृति-विज्ञान आदि के संस्‍थानों तक में इसने अपनी पैठ बनायी है और उनका बहुत योजनाबद्ध ढंग से भगवाकरण किया है। मोदी लहर के उतर जाने या चुनाव में इसके हार जाने से भी फ़ासीवादी राक्षस का अन्‍त नहीं हो जायेगा। समाज में इसकी जड़ें लगातार फैल रही हैं। धार्मिक, जातीय और अन्‍धराष्‍ट्रवादी नफ़रत का ज़हर पूरे समाज की पोर-पोर में फैलाने में ये कामयाब हो रहे हैं। बेरोज़गारी, ग़रीबी और महँगाई के कारण जनता में सुलग रहे ग़ुस्से को एक व्‍यापक आन्‍दोलन के रूप में फूट पड़ने से रोकने में ये इसीलिए कामयाब हो रहे हैं क्‍योंकि लोग आपस में बुरी तरह बँटे हुए हैं और एक-दूसरे को ही अपना दुश्‍मन मान बैठे हैं।

राजनीतिक तौर पर सचेत हर व्यक्ति पहले से ही जानता था कि मोदी सरकार नवउदारवादी नीतियों को लागू करने के साथ-साथ फ़ासीवादी लम्पट गिरोहों को खुला हाथ देगी, सभी प्रगतिशील शक्तियों पर हमला करेगी, साम्प्रदायिक तनाव को हवा देगी और भीड़ द्वारा अल्पसंख्यकों की हत्या को खुली छूट देगी, तर्कवादियों की हत्याओं को बढ़ावा देगी, युवाओं के व्यवस्थित फ़ासीवादीकरण के लिए पाठ्यक्रम में बदलाव करेगी, पूँजीवादी जनवादी प्रक्रियाओं और संस्थाओं को निलम्बित व बर्बाद करेगी, भले ही संसदीय जनवाद का ढाँचा औपचारिक तौर पर क़ायम रहे और यह सबकुछ हिन्दुत्व राष्ट्रवाद के नाम पर किया जायेगा। इसमें कुछ भी हैरान करने वाला नहीं है। फ़ासीवाद हमेशा से ही सबसे बीमार क़ि‍स्म की धार्मिक कट्टरता/नस्लवाद/प्रवासी-विरोध, अन्धराष्ट्रवाद, आधुनिक पुनरुत्थानवाद, विक्षिप्त क़ि‍स्म के प्रगतिशीलता-विरोध और टटपुँजिया वर्ग के रूमानी उभार का मिश्रण रहा है, जो कि मज़दूर वर्ग के भी एक हिस्से को अपने साथ बहा ले जाता है। संक्षेप में, फ़ासीवाद हमेशा से ही एक प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन  रहा है; यह कोई भी दक्षिणपन्थी प्रतिक्रिया नहीं है। संघ परिवार और मोदी सरकार ने फ़ासीवाद की इस ख़ासियत को एक बार फिर से प्रदर्शित किया है, जिसे बहुत समय पहले मार्क्सवादियों द्वारा पहचान लिया गया था लेकिन जिसके बारे में आज क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों में सबसे कम समझदारी दिखायी पड़ती है।

मन्दी और मुनाफे़ की गिरती दर का पुराना पूँजीवादी रोग आज विश्व पूँजीवाद के असाध्य ढाँचागत संकट के दौर में अभूतपूर्व रूप से गम्भीर हो चुका है। यह अनायास नहीं है कि विकसित पश्चिम में भी आज नवफ़ासीवादी दल और आन्दोलन सिर उठा रहे हैं और तीसरी दुनिया के पिछड़े पूँजीवादी देशों में तरहतरह की धार्मिक कट्टरपन्थी, नस्लवादी, कबीलावादी और उग्र जातिवादी ताक़तें अपनी उग्र उपस्थिति दर्ज करा रही हैं। भारतीय पूँजीपति वर्ग के सामने पूँजीवादी विकास के मौजूदा मॉडल से पीछे हटने का विकल्प ही नहीं है। नवउदारवादी नीतियों को कुछ ”मानवीय चेहरे” के साथ प्रस्तुत करने का स्कोप भी काफी संकुचित हो चुका है। व्यापक जनअसन्‍तोष के विस्फोट का ख़तरा और चुनावी राजनीति के लोकरंजक आग्रह उसे कुछ कथित ”कल्याणकारी” कदम उठाने की ओर ले जाते हैं, दूसरी ओर पूँजीवादी संकट का दबाव उसे विवश करता है कि वह बाज़ार की शक्तियों को खुला हाथ दे और मजदूरों की श्रमशक्ति की लूट के लिए श्रम क़ानूनों को ज़्यादा से ज़्यादा लचीला बना दे। पूँजीपति वर्ग की यह दुविधा सबसे पुरानी और विश्वस्त बुर्जुआ पार्टी कांग्रेस की नीतियों में दिखती है, हालाँकि उसका झुकाव भी क्रमशः ज़्यादा से ज़्यादा निरंकुश सर्वसत्तावादी होने की दिशा में ही है।

मगर भाजपा की दृष्टि एकदम साफ़ है। वह नवउदारवाद की नीतियों की उस समय से पैरोकारी करती रही है, जब इन नीतियों की विश्वव्यापी लहर आयी भी नहीं थी। इसीलिए, मोदी के ‘गुजरात मॉडल’ ने देशी-विदेशी पूँजीपतियों को लुभाया था और उन्‍होंने उसे सत्‍ता में लाने के लिए तिजोरियाँ खोल दी थीं। नरेन्द्र मोदी ने पूँजीपतियों पर अंकुश रखने वाले क़ानूनों को ढीला करने, उन्हें टैक्स में भारी छूटें देने, और पब्लिकप्राइवेट पार्टनरशिप की खुली और पुरज़ोर वकालत की। श्रम क़ानूनों को ताक पर रखकर कारख़ाना मालिकों को लूटमार की खुली छूट देने का वादा किया और सत्ता में आते ही इन पर अमल शुरू कर दिया। जहाँ तक इन नीतियों से उपजे जनअसन्तोष के विस्फोट से निपटने का सवाल है, भाजपा मेहनतकशों के आन्दोलनों के दमन के लिए पूरे देश कोपुलिस राज्तक में बदल देने के लिए तैयार पार्टी है। दूसरे, संघ परिवार के तमाम संगठन दिनोंरात जो नफ़रत फैलाते हैं उसका असली मकसद है लोगों को इस क़दर आपस में बाँट देना कि वे अपने हक़ों की लूटखसोट के विरुद्ध एक होकर लड़ ही न सकें। इसमें कोई ताज्जुब की बात नहीं है कि मोदी सरकार ने सत्ता में आने के बाद से ही जनविरोधी और पूँजीपरस्त नीतियों को धड़ल्ले से और तानाशाहाना तरीक़े से लागू करना शुरू किया। मोदी को सत्ता में पहुँचाने के लिए ही तो बड़े पूँजीपतियों और साम्राज्यवादी पूँजी ने हज़ारों करोड़ रुपये मोदी के चुनाव प्रचार में पानी की तरह बहाये थे। मोदी द्वारा नवउदारवादी नीतियों को धक्काज़ोरी से आगे बढ़ाने में किसी को भी आश्चर्य नहीं होता क्योंकि फ़ासीवाद हमेशा ही बड़ी पूँजी के सबसे प्रतिक्रियावादी धड़े की ”सबसे बर्बर और नग्न तानाशाही” होता है। मोदी सरकार इस आम नियम का अपवाद नहीं है।

जनता की वर्गीय एकजुटता को छिन्न-भिन्न करने के लिए भारत में कट्टर हिन्दुत्ववाद की राजनीति सबसे प्रभावी है, इसके लिए मन्दिर कार्ड खेला जा रहा है, तालिबानी आतंकवाद का हौवा खड़ा करके पूरी मुस्लिम आबादी को अलगाव में डालने की साज़ि‍शें की जा रही हैं, दंगे भड़काये जा रहे हैं और साम्प्रदायिक तनाव का देशव्यापी माहौल पैदा किया जा रहा है। इसके साथ ही, बीच-बीच में कभी चीन और कभी पाकिस्तान के साथ सीमा-विवाद और कश्मीर के सवाल को तूल देकर उग्र अन्धराष्ट्रवाद को भी खूब हवा दी जा रही है। पूरी तरह कॉरपोरेट घरानों का ग़ुलाम मीडिया झूठों के इस जुलूस में सबसे आगे डंका बजाते हुए चल रहा है। भाजपा को लेकर देशी-विदेशी पूँजीपतियों की चिन्‍ता और दुविधा सिर्फ यह है कि मोदी की तमाम कारगुज़ारियों के बावजूद न तो अर्थव्‍यवस्‍था में उछाल आ रहा है, न मुनाफ़ा बढ़ रहा है (अडानी-अम्‍बानी-रामदेव जैसों को छोड़कर) और न ही देश में पूँजी निवेश के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ बन पा रही हैं। मोदी और संघ की ओर से उन्‍हें आश्वस्त किया जा रहा है कि अल्पसंख्यकों और अन्‍य उत्‍पीड़ि‍त तबकों को आतंकित करके दोयम दर्जे के नागरिकों जैसी स्थिति में धकेलने के बाद लगातार सामाजिक अशान्ति की स्थिति नहीं बनी रहेगी। आपस में बँटे हुए मेहनतकश अपनी सस्ती से सस्ती श्रमशक्ति बेचने को मजबूर होंगे और ग़रीबों की वर्गीय एकजुटता बनने से रोकी जा सकेगी। ऐसे में वे बेरोकटोक जनता को चूसकर अपना मुनाफ़ा बढ़ा सकेंगे। पूँजीपतियों का बड़ा हिस्‍सा इसीलिए अब भी मोदी पर दाँव लगाने के लिए तैयार दिखता है, हालाँकि बीच-बीच में उनके बीच से चिन्‍ता के स्‍वर भी उभर रहे हैं।

मोदी सरकार की बढ़ती अलोकप्रियता से उत्‍साहित बहुत से लोग अभी से यह ख़ुशफ़हमी पालने लगे हैं कि 2019 में मोदी की हार होगी और उसके साथ ही देश को फ़ासीवाद से मुक्ति मिल जायेगी। कई लोग कांग्रेस का पुनरुत्थान होता हुआ देखकर बहुत आशान्वित हैं। बेशक़ नोटबन्दी और जीएसटी जैसे जनविरोधी आर्थिक क़दमों के कारण मोदी सरकार का सामाजिक आधार घटा है। इसके अलावा मोदी के सत्ता में आने के बाद से बेरोज़गारी, महँगाई और खेती के संकट के अभूतपूर्व रफ़्तार से बढ़ने ने भी असन्‍तोष को हवा दी है। वामपन्थियोंका एकचिरन्तन और नादान आशावादीहिस्सा है जो मोदी के अलोकप्रिय होने से कुछ ज़्यादा ही उत्साहित हो गया है और अगले चुनाव में फ़ासीवाद के ख़ात्मे की आशा में यह भूल ही गया है कि फ़ासीवाद को महज़़ चुनावी रणनीति से नहीं हराया जा सकता है। कुछ चुनावों में भाजपा की हार पर ख़ुशी से उछलने लगना और उसकी चुनावी जीत पर हताशा में डुबकी लगा जाना इस प्रकार के नादान आशावादियों के बुर्जुआ विभ्रमों को ही दिखाता है।

”वामपन्थियों” का एक अन्य हिस्सा है जो हाल के घटनाक्रमों से यह नतीजा निकालता है कि फ़ासीवाद ह्रास और पतन का शिकार है। ज़ाहिर है कि वे ‘मोदी लहर’ और फ़ासीवाद के बीच फ़र्क़ नहीं कर पाते। ‘मोदी लहर’ मौजूदा फ़ासीवादी उभार का तात्कालिक रूप है; यह अपने आप में फ़ासीवाद नहीं है। इसके नीचे जाने का मतलब फ़ासीवाद का कमज़ोर पड़ना नहीं है। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि बहुत अलोकप्रिय हो जाने की स्थिति में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ख़ुद ही मोदी को किनारे लगाकर किसी और चेहरे को आगे कर दे। ऐसे ‘वामपन्थियों’ का राजनीतिक मोतियाबन्द उन्हें सारवस्तु को देखने नहीं देता और वे हमेशा ऊपरी सतह पर ही अटके रहते हैं। यही कारण है कि जब मोदी जीत जाता है तो पीछे देखने पर उन्हें आडवाणी ‘कम बुरा’ लगने लगता है; जब आडवाणी शीर्ष पर पहुँच जाता है, तो उन्हें अटल बिहारी वाजपेयी का व्‍यक्तित्‍व उदार लगने लगता है; और यह असम्भव नहीं है कि अगर कोई मोदी से भी ज़्यादा रुग्ण, प्रतिक्रियावादी और आक्रामक व्यक्तित्व फ़ासीवादियों या सरकार के शीर्ष पर पहुँच जायेगा तो ऐसे लोगों को पीछे देखने पर मोदी भी उदार नज़र आने लगे।

उदार ”वाम” का एक अन्य हिस्सा भी है जो कि अभी भी मोदी व फ़ासीवाद को हराने के लिए दमित अस्मिताओं को जोड़-तोड़कर कोई समीकरण बनाने के फेर में पड़ा हुआ है। पिछले कई चुनावों में भाजपा के अपेक्षा से ख़राब प्रदर्शन का मुख्य कारण था समाज के कुछ हिस्सों का वर्गीय असन्तोष व ग़ुस्सा, भले ही वे वर्ग ‘राजनीतिक’ रूप में सचेत या संगठित नहीं थे। लेकिन इन वामपंथियों ने दावा किया कि दलितों, आदिवासियों, मुसलमानों, पिछड़ों आदि ने मिलकर भाजपा को अनेक जगहों पर हराया है। वास्‍तव में यह ग़रीब और निम्न मध्यम किसानों, निम्न मध्य वर्ग और मज़दूर वर्ग का असन्तोष था जिसके कारण चुनावों में भाजपा का प्रदर्शन उसकी अपेक्षा के अनुरूप नहीं रहा। मगर यह उदारवादी वाम या वाम उदारवादी धड़ा, और विशेष तौर पर बुद्धिजीवी, भाजपा को हराने के एक अस्त्र के रूप में दलित, ओबीसी, मुसलमान और स्त्री आदि का समीकरण बनाने जैसे सुझाव उछाल रहे हैं। इस तरह की बातें बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय को एक बहुसंख्यवादी साम्प्रदायिक फ़ासीवादी गोलबन्दी में तब्दील करने के भाजपा के मंसूबों को फ़ायदा ही पहुँचाती हैं। दूसरी बात यह है कि ऐसे समुदायों को जोड़-गाँठकर कोई एकता बन ही नहीं सकती है। जिस गोलबन्दी में फ़ासीवाद का मुँहतोड़ जवाब देने की ताक़त है वह है वर्गीय गोलबन्दी। लेकिन वर्गीय गोलबन्दी पर इन उदार वामपन्थियों को भरोसा नहीं है और न ही इसकी लम्बी व कठिन राह पर चलने का उनमें दम और हौसला है।

भारत की ”उदारवादी वामपन्थी” जमात की एक और श्रेणी उन लोगों की है जो अचानक राहुल गाँधी और कांग्रेस के समर्थक बन गये हैं। उन्होंने अख़बारों में और वेबसाइटों पर राहुल गाँधी और कांग्रेस में आये भारी बदलाव के बारे में कॉलम लिखने शुरू कर दिये हैं और सोशल मीडिया पर मुहिम छेड़ दी है। कांग्रेस के खेल में वापस आने से वे काफ़ी ख़ुश हो गये हैं। उनका तर्क है कि फ़ासीवादी भाजपा को हराने के लिए हमें ‘टैक्टिक्‍स’ के तौर पर राहुल गाँधी का समर्थन करना चाहिए, जो, चाहे राजनीतिक लाभ के लिए ही सही, लेकिन आम मेहनतकश जनता के मुद्दे उठा रहे हैं। ऐसे लोग लघुकालिक स्मृतिलोप की बीमारी, यानी ‘गजनी’ फ़ि‍ल्‍म के नायक की तरह थोड़ी-थोड़ी देर में बातों को भूल जाने की बीमारी से ग्रस्‍त होते हैं। किसी भी प्रकार के क्रान्तिकारी बदलाव में उनका भरोसा नहीं होता और वे किसी कम बुरे की तलाश में हमेशा व्यस्त रहते हैं। वे भूल जाते हैं कि फ़ासीवाद का ज़हरीला कुकुरमुत्ता हमेशा उदार बुर्जुआ जनवाद के खण्डहर पर उगता है। वे किसी राहुल गाँधी, मायावती, ममता बनर्जी या लालू प्रसाद यादव के कन्धे पर खड़े होकर फ़ासीवाद को पीछे धकेल देने का मुग़ालता पाले रहते हैं।

एक और श्रेणी ऐसे लोगों की है जो कि फ़ासीवादी पूँजीपति वर्ग और पूँजीपति वर्ग के अन्य हिस्सों में फ़र्क़ करने में बुरी तरह असफल रहते हैं। अफ़सोस की बात है कि कई क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट भी इस भोंडे़ भौतिकवादी और यान्त्रिक विश्लेषण का शिकार हो जाते हैं। ऐसे लोग सोशल मीडिया पर इस तरह की बातें लिखते रहते हैं : ”क्या फ़र्क़ पड़ता है? भाजपा जीते या कांग्रेस, हारेगी तो जनता ही!” ”कांग्रेस तो ख़ुद ही फ़ासीवादी है, क्या आप आपातकाल को भूल गये?”; ”कांग्रेस की राजनीति के कारण ही तो संघ परिवार बढ़ा है, इसलिए इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है कि भाजपा जीते या कांग्रेस!” यह समझ न सिर्फ़ अवैज्ञानिक है बल्कि वास्‍तविकता से बुरी तरह कटी हुई भी है। यह छद्म रैडिकल तेवर से भरी ”वामपन्थी” भाषणबाज़ी से ज़्यादा कुछ नहीं है। फ़ासीवादियों और अन्य प्रकार की दक्षिणपन्थी प्रतिक्रिया और साथ ही फ़ासीवादियों और उदार बुर्जुआ वर्ग, मध्यमार्गी बुर्जुआ वर्ग या दक्षिणमध्य बुर्जुआ वर्ग के बीच अन्तर किया जाना चाहिए। कांग्रेस एक मध्य-दक्षिणपन्थी पूँजीवादी पार्टी है, जो कि भारतीय बुर्जुआ राजनीति में फ़ासीवादी संघ परिवार के विपरीत ध्रुव की भूमिका अदा करती है। ज़रूरत और तात्कालिक लाभ के लिए कभी यह वाम दिशा की तरफ़ झुकाव वाली नीतियाँ अपनाती रही है तो कभी घोर दक्षिणपंथी रुख अपनाती रही है और लम्‍बे समय तक भारतीय पूँजीपति वर्ग की सबसे विश्‍वस्‍त पार्टी रही है। लेकिन यह फ़ासिस्‍ट विचार पर गठित खाँटी फ़ासिस्‍ट पार्टी नहीं है और न ही इसके पीछे कोई घोर प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्‍दोलन है, जैसाकि भाजपा के साथ है। कांग्रेस के इस विशिष्ट गुण के कारण, भाजपा और कांग्रेस के बीच निश्चित ही फ़र्क़ किया जाना चाहिए क्योंकि इससे फ़ासीवाद-विरोधी रणनीति के प्रभावी होने पर काफ़ी फ़र्क़ पड़ता है।

इक्कीसवीं सदी में फ़ासीवादी उभार को समझते समय यह बात दिमाग़ में रखी जानी चाहिए कि इतिहास अपने आपको दुहराता नहीं है। क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन में ऐसे कई लोग हैं जो भारत में फ़ासीवाद के मौजूदा उभार का विश्‍लेषण करने के लिए बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में जर्मनी या इटली में फ़ासीवादी उभार से इसकी तुलना करने लगते हैं। तत्‍कालीन जर्मनी या इटली की और उस समय दुनिया की परिस्थितियों तथा आज के हालात में आये बदलावों को ध्‍यान में लाये बिना ये लोग बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध के फ़ासीवाद के अनुभव और आज के फ़ासीवादी उभार के गुणों का मिलान करने लग जाते हैं और कई गुणों का मिलान न होने पर ऐलान कर देते हैं कि मौजूदा फ़ासीवादी उभार पर्याप्त रूप में फ़ासीवादी नहीं है, या अर्द्धफ़ासीवादी है, या अभी पूरी तरह से फ़ासीवादी नहीं हुआ है, आदि-आदि। ये लोग इस मोटी-सी बात को नहीं समझ पाते कि केवल  क्रान्तिकारी विचारधारा व राजनीति ही इतिहास से सबक लेकर अपने को नहीं बदलते बल्कि प्रतिक्रियावादी विचारधारा और राजनीति भी अपने ऐतिहासिक अनुभवों की समीक्षा-समाहार करते हैं, उससे सीखते हैं और अपनी रणनीतियों में बदलाव लाते हैं। ऐसे भी लोग हैं जो कहते हैं कि भारत में चूँकि अभी संसदीय लोकतन्त्र क़ायम है, इसलिए मोदी सरकार को फ़ासीवादी सरकार नहीं माना जा सकता है। कुछ तो यह भी कहते हैं कि भारतीय संविधान के ”प्रगतिशील” और ”जनवादी” चरित्र के कारण भारत में फ़ासीवाद आ ही नहीं सकता है! ऐसे तर्क के बारे में जितना कम कहा जाय उतना अच्छा है। ऐसे लोग इतिहास की गति समझ पाने में असमर्थ हैं।

ज़ाहिर है कि मोदी का फ़ासीवाद हूबहू हिटलर-मुसोलिनी का फ़ासीवाद नहीं हो सकता। भारत जैसे पिछड़े पूँजीवादी देश का आज का फ़ासीवाद बीसवीं शताब्दी के जर्मनी और इटली का फ़ासीवाद नहीं हो सकता। भारतीय पूँजीवाद, जो साम्राज्यवादियों का कनिष्ठ साझीदार है, यह युद्ध द्वारा विश्व बाजार पर कब्जे के मंसूबे नहीं पाल सकता, ज़्यादा से ज़्यादा अपने कमजोर पड़ोसियों को दबाने-डराने का काम कर सकता है। इसका मुख्य निशाना देश की आम मेहनतकश आबादी है और धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय हैं। धार्मिक अल्पसंख्यकों को यह दोयम दर्जे का नागरिक बनाने की कोशिश कर रहा है। मजदूरों और आम मेहनतकश आबादी को यह लोहे के हाथों से कुचलने का काम करेगा। रहीसही ट्रेड यूनियन गतिविधियों पर भी अंकुश लगायेगा। पिछले चार वर्ष में इसने संसदीय जनवाद को काफ़ी हद तक महज़ रस्मी बना दिया है और अगर यह दुबारा सत्ता में आया तो संसद तथा विभिन्न संवैधानिक संस्थाएँ नाममात्र के लिए रह जायेंगी और जनता के रहेसहे जनवादी अधिकार भी छीन लिये जायेंगे। लेकिन अगर मोदी की अगुवाई में संघी फ़ासीवादी दिल्ली की गद्दी तक दुबारा नहीं पहुँच पाये, तो भी एक धुर प्रतिक्रियावादी, मुस्लिमविरोधी, दलितविरोधी, स्त्रीविरोधी, कम्युनिस्टविरोधी सामाजिक आन्दोलन के रूप में भारतीय सामाजिकराजनीतिक परिदृश्य पर हिन्दुत्ववादी फ़ासीवादी लहर का वजूद बना रहेगा। पूँजीवाद ज़ंजीर से बँधे कुत्ते की तरह इसे बनाये रखेगा, ताकि आगे कभी भी इसका इस्तेमाल किया जा सके।

इस नवफ़ासीवादी लहर का मुकाबला न तो कुछ पैस्सिव किस्म की बौद्धिक-सांस्कृतिक गतिविधियों से किया जा सकता है, न ही ‘सर्वधर्मसमभाव’ की अपीलों से। यह केवल संसदीय चुनाव के दायरे में जीत-हार का सवाल भी नहीं है। सत्ता में न रहते हुए भी ये फ़ासीवादी जनता को बाँटने की साज़ि‍शें और दंगे भड़काने का खूनी खेल जारी रखेंगे। जो सच्‍चे सेक्युलर बुद्धिजीवी हैं, उन्हें अपनी आरामगाहों ओर अध्ययन कक्षों से बाहर आकर, लगातार, पूरे समाज में और मेहनतकश तबकों में जाना होगा, तरह-तरह के उपक्रमों से धार्मिक कट्टरपन्‍थ के विरुद्ध प्रचार करना होगा, साथ ही जनता को उसकी जनवादी माँगों पर लड़ना सिखाना होगा, मज़दूरों को नये सिरे से जुझारू संगठनों में संगठित होने की शिक्षा देनी होगी, पूँजीवाद और साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष के ऐतिहासिक मिशन से उन्हें परिचित कराना होगा, उन्हें भगतसिंह, राहुल सांकृत्‍यायन और मज़दूर संघर्षों की गौरवशाली विरासत से परिचित कराना होगा। मज़दूर वर्ग के अगुआ तत्वों और क्रान्तिकारी वाम की कतारों को तृणमूल स्तर पर जनता के बीच ये कार्रवाईयाँ चलाते हुए संघ परिवार के ज़मीनी तैयारी के कामों का प्रतिकार करना होगा। यह लड़ाई सिर्फ 2019 के चुनावों तक की ही नहीं है। यह एक लम्बी लड़ाई है।

भाजपा के खराब प्रदर्शन पर तालियाँ पीटने, या फ़ासीवाद को हराने के लिए चुनावी रणनीति को एकमात्र रणनीति के तौर पर देखने के बजाय, हमें एक लम्बी और निर्णायक लड़ाई की तैयारी करनी होगी; इसमें कोई सन्देह नहीं कि मौजूदा समय हमें अपना काम शुरू करने के लिए एक अच्‍छा मौक़ा दे रहा है क्योंकि मोदी लहर में गिरावट साफ़ दिखायी दे रही है। लोग नाराज़ हैं, असन्तुष्ट हैं और क्रान्तिकारी प्रचार और उद्वेलन के लिए तैयार हैं। साथ ही, यह भी याद रखा जाना चाहिए कि क्रान्तिकारी शक्तियों को पूँजीवादी चुनावों में भी रणकौशलात्मक भागीदारी करनी चाहिए और सर्वहारा वर्ग का स्वतन्त्र राजनीतिक पक्ष प्रस्तुत करना चाहिए और साथ ही पूँजीवादी व्यवस्था को उसके असम्भाव्यता के बिन्दु पर पहुँचाना चाहिए। लेकिन यह भी नहीं भूला जाना चाहिए कि समूची फ़ासीवाद-विरोधी रणनीति को चुनावी रणनीति में ही समेट नहीं देना चाहिए। यह न सिर्फ़ नुक़सानदेह होगा, बल्कि आत्मघाती होगा। क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट शक्तियों के बीच मज़दूर वर्ग का संयुक्त मोर्चा स्थापित करना और जनसमुदायों के बीच मज़बूत सामाजिक आधार का निर्माण आज कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के समक्ष दो महत्वपूर्ण और तात्कालिक कार्यभार हैं। आगे हम किस हद तक सफल होंगे, यह इस बात पर ही निर्भर करता है कि इन दोनों कार्यभारों को किस हद तक पूरा कर पाते हैं।

 

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2018


 

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