मुज़फ़्फ़रपुर, देवरिया से लेकर पूरे देश भर में बच्चियों का आर्तनाद नहीं, बल्कि उनकी धधकती हुई पुकार सुनो!
सत्ता के संरक्षण में जारी बच्चियों के यौन शोषण के खि़लाफ़ आवाज़ उठाओ!!

वारुणी

पिछले जुलाई महीने में सामने आयी बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर में  बालिका गृहों में हुई बलात्कार की घटना ने सबको झकझोर कर रख दिया। उसके कुछ दिनों बाद ही देवरिया, प्रतापगढ़, पटना से लेकर पूरे देश भर में पूँजीवादी पितृसत्ता का कोढ़ फूटकर बह निकला। पूँजी और सत्ता की मद में चूर बर्बर बलात्कारी किसी पौराणिक कथा के राक्षसों से भी ज़्यादा बर्बर कृत्यों को अंजाम दे रहे हैं और अट्टहास कर रहे हैं। सत्ता के संरक्षण में ऐसे कुकृत्य को अंजाम दिया जाना पूरी व्यवस्था पर सवाल खड़ा करता है।

सबसे पहले मुज़फ़्फ़रपुर में यह घटना सामने आयी। कुछ महीने पहले  बिहार सरकार की पहल पर टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंस (टिस) की ‘कोशिश’ यूनिट द्वारा बिहार के तमाम बालिका गृहों का सोशल ऑडिट करवाया गया था। क़रीब 38  जि़लों के 110 ऐसे संस्थानों में यह ऑडिट किया गया और इसकी रिपोर्ट 27 अप्रैल 2018 को सरकार के समाज कल्याण विभाग को सौंप दी गयी। इस रिपोर्ट में साफ़ ज़ाहिर किया था कि 14 ऐसे संस्थान हैं जहाँ पर यौन शोषण होने की आशंका जतायी गयी। इस रिपोर्ट के आधार पर टिस द्वारा तुरन्त कार्यवाही करने व जाँच टीम भेजने की माँग की गयी, लेकिन इसके बावजूद भी समाज कल्याण विभाग ने कोई कार्यवाही नहीं की। 1 महीने बाद यानी 31 मई को पुलिस स्टेशन में एफ़आईआर दर्ज की जाती है और वह भी सिर्फ़ मुज़फ़्फ़रपुर के सेवा संकल्प समिति द्वारा चलाये जा रहे संस्थान पर! लेकिन उसमें भी एक महीने तक कोई गिरफ़्तारी नहीं होती है! एक कैम्पस में 34 बच्चियों के साथ बलात्कार का नेटवर्क एक्सपोज़ हुआ और तब तक मुख्य आरोपी का चेहरा किसी ने नहीं देखा था। 3 जून को मुख्य अपराधी ब्रजेश ठाकुर समेत 10 अन्य अपराधियों की गिरफ़्तारी होती है, लेकिन उस पर भी ख़बर की पड़ताल ठप रहती है। शुरुआत से ही मीडिया भी इस पूरे रुख पर चुप्पी साधे रहती है। जिस बालिका गृह में 42 में से 34 लड़कियों के साथ बलात्कार लगातार होता रहा, यह कैसे सम्भव है कि वहाँ हर महीने जाँच के लिए जाने वाले एडिशनल ज़िला जज के दौरे के बाद भी मामला सामने नहीं आ सका। बालिका गृह के रजिस्टर में दर्ज है कि न्यायिक अधिकारी भी आते थे और समाज कल्याण विभाग के अधिकारी के लिए भी सप्ताह में एक दिन आना अनिवार्य है। बालिका गृह की देखरेख के लिए पूरी व्यवस्था बनी हुई है। समाज कल्याण विभाग के पाँच अधिकारी होते हैं, वकील होते हैं, सामाजिक कार्य से जुड़े लोग होते हैं। एक दर्जन से ज़्यादा लोगों की निगरानी के बाद भी 34 बच्चियों के साथ बलात्कार हुआ है। हाईकोर्ट के अधीन राज्य विधिक आयोग होता है जिसके मुखिया हाईकोर्ट के ही रिटायर जज होते हैं। बालिका गृहों की देखरेख की ज़िम्मेदारी इनकी भी होती है। मामला सामने आते ही उसी दिन राज्य विधिक आयोग की टीम बालिका गृह पहुँची। उसकी रिपोर्ट के बारे में जानकारी नहीं है। ब्रजेश ठाकुर की हँसी बयान कर रही है कि बिना सत्ता में बैठे लोगों और पुलिस की मिलीभगत के यह काण्ड सम्भव नहीं था!

इतने बड़े काण्ड को मीडिया ने भी प्रमुखता से नहीं दिखाया! ज़िला संस्करण में ख़बर छपती रही मगर राजधानी पटना तक नहीं पहुँची! जब पहुँची तब लोगों के संघर्षों के दबाव में आकर ”सुशासन बाबू” नीतीश कुमार को इस मसले पर अपनी चुप्पी तोड़नी पड़ी! चुप्पी इसलिए भी तोड़नी पड़ी क्योंकि जदयू की ही समाज विभाग की मन्त्री मंजू वर्मा के पति का नाम इसमें आ रहा था! इस काण्ड के मुख्य आरोपी ब्रजेश ठाकुर से उनकी साँठ-गाँठ थी। इस मामले में समाज कल्याण विभाग पर ज़ाहिरा तौर पर सवाल उठता है कि क्यों 1 महीने बाद इस मामले पर कोई कार्रवाई हुई? इन सब पर मंजू वर्मा के इस्तीफ़े की माँग पर नितीश और सुशील मोदी दोनों ही मंजू वर्मा के पक्ष में खड़े दिखे! और इस पूरे मामले को एक आम घटना के तौर पर पेश करने की कोशिश की गयी! शायद यह इसलिए भी है, क्योंकि ख़ुद नितीश कुमार के ही ब्रजेश ठाकुर से सम्बन्ध हैं! उनके साथ उठना-बैठना होता रहा है, लेकिन इन सब पर सुशासन बाबू चुप्पी साधे रह गये!

 यह बात भी ग़ौर करने लायक है कि इतने दिनों तक मीडिया में इस ख़बर को प्रमुखता क्यों नहीं मिली? आपको बता दें कि बालिका गृह को चलाने वाला ब्रजेश ठाकुर पत्रकार भी रहा है और पत्रकारों के नेटवर्क में उसकी पैठ है। एनजीओ के साथ ही वह एक हिन्दी अख़बार प्रातः कमल, उर्दू अख़बार हालात-ए-बिहार और अंग्रेज़़ी दैनिक न्यूज़ नेक्स्ट भी चलाता है। इसका दफ़्तर बालिका गृह के प्रांगण में ही है। ब्रजेश ठाकुर के अख़बारों का प्रसार तो वैसे बहुत कम था, लेकिन सरकारी विज्ञापन नियमित मिलते थे और इस बीच विज्ञापनों की संख्या में वृद्धि भी हुई। यही नहीं, प्रातः कमल, हालात-ए-बिहार और न्यूज़ नेक्स्ट के कम से कम 9 पत्रकारों को एक्रेडिटेशन कार्ड मिला हुआ है। और तो और प्रेस इनफ़ॉर्मेशन ब्यूरो के एक्रेडिटेड पत्रकारों में ब्रजेश ठाकुर भी शामिल है।

टिस की रिपोर्ट के बाद ब्रजेश ठाकुर के एनजीओ को ब्लैकलिस्ट कर दिया गया था, इसके बावजूद उसे भिखारियों के लिए आवास बनाने के वास्ते हर महीने 1 लाख रुपये का प्रोजेक्ट दिया गया था। हालाँकि, बाद में इस प्रोजेक्ट को रद्द कर दिया गया। ब्रजेश ठाकुर के रसूख का अन्दाज़ा इस बात से भी लग जाता है कि 2013 में ही उसके एनजीओ को लेकर समाज कल्याण विभाग को नकारात्मक रिपोर्ट भेजी गयी थी, इसके बावजूद एनजीओ को हर साल निर्बाध रूप से फ़ण्ड मिलता रहा। साहू रोड में स्थित बालिका गृह के अलावा ब्रजेश ठाकुर चार और एनजीओ चलाता था, जिसके लिए केन्द्र और राज्य सरकार की तरफ़ से हर साल 1 करोड़ रुपये दिये जाते थे। पूरे मामले में समाज कल्याण विभाग का कामकाज भी सन्देह के घेरे में है क्योंकि इन गृहों को फ़ण्ड इसी विभाग से जारी किया जाता था। इससे साफ़ हो जाता है कि इसमें समाज कल्याण विभाग के अधिकारियों की मिलीभगत थी। लेकिन, अब तक इस विभाग के जि़म्मेदार अधिकारियों की न तो शिनाख़्त हुई है और न ही कोई कार्रवाई। समाज कल्याण विभाग के डायरेक्टर (सोशल वेलफ़ेयर) राज कुमार ने सीधे तौर पर ऐसी किसी कार्रवाई से इनकार किया। एनजीओ को संचालित करने और नियमित फ़ण्ड मिलने में व ब्रजेश ठाकुर पर एफ़आईआर दर्ज होने के बाद भी सरकार द्वारा बड़े मात्रा पर विज्ञापन मिलने, यह सब बिना सत्ता के संरक्षण के सम्भव नहीं!

इस पूरे मामले के सामने आने पर, जिसमें 42 में से 34 बच्चियों के साथ बलात्कार की पुष्टि हुई है, उन्हें दूसरे बालिका गृहों में स्थानान्तरित कर दिया गया है। पर उनमें से 11 साल की एक बच्ची, जिसने ब्रजेश ठाकुर की पहचान की थी, को मधुबनी के बालिका गृह में भेज दिया गया और वह बच्ची अब ग़ायब हो गयी है। ख़बर यह भी है कि मधुबनी के बालिका गृह का संचालन जदयू नेता संजय झा के पीए की पत्नी संचालित करती है। इस ख़बर के प्रकाशन के बाद एक तरफ़ स्थानीय पुलिस अधिकारी कहते हैं कि बच्ची विकलांग है, बोल नहीं सकती है और वह भाग गयी है, जबकि सच्चाई कुछ और ही है! दरअसल वह बच्ची बस हकला कर बोलती है।

इस पूरे मामले में नितीश सरकार ने भले ही सीबीआई जाँच बैठा दी हो, भले ही जनता व मीडिया के दवाब में आकर मंजू वर्मा ने इस्तीफ़ा दे दिया हो, भले ही ब्रजेश ठाकुर गिरफ़्तार हो गया हो या उसके अख़बार बन्द कर दिये गये हों, लेकिन सच्चाई सिर्फ़ यह नहीं कि कोई एक व्यक्ति या प्रशासनिक लापरवाही इसके लिए ज़िम्मेदार है, बल्कि एक बड़ी सच्चाई इसके पीछे है जिसको छुपाने की कोशिश की जा रही है। हम सभी जानते है कि सीबीआई कितनी तत्परता से फ़ैसला सुनायेगी! सत्ता से संश्रय पाये कितने नेता-मन्त्री जो इस घिनौने कुकृत्य में संलिप्त थे, उनके चेहरे सामने आयेंगे भी या नहीं – यह नहीं बताया जा सकता है! अभी तक जो भी कार्रवाई हुई, वह जनता के दवाब में आकर हुई। ऐसे में हम इस न्याय-व्यवस्था पर कैसे भरोसा कर सकते हैं?

अब बात सिर्फ़ मुज़फ़्फ़रपुर की भी नहीं रही है! ख़ुद टिस की रिपोर्ट में 14 ऐसे अन्य बालिका गृह हैं, जहाँ ऐसी ही घटना की आशंका जतायी गयी है, पर अभी तक सरकार द्वारा उस पर कोई क़दम नहीं उठाया गया है। टिस की रिपोर्ट को अभी तक सार्वजनिक भी नहीं किया गया है! इसमें उच्चतम न्यायालय ने हस्तक्षेप कर बिहार सरकार से कहा है कि वह राज्य में आश्रय गृहों की टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज (टिस) द्वारा की गयी सोशल ऑडिट रिपोर्ट को सार्वजनिक करे। उन 14 बालिका गृहों के अलावा उत्तर प्रदेश के देवरिया जि़ले में भी ऐसी ही ख़बर बाहर आयी। देवरिया में ‘माँ विन्ध्यवासिनी’ नामक महिला प्रशिक्षण एवं सामाजिक सेवा संस्थान में बच्चियों से यौन उत्पीड़न का मामला तब सामने आया जब 10 साल की बच्ची शेल्टर होम से भागकर महिला थाना में रपट लिखवायी! यहाँ पर कुल 42 बच्चियाँ थीं, जिनमें से अभी भी 18 लापता हैं! यहाँ भी वही कहानी है। पहले 23 जून 2017 को ही संस्था की संचालिका पर केस दर्ज कराने का आदेश दिया गया था। लेकिन इसमें 1 साल लग गया। फिर जि़ला प्रोबेशन अधिकारी ने 31 जुलाई को ही केस दर्ज करने का आदेश दिया। लेकिन दर्ज होने के बाद खुलासे में 5 दिन लग गये। यही नहीं संस्था की मान्यता रद्द होने के एक साल बाद भी संस्था चलती रही। उत्तर प्रदेश के ही प्रतापगढ़ जि़ले में ‘जागृति महिला स्वाधार आश्रय’ में 26 महिलाएँ ग़ायब मिलीं। इसकी संचालिका रमा मिश्रा भाजपा महिला मोर्चा की जि़लाध्यक्ष और सभासद रह चुकी हैं। भोपाल में मूक-बधिर लड़कियों से बलात्कार का मामला सामने आया। इस मामले में भी आरोपी अश्विनी शर्मा का भाजपा के मुख्यमन्त्री शिवराज सिंह चौहान से नज़दीकी सम्बन्ध बताया जा रहा है। और अब बिहार की राजधानी पटना में आश्रय गृह में रहने वाली 2 महिलाओं की मौत का मामला सामने आया है।

यह तो बस वे ही घटनाएँ हैं, जो सामने आयी  हैं। अभी न जाने कितने और ऐसे बालिका गृह हैं जहाँ सत्ता की साँठ-गाँठ से ऐसे कुकृत्य अभी भी जारी होंगे! केन्द्र द्वारा कोर्ट में पेश की गयी एक रिपोर्ट के अनुसार देश के विभिन्न भागों में आश्रय गृहों में 286 लड़कों सहित 1575 बच्चों का शारीरिक शोषण या यौन उत्पीड़न किया गया है। इस पूरे मामले को हम एक सामान्य घटना के तौर पर नहीं देख सकते! महज़ कुछ ब्रजेश ठाकुर जैसे लोग या प्रशासनिक लापरवाही इसकी ज़िम्मेदार नहीं, बल्कि सत्ता में बैठे कई लोग भी शामिल हैं इसमें! सरकार द्वारा संचालित इन बालिका गृहों में यौन शोषण और यहाँ तक कि जिस्मों की ख़रीद-बिक्री की इन घटनाओ ने आज पूरी व्यवस्था पर सवाल खड़ा किया है। यह घटना मानवद्रोही, सड़ान्ध मारती पूँजीवादी व्यवस्था की प्रातिनिधिक घटना है। इस घटना ने राजनेताओं, प्रशासन, नौकरशाही, पत्रकारिता व न्यायपालिका सबको कटघरे में खड़ा कर दिया है!

वास्तव में बच्चियों-लड़कियों के इस बर्बर उत्पीड़न को हम तब तक नहीं समझ सकते, जब तक हम पूँजीवाद -पितृसत्ता के गँठजोड़ को नहीं समझ लेते। मौजूदा व्यवस्था में मुट्ठी-भर पूँजीपतियों का सारी चीज़ों पर नियन्त्रण है। भारत जैसे देशों में जहाँ एक ओर स्त्रियों को पैर की जूती समझने, ‘भोग्या’ समझने की पुरानी मान्यता क़ायम है, वहीं पूँजीवादी व्यवस्था के क़ायम होने के बाद आधुनिकता के नाम पर तर्क की जगह नयी विकृतियाँ भयंकर सड़ान्ध पैदा कर रही हैं। एक तरफ़ स्त्रियों को अपनी पोशाक, पेशा और जीवन साथी चुनने जैसे मामलों में आज़ादी नहीं है; वहीं दूसरी ओर मुनाफ़े के मद्देनज़र उनको विज्ञापनों, फि़ल्मों, पोर्न साइटों, घटिया गानों आदि के द्वारा बाज़ार के लिए बाज़ार में ‘उपभोग की वस्तु’ के रूप में उतार दिया है। मौजूदा व्यवस्था में आर्थिक संकट लगातार अपराध, बेरोज़गारी बढ़ा रहा है। नारी संरक्षण गृह, वेश्यावृत्ति के तमाम अड्डे इस व्यवस्था की देन हैं। फिर इन जगहों पर मौजूद लड़कियों के शरीर को मुनाफ़ा कमाने में इस्तेमाल किया जाता है। ख़ुद महिला एवं बाल विकास मन्त्री राजेन्द्र कुमार का बयान है कि तीन साल में 1 लाख बच्चों का यौन शोषण हुआ है। हर 24 घण्टे में 27 बच्चे लापता हुए हैं। 2015-16 में इसमें 4।4 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। धनिकों, नेताओं, अफ़सरों की हवस पूरी करने के लिए इन जगहों से लड़कियों की सप्लाई होती है। पोर्न फि़ल्मों, बाल वेश्यावृत्ति का धन्धा अरबों का है। ये धन्धा बिना सरकार व प्रशासन को साथ लिए हो ही नहीं सकता है।

जैसे-जैसे पूँजी का संकट बढ़ता जा रहा है वैसे-वैसे राजनीति का अपराधीकरण बढ़ता जा रहा है। जनता के वास्तविक मुद्दों को उठाने व उनका समाधान करने में वर्तमान पूँजीवादी राजनीति अक्षम हो चुकी है। दंगाइयों, अपराधियों को टिकट दिया जाता है। बलात्कार के आरोपी संसद-विधानसभाओं में बैठे हैं। इनसे क्या स्त्रियों के बारे में किसी तरह की संवेदनशीलता की उम्मीद की जा सकती है? अभी हाल ही में मोदी सरकार के रेल राज्य मन्त्री गोंहाई के ख़िलाफ़ बलात्कार का मुक़दमा दर्ज हुआ है। 48 सांसद-विधायक ऐसे हैं जिन पर महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध के केस दर्ज हैं। जिसमें भाजपा सबसे आगे है। क्या इनको किसी क़ानून का डर है? कुलदीप सिंह सेंगर जैसे अपराधियों के चेहरे पर ख़ौफ़ का न होना और ब्रजेश ठाकुर जैसे बर्बर बलात्कारियों की हँसी क्या सब कुछ बयान नहीं कर देता? जहाँ थानों तक में बलात्कार होते हैं, जहाँ लाखों मामले न्यायालयों के पोथों में दफ़न हो जाते हैं, जहाँ ‘भारत माता की जय’, ‘जय श्रीराम’ के नारों और तिरंगे की आड़ में बलात्कार व हत्या जैसे अपराध को जायज़ ठहराया जाता है, वहाँ हम केवल व्यवस्था और सरकारों के भरोसे नहीं बैठे रह सकते!  उन तमाम बच्चियों को तब तक इन्साफ़ नहीं मिलेगा, जब तक हम आवाज़ नहीं उठायेंगे! हमें हर ऐसी घटना के खि़लाफ़ सड़कों पर उतरना होगा, लेकिन साथ ही इस पूँजीवादी पितृसत्तात्मक व्यवस्था की क़ब्र खोदने के लिए एक लम्बे युद्ध का ऐलान करना होगा, जो इन सारे अपराधों की जड़ है।

मज़दूर बिगुल, अगस्‍त 2018


 

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