मौजूदा किसान आन्दोलन और इनकी माँगें
ये किन वर्गों के हित में हैं? क्या इनसे ”किसानी के संकट” और गाँव के ग़रीबों की समस्याओं का हल सम्भव है?

पिछले लम्बे समय से देश में ग़रीब किसानों का शोकेस या विज्ञापन की तरह इस्तेमाल करके धनी किसानों की राजनीति हो रही है। ग़रीब किसानों के कन्धों पर बेताल की तरह लटके तमाम एनजीओबाज़, वामपन्थी संशोधनवादी पार्टियाँ और ग़रीब किसानों के तथाकथित हितैषी उन्हें शमशान के ख़ौफ़नाक अँधेरे से बाहर ही नहीं निकलने दे रहे हैं। पिछले दिनों 29 और 30 नवम्बर को दिल्ली में किसानों का एक और बड़ा जमावड़ा हुआ। ‘अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति’ के नेतृत्व में आयोजित इस कार्यक्रम को ‘किसान मुक्ति यात्रा’ का नाम दिया गया था। इस ‘मुक्ति यात्रा’ में 200 से ज़्यादा किसान संगठनों ने भागीदारी की। मीडिया के माध्यमों के अनुसार इस ‘मुक्ति यात्रा’ में 30 हज़ार के क़रीब किसानों ने शिरकत की। पहले बात 1 लाख तक की भागीदारी की हो रही थी। देश भर से जुटे किसान-जत्थों ने दिल्ली में विभिन्न स्थानों से प्रवेश किया तथा रामलीला मैदान में लगे पण्डाल में पहुँचे। वहाँ से अगले दिन किसानों ने संसद मार्ग तक मार्च किया। ‘किसान मुक्ति यात्रा’ की अगुवाई समिति के महासचिव अवीक शाहा, योगेन्द्र यादव, पी. साईनाथ, मेधा पाटकर आदि आदि जैसे लोग थे। इस किसान यात्रा को सम्बोधित करने के लिए तथा मंच से अपना चेहरा दिखाकर हाथों में हाथ डालकर फ़ोटो खिंचवाने के लिए कांग्रेस के राहुल गाँधी, आम आदमी पार्टी के अरविन्द केजरीवाल, माकपा के सीताराम येचूरी, नेशनल कॉन्फ्रेंस के फ़ारुख अब्दुल्ला, लोकतान्त्रिक जनता दल के शरद यादव, एनसीपी के शरद पवार आदि समेत 21 पार्टियों के नेता मंच साझा करते दिखे। ‘अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति’ ने पूर्ण रूप से क़र्ज़ माफ़ी लागू कराने और फ़सल की लागत से डेढ़ गुणा ज़्यादा दाम देने की माँगों को लेकर यह ‘मुक्ति यात्रा’ आयोजित की थी। समिति माँग कर रही थी कि किसानों की माँगों को पूरा करने के लिए संसद में विशेष सत्र बुलाया जाना चाहिए। इस बात में कोई दो राय नहीं होना चाहिए कि ‘किसान’ शब्द और रूपक वोट बैंक के लिए भावनात्मक अपील करने की पर्याप्त कुव्वत रखता है। इस ‘किसान मुक्ति यात्रा’ में विभिन्न चुनावी मदारियों की अवसरवादी उपस्थिति तो यही दर्शाती है। किसानों के समर्थन में पी. साईनाथ और योगेन्द्र यादव जैसे एनजीओबाज़ जगह-जगह करुण क्रन्दन करने के अन्दाज़ में भावुकतापूर्ण अपील करते घूम रहे थे। ग़रीब किसानों को उनके इसी हाल में कैसे फाँसकर रखा जाये इस बात को ये ‘समझदार लोग’ भली प्रकार से समझा सकते हैं। लेकिन तार्किक बात से सहमत करने की बजाय भावना का क्लोरोफ़ॉर्म सुँघाकर भला लोगों को कब तक रखा जा सकता है?

इस ‘मुक्ति यात्रा’ से कुछ ही दिन पहले पेट्रोल-डीज़ल की महँगाई, समय पर फ़सल के दाम देने, स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिशें लागू कराने, क़र्ज़ माफ़ी, सस्ता बिजली-पानी जैसी माँगों के 21 सूत्रीय माँग-पत्रक के साथ भारतीय किसान यूनियन के नेतृत्व में हरिद्वार से दिल्ली के लिए हज़ारों के काफ़िले के साथ दिल्ली आये थे। किसान 23 सितम्बर को हरिद्वार के बाबा टिकैत घाट से चले थे। 2 अक्टूबर के दिन दिल्ली में प्रवेश करते समय सरकार ने इन किसानों पर दमन चक्र चला दिया था। उन पर आँसू गैस के गोले दागे गये, लठियाँ भाँजी गयीं और रबड़ की गोलियाँ तक छोड़ी गयी थीं। अन्त में किसानों को देर रात किसान घाट तक जाने भी दिया गया था। इस रैली का नेतृत्व किसान नेता महेन्द्र सिंह टिकैत के बेटे नरेश टिकैत और राकेश टिकैत सम्हाल रहे थे। राष्ट्रीय लोकदल भी अपना ‘पुश्तैनी’ क्षेत्र होने के चलते कहाँ पीछे हटने वाले थे। अतः वे भी यात्रा में शामिल हुए।

देश के ग़रीब किसानों के हालात वाक़ई बद से बदतर हो रहे हैं। 30 दिसम्बर 2016 को जारी की गयी राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (‘एनसीआरबी’) के आँकड़ों के अनुसार साल 2015 में कुल 12,602 किसानों और खेत मज़दूरों ने आत्महत्याएँ की थीं। अपनी जान देने वालों में 7,114 ख़ुदकाश्त किसान, 893 पट्टे पर ज़मीन लेकर खेती करने वाले किसान और 4,595 खेत मज़दूर शामिल थे। 2014 की ‘एनसीआरबी’ की रिपोर्ट के अनुसार 2014 में कुल 12,360 किसानों और खेत मज़दूरों ने जान दी थी। इनमें 4,949 ख़ुदकाश्त किसान, 701 पट्टे पर ज़मीन लेकर खेती करने वाले किसान और 6,710 खेत मज़दूर थे। 2018 के आँकड़े बताते हैं कि मोदी सरकार के चार साल के शासन काल में 50 हज़ार से ज़्यादा किसानों ने आत्महत्या की है। कहना नहीं होगा कि न केवल किसान बल्कि खेत मज़दूर भी आत्महत्याओं की भेंट चढ़ते हैं। पूँजीवाद में छोटा माल उत्पादक हमेशा संकट में रहता है तथा यही चीज़ किसानी पर भी लागू होती है। जोत का आकार लगातार घटता जा रहा है, खेती के बाज़ारीकरण, कॉर्पोरेटीकरण के कारण बड़ी पूँजी वाले धनी किसान और ‘एग्रो बिज़नेस’ कम्पनियाँ तो मुनाफ़ा कमा जाती हैं किन्तु छोटा और ग़रीब किसान अपनी लागत भी नहीं निकाल पाता। सरकारें हमेशा ही बड़ी पूँजी के साथ खड़ी होती हैं, यह कोई नयी बात नहीं है। 6 सितम्बर की एक ख़बर के मुताबिक़ साल 2016 में कृषि ऋण के नाम पर देश के 615 खाता धारकों के खातों में 59 हज़ार करोड़ रुपये भेजे गये यानी औसतन हरेक के खाते में 95 करोड़ का कृषि ऋण! आर्थिक मन्दी से कराह रही पूँजीवादी व्यवस्था में सरकारों ने ‘कल्याणकारी राज्य’ का चोला अब पूरी तरह से उतार फेंका है। और खुले तौर पर देशी-विदेशी पूँजी की चाकरी हो रही है। उदाहरण के लिए प्रधानमन्त्री फ़सल बीमा योजना को ही ले सकते हैं, जिसमें ग़रीब किसानों का ज़बरदस्ती बीमा किया जा रहा है तथा जितने का बीमा होता है नुक़सान के समय उससे बहुत कम बीमा राशि का भुगतान किया जाता है। प्रधानमन्त्री फ़सल बीमा योजना लागू होने के बाद विगत दो वर्षों में ही कम्पनियों को 36,848 करोड़ रुपये ज़्यादा प्रीमियम प्राप्त हुआ है यानी लोगों की जेबों से निकला आय का वो हिस्सा जिसका भुगतान नहीं किया गया और उसे सीधा कम्पनियों की जेब में डाला गया।

पिछले कुछ ही सालों के दौरान गुज्जर, जाट, पटेल, मराठा, कापू इत्यादि जातियों – जिनका बड़ा हिस्सा पुश्तैनी तौर पर खेती-किसानी से जुड़ा रहा है – के नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण की माँग को लेकर उठे आन्दोलन भी किसानी के बीच पसरी घोर निराशा, असहायता, मायूसी और सुरक्षाबोध को ही दर्शाते हैं। वर्ग विभाजित समाज में क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट छोटे और सीमान्त किसानों से इसीलिए सरोकार रखते हैं क्योंकि वे सर्वहारा वर्ग के सबसे घनिष्ट सहयोगी और वर्ग मित्र हैं। ख़ाली भावुकतावाद से कुछ होता-जाता नहीं है और मानवतावादी दलीलें भी वर्ग निरपेक्ष क़तई नहीं हुआ करती हैं! ऐसे दौर में उजड़ते हुए किसान यानी सीमान्त, छोटे और ग़रीब किसान को बचाने के लिए जो माँगें उठायी जा रही हैं क्या ये वाक़ई उनके हित में हैं?

आज यह बात पूरी तरह से साफ़ है कि भारतीय समाज की प्रमुख उत्पादन पद्धति पूँजीवादी उत्पादन पद्धति है। आज़ादी के बाद समझौते के बाद देश का पूँजीपति वर्ग शासन सत्ता में आया तथा उसने क्रमिक सुधार के रास्ते से पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों को बढ़ावा दिया। धीरे-धीरे ही सही किन्तु पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों का बोलबाला होता चला गया तथा यही नहीं फिर 1990 के दशक में उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण के दौर में पूँजीवादी विकास में अभूतपूर्व गति आयी। इसके बाद देश के सुदूर अंचलों तक में पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्ध हावी होते चले गये। देश में उत्पादन प्रमुख तौर पर उपभोग की बजाय बाज़ार के लिए यानी एक माल के तौर पर होता है तथा पूरी तरह से केन्द्रीयकृत राज्यसत्ता है। उक्त दोनों ही लक्षण पूँजीवादी व्यवस्था के बुनियादी लक्षण हैं। पहली बात तो सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का हिस्सा लगातार घटता जा रहा है। 2016-17 में सकल घरेलू उत्पाद (‘जीडीपी’) में (2016-17 के मूल्यों के अनुसार) कृषि का योगदान मात्र 17 प्रतिशत रह गया जबकि उद्योग और सेवा क्षेत्र का क्रमशः 29 प्रतिशत और 54 प्रतिशत तक पहुँच गया। जबकि यदि 1950-51 की बात की जाये तो जीडीपी में कृषि का योगदान (2016-17 के मूल्यों के अनुसार) 52 फ़ीसदी था जबकि उद्योग और सेवा क्षेत्र का क्रमशः 14 फ़ीसदी और 33 फ़ीसदी था। यही नहीं कृषि में पूँजीवादी माल उत्पादन साफ़ दिखायी देता है। कृषि से जुड़ी आबादी के बीच वर्ग ध्रुवीकरण लगातार तेज़ गति से जारी है। बाज़ार के लिए उत्पादन की प्रवृत्ति यहाँ भी साफ़-साफ़ दिखायी देती है। खेतिहर बुर्जुआ वर्ग और ग्रामीण सर्वहारा वर्ग के रूप में किसानों का अधिकाधिक विभेदीकरण हो रहा है। साधारण माल उत्पादन से पूँजीवादी माल उत्पादन में प्रभावशाली ढंग से संक्रमण दशकों पहले हो चुका है। अब तो पूँजी की मार गाँव-देहात की आबादी का सर्वहाराकरण करने में कोई भी कोर-कसर नहीं छोड़ रही है। 2 हेक्टेयर से कम जोत वाले सीमान्त और छोटे किसानों की संख्या 2010-11 में 84.97 प्रतिशत थी जो 2015-16 के नये आँकड़े के अनुसार 86.21 प्रतिशत हो चुकी है तथा इन नीचे के 86 प्रतिशत किसानों के पास कुल ज़मीन का मात्र 47 प्रतिशत हिस्सा है जबकि ऊपर के 14 प्रतिशत किसानों के पास ज़मीन का 53 प्रतिशत हिस्सा है।

लेनिन के शब्दों में, ”किसानों का ग्रामीण सर्वहारा में रूपान्तरण मुख्यतः उपभोग की वस्तुओं का बाज़ार तैयार करता है, जबकि किसानों का ग्रामीण बुर्जुआ में रूपान्तरण मुख्यतः उत्पादन के साधनों का बाज़ार तैयार करता है। दूसरे शब्दों में, ‘किसानों’ के सबसे निचले समूहों में हमें श्रम-शक्ति का माल में रूपान्तरण दिखायी देता है, जबकि ऊपरी समूहों में उत्पादन के साधनों का पूँजी में रूपान्तरण दिखायी देता है। इन दोनों ही रूपान्तरणों का परिणाम घरेलू बाज़ार के निर्माण की वह प्रक्रिया होती है जो सिद्धान्त रूप में आमतौर पर सभी पूँजीवादी देशों में स्थापित है” (लेनिन, सम्पूर्ण रचनाएँ, खण्ड 3, पृष्ट 166, अंग्रेज़ी संस्करण)। भारत में यही प्रक्रिया घटित हो रही है। कृषि पर निर्भर बहुत बड़ी आबादी की श्रमशक्ति का अब ख़रीदे-बेचे जा सकने वाले माल के तौर पर रूपान्तरण हो रहा है तथा छोटी-सी पूँजीवादी ढंग के कृषकों की आबादी उभर रही है। इसी बात को आँकड़ों की मदद से हम आगे और भी स्पष्ट करेंगे। ‘जजमानी प्रथा’ जोकि ग्रामीण अर्थव्यवस्था का एक प्रमुख अवलम्ब हुआ करती थी, आज नाममात्र के लिए रह चुकी है या फिर अपनी अन्तिम साँसें गिन रही है। आज गाँव में रहने वाली ग़ैर-कृषक आबादी अपने जातिगत पेशों को छोड़ रही है या थोड़ा-बहुत कहीं पर पेशागत कार्य होता भी है तो विनिमय के तौर पर अनाज की बजाय मुद्रा प्राथमिकता होती है। कहना नहीं होगा कि ग्रामीण भारत आज वह नहीं रह गया है जोकि वह 70 साल पहले हुआ करता था, उसमें मात्रात्मक ही नहीं बल्कि गुणात्मक बदलाव दृष्टिगोचर हो रहे हैं।

समाज में मौजूद सभी वर्ग अपने ऐतिहासिक योगदान के तौर पर ही प्रगतिशील और प्रतिगामी होते हैं, क्रान्तिकारी और प्रतिक्रियावादी होते हैं। वैज्ञानिक समाजवाद के प्रणेताओं और अग्रणी शिक्षकों कार्ल मार्क्स और फ्रे़डरिक एंगेल्स द्वारा लिखित ‘कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र’ की निम्न पंक्तियों से इस बात को हम और आसानी से समझ सकते हैं, ”निम्न मध्यम वर्ग के लोग – छोटे कारख़ानेदार, दुकानदार, दस्तकार और किसान – ये सब मध्यम वर्ग के अंश के रूप में अपने अस्तित्व को नष्ट होने से बचाने के लिए पूँजीपति वर्ग से लोहा लेते हैं। इसलिए वे क्रान्तिकारी नहीं, रूढ़िवादी हैं। इतना ही नहीं, चूँकि वे इतिहास के चक्र को पीछे की ओर घुमाने की कोशिश करते हैं, इसलिए वे प्रतिगामी हैं। अगर कहीं वे क्रान्तिकारी हैं तो सिर्फ़ इसलिए कि उन्हें बहुत जल्द सर्वहारा वर्ग में मिल जाना है; चुनांचे वे अपने वर्तमान नहीं, बल्कि भविष्य के हितों की रक्षा करते हैं; अपने दृष्टिकोण को त्यागकर वे सर्वहारा का दृष्टिकोण अपना लेते हैं।”

कृषि की स्थिति भी पूँजीवाद के आम नियमों से स्वतन्त्र नहीं होती है। इसमें भी बड़ी पूँजी छोटी पूँजी को तबाह-बर्बाद करती है। कृषक स्वयं एक माल उत्पादक होता है। वह बड़ा उत्पादक भी हो सकता है जिसके पास सैकड़ों हेक्टेयर कृषि योग्य जोत हो और वह छोटा भी हो सकता है जोकि अपनी एक-दो हेक्टेयर या बिलकुल नाममात्र की ज़मीन पर सपरिवार मेहनत करके मुश्किल से गुज़ारा भर कर पाता हो। इसलिए सबसे पहले तो यही सवाल खड़ा होता है कि क्या ‘किसान’ प्रवर्ग में सभी किसानों के हित को ‘एक लकड़ी से हाँकना’ सम्भव हो सकता है। और यदि ऐसा है तो किसानों के तारणहार बनकर घूम रहे नेता या तो बहुत भोले हैं या फिर कहानी कुछ और ही है! आज के अस्मितावादी और पहचान की राजनीति के दौरे-दौरा में किसान पहचान को महिमामण्डित करने वाले और ग़रीब किसानों के स्वघोषित हितैषी असल मायने में उनके कितने हितैषी हैं, यह भी हम अपनी पड़ताल में स्पष्ट करने का प्रयास करेंगे।

पिछले दो-तीन दशकों से किसान आन्दोलनों में उठायी जाने वाली सबसे प्रमुखतम तीन माँगें हैं; पहली है फ़सल का लाभकारी मूल्य बढ़ाने की माँग और दूसरी है कृषि में होने वाली लागत को कम करने की माँग तथा तीसरी है कृषि ऋण की माफ़ी की माँग। स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिशों में भी उक्त तीनों ही माँगों को स्थान दिया गया है। सन 2004 में तत्कालीन कांग्रेस नीत ‘यूपीए’ सरकार के कार्यकाल में मोनकोम्पू साम्बासिवन स्वामीनाथन की अध्यक्षता में अनाज की आपूर्ति को सुनिश्चित करने लिए व किसानों की आर्थिक हालत को बेहतर करने के मक़सद से बनी ‘नेशनल कमीशन ऑन फ़ार्मर्स’ ने अपनी पाँच रिपोर्टें सरकार के सामने पेश की थीं। आयोग के द्वारा अन्तिम व पाँचवीं रिपोर्ट 4 अक्टूबर 2006 को सौंपी गयी थी। सरकारों द्वारा ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ (‘एमएसपी’) औसत लागत से 50 प्रतिशत अधिक करने और क़र्ज़ माफ़ी समेत लागत मूल्य कम करने के अलावा आयोग द्वारा की गयी सिफ़ारिशों में भूमि सुधार, सिंचाई, खाद्य सुरक्षा, किसान आत्महत्याओं के समाधान, राज्य स्तरीय किसान आयोग बनाने, सेहत सुविधाओं से लेकर वित्त-बीमा की स्थिति सुनिश्चित करने पर बल दिया गया था।

निश्चय ही देश की काफ़ी बड़ी आबादी कृषि से जुड़ी है किन्तु औसत जोत का आकार छोटा होने के कारण प्रति व्यक्ति उत्पादकता बेहद कम है, बहुत बड़ी आबादी तो मज़बूरी में खेती-किसानी में उलझी हुई है जिसके पास कोई वैकल्पिक रोज़गार नहीं है। देश के स्तर पर देखा जाये तो 2011 के सामाजिक-आर्थिक सर्वे व 2011-12 की कृषि जनगणना के अनुसार गाँवों के क़रीब 18 करोड़ परिवारों में से 54 प्रतिशत श्रमिक हैं जबकि 30 प्रतिशत कृषक हैं इसके अलावा 14 प्रतिशत सरकारी/ग़ैर-सरकारी नौकरी, 1.6 प्रतिशत ग़ैर-कृषि कारोबार से जुड़े हैं। जैसाकि ऊपर दिये गये आँकड़ों से स्पष्ट है कि किसानों का बहुत बड़ा हिस्सा रसातल में है तथा छोटी जोत होने के कारण न केवल इस हिस्से की उत्पादन लागत औसत से अधिक आती है बल्कि पूँजी के अभाव में यही हिस्सा क़र्ज़ के बोझ तले भी दबा रहता है। 2013 के सैम्पल सर्वे के अनुसार केवल 13 प्रतिशत किसान ही न्यूनतम समर्थन मूल्य, लाभकारी दामों का फ़ायदा उठा पाते हैं और भाजपा के आने के बाद तो यह आँकड़ा 6 प्रतिशत तक ही रह गया है। इसका कारण कुछ और नहीं बल्कि औसत उत्पादन लागत में आने वाले ख़र्च का फ़र्क़ ही है, ज़ाहिर सी बात है अपनी निजी कृषि मशीनों-उपकरणों, बड़ी जोत और धनबल के आधार पर बने रसूख के कारण धनी किसानों की कृषि लागत भी कम आयेगी जबकि हर समय क़र्ज़ के बोझ तले दबे और किराये पर उपकरण-मशीनें लेकर खेती में लगे ग़रीब किसानों की कृषि लागत अधिक आयेगी! और यदि सही पड़ताल के साथ देखा जाये तो यह बात भी स्पष्ट है कि सीमान्त व छोटे किसान के लिए सिर्फ़ कृषि पर निर्भर रहकर अपनी आजीविका तक कमा पाना ख़ासा मुश्किल काम है, इसीलिए परिवार के किसी न किसी सदस्य को ग़ैर-कृषि व्यवसाय या नौकरी-चाकरी में ख़ुद को लगाना पड़ता है। गाँव-देहात में खेती को महिमामण्डित करने वाली कहावतें ख़ूब प्रचलित हैं, किन्तु आज स्थिति यह है कि बेटे हेतु चपरासी की नौकरी के लिए ही एक ग़रीब किसान अपनी ज़मीन का टुकड़ा गहने/रेहन रखने या फिर बेचने तक के लिए तैयार बैठा है! पर्याप्त पूँजी और संसाधन नहीं होने के कारण न केवल कृषि बल्कि सामूहिक चरागाहों के समाप्त हो जाने के साथ ही छोटे पैमाने के पशुपालन भी आज घाटे का सौदा बन चुके हैं। एक हालिया सर्वे के अनुसार पक्का रोज़गार मिलने की ऐवज में ग़रीब किसानों का 61 प्रतिशत हिस्सा ख़ुशी-ख़ुशी खेती छोड़ने के लिए तैयार बैठा है।

दूसरे पहलू से यदि देखा जाये तो आमतौर पर सीमान्त और छोटा किसान जितनी कृषि पैदावार मण्डी में बेचता है उससे कहीं ज़्यादा साल भर में ख़रीद लेता है। जैसे एक छोटा और सीमान्त किसान गेहूँ, सरसों, बाज़रा, धान जैसी फ़सलों का गुज़ारे लायक़ रखने के बाद एक हिस्सा मण्डी में बेच भले ही ले किन्तु उसे साल भर अन्य कृषि उत्पाद जैसे दालें, चीनी, चावल, पत्ती, तेल, गुड़, तम्बाकू, फ़ल-सब्ज़ी, पशुओं के लिए खल-बिनोला इत्यादि से लेकर वे उत्पाद जिनमें कच्चे माल के तौर पर कृषि उत्पादों का इस्तेमाल होता है ख़रीदने ही पड़ेंगे। कहना नहीं होगा कि यदि फ़सलों के दाम लागत से 50 प्रतिशत अधिक तय होते हैं तो केवल वे उन्हीं फ़सलों के तो होने से रहे जिन्हें छोटी किसानी का 85 प्रतिशत हिस्सा मण्डी तक पहुँचाता है बल्कि ये बढ़े हुए ‘लाभकारी’ दाम तो सभी फ़सलों पर ही लागू होंगे, या नहीं? तो, अब यह सवाल उठना लाज़िमी है कि फ़सलों के लाभकारी दाम बढ़ाने की माँग किसके हित में जाती है? निश्चय ही महँगाई में सहायक भूमिका निभाने वाली यह माँग खेत मज़दूरों, औद्योगिक मज़दूरों समेत अन्य मज़दूरों के साथ-साथ शहरी ग़रीबों के ख़िलाफ़ तो है ही, बल्कि उक्त माँग असल में ख़ुद ग़रीब किसानों के हितों के भी ख़िलाफ़ जाती है। यह अनायास ही नहीं है कि कांग्रेस नीत ‘यूपीए’ सरकार के शासन काल में जब समर्थन मूल्यों में तुलनात्मक रूप से वृद्धि की गयी थी तब बदले में बेहिसाब बढ़ी महँगाई ने ग़रीब आबादी की कमर तोड़ने का ही काम किया था। और वहीं दूसरी तरफ़ 2003 से 2013 के 10 वर्षों में कृषि उत्पाद में 13 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी दर्ज हुई किन्तु इसी दौरान किसानों पर क़र्ज़ 24 प्रतिशत बढ़ गया।

खेती किसानी में लागत मूल्य कम करने की माँग को देखा जाये तो पहली बात तो यही स्पष्ट है कि धनी और ग़रीब किसान दोनों का ही औसत ख़र्च यानी कि लागत अलग-अलग आती है, जिस पर हम थोड़ी-सी बात ऊपर कर आये हैं। दूसरा, लागत मूल्य का एक महत्वपूर्ण हिस्सा ‘मज़दूरी’ भी होता है। धनी किसान और एग्रो बिज़नेस कम्पनियाँ मज़दूरों की श्रमशक्ति का सीधे इस्तेमाल करती हैं और कृषि मशीनरी निर्माण में लगी श्रमिक आबादी भी श्रमशक्ति बेचकर ही ज़िन्दा रहती है। राजनीतिक अर्थशास्त्र का प्राथमिक ज्ञान हासिल किया हुआ व्यक्ति भी इस बात को भली प्रकार से समझ सकता है कि कृषि की लागत क़ीमतों को कम तभी किया जा सकता है जब कृषि की आगत लागतों (‘इनपुट कॉस्ट’) को कम किया जाये। और आमतौर पर ये कम तभी हो सकती हैं जब कृषि व सम्बन्धित उद्यमों में लगे श्रमिकों की या तो मज़दूरी घटायी जाये, या उतनी ही मज़दूरी में अधिक घण्टे काम लिया जाये या फिर श्रम की सघनता बढ़ायी जाये। सरकारों से साँठ-गाँठ करके कृषि क्षेत्र में लगी खाद-बीज, ‘एग्रो-बिज़नेस’ और बैंक-बीमा कम्पनियाँ ख़ुद ही धनी किसानों के पूँजी निवेश का एक माध्यम हैं। निश्चय ही सरकारें इनकी लूट और अँधेरगर्दी पर आँच नहीं आने देंगी। यह बात भी स्पष्ट ही है कि कृषि मशीनों का ज़्यादा इस्तेमाल तो धनी किसान यानी ‘कुलक फ़ार्मर’ ही करते हैं, सीमान्त और छोटे किसान तो कृषि उपकरणों और मशीनरी को भाड़े-किराये पर ही लेते हैं। इस प्रकार से लागत मूल्यों में कमी की माँग भी समाज के ‘किस तबक़े के पक्ष में’ जायेगी और ‘किस तबक़े के विरुद्ध’, यह स्पष्ट है।

किसान आन्दोलनों के घोषणापत्रों में ‘क़र्ज़ माफ़ी’ भी एक प्रमुख माँग है। यही नहीं विभिन्न चुनावी मदारी क़र्ज़ माफ़ी का मुद्दा उछालकर किसानों के वोट भी बटोरते रहे हैं। स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिशें पेश किये जाने के बाद से ही यदि देखा जाये तो कई बार अलग-अलग मौक़ों पर बिजली बिलों से लेकर, क़र्ज़ माफ़ होते रहे हैं किन्तु ग़रीब किसान फिर-फिर क़र्ज़ के बोझ तले ख़ुद को दबा हुआ पाते हैं। इसलिए समस्या के असल कारण कहीं और हैं। तथा क़र्ज़ केवल ग़रीब किसान ही नहीं लेते बल्कि धनी किसान भी लेते हैं जिसे वे माफ़ी के दौरान सीधे तौर पर निगल जाते हैं और शुद्ध मुनाफ़ा कमाते हैं। जैसा कि हमने ऊपर ज़िक्र किया ही था कि कैसे मोदी राज में 615 खाता धारकों के खातों में कृषि ऋण के नाम पर 59 हज़ार करोड़ रुपये भेजे गये। धनी किसान क़र्ज़ माफ़ी का ख़ूब फ़ायदा उठाते हैं। उपरोक्त क़र्ज़ माफ़ी का टोना-टोटका और झाड़-फूँक तात्कालिक तौर पर भले ही राहत देती प्रतीत होती हो किन्तु दूरगामी तौर पर यह भी छलावा मात्र ही है। किसानों की समस्याओं का यह कोई दूरगामी हल नहीं है। पूँजीवादी व्यवस्था की गतिकी ही ऐसी है कि इसमें ग़रीब किसानों की हालत बद से बदतर होती जाती है तथा इनका एक हिस्सा लगातार उजड़कर उजरती मज़दूर यानी अपनी मेहनत बेचकर ज़िन्दा रहने वाले मज़दूर वर्ग में शामिल होता रहता है। फिर क़र्ज़ में दी जाने वाली राशि भी सरकारें जनता से ही तो निचोड़ती हैं। उस बहुत बड़ी मज़दूर आबादी का क्या दोष है जिसकी जेब से गया अप्रत्यक्ष करों का पैसा सरकारें उस पर ख़र्च न करके किसी और पर ख़र्च कर देती हैं?

आज के समय ख़ासतौर पर लाभकारी मूल्य बढ़ाने, लागत मूल्य घटाने, क़र्ज़ माफ़ करने की माँगों के समर्थन में तक़रीबन सभी विपक्षी पार्टियाँ, चुनावी व संशोधनवादी वामपन्थी पार्टियों से जुड़े किसान संगठन, एनजीओ की राजनीति करने वाले, किसान जातियों में वोट बैंक तलाशने वाले क्षेत्रीय गुट, भारत में क्रान्ति की जनवादी और नवजनवादी मंजि़ल मानने वाले, ‘लकीर की फ़कीरी’ करने वाले वामपन्थी संगठन और ‘अहो ग्राम्य जीवन’ बोलकर रुदालियों की भूमिका में आ जाने वाले अस्मितावादी बुद्धिजीवी लगभग सभी एकजुट हैं। किसान आन्दोलनों की मौजूदा स्थिति और इनकी माँगों का वर्गचरित्र निश्चय ही समाज के प्रबुद्ध, चिन्तनशील और प्रगतिशील तत्त्वों को सोचने के लिए विवश करता है। किसानों के रहनुमा बनकर रणभेरी बजाने वाले आज असल मायने में क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों की नहीं बल्कि नारोदवादियों, सामाजिक जनवादियों और प्रतिक्रियावादियों की भूमिका निभा रहे हैं। इनकी राजनीति पूँजीवादी कुलक फ़ार्मरों के वर्ग हितों का प्रतिनिधित्व करती है जबकि ग़रीब किसानों के वर्ग हितों पर ये कुठाराघात करने का काम कर रहे हैं।

ग़रीब किसानों के असल हित आज पूरी तरह से मज़दूरों-मेहनतकशों के हितों के साथ जुड़े हुए हैं। एक ऐसी समाज व्यवस्था ही उन्हें आज के दुखों से छुटकारा दिला सकती है जिसमें उत्पादन के साधनों पर मेहनतकशों का नियन्त्रण हो तथा उत्पादन समाज की ज़रूरतों को ध्यान में रखकर हो न की निजी मुनाफ़े को केन्द्र में रखकर। छोटा लगने वाला कोई भी रास्ता मंजि़ल तक पहुँचने की दूरी को और भी बढ़ा सकता है। यह बात हम तथ्यों के माध्यम से स्पष्ट कर आये हैं कि लाभकारी मूल्य बढ़ाने और लागत मूल्य घटाने की माँगें असल में ग़रीब किसान आबादी की सही-सही आर्थिक-राजनीतिक माँगें हो ही नहीं सकतीं। थोड़ी सी बातचीत के बाद ग़रीब किसान इस बात को अपने सहज बोध से समझ भी लेते हैं कि प्रत्येक फ़सल के साथ उन्हें दो-चार हज़ार रुपये ज़्यादा मिल भी जायेंगे तो इससे स्थिति में कोई गुणात्मक फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला बल्कि महँगाई बढ़ाकर ब्याज समेत इन्हीं की जेब से ये पैसे वापस निकाल लिए जायेंगें। बेरोज़गारी की मार झेल रहे ग़रीब किसानों के बेटे-बेटियों का गुज़ारा थोड़ी सी ज़मीन में नहीं होने वाला यह बात भी साफ़ है। इसलिए तर्क के आधार पर सोचा जाना चाहिए और अपने सही वर्ग हितों की पहचान की जानी चाहिए। बेरोज़गारी, बढ़ती महँगाई, सबके लिए शिक्षा और चिकित्सा सुविधा, पूँजीवादी लूट का ख़ात्मा, दमन-शोषण का ख़ात्मा आदि वे मुद्दे होंगे जिनके आधार पर व्यापक जनता को एकजुट किया जा सकता है। यही नहीं इन्हीं माँगों के आधार पर ही अन्य जातियों के ग़रीबों के साथ पुश्तैनी तौर पर खेती-किसानी से जुड़ी जातियों के बहुसंख्यकों की एकजुटता भी बनेगी। जायज़ माँगों के लिए एकजुट संघर्ष की प्रक्रिया में ही आपसी भाईचारा और एकता और भी मज़बूत होंगे। पहचान की राजनीति करने वालों, अस्मितावादी एनजीओ मार्का धन्धेबाज़ों और धनी किसानों की माँगों को लेकर ऐड़ी-चोटी का ज़ोर लगाने वाली किसान यूनियनों से ग़रीब किसानों का कोई भला नहीं होने वाला है। इस बात को जितना जल्दी समझ लिया जाये उतना ही न केवल समाज के लिए बेहतर होगा, बल्कि यह ख़ुद ग़रीब किसानों के लिए भी बेहतर होगा।

मज़दूर बिगुल, दिसम्‍बर 2018


 

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