गोदी मज़दूरों का संघर्ष और बोल्शेविकों का काम  (ज़ार की दूमा में बोल्शेविकों का काम-3)

प्रसिद्ध पुस्तक ‘ज़ार की दूमा में बोल्शेविकों का काम’ के कुछ हिस्सों की श्रृंखला में तीसरी कड़ी प्रस्तुत है। दूमा रूस की संसद को कहते थे। एक साधारण मज़दूर से दूमा में बोल्शेविक पार्टी के सदस्य बने . बादायेव द्वारा क़रीब 100 साल पहले लिखी इस किताब से आज भी बहुत–सी चीज़़ें सीखी जा सकती हैं। बोल्शेविकों ने अपनी बात लोगों तक पहुँचाने और पूँजीवादी लोकतन्त्र की असलियत का भण्डाफोड़ करने के लिए संसद के मंच का किस तरह से इस्तेमाल किया इसे लेखक ने अपने अनुभवों के ज़रिए बख़ूबी दिखाया है। यहाँ हम जो अंश प्रस्तुत कर रहे हैं उनमें उस वक़्त रूस में जारी मज़दूर संघर्षों का दिलचस्प वर्णन होने के साथ ही श्रम विभाग तथा पूँजीवादी संसद की मालिक–परस्ती का पर्दाफ़ाश किया गया है जिससे यह साफ़ हो जाता है कि मज़दूरों को अपने हक़ पाने के लिए किसी क़ानूनी भ्रम में नहीं रहना चाहिए बल्कि अपनी एकजुटता और संघर्ष पर ही भरोसा करना चाहिए। इसे पढ़ते हुए पाठकों को लगेगा कि मानो इसमें जिन स्थितियों का वर्णन किया गया है वे हज़ारों मील दूर रूस में नहीं बल्कि हमारे आसपास की ही हैं। ‘मज़दूर बिगुल’ के लिए इस श्रृंखला को सत्यम ने तैयार किया है।

बाल्टिक गोदी में हड़ताल

बाल्टिक की नौसेना की गोदियाँ नौसेना मन्त्रालय के अधीन थीं। वहाँ के कामकाजी हालात युद्ध कार्यालय की दूसरी फ़ैक्टरियों जितने ही असहनीय थे। साधारण मज़दूर आठ कोपेक प्रति घण्टा कमाते थे और ओवरटाइम रिवाज़ी था और आमतौर पर इसका आशय यह था कि काम के घण्टे दूने हो जाते थे। कार्यशालाएँ बहुत ही अस्वास्थ्यकर, सीलन और धुएँ से भरी थीं और हवा रोकने की व्यवस्था न होने के कारण जाड़े में बहुत ठण्डी हो जाती थीं। मज़दूरों को असहज और तंग अवस्था में काम करना पड़ता था। वहाँ आमतौर पर किसी आदमी को बुरी तरह तोड़ देने के लिए सात-आठ साल काफ़ी होते थे।

जैसाकि सभी युद्ध प्रतिष्ठानों में होता है, जहाँ के प्रबन्धक अफ़सरों की वर्दियाँ पहनते हैं, मज़दूरों को विशेष निर्दयता के साथ प्रताड़ित किया जाता था। प्रबन्धन घनिष्टता से पुलिस से जुड़ा हुआ था और फ़ोरमैन राजनीतिक पुलिस का एजेण्ट भी था। जासूसी को बढ़ावा और निन्दा को प्रोत्साहन दिया जाता था और आवश्यक सूचना मिलने पर प्रबन्धन द्वारा “राजद्रोह फैलाने वालों” को फ़ौरन पुलिस के हवाले कर दिया जाता था।

इन हालात के बावजूद गोदी मज़दूर बाक़ी सर्वहारा वर्ग से पीछे नहीं थे। 1913 के वसन्त और गर्मियों भर गोदियों में प्रायः विवाद होते रहे जिसके फलस्वरूप समूचे उपक्रम में या केवल कुछ विभागों और कारख़ानों में हड़तालें हो गयीं।

मई में एक कारख़ाना में हुए विवाद के दौरान, जिसमें दस मज़दूर प्रभावित हुए जिन्होंने बेसी घण्टों में काम करने से मना कर दिया था, प्रबन्धन के साथ बातचीत के लिए तीन प्रतिनिधि चुने गये थे। अभी बातचीत चल ही रही थी कि गोदी के प्रमुख ने पुलिस बुला ली, जिसने प्रतिनिधियों को गिरफ़्तार कर लिया। उसी रात, 20 मई को उनके घरों की तलाशी के बाद दस मज़दूरों को गिरफ़्तार कर लिया गया। इसके जवाब में एक अन्य कारख़ाने के 2000 कर्मचारी सड़क पर आ गये और अपनी आर्थिक माँगों में गिरफ़्तार मज़दूरों की रिहाई भी जोड़ दी। उसी दिन हड़तालियों ने घटनाक्रम की सूचना देने और जिन मज़दूरों को शिकार बनाया गया था उनकी ओर से मध्यस्थता करने के लिए दूमा की इकाई में अपने प्रतिनिधि भेजे। इकाई के एक अन्य सदस्य और मैंने नौसेना मन्त्री को तार भेजकर उनसे मुलाक़ात का अनुरोध किया।

नौसेना मन्त्री के साथ मुलाक़ात

दूमा की अपनी सदस्यता के दौरान जैसा कि हमारे धड़े के साथ आम था, मुझे प्रायः अलग-अलग मन्त्रियों से मिलना पड़ता था। आमतौर पर हमें आन्तरिक मामलात मन्त्री से मिलना होता था, जो पुलिस को नियन्त्रित करते थे और नतीजतन गिरफ़्तारियों और निष्कासनों जैसे मामले देखते थे।

हम पूरी तरह और अच्छे से जानते थे कि इस तरह की मुलाक़ातों से कोई स्पष्ट नतीजा नहीं निकलेगा। फिर हम क्यों जाते थे? हम मानते थे कि दूमा में दिये जाने वाले भाषणों की ही तरह मुलाक़ातों का भी एक निश्चित प्रतिरोधात्मक महत्त्व है। जब मज़दूरों को बाताया जाता था कि उनके प्रतिनिधि ने, जो उन्हीं की तरह एक मज़दूर है, ज़ारवादी मन्त्री के साथ बातचीत की माँग की है और वह उसके साथ बातचीत करने पर विवश है तो उनको संघर्ष करने का और हौसला मिलता था। प्रावदा में छपी इस आशय की सूचना कि मज़दूरों के प्रतिनिधि ने यह या वह माँग रखी है तो मज़दूरों की नयी क़तारें लड़ाई के लिए खिंचकर आगे आ जाती थीं। किसी मन्त्री के साथ मेरी हर मुलाक़ात के बाद मेरे घर पर नये मज़दूर आ जाते थे, ऐसे मज़दूर अब तक जिनका पार्टी या मज़दूर संगठनों से कोई वास्ता नहीं होता था, लेकिन जो अब माँग उठाने लगते और पूछताछ के लिए सामग्री लाने लगते और इस तरह खिंचकर संगठित मज़दूरों की क़तारों में चले आते। नयी भर्तियों ने मज़दूरों की अनासक्ति को और भी बढ़ावा दिया।

जिस समय हमने आवेदन किया, उस समय नौसेना मन्त्री एडमिरल ग्रिगोरोविच बाहर थे, इसलिए हमें उनके सहायक एडमिरल बुबनोव का जवाब मिला जो अगली सुबह हमसे मिलने के लिए राजी थे। कारख़ानों में जो कुछ भी हुआ था, उसे बताने के बाद हमने बुबनोव के सामने प्रस्ताव रखा कि उन्हें गोदी प्रबन्धन द्वारा किये गये दुर्व्यवहारों को गम्भीरता से लेना चाहिए।

सहायक मन्त्री ने शुरुआत में सामान्य बहानेबाज़ियाँ कीं : कि उन्हें इस मामले में कुछ भी पता नहीं है, कि गोदी प्रबन्धक ने अपनी रिपोर्ट में उन्हें इसकी सूचना नहीं दी है कि मज़दूरों को ओवरटाइम करने से इनकार करने के लिए बर्ख़ास्त कर दिया गया है, या कि मज़दूरियाँ घटा दी गयी हैं, वग़ैरह-वग़ैरह। बहरहाल, बात जब गिरफ़्तारियों के सवाल तक पहुँची तो बुबनोव इन इनकारों को भूल गये और यह स्पष्ट हो गया कि गोदी के प्रमुख ने अपने वरिष्ठ अधिकारियों के निर्देशानुसार काम किया था। सच है कि बुबनोव ने आपत्ति जतायी कि गोदी प्रमुख को दिये उनके आदेशों में पुलिस से मज़दूरों को गिरफ़्तार करने का अनुरोध करने का आदेश शामिल नहीं था। मानो पुलिस ने किसी दूसरे तरीक़े से समझ लिया लिया कि उनसे हड़तालियों के ख़िलाफ़ मदद करने का अनुरोध किया गया है!

हमारी आपत्तियों के फलस्वरूप बुबनोव को वादा करना पड़ा कि वह बाल्टिक गोदी के हालात की जाँच के लिए एक विशेष अफ़सर भेजेंगे। यह वादा भी महज़ एक छल था। अगले दिन किसी तफ़्तीश की जगह कारख़ाने पर सहायक मन्त्री के यहाँ से जारी एक सूचना लगायी गयी, जिसमें सम्बन्धित कारख़ानों को बन्द और मज़दूरों को बर्ख़ास्त करने की घोषणा की गयी थी।

बहरहाल, सहायक मन्त्री से हमारी मुलाक़ात का कुछ प्रभाव भी पड़ा। “ऊपर के आदेश” पर अगले ही दिन गिरफ़्तार मज़दूरों को रिहा कर दिया गया। लेकिन हड़ताल ख़त्म नहीं हुई; इसके विपरीत दूसरे विभाग भी उसमें शामिल हो गये, बढ़इयों और पेण्टरों सहित। इन मज़दूरों ने अधिक वेतन और बेहतर हालात की माँग रखी और जैसाकि स्वाभाविक था, सभ्य तरीक़े से बर्ताव करने की भी माँग की। मज़दूर बैरेक जैसी व्यवस्था का विरोध कर रहे थे, जो उन दिनों स्थल और नौसेना के प्रतिष्ठानों में प्रचलित थी। इस मौक़े पर तीन हज़ार से अधिक मज़दूर हड़ताल पर थे।

ओबुखोव के मज़दूरों का संघर्ष

महीनेभर में, जून के अन्त में, बाल्टिक गोदी में एक और हड़ताल हो गयी। इसका फ़ौरी कारण मज़दूरों के साथ प्रबन्धकों में से एक पोलिकार्पोव का दुर्व्यवहार और उनके वेतन में कटौती शामिल थी। मज़दूरों ने उसे खदेड़कर कारख़ाने से निकाल बाहर किया, उसके बाद वह कारख़ाना बन्द कर दिया गया। मज़दूरों ने अपनी ओर से हड़ताल की घोषणा कर दी और कई माँगें उठायीं। मज़दूरों का मनोबल तोड़ने के लिए पहली हड़ताल की तरह पुलिस की मदद ली गयी। दस से अधिक मज़दूरों को, जिनके नेता और संयोजक होने का सन्देह था, गिरफ़्तार कर लिया गया। मज़दूरों ने मुझे फ़ौरन सूचित किया और मैं एक बार फिर बन्दियों की ओर से बातचीत के लिए नौसेना मन्त्री ग्रिगोरोविच से मिला।

एडमिरल ग्रिगोरोविच उन ज़ारवादी मन्त्रियों में से थे जो ख़ुद को उदारवादी के रूप में पेश करते थे और जो दूमा के सदस्यों के साथ “अच्छे सम्बन्ध” बनाये रखते थे। बहरहाल, उनका उदारवाद एक ठकोसला था। उनका मक़सद महज़ बिल्कुल स्पष्ट प्रतिक्रियावादी क़दम उठाकर जनता को क्षुब्ध करने से बचना था। लेकिन असलियत में वे भी मैक्लाकोव, श्चेग्लोवितोव और दूसरे सामूहिक हत्यारों की ही तरह ब्लैक हण्ड्रेड्स की नीति पर अमल करते थे। ग्रिगोरोविच का “तर्कसंगत” रवैया बहुसंख्य अक्टूबरवादियों को इतना प्रिय था कि आगे चलकर जब अक्टूबरवादी विपक्ष में थे, रोड्ज़ियाँको ने ग्रिगोरोविच को ज़िम्मेदार मन्त्रीमण्डल का प्रधानमन्त्री बनाने की पेशकश की।

इससे पूरी तरह वाकिफ़ होने के कारण कि हमारी बातचीत का जनता के बीच प्रसारण होगा, ग्रिगोरोविच ने जनता के हितैशी की भूमिका निभायी। उन्होंने मुझे बताया : “मैं सबसे निचले पायदान से चलकर ऊपर आया हूँ, परिश्रम के कठिन विद्यालय से होकर क्योंकि मैंने एक क्लर्क के रूप में शुरुआत की थी।”

उन्होंने यहाँ तक कहा कि मैंने सड़क पर लगे एक मंच से मज़दूर सभा को सम्बोधित किया है और उग्र सुधारवादी विचार व्यक्त किये हैं, वग़ैरह-वग़ैरह। इसलिए वह ख़ुद को मज़दूरों के सवालों का विशेषज्ञ मानते थे और उन्होंने मज़दूरों के हालात और उनकी ज़रूरतों पर विस्तार से चर्चा की। दरअसल, मुझे इस बात की कोई ग़लतफ़हमी नहीं थी कि मैं किससे बात कर रहा हूँ, और मज़दूरों के प्रति प्रेमभाव जताने की उनकी मंशा को अच्छी तरह समझ रहा था। मुझसे जहाँ तक बन पड़ा मैंने जल्द से जल्द बातचीत को सम्बन्धित काम की तरफ़ मोड़ दिया और गिरफ़्तार मज़दूरों, और अधिकारियों के मनमाने तौर-तरीक़ों के बारे में मज़दूरों की माँगें उनके सामने रखीं।

ग्रिगोरोविच का “उदारवाद” तुरन्त काफ़ूर हो गया; मुझे कोई ठोस जवाब नहीं मिल सका, और अन्ततः उन्होंने अपने सहायक बुबनोव को बुलाया, और उनसे जाँच शुरू कराने को कहा। बुबनोव ने पिछली हड़ताल के मामले में जो उदाहरण प्रस्तुत किया था, उसके मद्देनज़र हम जानते थे कि जाँच से उनका आशय क्या होता है, क्योंकि वह और भी निष्कासनों और प्रबन्धन की करतूतों की पूरी तरह लीपापोती के लिए ज़िम्मेदार थे। बुबनोव ने हमें आश्वासन देना शुरू किया कि अब गोदी में सब कुछ अच्छा चल रहा है; आमदनी बढ़ गयी है, किसी पर भी ओवरटाइम करने के लिए दवाब नहीं डाला जाता, और सच बात तो यह है कि मज़दूरों की कोई शिकायत नहीं है। रही बात गिरफ़्तार मज़दूरों की तो चिन्ता करने की कोई ज़रूरत नहीं है, चूँकि वे बेकसूर हैं इसलिए रिहा कर दिये जायेंगे।

मैंने जब इसका जि़क्र किया कि सहायक मन्त्री की बनायी समृद्धि की तस्वीर असलियत से कोसों दूर है, कि कामकाजी हालात और प्रबन्धन के क़दम मज़दूरों को लगातार उकासवा दे रहे हैं, तो ग्रिगोरोविच ने एक बार फिर जाँच कराने, मामले पर ध्यान देने, पता लगाने, वग़ैरह का वादा किया।

मन्त्रियों के वादों का मूल्य जानते हुए और इसके लिए कि मज़दूरों को समझना चाहिए कि वे ज़ारवादी मन्त्रियों से क्या अपेक्षा कर सकते हैं, मैंने इसका उल्लेख करते हुए कि वादे और आश्वासन कितने झूठे थे, प्रावदा में इस बातचीत का विस्तृत ब्योरा छापा। मन्त्री के साथ मेरी मुलाक़ात का ब्योरा वस्तुतः बाल्टिक के मज़दूरों से अधिकारियों से किसी तरह की उम्मीद न करने की अपील थी।

ओबुखोव वर्क्स के मामले में हस्तक्षेप

इसके कुछ ही दिनों बाद मुझे, ओबुखोव कारख़ानों की हड़ताल के मामले में, फिर नौसैन्य मन्त्री के साथ समझौता वार्ता करनी पड़ी, क्योंकि ये कारख़ाने भी नौसेना विभाग के नियन्त्रण में थे। वह हड़ताल जो जुलाई के अन्त में शुरू हुई थी और जिसमें वहाँ के 8000 कर्मचारी शामिल थे, असहनीय कामकाजी माहौल का नतीजा थी। कारख़ाने हानिकारक गैसों से भरे रहते थे, लेकिन मज़दूरों के बार-बार के अनुरोध के बाद भी उनमें हवा आने-जाने के उपकरण नहीं लगाये गये थे। सारे मज़दूर दिन के बारह घण्टे काम करते थे और बीच में खाना ख़ाने की भी छुट्टी नहीं होती थी, और मज़दूरी बीस से चालीस रूबल माहवार तक थी – जो न्यूनतम मज़दूरी से भी कम थी।

हड़ताल दो महीने से भी लम्बी चली, और जब वह ख़त्म हुई, तो सौ से अधिक मज़दूरों को काली सूची में डाल दिया गया और उन्हें काम पर वापस नहीं लिया गया। हड़ताल के दौरान तीन मज़दूर गिरफ़्तार किये गये थे और चौदह को सेण्ट पीटर्सबर्ग से निष्कासित कर दिया गया था और उनके साम्राज्य के बावन शहरों में रहने पर पाबन्दी लगा दी गयी थी। लेकिन पुलिस इतने-भर से सन्तुष्ट नहीं थी; ओबुखोव के कई मज़दूरों पर मुक़द्दमे चलाये गये; उन पर “ऐसे उपक्रमों में हड़ताल कराने के आरोप लगाये गये थे, जहाँ की हड़ताल राष्ट्रहित के लिए ख़तरनाक थी।”

शुरुआत में जब मज़दूरों को गिरफ़्तार किया गया, मैंने तभी ब्रुखोनोव से मुलाक़ात की अर्जी दी, लेकिन स्पष्ट रूप से इससे डरकर कि मुझे प्रतिरोध की नयी सामग्री मिल जायेगी, उन्होंने मुझे तार का जवाब नहीं दिया।

6 नम्बर 1913 को हड़ताल ख़त्म होने के बाद ओबुखोव के मज़दूरों पर मुक़द्दमा चलाया गया। सुनवाई के दिन सेण्ट-पीटर्सबर्ग के 100,000 से अधिक मज़दूर एक दिन की हड़ताल पर चले गये और सभी फ़ैक्टरियों और मिलों पर सभाएँ की गयीं और प्रतिरोध के प्रस्ताव पारित हुए। हमारे धड़ों और प्रावदा को इस तरह के सौ से अधिक प्रस्ताव प्राप्त हुए। प्रावदा उनके उद्धरण छाप न सका। इस राजनीति हड़ताल को उत्साहपूर्ण और एकमत प्रतिसाद मिला। तत्कालीन सरकार के अधीन मज़दूरों को जो सीमित अधिकार हासिल थे, उनको बचाने की इच्छा से प्रेरित यह हड़ताल वस्तुतः बचावी क़दम नहीं सरकार पर एक नया हमला था।

सुनवाई के एक हफ़्ते बाद ओबुखोव के मज़दूर फिर से सड़कों पर आ गये, इस बार की हड़ताल के लिए प्रबन्धन की ओर से लागू किये गये नये नियम ज़िम्मेदार थे। नये नियमों के तहत सावधान से सावधान मज़दूर के लिए हर दिन कोई-न-कोई जुर्माना लगने से बच पाना नामुमकिन था; ओवरटाइम अनिवार्य था और उसका भुगतान डेढ़ गुने की बजाय सामान्य दर से मिलने वाला था, और भुगतान के दिन मज़दूरों के साथ सुनियोजित ढंग से धोखाधड़ी की जाती थी। सरकार ने मज़दूरों के ख़िलाफ़ सबसे उकसाऊ रवैया अख़्तियार कर लिया। किसी तरह की सभा की अनुमति नहीं थी, उनकी भी नहीं, नियमतः जो अनुमत थे, और यह घोषणा की गयी कि यदि कुछ ख़ास ग्रेडों के कर्मचारी काम बन्द करते हैं तो उन पर आपराधिक मामले चलाये जायेंगे। पूरा ज़िला पुलिस से अटा पड़ा था।

चूँकि ओबुखोव के मज़दूर मानते थे कि उनके अपने क़रीबी प्रमुखों के साथ समझौता वार्ता असम्भव है, इसलिए उन्होंने नौसैन्य मन्त्री को गोदी के हालात से अवगत कराने और उन तक अपनी माँगें पहुँचाने के लिए नौसैन्य मन्त्री के पास एक प्रतिनिधिमण्डल भेजने का फ़ैसला किया। मज़दूरों के अनुरोध पर मैं एक बार फिर ग्रिगोरोविच के पास गया और उनके सामने ओबुखोव के मज़दूरों के हालात बयान किये।

इस बार ग्रिगोरोविच ने उदारवादी होने, या लोगों का दोस्त होने का दिखावा भी नहीं किया। उन्होंने कहा कि वह न तो मज़दूरों के किसी प्रतिनिधिमण्डल से मिल सकते हैं और न किसी निर्वाचित व्यक्ति के साथ मिलने की मंजूरी ही दे सकते हैं। “उनकी ज़रूरतें चाहे जो भी हों, मज़दूर केवल गोदी प्रमुख के सामने पेश हो सकते हैं।”

दूमा का शरद सत्र प्रारम्भ होने वाला था, और ओबुखोव के मज़दूरों ने हमसे गोदी मज़दूरों के हालात और प्रबन्धन की कार्रवाइयों के बारे में फ़ौरन एक पूछताछ लाने की गुज़ारिश की। 15 नवम्बर को पूछताछ सदन में सौंपी गयी, लेकिन 10 दिन तक पटल पर नहीं आ सकी।

उस पर चली बहस में दक्षिणपन्थ ने अपनी बड़ी तोपें निकालीं; उनका मुख्य प्रवक्ता नरमेध का अग्रणी नेता मार्क़ोव था, जो फाँसी चढ़ाने, गोली मार देने की अपील करते कभी नहीं थकता था। ज़ारवादी सरकार द्वारा लागू कै़द की व्यवस्था उसके लिए बहुत हल्की थी। दूमा में ज़मींदारों के सबसे प्रतिक्रियावादी धड़े का, जिसके दिमाग़ में 1905 के उनके प्रतिष्ठानों की आगजनी और लूट की यादें अभी ताज़ा थीं, प्रतिनिधित्व कर रहे मार्कोव ने क्रान्तिकारी उदार पूँजीवादी आन्दोलन के सभी लक्षणों के ख़िलाफ़ सख़्त से सख़्त क़दम उठाने की माँग की। स्वाभाविक रूप से उसे मज़दूर वर्ग से ज़बरदस्त नफ़रत थी, जिसे वह मौजूदा शासन प्रणाली का सबसे ख़तरनाक़ दुश्मन मानता था।

मार्कोव के भाषण का निशाना हड़ताल आन्दोलन और सोशल-डेमोक्रेटिक पार्टी थी जो इस आन्दोलन का नेतृत्व कर रही थी। उसने उस चुनौती के बारे में मेरे अन्तिम शब्द को पकड़कर मुझ पर व्यक्तिगत हमले से शुरुआत की, जो समाजवादी-लोकतान्त्रिक धड़े ने समूचे सर्वहारा के नाम पर दूमा में मौजूद ब्लैक हण्ड्रेड बहुसंख्यक को दी थी।

“श्रीमान बादयेव,” मार्कोव ने कहा, “आप नौजवान व्यक्ति हैं; कोई चुनौती केवल तभी दी जाती है जब लड़ने की मंशा होती है। लेकिन आप अभी लड़ नहीं रहे हैं। किसी मन्त्री को दी गयी चुनौती को सामान्य समझ समझने की भूल नहीं की जानी चाहिए और सामान्य समझ को आपका प्रधान मार्गदर्शक होना चाहिए।”

मार्कोव ने सरकार से एक सवाल करते हुए अपना भाषण समाप्त किया। वह जानना चाहता था कि क्या सरकार मानती है कि वह क्रान्तिकारी आन्दोलन के ख़िलाफ़ प्रभावी ढंग से लड़ रही है :

“क्या आप महानुभाव सचमुच कुकर्मियों और दुश्मनों से रूसी जनता को बचाने का अपना कर्तव्य निभा रहे हैं जो बाहर से काम करते हैं लेकिन घोर देशद्रोह के दोषियों की मदद से घुस आते हैं? मैं घोषणा करता हूँ कि मेरा पितृदेश ख़तरे में है।”

समाजवादी-लोकतान्त्रिक धड़े की ओर इंगित उसका भाषण धमकाऊ शब्दों और भंगिमाओं के भरा हुआ था। वामपन्थी क़तारों की ओर मुड़कर उसने अपना हाथ इस तरह रखा, मानो उनकी ओर निशाना साधकर बन्दूक थाम रखी हो, और कहा “आप हम पर हमला कर रहे हैं, लेकिन हम पहले आप पर गोली चलायेंगे!”

दूमा ने जाँच आदेश पारित कर दिया, लेकिन इसका आशय यह नहीं था कि मज़दूरों को कुछ हासिल हो गया, कारख़ानों में सब कुछ जब का तस बना रहा। नौसैन्य मन्त्री ने रत्ती भर भी रिआयत नहीं की।

माइन मैम्युफ़ैक्चरिंग वर्क्स में विस्फोट और अन्त्येष्टि के समय प्रदर्शन

ओबुखोव के मज़दूरों के हालात कोई ख़ास अलग नहीं थे। दूसरे कामों में भी बेरोकटोक शोषण हो रहा था और कामकाजी हालात असहनीय थे, ख़ासकर उनके जो सेना और नौसेना विभागों के लिए काम करते थे। मज़दूरों के जीवन के लिए हर पल किसी विस्फोट या किसी तबाही का ख़तरा बना रहता था। पहले प्रतिक्रियावाद के भारी बूटों तले जानलेवा दुर्घटनाएँ गुज़र जाती थीं और उन पर किसी का ध्यान ही नहीं जाता था; अब किसी दुर्घटनावश मरने वाले प्रत्येक मज़दूर की अन्त्येष्टि विशाल क्रान्तिकारी प्रदर्शन का अवसर बन जाती थी।

ऐसे मज़दूरों के ताबूतों के पीछे, जिन्हें वे व्यक्तिगत रूप से जानते भी नहीं थे : “तुम शिकार बन गये” से प्रारम्भ होने वाले क्रान्तिकारी अन्त्येष्टि प्रयाण गीत गाते और मालाओं पर क्रान्तिकारी किंवदन्तियाँ लिखे लाल फीते बाँधे मज़दूरों की भीड़ चलती थी। श्मशान हज़ारों लोगों का सभास्थल बन जाता। ग़ैरक़ानूनी काम की स्थितियों में जब मज़दूर सभाएँ प्रतिबन्धित होती थीं, जब गुप्त रूप से केवल जंगलों या छोटे मकानों में मिलना ही सम्भव होता था, अन्त्येष्टियों के समय का प्रदर्शन क्रान्तिकारी महत्व हासिल कर लेता था। पार्टी संयोजक हज़ारों की तादाद में आने के लिए मज़दूरों का आह्वान करते, तैयारियों के दौरान वक्ता नियुक्त किये जाते, पर्चे वग़ैरह बाँटे जाते।

पुलिस भी ज़ोरदार तैयारियाँ करती; सभी अन्त्येष्टि जुलुसों के साथ सेना की सशक्त टुकड़ियाँ चलती थीं और श्मशान पर घुड़सवार और पैदल – दोनों तरह की पुलिस तैनात रहती थी। वे क़ब्रों के आर-पार दौड़ते, अवरोधों को कभी क़ब्र तक आने की अनुमति न देते, भाषण रुकवा देते, जो भी बोलने की कोशिश करता, उसे गिरफ़्तार कर लेते और उनकी गिरफ़्तारियों के बाद भीड़ को तितर-बितर कर देते।

ओख्ता विस्फोट में मारे गये लोगों की अन्त्येष्टियाँ जिन हालात में हुईं, उनका जि़क्र मैं पहले ही कर चुका हूँ। अब मैं एक ऐसी अन्त्येष्टि के बारे में बताऊँगा, जिसके दौरान मैं विशेष रूप से पुलिसिया उत्पीड़न का निशाना बना और जिसकी वजह से मज़दूर आगबबूला हो उठे और जो दूमा में बहस का मुद्दा बनी। सितम्बर 1913 के प्रारम्भ में सेण्ट पीटर्सबर्ग, माइन मैन्युफ़ैक्चरिंग वर्क्स (पहले जिसका नाम पर पर्विऐनन वर्क्स था) में हुए विस्फोट में दो मज़दूर मारे गये थे। किसी मशीन का बीस पौण्ड का ढक्कन उड़कर सीधा इमारत की छत के पार चला गया था। दो मज़दूरों की वहीं पर मृत्यु हो गयी थी, और पूरा कारख़ाना उनके ख़ून से रंग गया था। विस्फोट प्रबन्धन की लापरवाही का नतीजा था, क्योंकि मशीन की जाँच नहीं की गयी थी।

9 सितम्बर को उनकी शवयात्रा में शामिल होने के लिए हज़ारों मज़दूरों ने काम बन्द कर दिया। माइन वर्क्स और पुतिलोव, ऐवाज़ और दूसरी फ़ैक्टरियों के भी मज़दूर शवयात्रा में शामिल हुए। शुरू से ही पुलिस ने जुलूस के रास्ते में अवरोध उत्पन्न किये। पहले उन्होंने मालाओं से लाल फीते निकालने की माँग की, आगे चलकर लितेनी पुल पर उन्होंने ताबूत और मालाओं को मुर्दा गाड़ी पर रखने को कहा। …

दफ़नाते समय, और भी बहुत से मज़दूर आ गये, वे सायंकालीन भोजनावकाश के दौरान फ़ैक्टरियों से चल कर आये थे। 5000 लोगों की भीड़ लड़ने के उत्साह में थी। यह जानकर कि मैं बोलने वाला हूँ, मज़दूरों ने मेरे चारों तरफ़ मज़बूत घेरा बना दिया ताकि पुलिस के मुझ तक पहुँचने से पहले मुझे कुछ समय मिल जाये। क़ानून और व्यवस्था के रखवाले बल हथियारों से पूरी तरह लैस थे और अपने चाबुकों के इस्तेमाल के लिए बस निरीक्षकों के आदेश का इन्तज़ार कर रहे थे।

जब ताबूत क़ब्र में उतारा गया तो मैं अपना भाषण शुरू करने के लिए एक बेंच पर खड़ा हो गया :

“साथियो! ख़ून के प्यासे पूँजीपति अधिक से अधिक मुनाफ़ा कमाने के प्रयास में मज़दूरों की जान की बलि देने पर उतारू हैं। आप देख लीजिए कि मज़दूरों को अपनी कठोर और कष्टकर मेहनत का क्या इनाम मिलता है। कामकाजी वर्ग के हालात में तभी सुधार आयेगा जब वे चीज़ों को अपने हाथ में ले लेंगे…”

लेकिन मेरे मुँह से इन शब्दों का निकलना या कि पुलिसकर्मी डपट पड़े :

“उसे पकड़ो, उसे बोलने मत दो।”

पुलिस निरीक्षक ने आदेश दिया :

“घुड़सवार पुलिस, अपने चाबुक तैयार रखे!”

घुड़सवार पुलिस, भीड़ को तितर-बितर करने की कोशिश करते हुए नीचे उतर आयी। क़ब्र के निकट एक खुली लड़ाई शुरू हो गयी। कई पुलिसियों ने मिलकर मुझे बेंच से खींच कर गिरा दिया और निरीक्षक भाग कर आया, मेरी बाँह पकड़ ली और मुझसे कहा कि मुझे गिरफ़्तार कर लिया गया है। मैंने उसे अपना डिप्युटी का कार्ड दिखाया।

“आप आज़ाद हैं, लेकिन मैं आपको बोलने नहीं दूँगा। मुझे निर्देश दिये गये हैं कि मैं कोई भाषण न होने दूँ।”

इसी बीच यह सोचकर कि मुझे गिरफ़्तार कर लिया गया है, भीड़ बहुत उत्तेजित हो गयी और पुलिस को धमकाते हुए निरीक्षक को घेर लिया। अपना रुका हुआ भाषण पूरा करने के लिए मैं एक बार फिर बेंच पर चढ़ गया और शान्ति बनाये रखने और ताज़ा आकस्मिकता से बचने के लिए मज़दूरों का आह्वान किया। घुड़सवार पुलिसियों ने अपने चाबुक फटकारकर भीड़ को क़ब्र के पास से क़ब्रगाह के दरवाज़े तक पीछे खदेड़ दिया, और यह महज़ संयोग ही था कि नया ख़ून-ख़राबा नहीं हुआ।

अन्त्येष्टि में शामिल होने के लिए जुर्माना और उसका विरोध

अन्त्येष्टि के तीन महीने बाद सेण्ट पीटर्सबर्ग शहर के गवर्नर द्रचेवस्की ने मुझ पर पुलिस कार्रवाई में अवरोध उत्पन्न करने के लिए 200 रूबल के जुर्माने का आदेश जारी किया। “अधिकारी जब मुझसे मिलने आये और भुगतान की माँग की तो मैंने साफ़ इनकार कर दिया। शहर के गवर्नर का आदेश पूरी तरह ग़ैर-क़ानूनी था, क्योंकि दूमा से सम्बन्धित क़ानून कहता था कि दूमा के सदस्यों (प्रतिनिधियों) पर किसी अदालत के आदेश और स्वयं दूमा द्वारा उस आदेश की पुष्टि के बिना किसी तरह की सज़ा या जुर्माना नहीं किया जा सकता।

मैंने प्रावदा के माध्यम से मज़दूरों को डिप्युटीज़ के अधिकारों के अतिक्रमण की इस नयी कोशिश के बारे में बताया और बहुत-सी विरोध हड़तालों की घोषणा की गयीं। सबसे पहले माइन मैन्युफ़ैक्चरिंग वर्क्स में कार्रवाई शुरू की गयी, जहाँ विस्फोट हुआ था। एक दिन की हड़ताल पर सहमति हुई और एक बैठक में उनके साथी-मज़दूर की अन्त्येष्टि में बोलने पर मेरे ऊपर जुर्माना किये जाने के विरोध में एक प्रस्ताव पारित किया गया। 1000 मज़दूरों वाले लैंजेसिपेन ने इस उदाहरण का अनुकरण किया, और यह आन्दोलन जल्द ही दूसरी फ़ैक्टरियों तक फैल गया। …

दूमा के बोल्शेविकोंे के सभी छह प्रतिनिधियों ने इसका कड़ा विरोध किया क्योंकि यह मज़दूरों के हक़ में बोलने के उनके अधिकार पर हमला था। संसद में पेत्रोवस्की हमारे धड़े की ओर से बोले।

“उत्पीड़न और पुलिसिया अत्याचार के बावजूद”, पेत्रोवस्की ने कहा, “मज़दूर प्रतिनिधि हमेशा और हर जगह मज़दूरों के साथ खड़े रहेंगे। मज़दूरों को अपने प्रतिनिधियों की आवाज़ सुनने से न तो पुलिस रोक पायेगी और न दूमा में मौजूद ब्लैक हण्ड्रेड्स का बहुमत ही।”

“शहर के गवर्नर अपने फ़रमान पर अमल करने से डर रहे थे और उनका डर वाजि़ब भी था, क्योंकि सेण्ट पीटर्सबर्ग के मज़दूर आम हड़ताल से उसका जवाब देते।”…

लेकिन दूमा ने ज़ारशाही पुलिस के दमन पर अंकुश लगाने की कोई कोशिश नहीं की। इस मामले को लेकर केवल मज़दूरों के जनप्रतिनिधि ही चिन्तित थे, और दूमा के ब्लैक हण्ड्रेड्स ने तहेदिल से पुलिसिया उत्पीड़न का अनुमोदन किया। सरकार ने दूमा से मज़दूर प्रतिनिधियों के ख़िलाफ़ मनमाना दमनकारी क़दम उठाने की अग्रिम मंजूरी पहले से ही ले रखी थी।

 

अनुवाद : विजय प्रकाश सिंह

 

 

मज़दूर बिगुल, जनवरी 2019


 

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