संगठित होकर ही बदल सकती है घरेलू मज़दूरों की बुरी हालत

रणबीर

सन् 2008 में ‘सोशल अलर्ट’ द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में घरेलू मज़दूरों की कुल संख्या 10 करोड़ के क़रीब है। बढ़ते शहरीकरण के साथ यह संख्या और बढ़ी ही होगी। इसमें बड़ी संख्या औरतों की है और साथ ही लाखों बच्चे भी शामिल हैं। पिछले तीन दशकों में घरेलू मज़दूरों की संख्या तेज़ी से बढ़ी है। इस दौरान भारत में तेज़ी से पूँजीवादी विकास हुआ है। पूँजीपतियों के ऐशो-आराम के लिए ख़र्च में भी बढ़ोतरी हुई है। इस दौरान मध्यवर्ग की संख्या और इस तबक़े की सम्पत्ति में भी इज़ाफ़ा हुआ है। मोटी तनख़्वाहों के रूप में मज़दूर वर्ग की लूट में हिस्सा पाने वाला यह तबका बड़ी संख्या में मज़दूरों को घरेलू कामों पर लगाता जाता है। मज़दूरों से घरों का काम सख़्ती से कराया जाता है लेकिन उसके अनुसार मज़दूरों को उनकी मेहनत का पूरा दाम नहीं दिया जाता।

“घरेलू नौकर” कहे जाने वाले इन मज़दूरों को भारतीय क़ानून मज़दूर नहीं मानता।   

घरेलू मज़दूरों के लिए ठेका क़ानून भी लागू नहीं होता। इसका अर्थ यह है कि अमीरों के घरों में झाड़ू-पोचा, खाना बनाने, कपड़े धोने, बच्चों को सँभालने, टाँगें दबाने, मालिश करने, बग़ीचों की देखभाल करने, घरों के बड़ी संख्या में छोटे-मोटे काम करने वाले इन मज़दूरों के लिए भारतीय क़ानून न तो काम के घण्टे तय करता है और न ही न्यूनतम वेतन। काम के घण्टे और वेतन मालिक ही तय करता है। काम करने का सबूत, ईएसआई, ईपीएफ़, सुरक्षा, आदि सम्बन्धी किसी भी तरह का क़ानूनी श्रम अधिकार भारतीय क़ानूनों में घरेलू मज़दूरों के लिए दर्ज नहीं है।

घरेलू मज़दूरों की एक बड़ी संख्या ऐसी है जिन्हें घर के अन्दर ही रहने को छोटा-मोटा कमरा दे दिया जाता है या उनके रहने के लिए काम-चलाऊ जगह बना दी जाती है। इनमें बहुत सारे मज़दूर ऐसे होते हैं जिनके परिवार भी साथ रहते हैं। इन मज़दूरों से 14-14, 18-18 घण्टे काम लिया जाना आम बात है। जो मज़दूर परिवारों समेत काम की जगहों पर रहते हैं उनके परिवार, यहाँ तक कि बच्चों से भी आने-बहाने काम लिया जाता है। बहुतेरे घरेलू मज़दूरों को गुज़ारे के लिए कई घरों में काम करना पड़ता है। सभी घरेलू मज़दूरों को उनकी मेहनत का मूल्य बहुत कम मिलता है। और तो और कराये गये काम के पैसे भी दबा लेना आम बात है। भारत में काम करने वाले कुल बच्चों में से 20 प्रतिशत घरेलू काम करते हैं। घरेलू काम करने वाले ज़्यादातर बाल मज़दूरों की मासिक कमाई हज़ार दो हज़ार से ज़्यादा नहीं होती। घरेलू मज़दूरों को, ख़ासकर बच्चों को छुट्टी तक न देना आम बात है।

बड़े महानगरों में कई निजी ठेका कम्पनियाँ भी बन चुकी हैं, जो गाँवों और छोटे शहरों से आने वाले बेरोज़गार लोगों की मजबूरी का फ़ायदा उठाते हैं। ये कम्पनियाँ ठेके पर घरेलू मज़दूर मुहैया कराती हैं। ये कम्पनियाँ काम कराने वालों से तो पैसा लेती ही हैं बल्कि मज़दूरों से भी काफ़ी पैसे ले लेती हैं। ऐसी कुछ कम्पनियाँ तो पहले महीने का पूरा वेतन ही दबा लेती हैं। कई कम्पनियाँ ऐसी हैं जो छोटे क़स्बों/शहरों और गाँवों से मज़दूरों को अच्छा वेतन और आरामदायक काम का लालच देकर महानगरों में ले आती हैं। जब उनपर घरेलू मज़दूरों की काम थोपा जाता है तो वे ठगे महसूस करते हैं।

घरेलू मज़दूरों के सिर्फ़ श्रम की ही लूट नहीं होती बल्कि उन्हें बुरे व्यवहार का सामना भी करना पड़ता है। गाली-गलोच, मारपीट आदि आम बात है। जाति, क्षेत्र, धर्म आधारित भेदभाव का बड़े स्तर पर सामना करना पड़ता है। घरेलू स्त्री मज़दूरों को शारीरिक शोषण का सामना भी करना पड़ता है। चोरी-डकैती के मामले में सबसे पहले शक इन मज़दूरों पर ही किया जाता है और उन्हें मालिकों और पुलिस द्वारा प्रताड़ित किया जाता है।

घरेलू मज़दूरों की इस दुर्दशा में सुधार कैसे हो सकता है? बेशक काम की परिस्थितियों में किसी भी स्तर के सुधार के लिए उनका अपने अधिकारों के लिए जागरूक होने, संगठित होकर संघर्ष की राह चलना ज़रूरी है। इसके बिना वे अपने छोटे-छोटे मसले भी हल नहीं करवा सकते। देश में घरेलू मज़दूरों के कुछ संगठन सक्रिय हैं। घरेलू मज़दूरों में जागरूकता और संगठनों की सब सीमाओं के बावजूद तमिलनाडू, महाराष्ट्र, केरल, आन्ध्र प्रदेश जैसे राज्यों में सरकारें घरेलू मज़दूरों को कुछ क़ानूनी अधिकार देने के लिए मजबूर हूई हैं।

सन् 2011 में दिल्ली में मज़दूरों के एक बड़े जुटान ने भारत सरकार को ‘भारत के मज़दूरों का माँगपत्र-2011’ सौंपा था। इस माँगपत्र में घरेलू मज़दूरों की माँगें भी शामिल की गयी हैं। इन माँग-मसलों पर भारत के घरेलू मज़दूरों को संघर्ष करना चाहिए। बेशक इसकी कोशिशें हुई हैं लेकिन अभी पर्याप्त नहीं हैं।

‘भारत के मज़दूरों का माँगपत्र’ में ये माँगें उठायी गयी हैं। घरेलू मज़दूरों के पंजीकरण का पुख्ता प्रबन्ध करके उन्हें कार्ड जारी किये जायें और ठेका मज़दूरों के लिए बने सारे श्रम क़ानून (जिनमें न्यूनतम वेतन, आठ घण्टे का कार्यदिवस, ईएसआई, ईपीएफ़, आदि सम्बन्धी अधिकार शामिल हैं) भी लागू हों। काम के घण्टे, ओवरटाइम, पीएफ़, ईएसआई, स्वास्थ्य और सुरक्षा सम्बन्धी अधिकार और स्त्री मज़दूरों के विशेष अधिकारों सहित ग़ैर-संगठित मज़दूरों के अन्य किसी भी हिस्से के सारे क़ानूनी अधिकार घरेलू मज़दूरों को दिये जाने की माँग भी इसमें शामिल है। एक माँग यह भी है कि विभिन्न घरों में काम करने वाले घरेलू मज़दूरों का न्यूनतम वेतन घण्टों के हिसाब से तय हो। न्यूनतम मज़दूरी की सरकारी दर एक दिन के काम से तय होती है लेकिन घरेलू मज़दूरों के एक बड़े हिस्से को एक ही दिन में कई घरों में काम करना पड़ता है। इसलिए उनका न्यूनतम वेतन घण्टों के हिसाब से तय होना चाहिए।

‘मज़दूर माँगपत्र’ में यह बिल्कुल वाजिब माँग उठायी गयी है कि घरेलू मज़दूरों के लिए कल्याणकारी योजनाओं के लिए अधिक आय वाले परिवारों पर या ऐशो-आराम की चीज़ों की ख़रीदारी पर विशेष टैक्स लगाकर धन की व्यवस्था की जाये। उनके पीएफ़ और ईएसआई के लिए सरकार और मालिक पैसा दें। संसद में लटके घरेलू मज़दूर (पंजीकरण, सामाजिक सुरक्षा और कल्याण) बिल, 2008 की कमियों को दूर करके इसे जल्द से जल्द पारित किया जाये। केन्द्र सरकार की तरफ़ से सभी राज्यों के मज़दूरों के सारे श्रम अधिकारों और सामाजिक सुरक्षा के लिए क़ानून बनाने का निर्देश देने की माँग भी उठायी गयी है। यह माँग भी की गयी है कि जिन राज्यों में पहले से ही ऐसे क़ानून मौजूद हैं, उनकी कमियों को दूर करके प्रभावी बनाया जाये और सारे देश में इससे सम्बन्धित क़ानूनों में सम्भव समानता लाई जाये।

घरेलू मज़दूरों से सम्बन्धित क़ानूनों को लागू करवाने की गारण्टी की जानी चाहिए। इसके लिए सहायक श्रम आयुक्त कार्यालय के स्तर पर विशेष इंस्पेक्टरों की नियुक्ति करे और विशेष निगरानी समितियाँ बनायी जायें। इन समितियों में घरेलू मज़दूरों, स्त्री मज़दूरों, स्त्री संगठनों, मज़दूर संगठनों, मालिकों के प्रतिनिधि और नागरिक अधिकारों के लिए सक्रिय कार्यकर्ता शामिल होने चाहिए। इस क़ानून में घरेलू मज़दूरों को ट्रेड यूनियन बनाने का अधिकार भी शामिल हो। उनकी यूनियनों का पंजीकरण हो। इससे सम्बन्धी ट्रेड यूनियन क़ानून में आवश्यक संशोधन हो। यूनियन पंजीकरण की प्रक्रिया सरल, तेज़, और पारदर्शी बनायी जाये।

मज़दूर अधिकारों के लिए सक्रिय संगठनों और कार्यकर्ताओं के लिए घरेलू मज़दूरों को जागरूक और संगठित करना एक चुनौतीपूर्ण काम है। घरेलू मज़दूरों को उपरोक्त माँग-मसलों पर संगठित करने के लिए लगातार सघन प्रचार-प्रसार की ज़रूरत है। घरेलू मज़दूरों की एकजुटता ही उनकी परिस्थितियों में सुधार की गारण्टी कर सकती है।

 

मज़दूर बिगुल, फरवरी 2019


 

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