नक़ली दवाओं का जानलेवा धन्धा

डॉ. नवमीत

आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के विकास से पहले बीमार होने वाले अधिकतर लोग बिना दवाओं और इलाज के ही मर जाते थे। आज हमारे पास अधिकतर बीमारियों के इलाज के लिए दवाएँ मौजूद हैं, जाँच की तकनीकें मौजूद हैं, ऑपेरशन के विकसित तरीक़े मौजूद हैं। लेकिन आज भी बीमारियों की वजह से करोड़ों लोग हर साल मर रहे हैं। 2016 में हृदय रोगों की वजह से 17.65 मिलियन यानी 1 करोड़ 76 लाख 50 हज़ार लोग मरे थे। कैंसर की वजह से लगभग 90 लाख लोग मरे थे। दूसरी बीमारियों की वजह से भी करोड़ों लोग मरे थे। कुछ लोग तो इतने गम्भीर बीमार होते हैं या फिर बीमारी ही लाइलाज होती है, जिस कारण इन्हें बचा पाना सम्भव नहीं होता। लेकिन दूसरे लोग, जिन्हें बचाया जा सकता था, वे भी अगर मृत्यु को प्राप्त हो रहे हैं तो कहीं न कहीं बहुत गड़बड़ हो रही है। अगर हम इसके कारणों की बात करें तो पहले भी बहुत से लेखों में हम इन कारणों की पड़ताल कर चुके हैं। इलाज और दवाओं के महँगा होने की वजह से, सरकार द्वारा सही ढंग से स्वास्थ्य सेवाएँ मुहैया न करवाये जाने की वजह से, मुनाफ़े की चाह में बीमारियों को बढ़ने देने की वजह से और दूसरे भी बहुत से कारण हैं जिन पर हम अक्सर चर्चा करते रहे हैं। समय पर सही इलाज न मिलना आज के समय की सबसे बड़ी स्वास्थ्य से सम्बन्धित समस्या है जोकि सीधे सीधे मुनाफ़े के खेल से जुड़ी हुई है। आतंकवाद और युद्धों से कई सौ गुना व्यक्ति बीमारियों की वजह से असमय मृत्यु का शिकार होते हैं। पहले एक लेख में हमने चर्चा की थी कि किस तरह मुनाफ़े के लिए सस्ती जेनेरिक दवाओं की बजाय महँगी ब्राण्डेड दवाओं को प्रोत्साहित किया जाता है जिसकी वजह से ग़रीब आबादी इलाज से बिलकुल ही दूर हो जाती है। कुछ डॉक्टर कहते हैं कि सस्ती जेनेरिक दवाएँ असर नहीं करतीं, इसलिए ब्राण्डेड दवाएँ ज़्यादा ज़रूरी हैं। लेकिन तमाम शोध यही कहते हैं कि जेनेरिक दवाएँ चिकित्सकीय गुणों में ब्राण्डेड दवाओं के बराबर होती हैं। फिर ऐसा क्या है जिसकी वजह से कुछ दवाएँ असर नहीं करतीं? या फिर ऐसा भी होता है कि कोई दवा ऐसे साइड इफ़ेक्ट पैदा कर रही है जोकि उस दवा की वजह से होने ही नहीं चाहिए थे।

2012 में पाकिस्तान में खाँसी की दवा पीने के बाद 60 लोगों की मृत्यु हो गयी। दवा की जाँच हुई तो पता चला कि यह दो अलग-अलग कम्पनियों की दवाओं को पीने से हुआ था। दोनों ही कम्पनियाँ अपनी दवा में डेक्सट्रोमेथोर्फ़न (Dextromethorphan) नामक एक साल्ट का इस्तेमाल कर रही थीं। इसमें कुछ भी ग़लत नहीं है। यह साल्ट खाँसी की बहुत सी दवाओं का मुख्य हिस्सा होता है और सूखी खाँसी के लिए प्रयोग किया जाता है। बहरहाल इस दवा के सैम्पल की जाँच हुई तो उसमें पाया गया कि दोनों ही कम्पनियाँ यह साल्ट भारत की एक दवा उत्पादक कम्पनी से मँगवा रही थी। दवाओं की लेबोरेटरी जाँच की गयी तो पाया गया कि इन दवाओं में एक और साल्ट मौजूद था, जिसे इस दवा में नहीं होना चाहिए था। इसका नाम है लीवोमेथोर्फ़न (Levomethorphan)। यह साल्ट दर्दनिवारक दवा मॉर्फि़न की ही तरह का होता है, लेकिन उससे 5 गुना ज़्यादा तेज़ होता है। मॉर्फि़न अफ़ीम से बनती है और मुख्यतः बहुत तेज़ दर्द, उदाहरण के तौर पर कैंसर के मरीजों को, में देने के काम आती है और इसकी ज़्यादा मात्रा नुक़सानदेह होती है। इतनी कि मृत्यु का कारण भी बन सकती है। इसलिए यह दवा सामान्य प्रिस्क्रिप्शन पर भी किसी मेडिकल स्टोर से नहीं मिलती। और अगर इससे भी 5 गुना ज़्यादा तेज़ दवा ओवरडोज़ यानी ज़रूरत से ज़्यादा होकर शरीर में पहुँच जाये तो मृत्यु होने का ख़तरा बहुत ज़्यादा बढ़ जायेगा। पाकिस्तान में यही हुआ था।

2013 में पराग्वे में ऐसी ही एक घटना घटी। यहाँ 44 बच्चों को साँस लेने में दिक़्क़त के चलते एक अस्पताल में भर्ती करवाया गया। पूछने पर पता चला कि इन सभी बच्चों ने खाँसी की दवा पी थी। तुरन्त जाँच की गयी और विश्व स्वास्थ्य संगठन का डाटाबेस खंगाला गया तो ज्ञात हुआ कि इसमें भी उसी भारतीय कम्पनी द्वारा भेजा गया साल्ट डेक्सट्रोमेथोर्फ़न मौजूद था। पता चला कि यह भी लिवोमेथोर्फ़न से दूषित था। पराग्वे के इस अस्पताल में डॉक्टरों ने तुरन्त इन बच्चों का इलाज शुरू किया और इन्हें बचाने में सफल रहे।

इस केस में तो डॉक्टरों को पता चल गया था कि दवा में कुछ ग़लत चीज़ मिली हुई है और समय पर इलाज भी शुरू हो गया। लेकिन अगर यही न पता चले कि गड़बड़ क्या है तो क्या होगा? मान लीजिए कोई एण्टीबायोटिक दवा है, और उसमें जो एण्टीबायोटिक साल्ट होना चाहिए उसकी बजाय कोई और चीज़ मौजूद है या फिर साल्ट की ही मात्रा कम है तो क्या होगा? ज़ाहिर है, दवा वह असर नहीं करेगी जो उसे करना चाहिए था और इन्फे़क्शन बढ़ता चला जायेगा। या फिर ये भी हो सकता है कि न तो दवा असर ही करे और साथ में दवा की वजह से अलग नुक़सान भी हो जाये। एक तो वैसे ही एण्टीबायोटिक रेजिस्टेंस यानी एण्टीबायोटिक दवाओं के खि़लाफ़ जीवाणुओं की प्रतिरोधक क्षमता एक गम्भीर समस्या बनकर खड़ी है, ऊपर से घटिया, नक़ली और मिलावटी दवाओं ने समस्या को इतना बढ़ा दिया है कि आने वाला समय बहुत मुश्किल होने वाला है। मरीजों के लिए भी और डॉक्टरों के लिए भी। दूसरा ये कि इस तरह की मिलावटी और नक़ली दवाएँ एण्टीबायोटिक रेजिस्टेंस का एक मुख्य कारण है। नक़ली, घटिया क्वालिटी की और मिलावटी दवाएँ सिर्फ़ एक हिन्दुस्तान या पाकिस्तान की समस्या नहीं हैं। बल्कि पूरी दुनिया इस बीमारी से पीड़ित है। ख़ासतौर पर ग़रीब मेहनतकश जनता, जिन्हें पता ही नहीं होता कि उन्हें क्या दवा दी जा रही है और इसका क्या असर रहेगा।

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने नक़ली दवाओं की परिभाषा दी है। इसके अनुसार ये वे दवाएँ हैं जिनमें जानबूझकर धोखे की नियत से उनकी पहचान और/या स्रोत की जानकारी से सम्बन्धित ग़लत लेबल लगाया जाता है। यह परिभाषा उत्पाद, इसकी पैकेजिंग या पैकेजिंग व लेबल पर मौजूद किसी भी अन्य जानकारी पर लागू होती है। इस तरह की जालसाजी ब्राण्डेड और जेनेरिक दोनों तरह के उत्पादों के साथ हो सकती है और इस तरह के जाली उत्पादों में सही घटकों वाले या ग़लत घटकों वाले, बिना सक्रिय घटक वाले, अपर्याप्त सक्रिय घटकों वाले या नक़ली पैकेजिंग वाले उत्पाद शामिल हैं। नक़ली दवाओं यानी counterfeit drugs में और दोषपूर्ण दवाओं यानी defective drugs में अन्तर समझना भी ज़रूरी है। दोषपूर्ण दवाएँ वे होती हैं जो बनायी तो क़ानूनी तरीक़े से जाती हैं लेकिन इनके उत्पादन की प्रक्रिया बनावट में ख़राबी आ जाती है। इसके अलावा घटिया क्वालिटी की दवाएँ यानी substandard drugs होती हैं। ये वे होती हैं जिनके घटक तो सही होते हैं लेकिन इनकी या तो गुणवत्ता ख़राब होती है या फिर सक्रिय घटक की मात्रा ही इतनी कम होती है कि ये दवा असर ही नहीं करतीं। इसके अलावा इस तरह की तमाम दवाओं में मिलावट भी हो सकती है। इनमें भारी धातुओं की मिलावट हो सकती है। 2010 में कोरिया में हुई एक स्टडी में पाया गया था कि ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से ऑनलाइन चलने वाली फ़ार्मेसियों की 26 प्रतिशत दवाओं में ऐसी चीज़ें पायी गयी हैं जो कैंसरकारक हैं; गुर्दों, लीवर और केन्द्रीय स्नायु तन्त्र के लिए हानिकारक हैं। इसमें ज़हरीले पदार्थों जैसे कीटनाशकों की मिलावट भी हो सकती है। 2009 में नाइजीरिया में ऐसी दवा से 84 बच्चों की मृत्यु हो गयी थी। इनमें धूल, मिट्टी, टेलकम पाउडर की मिलावट भी हो सकती है। या फिर, जैसा कि हम पहले ही बात कर चुके हैं, सक्रिय घटक कम हो सकते हैं या फिर ऐसा भी हो सकता है कि सक्रिय घटक हो ही न। 2012 में फ़ार्मास्यूटिकल सिक्योरिटी इंस्टिट्यूट (PSI) नामक एक ग़ैर लाभकारी संगठन ने अनुमान लगाया था कि 523 अलग-अलग तरह की दवाओं में इस तरह की जालसाजी होती है। 2012 से 2019 तक 7 साल में तो यह संख्या और भी अधिक बढ़ चुकी होगी।

इस तरह की दवाएँ नुक़सान क्या करती हैं? हर वो नुक़सान जो दवा न मिलने की वजह से बीमारी करती है। और साथ में अतिरिक्त नुक़सान जो इस तरह की दवाओं की मिलावट की वजह से होता है। अगर कोई इस तरह की दवा ले तो मृत्यु हो सकती है। 2012 में अमेरिका में एक मज़दूर को दर्द का इंजेक्शन दिया गया था और कुछ समय के बाद उसकी मृत्यु हो गयी। कारण यह था कि जिस दवा का इंजेक्शन दिया गया था, वह एक फफून्द से दूषित थी। इंजेक्शन के साथ फफून्द उसके शरीर में चली गयी और फफून्द के इन्फे़क्शन की वजह से उसके दिमाग़ में सूजन आ गयी। पता चला कि इस कम्पनी की इस दवा की वजह से अमेरिका में 800 लोगों को दिमाग़ी सूजन हो गयी थी, जिनमें से 64 लोग मर गये थे।

अगर किसी एण्टीबायोटिक दवा में मिलावट है, या फिर उस दवा में सक्रिय घटक की मात्रा ही कम है, तो ज़ाहिर है कि यह दवा मरीज को देंगे तो इसकी ख़ुराक़ कम रहेगी और यह पर्याप्त असर नहीं करेगी। इसके अलावा एण्टीबायोटिक रेजिस्टेंस के उभरने का एक कारण अपर्याप्त ख़ुराक़ देना भी है। इस तरह से अगर किसी जीवाणु में इस दवा के खि़लाफ़ एण्टीबायोटिक रेजिस्टेंस ज़्यादा हो गया तो शुद्ध दवा भी उस जीवाणु पर असर नहीं करेगी। इसका सीधा-सीधा असर ये होगा कि दवा के असर से प्रतिरोधित जीवाणु का प्रसार ज़्यादा हो जायेगा और फिर दवा उन मरीजों में भी काम करना बन्द कर देगी जिन्होंने यह दवा कभी ली ही नहीं थी। मतलब इस तरह की नक़ली, मिलावटी या घटिया क्वालिटी की दवाएँ पूरी मानवता के लिए ख़तरा बन रही हैं।

हमारा देश आज के समय में पूरी दुनिया में जेनेरिक दवाओं का सबसे बड़ा निर्यातक है। और जेनेरिक दवाओं के साथ-साथ नक़ली दवाओं का कारोबार भी सबसे ज़्यादा हमारे देश में ही होता है। यहाँ से पूरी दुनिया में नक़ली दवाएँ भेजी जा रही हैं। 2013 में रैनबैक्सी नामक भारतीय दवा कम्पनी पर 500 मिलियन अमेरिकन डॉलर का जुर्माना लगा था, क्योंकि इस कम्पनी ने ग़लत डाटा उपलब्ध करवाया था और यह सुरक्षा मानकों पर खरी नहीं उतर रही थी। 2014 में जर्मनी ने भारत की 80 दवाओं को इसी आधार पर प्रतिबन्धित कर दिया था। भारत के मुख्य दवा नियन्त्रक ने बयान दिया कि अमेरिका के मानकों पर अगर हम चलने लगे तो हमें सभी दवाएँ बन्द कर देनी पड़ेंगी। हालाँकि यह कम्पनियों के बचाव में दिया गया बयान था, लेकिन इसने यह साबित कर दिया कि भारत और अन्य विकासशील देशों में कोई भी दवा मानकों पर खरी नहीं उतरती। इसलिए मानकों को ही निम्नस्तर पर ला दिया गया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार कम और मध्य आय वाले देशों में कम से कम 10 प्रतिशत दवाएँ घटिया गुणवत्ता की हैं।

ज़ाहिर है कि यह सारा खेल मुनाफ़े पर टिका हुआ है। ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा कमाने के चक्कर में दवाओं की क्वालिटी के साथ समझौता किया जाता है, मानकों को नीचे लाया जाता है, जो मानक हैं उनके अनुसार भी काम नहीं किया जाता। इसकी वजह से दवा की क्वालिटी ख़राब होती है। या फिर जानबूझकर मिलावट की जाती है, ग़लत लेबलिंग की जाती है। पहले से ही बर्बाद स्वास्थ्य ढाँचा वैसे ही बीमारियों से लड़ नहीं पा रहा था, नक़ली और घटिया दवाओं के कारोबार ने उसे बिलकुल ही पंगु बना दिया है। इन सबका ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ रहा है भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया की आम मेहनतकश आबादी को। यूँ ही मेहनतकश को स्वास्थ्य सुविधाएँ नहीं मिलती हैं, ऊपर से अगर अपनी दिन-रात की हाड़तोड़ मेहनत से की हुई कमाई से अगर दवा ख़रीदने की नौबत आ जाये तब भी उसे मिलता है दवा के रूप में ज़हर। मतलब यह कि ग़रीब मज़दूर पर तो तिहरी मार पड़ रही है। श्रम की लूट, सेहत की लूट और फिर कमाई की लूट के बदले में ज़हर की सप्लाई। बल्कि इस ज़हर का शिकार सिर्फ़ मेहनतकश नहीं बल्कि मध्यवर्गीय आबादी भी है। पूँजीवाद ने धरती की हवा प्रदूषित कर दी है, पानी प्रदूषित कर दिया है, जैव सन्तुलन बिगाड़ दिया है और जनता की सेहत से खिलवाड़ भी किया जा रहा है। यह तब तक जारी रहेगा, जब तक मुनाफ़े पर आधारित पूँजीवादी व्यवस्था मौजूद है। यह व्यवस्था कैसे ख़त्म हो, इस विषय पर हम सबको मिलकर काम करना होगा। डॉक्टरों को, मज़दूरों को, छात्रों को, आम जनता को सबको। आखि़र यह हम सबसे जुड़ा हुआ मसला है।

मज़दूर बिगुल, मार्च 2019


 

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