इंग्लैण्ड में प्रवासी मज़दूरों के बुरे हालात
बेरोज़गारी, शोषण-उत्पीड़न से बचने के लिए परदेस जाने वाले मेहनतकश वहाँ भी पूँजी के ज़ालिम पंजों के शिकार

रिम्पी गिल

लेखिका पिछले कई वर्षों से इंग्लैण्ड में रहकर एक मेहनतकश के तौर पर काम कर रही हैं।  यह लेख उनके अपने और उनके करीबी लोगों के निजी अनुभवों पर आधारित है। उनका कहना है कि वहाँ जितने लोग हैं उतनी ही कहानियाँ, उतनी ही त्रासदियाँ हैं।  दूर के ढोल सुहाने लगते हैं और भारत से बहुत से मेहनतकश यहाँ की बेरोज़गारी, शोषण-उत्पीड़न से बचने के लिए किसी किसी तरह विदेश जाने की कोशिश करते रहते हैं। लेकिन ज़्यादातर के लिए वास्तविकता कुछ और ही होती है। – सं.

उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी जब नौकरी नहीं मिलती तो बेरोज़गारी से तंग आकर नौजवान क़र्जे़ लेकर, ज़मीनें, गहने आदि बेचकर विदेशों की ओर कूच करने को मजबूर हैं। जिनके पास थोड़ी-बहुत दौलत है या परिवार के किसी मेम्बर के पास आमदनी का कोई पक्का साधन है, वो आईलेट्स वग़ैरह करके विदेश जाने का तरीक़ा निकालते हैं लेकिन जिनके पास कम पैसा है और बेचने को भी कुछ ख़ास ज़मीन, गहने या सामान नहीं है, वो 5% से 10% भारी भरकम ब्याज दरों पर पैसे क़र्ज़ा लेकर गुप्त तरीक़े से विदेश जाने को मजबूर हैं। लेकिन यह बहुत ही ख़तरनाक रास्ता है। इसे डोंकी लगाना कहते हैं। इसमें नौजवानों के हालात युद्ध पर गये किसी सिपाही जैसे होते हैं जिसे नहीं पता कि कल का सूरज देख पायेगा या नहीं। एजेण्ट नौजवानों के ग्रुप बनाकर भेजते हैं। इंग्लैण्ड आने की क़ीमत 3 लाख से 5 लाख है। लेकिन इस तरीक़े से विदेश जाने वाले नौजवानों को रास्ते में आने वाली मुसीबतों के बारे में नहीं बताया जाता। ज़ाहिर है, एजेण्ट को अपने पैसे तक ही मतलब होता है।

लेकिन पढ़ाई करने या पढ़ाई करके विदेशों में आने वाले नौजवानों के हालात भी कुछ ज़्यादा अच्छे नहीं होते। ज़्यादातर को काम करने की परमिशन नहीं होती है। और अगर काम करने की परमिशन नहीं है तो डोंकी लगा कर पहुँचने वाले और डिगरी लेकर या डिगरी लेने आने वाले के हालात यहाँ आकर एक जैसे ही हो जाते हैं। दुनिया भर में मज़दूरों के हालात एक जैसे ही हैं। देश कोई भी हो उनका वहाँ की सरकारों, कम्पनियों और छोटे-बड़े मालिकों द्वारा ख़ूब शोषण किया जाता है। भारत में तो आये दिन ही मज़दूरों की मार-पिटाई, उनको मज़दूरी न देना, उनको मानसिक और शारीरिक यातनाएँ देने की ख़बरें मीडिया में आती रहती हैं।

पंजाब से 16 साल पहले डोंकी लगाकर इंग्लैण्ड पहुँचे लाड्डी ने अपनी आपबीती सुनायी जो रोंगटे खड़े कर देने वाली थी। उन्हें एक ग्रुप बनाकर भारत से बाहर भेजा गया था रूस के रास्ते से, वह कई दिन भूखे-प्यासे रहे। कड़ाके की सर्दी में उन्हें जंगली रास्तों से होते हुए यूरोप पहुँचना था और वहाँ से इंग्लैण्ड। वह रोज़ कई मील चलते। उनके मुताबिक़़ हर वक़्त उनके सर पर तलवार लटकती रहती उन्हें एजेण्ट के आदमियों के मुताबिक़़ ही हर काम करना होता था किसी प्रकार की कोई भी चूक होने पर जान जाने का ख़तरा था। जो चल नहीं सकते थे या रास्ते में आने वाले कठिन हालात को झेलने में असमर्थ होते उन्हें जान से मार देने के आदेश होते। लाड्डी ने बताया कि वह बड़ी मुश्किलों को झेलने के बाद यूरोप से एक ट्रक में, जिसमें धागे के बड़े-बड़े बण्डल भरे पड़े थे, छुपकर इंग्लैण्ड पहुँचने में कामयाब हुआ था। कुछ हफ़्तेे पहले ही बरमिंघम सिटी सेण्टर में इसी तरीक़े से मुक्तसर पंजाब से आये नौजवान से मुलाक़ात हुई जो बड़ी मुश्किल से इंग्लैण्ड पहुँचा था। रात के 11 बजे थे उसके पास न कोई पैसा था, न ही इतनी ठण्ड में रहने को कोई ठिकाना। उसके कपड़े बहुत मैले और जूते फटे हुए थे। उसे देख कर सहज ही यह अन्दाज़ा लगाया जा सकता था कि वह बहुत बुरे वक़्त से गुज़र कर यहाँ पहुँचा है। उसने बताया कि वह क़र्ज़ा लेकर पंजाब से यहाँ काम करने के लिए आया है। घर में केवल उसकी बूढ़ी माँ है। वह उसे वहाँ अकेला छोड़ कर नहीं आना चाहता था, लेकिन कोई काम ना होने की वजह से उसे यह क़दम उठाना पड़ा।

लेकिन जो मज़दूर भारत से बाहर रहते हैं उनके हालात भी कुछ ज़्यादा अलग या अच्छे नहीं हैं। यूके में कामगारों के काम करने, उनके जीवन स्तर को उँचा उठाने, काम करने की जगहों पर सुरक्षा को यक़ीनी बनाने के लिए कई क़ानून हैं। लेकिन जब बात बाहर से आये मज़दूरों की होती है, तो ये सब क़ानून धरे रह जाते हैं। पिछले 25 साल में यूके में बाहर से आकर यहाँ रहने वाले प्रवासियों की गिनती दोगुनी (37 से 85 लाख) से भी ज़्यादा हो गयी है।

अकेले भारतीयों की संख्या यहाँ 14 लाख के क़रीब है। इतनी बड़ी आबादी में ग़ैर क़ानूनी तरीक़े से यहाँ रहने वाले भारतीयों की संख्या 75000 से 100000 के क़रीब है। प्रवासी मज़दूरों के लिए यहाँ काम मिलने में बड़ी दिक़्क़त होती है। और काम की परमिशन नहीं है तो मुसीबतें दूगनी हो जाती हैं। जिनके पास काम करने की परमिशन नहीं है वो ज़्यादातर बिल्डिंग लाइन और कंस्ट्रक्शन का काम करते हैं और यह बहुत ही मुश्किल काम है, ख़ास करके इस ठण्डे देश में जहाँ हड्डि‍यों को चीरने वाली सर्दी के मौसम में तापमान -15 तक चला जाता है। एेसे ख़तरनाक मौसम में मज़दूरों को काम करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। कंस्ट्रक्शन का काम करने वाले मज़दूरों को बहुत ही कम मज़दूरी दी जाती है। शुरुआत £25-£35 से होती है और इतने कम पैसे देने की वजह काम का तर्जूबा कम होना या ना होना बताया जाता है। काम करने की जगहों पर सुरक्षा की ओर भी कोई ध्यान नहीं देता, न ही मज़दूरों को काम करने के लिए उपयुक्त सामान मुहैया करवाया जाता है। वजह है कम से कम लागत में मज़दूरों से काम निकलवाना भले ही इस में उनकी जान को ख़तरा हो। अगर काम करते समय कोई हादसा हो भी जाये तो उसे हर मुमकिन कोशिश करके छुपाया जाता है, क्योंकि अगर हेल्थ एण्ड सेफ़्टी वालों को इसकी ज़रा भी भनक लग जाये तो वह काम करवाने वाले और करने वालों को पकड़कर अन्दर कर सकते हैं। मज़दूर जो आया ही इस देश में काम करने के लिए है वो भी बिना किसी पेपरवर्क के, वह अपने साथ हुए हादसों को सबसे पहले छुपाता है। अगर किसी के पास ड्राइविंग लाइसेंस है तो काम थोड़ा अासानी से मिल जाता है क्योंकि ठेकेदार उससे ड्राइवर का काम भी लेता है और मज़दूर का भी। कंस्ट्रक्शन का काम करने वाले जसवीर जिसके पास ड्राइविंग लाइसेंस भी था, को रोज़ाना बरमिंघम से ऑक्सफ़ोर्ड काम करने के लिए जाना पड़ता था। वह हर रोज़ 78 मील गाड़ी चलाकर काम पर पहुँचता और वहाँ कड़ी मेहनत करने के बाद देर रात फिर वापस 78 मील गाड़ी चला कर वापस घर आता। वो हर रोज़ सुबह 6 बजे घर से निकलता ठेकेदार को उसके घर से लेकर फिर काम पर जाता। जसवीर को इतने सख़्त काम करने के बदले 45 पौंड ही दिहाड़ी मिलती और ऊपर से वह अपनी गाड़ी भी इस्तेमाल करता था। बस तेल का ख़र्चा ठेकेदार देता बाक़ी गाड़ी के रखरखाव और इंश्योरेंस का सारा ख़र्चा जसवीर को ही उठाना पड़ता। इन सब ख़र्चों के बाद उसे 35 पौंड ही बचते जबकि ठेकेदार को उससे आधी से भी कम मेहनत करने के 150 से 200 पौंड तक दिहाड़ी मिलती। 

बिना काम की परमिशन वाले मज़दूरों को दूसरों के मुक़ाबले दुगना, तिगुना काम करना पड़ता है। जिसकी वजह से उन्हें कई प्रकार की मानसिक और शारीरिक बीमारियाँ भी लग जाती हैं।

बिना काम की परमिशन या बिना किसी पेपरवर्क के यहाँ रहने वाली एक बड़ी आबादी मालिकों के शोषण का शिकार हर रोज़ होती है। मज़दूरों के पैसे देने से ठेकेदार और मालिक अक्सर ही मुक़र जाते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि मज़दूर अपनी फ़रियाद किसी के पास नहीं ले जा सकता। अगर अपना मुँह खोलेगा तो ख़ुद ही फँसेगा। अगर वह कोई और काम ढूँढ़ने की कोशिश भी करें तो मालिकों द्वारा उन्हें ब्लैकमेल किया जाता है। इसी डर से ये प्रवासी मज़दूर जैसा मालिक कहे वैसा ही करते हैं और कहीं और काम भी नहीं ढूँढ़ते, जब तक कि मालिक ख़ुद निकाल न दे।

बरमिंघम के हैण्डस्वर्थ इलाक़े में सोहो रोड काफ़ी मशहूर है। इस रोड पर 350 से भी ज़्यादा दुकानें हैं। ज़्यादातर दुकानें भारतीयों की हैं, उसके बाद पाकिस्तानी, अफ़गानी, और अफ़्रीकी लोगों की। यह इलाक़ा प्रवासी मज़दूरों की लूट का अड्डा है। यहाँ कुछ ही दुकानें हैं जहाँ किसी को सरकारी मिनिमम वेज़ मिलती है। इस समय मिनिमम वेज़ £7.83 प्रति घण्टे के हिसाब से मिलते हैं जो इस अप्रेल से £8.21 हो जायेगी। लेकिन यहाँ काम करने वाले मज़दूरों को मिलती है £2 प्रति घण्टे के हिसाब से। अगर थोड़ा अनुभव है तो £3 और अगर कोई एक्सपर्ट हो तो £5, इससे ज़्यादा नहीं। सोहो रोड पर काम करने वालों में ज़्यादा गिनती महिलाओं की है। यहाँ एक ग्रोसरी स्टोर (ऐसऐण्डी) पर काम करने वाली महिला ने बताया कि वह जिस स्टोर में काम करती है, वहाँ का मालिक उन्हें पेशाब तक करने नहीं जाने देता। वे बस ब्रेक में ही बाथरूम जा सकती हैं। अगर ड्यूटी टाइम में जाना पड़ भी जाये तो बहुत मिन्नतें करनी पड़ती हैं। इसी वजह से वह पानी भी नहीं पीती काम पर।

इसी रोड पर एक ड्राइक्लीन की बड़ी मशहूर दुकान है (दुकान का नाम मिडलैण्ड ड्राइक्लीन)। यहाँ अक्सर ही वैकेंसी का बोर्ड लगा रहता है। यह बड़ा ही कारगर पैंतरा है लोगों से काम की ट्रेनिंग के बहाने फ़्री काम करवाने का। यहाँ दो हफ़्तेे की ट्रेनिंग के कोई पैसे नहीं मिलते कामगारों को (कोई भी नहीं देता) दो हफ़्तेे की ट्रेनिंग के बाद तीसरे हफ़्तेे में मज़दूर को काम में नुक़्स निकालकर या कोई और बहाना बनाकर वहाँ से निकाल दिया जाता है। उसकी जगह कोई और अनजान धोखा खाने के लिए आ जाता है। यहाँ काम करने वाली एक लड़की ने बताया कि इस लौण्ड्री में सभी औरतें ही काम करती हैं। काम काफ़ी मुश्किल है लेकिन करना ही पड़ता है। भारी भरकम स्टीमर ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर ले जाने होते हैं, यहाँ तक कि अगर मज़दूर महिला गर्भवती हो तो भी उसे इतना मुश्किल और भारी काम करने को कहा जाता है और यहाँ भी 2 पौंड प्रति घण्टे के हिसाब से ही पैसे मिलते हैं। एक साल के बाद 3 पौंड प्रति घण्टा मिलना शुरू होता है।

ये तो कुछ ही उदाहरण हैं मज़दूरों की लूट के। परदों के पीछे तो मज़दूरों पर मालिकों द्वारा किये जाने वाले ज़ुल्मों के रोज़ नये कीर्तिमान बनते और टूटते हैं।

प्रवासी मज़दूरों के हालात यहाँ बहुत दयनीय और गम्भीर हैं। यहाँ उन्हें ग़ुलामों की तरह जि़न्दगी बसर करनी होती है। काम की परमिशन या पेपरवर्क नहीं होने की वजह से वह किसी से भी अपने पर होने वाले ज़ुल्मों की शिकायत नहीं करते। उन्हें डर होता है कि कहीं कोई इमीग्रेशन को शिकायत ही न कर दे। उनकी मजबूरी का फ़ायदा उठाने के लिए यहाँ कई तरह के आपराधिक ग्रुप भी सक्रि‍य रहते हैं। ये ग्रुप प्रवासी लोगों को निशाना बनाते हैं जिनके पास बैंक अकाउण्ट और ड्राइविंग लाइसेंस है मगर अब वीज़ा ख़त्म हो चुका है और वह ओवर सटे हो चुके हैं। जो कि यहाँ के क़ानून के मुताबिक़़ अपराध है। ऐसे अपराधिक ग्रुप लोगों को बैंकों से लोन लेने में मदद करने का जाल बुनते हैं। अगर सामने वाले को ज़्यादा अंग्रेज़ी नहीं आती है तो काम और भी आसान हो जाता है। इन ग्रुपों को चलाने वाले बड़े ही शातिर और सुलझे हुए खिलाड़ी होते हैं। वह पहले लोगों से दोस्ती करते हैं। फिर उनकी कमज़ोरियाँ तलाशते हैं। फिर उन्हें लालच देकर उनका विश्वास जीतकर उनकी आईडी का ग़लत इस्तेमाल करते हैं। ऐसे ग्रुप लोगों को वीआईटी फ्रोड में फँसा कर ख़ुद चालाकी से निकल जाते हैं। इस काम में लाखों-करोड़ों के हेरफेर होते हैं यहाँ जिसकी आईडी इस्तेमाल होती है उसे इतने बड़े घपले का पता भी नहीं होता। अगर पता चल भी जाये तो उसे ब्लैकमेल किया जाता है और जान से मारने की धमकी दी जाती है। सारा गेम इतनी सफ़ाई से खेला जाता है कि फँसता हर हाल में विक्टम ही है। और चालबाज़ प्रति गेम में £30,000 से £50,0000 तक बनाकर चला जाता है।

औरतों के हालात और भी बद्दतर हैं। बहुत सारी लड़कियाँ जो अकेली रहती हैं उनको काम दिलाने के झाँसे में फँसाकर देह व्यापार के घिनौने धन्धे में धकेल दिया जाता है। पंजाब से ही स्टूडेण्ट वीज़ा पर आयी लड़की (जिसका नाम बताना उचित नहीं) को जब काम नहीं मिला तो वह देह व्यापार का काम करने लगी। यहाँ सोहो रोड पर ही साबी नाम की औरत स्टूडेण्ट और काम की तलाश करती लड़कियों को अपने पार्लर और बुटीक पर काम देने के बहाने अपने पास बुलाकर थोड़ा-बहुत काम देकर मदद करने का ढोंग करती। फिर मौक़ा देखकर कम समय में ज़्यादा पैसे कमाने का लालच देकर उन्हें क्लबों में नाचने के लिए उकसाती। वह कहती कि अगर वो उसके साथ कोपरेट करेंगी तो 350 से 500 पौंड प्रति हफ़्ता तक कमा सकती हैं। रवीता, कमल और किरन, जो उसके पास काम करती थीं, की जि़न्दगी भी न जाने कितनी भयानक होती अगर वो समय रहते साबी के गन्दे इरादों को न भाँप जातीं।

प्रवासी मज़दूरों की बदहाली दूर करने के लिए यहाँ कोई नियम नहीं, कोई यूनियन नहीं। इन चमकते विकसित देशों की अर्थव्यवस्था की रीड़ की हड्डी हैं ये प्रवासी मज़दूर जो अपना घर-परिवार सब छोड़कर यहाँ गुमनाम नारकीय जि़न्दगी बसर करने को मजबूर हैं। कितने ऐसे मज़दूर हैं जो 10-15 सालों से वापस घर नहीं जा सके और यहाँ एक मशीन की तरह काम कर रहे हैं जिसका रिमोट मालिकों के हाथ में है। 

मज़दूर बिगुल, मार्च 2019


 

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