कर्नाटक के गारमेण्ट मज़दूरों का उग्र आन्दोलन और लम्बे संघर्ष की तैयार होती ज़मीन

बेबी कुमारी

गत 24 जुलाई को कर्नाटक के हसन जि़ले में हिम्मतसिंग गारमेण्ट फ़ैक्टरी के मज़दूरों ने अपनी माँगों को लेकर प्रदर्शन किया। प्रदर्शन में 200 मज़दूर शामिल थे। प्रदर्शन के दौरान पुलिस ने लाठीचार्ज किया, हवाई फ़ायरिंग की और आँसू गैस के गोले भी दागे। मज़दूरों का ग़ुस्सा भड़क उठा और उन्होंने भी जवाब में पत्थरबाज़ी की। लेकिन, मज़दूरों को ऐसा क़दम उठाने पर क्यों बाध्य होना पड़ा? आख़ि‍र क्यों मज़दूर अपनी माँगों को लेकर सड़क पर उतरने को मजबूर हुए? ऐसा इसलिए हुआ कि उक्त फ़ैक्टरी के मज़दूर पिछले 1 महीने से बिना वेतन के काम कर रहे थे। और इतना ही नहीं, जैसा कि कमोबेश हर फ़ैक्टरी, हर वर्कशॉप की कहानी है; फ़ैक्टरी मैनेजमेण्ट उनके साथ गाली-गलौज, मारपीट भी कर रहा था। आख़ि‍र सहने की भी हद होती है। हिम्मतसिंग गारमेण्ट फ़ैक्टरी के मज़दूरों ने भी दिखा दिया कि हम भी इंसान हैं। और यह घृणित दासता हमें किसी भी रूप में स्वीकार नहीं।

कोई इसे महज़ एक घटना कह सकता है, जो इसलिए घटी कि एक फ़ैक्टरी के मज़दूरों का शोषण हो रहा था। पर बात इतनी ही नहीं है। इस तरह की घटनाओं के पीछे दमन और शोषण की निरन्तर चलती चक्की जि़म्मेदार होती है। जब बर्दाश्त की हदें पार हो जाती हैं तो मज़दूरों का ग़ुस्सा फूट पड़ता है। कर्नाटक के गारमेण्ट सेक्टर में मज़दूरों के काम के बदतर हालात और बर्बर तथा नग्न शोषण पूरे सेक्टर का सच है।

फ़ैशनेबुल, ब्राण्डेड कपड़ों के निर्माण का सच

कर्नाटक की गारमेण्ट इण्डस्ट्री से तैयार होने वाले कपड़ों का निर्यात यूरोप के अधिकांश देशों में होता है। यहाँ तैयार किये जाने वाले कपड़ों पर बड़ी कम्पनियाँ अपनी लेबलिंग करती हैं और उसे बाज़ार में डिस्काउण्ट या रियायती दरों पर बेचा जाता है। लेकिन, यहाँ के मज़दूरों की हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी उनकी न्यूनतम मज़दूरी सिर्फ़ 8,000 रुपये है। भारत सरकार की रंगराजन कमिटी की रिपोर्ट के अनुसार यह वेतन शहरी ग़रीबी रेखा, जो 10,800 रुपये प्रतिमाह है, से भी 25 प्रतिशत नीचे है। यह 8,000 रुपये भी समय से भुगतान न किये जायें तो मज़दूरों का ग़ुस्सा फूटना जायज़ है। पिछले लम्बे समय से गारमेण्ट सेक्टर के मज़दूर न्यूनतम मज़दूरी बढ़ाये जाने को लेकर भी संघर्षरत हैं।

1948 के न्यूनतम मज़दूरी एक्ट के अनुसार राज्य सरकार को हर तीन से पाँच सालों में न्यूनतम मज़दूरी की दर बढ़ानी होती है। लेकिन, पिछले 44 सालों में 8 बार की जगह सिर्फ़ 4 बार ही न्यूनतम मज़दूरी बढ़ायी गयी है। वह भी लगातार संघर्षों के बाद ही। सरकारें आती रहीं और जाती रहीं लेकिन किसी के लिए भी गारमेण्ट सेक्टर के मज़दूर और उनकी बदहाली के जैसे कोई मायने नहीं।

4.5 लाख मज़दूर गारमेण्ट सेक्टर में काम करते हैं जिनमें से 3.5 लाख बंगलुरु के रहने वाले हैं। कुल मज़दूरों का 90 प्रतिशत महिला मज़दूर हैं। गारमेण्ट इण्डस्ट्री से जुड़े अन्य क्षेत्रों जैसे प्रिण्टिंग, डाइंग और स्पिनिंग (बुनाई) में 10 लाख लोग काम करते हैं। देश के इतने बड़े गारमेण्ट सेक्टर के मज़दूरों के हालात की ओर न तो राज्य सरकार का ध्यान गया है और न ही केन्द्र सरकार का। हाँ, मालिकों और मैनेजमेण्ट की सुविधाओं का पूरा ध्यान रखा गया है। 22 फ़रवरी 2018 को सिद्धरमैया नीट कांग्रेस सरकार ने न्यूनतम मज़दूरी को बढ़ाने के लिए एक ड्राफ़्ट नोटिफि़केशन जारी किया। लेकिन, 24 मार्च को यह नोटिफि़केशन वापस ले लिया गया। इसे वापस लेते हुए श्रम विभाग ने यह कहा कि गारमेण्ट सेक्टर के फ़ैक्टरी मालिकों को न्यूनतम वेतन बढ़ाये जाने को लेकर आपत्ति है। मालिकों के अनुसार कर्नाटक में न्यूनतम मज़दूरी की दर भारत के किसी अन्य राज्य से ज़्यादा है। और अगर न्यूनतम मज़दूरी बढ़ायी जाती है तो उन्हें घाटा उठाना पड़ेगा। श्रम विभाग ने न तो इस सन्दर्भ में मज़दूरों से बात करना मुनासिब समझा और न ही उनके प्रतिनिधियों से। दरअसल, श्रम विभाग को चिन्ता इस बात की है कि मज़दूरों की मेहनत को निचोड़कर मालिक जो मुनाफ़ा कमाते हैं, वह कम न हो जाये। मालिक और पूँजीपति को जब मुनाफ़े में कमी होती है तो वे घाटा-घाटा की रट लगाते हैं। जिन मज़दूरों के दम पर उन्हें मुनाफ़ा मिलता है, उन्हीं मज़दूरों को सम्मानपूर्वक ज़िन्दगी जीने लायक मज़दूरी देने में उन्हें सबसे ज़्यादा घाटा दिखायी देने लगता है। सच तो यह है कि इस पूँजीवादी व्यवस्था में मज़दूर को इतना ही दिया जाता है कि वह किसी तरह ज़िन्दा रहे और वापस उत्पादन में लग जाये।

कार्यस्थल के बदतर हालात

पूरे गारमेण्ट सेक्टर में कार्यस्थल के हालात अमानवीय हैं। जैसा हिम्मतसिंग गारमेण्ट फ़ैक्टरी में हुआ, वह हर फ़ैक्टरी की कहानी है। मज़दूरों के साथ गाली-गलौज, मारपीट आम बात है। हमने ऊपर बताया है कि पूरे सेक्टर में महिला मज़दूरों की संख्या ज़्यादा है। अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के अध्ययन के मुताबिक़ सात गारमेण्ट मज़दूर परिवारों में से एक परिवार महिला मज़दूर की कमाई पर आश्रित है। उनके साथ तो और भी ज़्यादा बदसलूकी की जाती है। यौन हिंसा, छेड़छाड़ रोज़मर्रा की घटनाएँ हैं। इतना ही नहीं उन्हें ज़बरदस्ती काम करने और ओवरटाइम करने पर भी मज़बूर किया जाता है। उनके दोपहर का खाना खाने, चाय पीने, शौचालय जाने तक के समय में से कटौती की जाती है। वर्कलोड बढ़ा दिया जाता है और उत्पादन तेज़ करने की माँग की जाती है। 1 घण्टे में उन्हें 100 से 150 तक शर्टें तैयार करनी होती हैं। काम पूरा न होने पर अपमान और जिल्लत झेलना पड़ता है। दरअसल मुनाफ़े की रफ़्तार को बढ़ाने के लिए मज़दूरों के आराम करने के समय में कटौती करके काम के घण्टे को बढ़ाया जाता है। फ़ैक्टरियों में खुलेआम श्रम क़ानूनों का उल्लंघन होता है और श्रम विभाग चुपचाप देखता रहता है। अगर इस अपमान और ि‍जल्लत के ख़िलाफ़ मज़दूर आवाज़ उठाते हैं तो उन्हें ही दोषी ठहरा दिया जाता है।

जीना है तो लड़ना ही होगा

कर्नाटक में मौजूदा सरकार में भी हालात सुधरने वाले नहीं, बल्कि और भी बदतर होते जाने की पूरी सम्भावना है। बी एस येदियुरप्पा के नेतृत्व में वहाँ भी भाजपा की सरकार है। और दुबारा केन्द्र की सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार ने सबसे पहले श्रम क़ानूनों में संशोधन करने और मालिकों को फ़ायदा पहुँचाने का ही काम किया है। गारमेण्ट सेक्टर में अतिउत्पादन के संकट से पैदा हुई मन्दी लगातार बनी हुई है। ऐसे में लगातार छँटनी, बेरोज़गारी और वर्कलोड से तंग आकर मज़दूर अगर संघर्ष में उतरते हैं तो उनका बेसाख्ता दमन किया जायेगा। यानी डण्डे के बल पर पूँजीपतियों की सुविधा और मुनाफ़े का पूरा ध्यान रखा जायेगा।

इसलिए यह ज़्यादा ज़रूरी है कि मौजूदा समय में मज़दूर अपनी एकजुटता पूरे सेक्टर के स्तर पर क़ायम करें। जिस तरह हिम्मतसिंग फ़ैक्टरी के आन्दोलन का दमन कर दिया गया, अगर इस लड़ाई को पूरे सेक्टर की लड़ाई में बदल दिया जाये तभी संघर्ष को एक दिशा दी जा सकती है। और लड़ना ही हमारे जीने की पहली शर्त है। 

 

मज़दूर बिगुल, अगस्‍त 2019


 

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