वेतन संहिता अधिनियम 2019 – मज़दूर अधिकारों पर बड़ा आघात

शिशिर

संघी सरकार सत्ता में दोबारा आते ही मुस्तैदी से अपने पूँजीपति आकाओं की सेवा में लग गयी है। पूँजीपतियों के हितों वाले विधेयक संसद में धड़ाधड़ पारित किये जा रहे हैं। सूचना-अधिकार संशोधन और यूएपीए संशोधन जैसे विधेयकों से एक तरफ़ आम अवाम की आवाज़ पर शिकंजे कसने की कोशिश की गयी है, दूसरी तरफ़ वेतन संहिता विधेयक से उनके न्यूनतम वेतन सम्बन्धी अधिकारों को एक तरह से ख़त्म ही कर दिया गया है। इसके अलावा मज़दूरों पर हर तरह से नकेल कसने के लिए और उनकी ज़िन्दगियों को पूरी तरह से मालिकों के रहमोकरम पर छोड़ देने के लिए ‘व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्यस्थल स्थिति विधेयक’ भी पेश किया जा चुका है, जबकि औद्योगिक सम्बन्ध और सामाजिक सुरक्षा से सम्बन्धित बिल पेश किये जाने बाक़ी हैं। व्यवसाय में सुलभता के लिए सरकार ने 44 केन्द्रीय श्रम क़ानूनों को इन्हीं चार श्रम संहिताओं में बाँधने का फ़ैसला किया है।

सरकार से पूछा जाना चाहिए कि केवल मालिकों की ही सुलभता का ख़याल क्यों है? अगर कई क़ानूनों को मिलाकर कामकाज आसान किया जा रहा है, तो आख़िर किसका कामकाज आसान किया जा रहा है? पुराने क़ानूनों में मज़दूरों के कुछ अधिकारों को सुनिश्चित करने वाले उन हिस्सों को धड़ल्ले से बाहर क्यों किया जा रहा है जिसे मज़दूर-वर्ग ने बेहद जुझारू संघर्षों और असंख्य क़ुर्बानियों के दम पर हासिल किया था? सरकार चाहती, तो मज़दूरों के लिए भी ऐसा इकलौता क़ानून बना सकती थी जिससे वे नौकरशाही के चंगुल में न फँसते और उनके लिए आततायी मालिकों की शिकायत करना और उन्हें सज़ा दिलाना आसान हो जाता!

पिछली लोकसभा में भी मोदी सरकार ने प्रशिक्षु क़ानून (अप्रेण्टिस ऐक्ट) में संशोधन करके मालिकों को 30% मज़दूरों को बिना किसी सामाजिक सुरक्षा के प्रशिक्षु के रूप में भर्ती करके उनका अति-शोषण करने की खुली छूट दे दी थी। इसी मज़दूर-विरोधी कारनामों की फ़ेहरिस्त को बढ़ाते हुए सरकार ने वेतन संहिता अधिनियम लागू किया है।

वेतन-संहिता अधिनियम – पूँजीपतियों को मज़दूरों की हड्डियाँ निचोड़ने की छूट देना वाला क़ानून

इस अधिनियम के लागू होने के साथ ही चार पुराने अधिनियमों – वेतन भुगतान अधिनियम 1936, न्यूनतम वेतन अधिनियम 1948, बोनस भुगतान अधिनियम 1965, और समान पारिश्रमिक अधिनियम 1976 को ख़त्म कर दिया गया है। इसके अन्तर्गत पूरे देश के लिए वेतन का न्यूनतम तल-स्तर निर्धारित किया जायेगा। सवाल है कि तल-स्तर निर्धारित करने के लिए तरीक़ा क्या अपनाया गया है। हालाँकि, सरकार का कहना है कि एक त्रिपक्षीय समिति इस तल-स्तर का निर्धारण करेगी, मगर इस सरकार के श्रम मंत्री पहले ही नियोक्ताओं के प्रति अपनी उदारता दिखाते हुए प्रतिदिन के लिए तलस्तर मज़दूरी 178 रुपये करने की घोषणा कर चुके हैं। यानी, इस न्यूनतम मज़दूरी  के हिसाब से महीने में 26 दिन काम करने वाले की मासिक आमदनी हुई महज़ 4,628 रुपये! यह राशि ख़ुद इसी सरकार की विशेषज्ञ समिति के द्वारा सुझायी गयी 9,750 रुपये से 11,622 रुपये के न्यूनतम मासिक आमदनी से बेहद कम है, और आर्थिक सर्वेक्षण में सुझाये गये 18,000 रुपये के मासिक वेतन का एक-चौथाई मात्र है। सातवें वेतन आयोग ने भी सरकारी कर्मचारियों के लिए न्यूनतम वेतन 18,000 रुपये ही तय किये हैं।

15वें राष्ट्रीय श्रम सम्मलेन (1957) की सिफ़ारिशों के अनुसार न्यूनतम मज़दूरी, खाना-कपड़ा-मकान आदि बुनियादी ज़रूरतों के आधार पर तय होनी चाहिए। आगे चलकर, सुप्रीम कोर्ट के 1992 के एक निर्णय (रेप्टाकोसब्रेट्ट एण्ड कं. बनाम मज़दूर) के अनुसार इसमें बच्चों की शिक्षा, दवा, मनोरंजन, बुढ़ापे के इन्तज़ाम आदि कारकों को भी शामिल किया गया था। केन्द्र और राज्य सरकारें तो वैसे भी इन निर्देशों का पालन नहीं करती थीं, अब मोदी सरकार ने उसी को क़ानूनी अमलीजामा पहना दिया है। यहाँ तक कि सरकार द्वारा नियुक्त की गयी विशेषज्ञ समिति ने भी न्यूनतम मज़दूरी तय करने के लिए इन दिशा-निर्देशों के साथ छेड़छाड़ करते हुए कैलोरी की ज़रूरी खपत को 2700 की बजाय 2400 पर रखा है और तमाम बुनियादी चीज़ों की लागत भी 2012 की क़ीमतों के आधार पर तय की है। पर सरकार के गृहमंत्री सन्तोष गंगवार उससे भी नहीं सन्तुष्ट हुए और न्यूनतम तल-स्तर को 178 रुपये करने का ऐलान किया जो समिति की सिफ़ारिश का लगभग आधा मात्र है।

नियमों का उल्लंघन करने वाले मालिकों की निगरानी किये जाने के उपक्रम को बेहद कमज़ोर बना दिया गया है।

इस संहिता में न्यूनतम मज़दूरी की पाँच-पाँच सालों के अन्तर पर समीक्षा करने की बात की गयी है। जबकि आलम यह है कि देश में साल-दर-साल महँगाई आसमान छू रही है।

समान पारिश्रमिक अधिनियम 1976 यह सुनिश्चित करता था कि वेतन के मामले में या भर्ती करने या नौकरी की शर्तों में किसी तरह का लिंगभेद न हो। मगर वेतन संहिता से यह बात पूरी तरह से हटा दी गयी है और अब मालिकों को औरतों का अतिरिक्त श्रम लूटने की क़ानूनी छूट दे दी गयी है।

ऐसे मज़दूर-विरोधी अधिनियम, जो कहीं से भी मज़दूर हितों में हैं ही नहीं, उनमें किसी भी तरह के मज़दूरों के शामिल होने या न होने से कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ता। पर सरकार इस अधिनियम में असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों को शामिल करके ऐसा जता रही है मानो उसने मज़दूरों को किसी बड़ी कल्याणकारी-योजना से जोड़ा हो।

व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्यस्थल स्थिति विधेयक – सरकार को मज़दूरों की जान की कोई परवाह नहीं

वेतन संहिता विधेयक के साथ ही पेश किये गये ‘व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्यस्थल स्थिति विधेयक’ में तो असंगठित मज़दूरों को कोई जगह ही नहीं दी गयी है। केवल 10 मज़दूरों से ज़्यादा को काम पर रखने वाले कारख़ानों पर ही यह लागू होगा, यानी 90% मेहनतकश जनता इस अधिनियम के दायरे से बाहर होगी। नाम के उलट, इस विधेयक में मज़दूरों की सुरक्षा के साथ और ज़्यादा खिलवाड़ किया गया है। इस विधेयक में सुरक्षा समिति बनाये जाने को सरकार के विवेक पर छोड़ दिया गया है, जो पहले कारख़ाना अधिनियम, 1948 के हिसाब से अनिवार्य था। इस पुराने अधिनियम में स्पष्ट किया गया था कि मज़दूर अधिकतम कितने रासायनिक और विषैले माहौल में काम कर सकते हैं, जबकि नया विधेयक में रासायनिक और विषैले पदार्थों की मात्रा का साफ़-साफ़ ज़िक्र करने के बजाय उसे निर्धारित करने का काम राज्य सरकारों के ऊपर छोड़ दिया गया है। मालिकों की सेवा में सरकार इस हद तक गिर गयी है कि इस विधेयक के अनुच्छेद 47(2) के मुताबिक़, अगर कोई ठेकेदार, मज़दूरों के लिए तय किये गये काम के घण्टे, वेतन और अन्य ज़रूरी सुविधाओं की शर्तें नहीं पूरी कर पाता, तो भी उस ठेकेदार को ‘कार्य-विशिष्ट’ लाइसेंस दिया जा सकता है। हर तरह के उद्योग में अलग-अलग कि़स्म के ख़तरे होते हैं, मगर इस बिल में उन विशिष्टताओं पर कोई ध्यान नहीं दिया गया है। यहाँ तक कि आरएसएस की ही ट्रेड यूनियन ‘भारतीय मज़दूर संघ’ भी मज़दूरों के सामने इस विधेयक का दिखावटी विरोध कर रही है।

लगे हाथ, राष्ट्रीय स्तर की तथाकथित वामपंथी ट्रेड यूनियनों की बात की जाये, तो उन्होंने भी इस बिल पर अपनी आपत्ति दर्ज करने के साथ ‘राष्ट्रव्यापी’ प्रदर्शन की रस्म भी पूरी कर ली है। इन ‘वाम’-यूनियनों से पूछा जाना चाहिए कि आख़िर ये मज़दूरों को चवन्नी-दुवन्नी की लड़ाई में ही क्यों उलझाये रखती हैं, उन्हें राजनीतिक रूप से शिक्षित क्यों नहीं करतीं? उन्हें इन दिनों का मुक़ाबला करने के लिए पहले से क्यों नहीं तैयार किया? जवाब यह है कि ये यूनियनें और इनके साथ जुड़ी पार्टियाँ संशोधनवाद के नाले में इस क़दर डूबी हुई हैं कि सत्ता में होने पर ये लोग ख़ुद मज़दूर-विरोधी नव-उदारवादी नीतियों को लागू करते हैं। इस समय केरल की माकपा-नीत सरकार के आर्थिक ‘सुधारों’ से यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है।

 

सामाजिक सुरक्षा संहिता विधेयक – सारी सुरक्षा मालिकों को, सारी असुरक्षाएँ मज़दूरों के नाम

बाक़ी दो बिल अभी तक पेश नहीं किये गये हैं, लेकिन पिछली लोकसभा के दौरान भी पेश किये गये इन विधेयकों पर निगाह डालने से तस्वीर साफ़ हो जाती है। 2017 में पेश किये गये सामाजिक सुरक्षा संहिता विधेयक के हिसाब से यह बेशर्म सरकार लोगों के ईपीएफ़ और ईएसआई वाले फ़ण्ड को एक ही फ़ण्ड के अन्तर्गत करना चाहती है जिसका मक़सद स्पष्ट रूप से आम जनता की गाढ़ी कमाई को शेयर बाज़ार की सट्टेबाज़ी में झोंकना है। कहने के लिए तो इस नये बिल में असंगठित क्षेत्र के मज़दूर भी आयेंगे, सन्तोष गंगवार ने 3000 रुपये की पेंशन की घोषणा भी की है। पर सवाल उठता है कि असंगठित क्षेत्र में बेहद विषम परिस्थितियों में हाड़तोड़ मेहनत करने वाले ऐसे कितने कामगार हैं जो 60 साल से ज़्यादा जी पाते हैं? दूसरे, इसमें मज़दूरों से हर महीने पैसा माँगा जा रहा है, न कि उनके मालिकों से। यानी 30 साल की उम्र में रजिस्टर करने वाला मज़दूर अगले तीस सालों तक हर महीने पैसे जमा करता रहे। यह बेवजह नहीं है कि इस सरकार के द्वारा लागू की गयी ऐसी ही दो योजनाओं – ‘श्रमेव जयते योजना’ और ‘अटल पेंशन योजना’ को मज़दूर वर्ग ने कोई तवज्जो नहीं दी और बेहद कम ही मज़दूर इन योजनाओं से जुड़े।

ऐसा नहीं है कि सरकार इन तथ्यों से वाकि़फ़ नहीं है। पर, सरकार की मंशा है आम जनता की जेब से ज़्यादा से ज़्यादा पैसा निकालकर उसे पूँजीपतियों की जेब में डालना। तमाम सरकारी बैंकों में लाखों करोड़ के एनपीए इस बात की बानगी करते हैं। दूसरी एक व्यवस्थाजन्य वजह है धीरे-धीरे सरकार के द्वारा हर तरह की सामाजिक सुरक्षा में कटौती की ओर बढ़ना। पूँजीपतियों की मुनाफ़े की हवस शान्त करने के लिए राज्यों के द्वारा कल्याणकारी कार्यों के ख़र्च में लगातार कटौती की जा रही है। इसके चलते पनपने वाले असन्तोष को रोकने के लिए बुर्जुआ थिंक-टैंक सार्विक आय या पेंशन जैसी योजनाओं का सुझाव दे रहे हैं। पूँजीपतियों की ही एक और पार्टी कांग्रेस के द्वारा चुनावी घोषणापत्र में की गयी सार्विक मूल आय की घोषणा भी यही नव-उदारवादी प्रोज़ेक्ट है, जिसके तहत सरकार कुछ चन्द रुपये आमदनी या पेंशन के रूप में थमाकर बाक़ी सारी सुविधाओं से पैर पीछे खींच लेती है और अन्ततः बाज़ार में ख़रीदारी बढ़ते ही महँगाई आसमान छूने लगती है और उस तथाकथित आमदनी या पेंशन का कोई मोल नहीं रह जाता।

औद्योगिक सम्बन्ध संहिता विधेयक – मज़दूरों के ट्रेड यूनियन अधिकारों का हनन

औद्योगिक सम्बन्धों के ड्राफ़्ट बिल में जहाँ हड़ताल करना बेहद मुश्किल बना दिया गया है, वहीं सरकार 300 कर्मचारियों तक की संख्या वाली फ़ैक्ट्रियों को मनमाने तरीक़े से छँटनी करने की छूट भी देना चाहती है। इसके अलावा, ट्रेड यूनियन बनाने की प्रक्रिया को बेहद मुश्किल बनाकर मज़दूरों के ट्रेड यूनियन बनाने के अधिकारों पर भी हमला किया गया है।

पूरे विश्व में हो रहे मज़दूर अधिकारों पर हमले

भारत के पूँजीपति वर्ग ने मोदी और योगी जैसे फ़ासिस्टों को कुर्सी पर इसीलिए बैठाया है, ताकि एक तरफ़ ये आम लोगों को धर्म और अति-राष्ट्रवाद की अफ़ीम खिलाकर बुनियादी मुद्दों से उनका ध्यान भटकाये रखें, और दूसरी तरफ़ ज़रूरत पड़ने पर ज़बरदस्त दमन करने से भी बाज़ न आयें। असल में, विश्व अर्थव्यवस्था की जिस मंज़िल में हम पहुँच चुके हैं, उसमें अब तमाम विकसित देशों में भी जम्हूरियत का नक़ाब उतरने लगा है, और अन्य देशों में हालात पहले से और ज़्यादा ख़राब हो रहे हैं। इण्टरनेशनल ट्रेड यूनियन कॉन्फ़ेडरेशन के एक अध्ययन के मुताबिक़, मज़दूरों को ट्रेड यूनियन में शामिल होने या ट्रेड यूनियन बनाने का अधिकार नहीं देने वाले देशों की संख्या 2018 में 92 से बढ़कर 2019 में 107 हो गयी है। पूरे यूरोप में बड़े पैमाने पर मितव्ययिता के उपाय लागू किये गये हैं और काम करने वाली आबादी को मिलने वाली सामाजिक सुरक्षा में भारी कटौती की गयी है। ऊबर और अमेज़न जैसी कम्पनियों में दुनिया-भर में शारीरिक श्रम करने वाले लोगों में जगह-जगह रोष देखा जा रहा है, बल्कि कई कम्पनियों में एक हद तक मानसिक श्रम करने वालों के बीच भी, घटते विशेषाधिकारों और नौकरियों को लेकर बढ़ती असुरक्षा की वजह से तेज़ी से रोष पनपा है। ऐसे में, पूरी दुनिया की आधी सम्पत्ति पर क़ब्ज़ा जमाये हुए 1% लोग, अवाम के ग़ुस्से को दबाने के लिए जगह-जगह धुर-दक्षिणपंथी ताक़तों को तख़्तानशीं कर रहे हैं।

मज़दूर माँगपत्रक आन्दोलन

आज ज़रूरत है कि मज़दूर वर्ग राज्यसत्ता हासिल करने की लम्बी लड़ाई के लिए कमर कस ले और तात्कालिक माँगों के तौर पर जुझारू मज़दूर माँगपत्रक आन्दोलन को आगे बढ़ाया जाये। आज मज़दूरों की असल माँगें हैं कि तत्काल एक राष्ट्रीय न्यूनतम मज़दूरी नीति बनायी जाये। राष्ट्रीय तल-स्तरीय मज़दूरी को मनमाने ढंग से नहीं बल्कि 15वें श्रम सम्मेलन और 1992 के उच्चतम न्यायालय के फ़ैसले के आधार पर तय किया जाये और अनिवार्य किया जाये कि राज्यों द्वारा निर्धारित की जाने वाली न्यूनतम मज़दूरी, राष्ट्रीय तल-स्तरीय मज़दूरी से कम नहीं होनी चाहिए। न्यूनतम मज़दूरी को संविधान की नवीं अनुसूची के अन्तर्गत लाया जाये, ताकि इससे सम्बन्धित क़ानून पर अमल के मसले पर न्यायालयों से स्थगनादेश (स्टे) नहीं लिया जा सके। इसको लागू न करने की हालत में, सम्बन्धित अधिकारियों और मालिकों पर कठोर सज़ा का प्रावधान हो। न्यूनतम मज़दूरी से ऊपर तय की जाने वाली मज़दूरी एकतरफ़ा तरीक़े से तय किये जाने के बजाय उसे मज़दूरों के सामूहिक मोलतोल से तय किया जाये। ठेके पर काम करने वाले मज़दूरों के भुगतान की ज़िम्मेदारी मुख्य नियोक्ता पर सख़्ती से लागू की जाये। और स्थायी, अस्थायी, ठेका, कैज़ुअल, दिहाड़ी – सभी प्रकार के मज़दूरों के लिए समय से भुगतान सुनिश्चित किया जाये। (मज़दूर माँगपत्रक आन्दोलन के बारे में विस्तार से पढ़ने के लिए ‘मज़दूर बिगुल’ से माँगपत्रक मँगाकर पढ़ें।)

निष्कर्ष के तौर पर, इस समय क्रान्ति की धारा पर प्रतिक्रान्ति की धारा निश्चित ही हावी है। मगर, इतिहास हमें सिखाता है कि विपर्यय का यह दौर हमेशा-हमेशा के लिए नहीं हो सकता। चिरकाल तक तख़्त पर विराजमान होने का ख़्वाब देखने वाले तमाम आततायिओं को आम अवाम ने अनगिनत बार धूल चटायी है और आगे भी ऐसा ही होगा।

 

मज़दूर बिगुल, अगस्‍त 2019


 

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