सच को पहचानने और बोलने का विवेक और साहस बनाये रखिये
क्योंकि हुक़्मरान हमें यक़ीन दिलाना चाहते हैं…

सम्‍पादक मण्‍डल, मज़दूर बिगुल

कि कश्मीर में हालात बिल्कुल सामान्य हैं! वहाँ की जनता ख़ुशी के मारे जगह-जगह मोदी और शाह की मूर्तियाँ लगवा रही है! आतंकवाद का सफ़ाया हो चुका है! अर्थव्यवस्था बुलेट ट्रेन की रफ़्तार से सरपट भाग रही है! बेरोज़गारी ख़त्म होने की कगार पर है! सभी मज़दूरों और नौजवानों को जल्दी ही पक्की और बढ़िया नौकरी मिल जायेगी। औरतें अब पूरी तरह सुरक्षित हो चुकी हैं! उन्नाव की पीड़िता के साथ कुछ हुआ ही नहीं था, उसके ड्राइवर को पागलपन का दौरा पड़ा और उसने ट्रक को टक्कर मार दी थी! भ्रष्टाचार का नामोनिशान मिट चुका है! रफ़ायल की ख़रीद में कोई घोटाला नहीं हुआ था, बल्कि भारत सरकार ने फ्रांस की सरकार और कम्पनी को चपत लगाकर भारतीय राजकोष को फ़ायदा पहुँचाया था! विजय माल्या, नीरव मोदी और मेहुल चोकसी छुट्टी मनाने के लिए विदेश गये हुए हैं, जैसे ही मोदी जी बुलायेंगे वे देशसेवा के लिए दौड़े चले आयेंगे! पहलू खान को किसी ने नहीं मारा था! जुनैद नामक कोई शख़्स था ही नहीं! अख़लाक की मौत रेफ्रि़जरेटर से करेण्ट लगने की वजह से हुई थी। जस्टिस लोया की मौत दिल का दौरा पड़ने से हुई थी! गौरी लंकेश की मौत दीवाली के पटाखे से हुई थी! सोहराबुद्दीन और तुलसी प्रजापति ने एक-दूसरे का एनकाउण्टर कर दिया था! 2002 में नरेन्द्र मोदी ने अकेले दम पर दंगाइयों की भीड़ को मुसलमानों का नरसंहार करने से रोक दिया था!

लातिन अमेरिका के महान उपन्यासकार गाब्रियल गार्सिया मार्खेज़ के विश्वप्रसिद्ध उपन्यास ‘वन हण्ड्रेड इयर्स ऑफ़ सॉलिट्यूड’ में एक भयावह प्रसंग है। केला बाग़ान के हड़ताली मज़दूरों की सभा पर मशीनगन से गोलियाँ चलवाकर सैकड़ों मज़दूरों की हत्या कर दी जाती है और लाशों को ट्रेन में लादकर दूर समन्दर में फेंक दिया जाता है। उसके बाद फ़ौजी हुक़्मरान पूरे समाज में ऐसा माहौल बनाते हैं कि यह बात जनस्मृतियों से बिल्कुल ग़ायब ही हो जाये कि ऐसा कोई क़त्ले-आम कभी हुआ भी था।

कमोबेश ऐसे ही हालात हमारे मुल्क़ के भी होते जा रहे हैं। हमारे यहाँ के फ़ासिस्ट हुक़्मरान भी हमें यह यक़ीन दिला देना चाहते हैं कि मुल्क़ में सबकुछ ठीकठाक चल रहा है। चारों ओर अमन-चैन है और ख़ुशहाली का राज है। फ़ासीवादी अँधेरे के दौर में देश को मौत की घाटी में तब्दील करने की साज़िशों और दुरभिसन्धियों पर देशभक्ति का परदा डालकर गोदी मीडिया के भोंपू दिन-रात हमें यक़ीन दिलाने में लगे हैं कि यह देश तरक़्क़ी के पर्वत लाँघ रहा है।

जिस देश में करोड़ों बच्चे रोज़ रात को भूखे या आधा पेट  खाकर सोते हैं, करोड़ों इन्सानों के सिर पर आज भी छत नहीं है, वहाँ हज़ारों करोड़ सिर्फ़ इन्हीं झूठों को सच में बदलने के लिए फूँके जा रहे हैं। पर इससे भी ख़तरनाक बात यह है कि समाज के अच्छेख़ासे तबके की चेतना इन भोंपुओं से दिनोरात होने वाली झूठ की तेज़ाबी बारिश के असर से भ्रष्ट होती जा रही है जिसकी वजह से देश के फ़ासिस्ट शासक मनचाहे ढंग से साम्प्रदायिकता और अन्धराष्ट्रवाद की आँधी चला पा रहे हैं। भारत के मध्यवर्ग का बड़ा हिस्सा ‘मोदी-मोदी!’ और ‘जय श्रीराम!’ के उन्मादी शोर के नशे में डूबकर और अपनी गाड़ी के पीछे ‘एंग्री हनुमान’ का स्टिकर लगाकर देश को ख़ून के दलदल में डुबो देने की साज़िशों का जश्न मना रहा है।  

लेकिन सच्चाई का दूसरा पहलू भी है। हुक्मरान चाहते हैं कि उनके विचारों का घटाटोप पूरे समाज में इस क़दर छा जाये कि उसके विरोध में कोई चूँ तक न बोले। लेकिन उनकी इच्छा से स्वतंत्र उनके काले कारनामों को उजागर करने वाले लोग लगातार बोल रहे हैं, दमन और आतंक का राज क़ायम करके प्रतिरोध की आवाज़ों को ख़ामोश कर देने की कोशिशें नाकाम साबित हो रही हैं। यही वजह है कि संसद में भारी बहुमत, राज्यसत्ता के हर अंग पर अपने क़ब्ज़े और समाज के एक बड़े हिस्से को अपने रंग में रंग देने के बावजूद फ़ासिस्टों का डर दूर होने के बजाय बढ़ता ही जा रहा है। दमन के हथियारों को और बढ़ाया जा रहा है, यूएपीए जैसे काले क़ानून लाये जा रहे हैं, छोटे-से-छोटे विरोध को भी कुचल देने के लिए पूरी ताक़त झोंक दी जा रही है।

पर ज़ुल्म का प्रतिरोध है कि एक जगह दबाओ तो दूसरी जगह से फूट पड़ रहा है। कश्मीर में संचार व सूचना की अभूतपूर्व नाकेबन्दी के बावजूद यह सच्चाई नहीं छिप पा रही है कि उसके विशेष दर्जे को ख़त्म करने के मनमाने फ़ैसले के ख़िलाफ़ घाटी में जगह-जगह जुझारू प्रतिरोध खड़ा हो रहा है। तमाम स्वतंत्र और जनपक्षधर पत्रकार इस सच्चाई को उजागर करने का प्रशंसनीय काम कर रहे हैं। सरकारी तंत्र के भीतर से ही सरकार के फ़ैसले के विरोध में आवाज़ें उठ रही हैं। कई पुराने नौकरशाहों, सेना के अफ़सरों, पत्रकारों और अनेक प्रमुख कश्मीरी पण्डितों ने भी मोदी सरकार के निरंकुश फ़ैसले का विरोध किया है और उसे अदालत में भी चुनौती दी है। केरल के एक आईएएस अधिकारी ने तो इसके विरोध में इस्तीफ़ा ही दे दिया। मोदी सरकार की फ़ासिस्ट नीतियों के ख़िलाफ़ विभिन्न क्षेत्रों के अनेक कलाकारों, साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों ने बार-बार मुखर विरोध जताया है। गोदी मीडिया द्वारा सूचना को कुचल देने की साज़िशों के बावजूद सोशल मीडिया के ज़रिये यह सच्चाई सामने आ ही जाती है कि देश के कई हिस्सों में स्वत:स्फूर्त ढंग से सरकार की नीतियों के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन भी हो रहे हैं। देशभर के 41 हथियार कारख़ानों के 80 हज़ार कर्मचारी निजीकरण के ख़िलाफ़ हड़ताल पर चले गये। रेलवे के निजीकरण की पागलपन भरी कोशिशों के ख़िलाफ़ जगह-जगह हज़ारों रेल कर्मी सड़कों पर उतर रहे हैं।

शायद ही कोई ऐसा औद्योगिक क्षेत्र होगा जहाँ मज़दूरों के छोटे-बड़े संघर्ष फूट नहीं पड़ रहे हैं। छात्रों और नौजवानों के आन्दोलनों से घबराये भाजपा और संघ ने उनको बाँटने और बहकाने के लिए पूरा ज़ोर लगा रखा है मगर बढ़ती बेरोज़गारी और शिक्षा केन्द्रों पर फ़ासिस्ट जकड़बन्दी के ख़िलाफ़ उनमें सुलगता आक्रोश फिर से उन्हें सड़कों पर उतारेगा, यह तय है।

सत्ता के वर्चस्व की अन्धी सुरंग में उसे चुनौती देती रोशनी की किरणें भी मौजूद हैं। ज़रूरत इस बात की है कि इन स्वत:स्फूर्त संघर्षों और विरोध के स्वरों को एक सूत्र में पिरोकर फ़ासीवाद के विरोध में एक व्यापक सामाजिक आन्दोलन खड़ा करने की मुहिम से जोड़ा जाये।

 

मज़दूर बिगुल, सितम्‍बर 2019


 

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