मेहनतकश साथियो, सरकार और संघ परिवार के झूठों और झूठे मुद्दों से सावधान रहो!

सम्पादकीय

किसी भ्रम में मत रहिए! नरेन्द्र मोदी अमेरिका जाकर ‘सब चंगा है’ का नारा लगा आये हैं, वित्त मंत्री कह रही हैं कि बैंकिंग प्रणाली को लेकर चिन्ता की कोई बात नहीं है, एक वरिष्ठ केन्द्रीय मंत्री कह रहा है कि सिनेमा हाउसफ़ुल जा रहे हैं इसका मतलब है कि कोई आर्थिक मन्दी नहीं है! मगर सच्चाई है कि बार-बार इनके झूठों की चादर फाड़कर बाहर निकल आ रही है।

सत्ता में बैठे भगवा गिरोह को पता है कि आर्थिक संकट की मार जब लोगों के सिर पर पूरी ताक़त से पड़ने लगेगी, तब झूठ के उनके सारे पुलिन्दे काम नहीं आयेंगे, इसलिए वे ध्यान बँटाने के लिए एक के बाद एक तिकड़में करने में लगे हुए हैं। आनन-फ़ानन में राम मन्दिर पर मनमाफ़िक फ़ैसला करवाकर जनता को कुछ दिनों तक नशे का एक और डबलडोज़ देने की तैयारी चल रही है। नीचे से लेकर ऊपर तक देश की न्यायपालिका जिस तरह सरकार के रीढ़विहीन चाकरों की तरह पेश आ रही है, उसमें कोई आश्चर्य नहीं कि सबकुछ पहले से तय करके ही अचानक रोज़-रोज़ सुनवाई की यह क़वायद शुरू करायी गयी हो। भाजपा के कुछ बड़बोले नेता ऐसे बयान दे ही चुके हैं कि सुप्रीम कोर्ट हमारा है, फ़ैसला हमारे ही पक्ष में आयेगा!

देश के कुल औद्योगिक उत्पादन में लगभग आधे का योगदान करने वाले ऑटोमोबाइल उद्योग की हालत ऐसी है कि पिछली कई महीनों से सभी बड़ी कम्पनियों को बीच-बीच में उत्पादन ठप्प करना पड़ रहा है, लाखों गाड़ियाँ बिना बिके सड़ रही हैं, सैकड़ों शोरूम बन्द हो गये हैं और लाखों रोज़गार छिन रहे हैं। 26 महीनों में पहली बार पिछले अगस्त में देश के कारख़ानों की कुल पैदावार में कमी आ गयी। मैन्युफ़ैक्चरिंग और बिजली दोनों का उत्पादन बढ़ने के बजाय घट गया, जोकि व्यापक आर्थिक मन्दी के गहराने का एक और संकेत है। यह पिछले सात वर्षों का सबसे बुरा प्रदर्शन था। सांख्यिकी विभाग द्वारा जारी आँकड़े दिखाते हैं कि मैन्युफ़ैक्चरिंग सेक्टर के 23 उद्योग समूहों में से 15 में गिरावट आयी। इनमें सबसे आगे थे मोटर वाहन (-23.1%), ट्रेलर और मशीनरी तथा उपकरण (-21-7%)। मैन्युफ़ैक्चरिंग और बिजली उत्पादन में क्रमश: 1.2% और 0.9% की कमी आयी, जबकि खनन उत्पादन में नहीं के बराबर वृद्धि हुई। इसका एक बड़ा कारण था बिजली उत्पादन में कमी के चलते कोयले की माँग में गिरावट। कैपिटल गुड्स, यानी जिन मालों का इस्तेमाल दूसरे मालों के उत्पादन में होता है, उनकी माँग में लगातार आठवें महीने 21% की गिरावट आयी जोकि उत्पादन में निवेश की लगातार कमी का संकेत है। टिकाऊ उपभोक्ता मालों में लगातार तीसरी तिमाही में 9.1% की गिरावट आयी।
बैंकों की हालत पतली है। कई बड़े बैंक कभी भी डूब सकते हैं। पंजाब एंड महाराष्ट्र कोऑपरेटिव बैंक में जो लोगों के साथ हुआ वह तो आने वाले संकट की एक झलक मात्र है। बैंकों के लाखों करोड़ रुपये पहले ही पूँजीपतियों ने दबा रखे हैं। ऊपर से अनेक बड़ी कम्पनियाँ जिनमें बैंक और बीमा कम्पनियों के लाखों करोड़ रुपये लगे हुए हैं, दिवालिया होने के कगार पर हैं या लगातार भारी घाटे में चल रही हैं। जनता के टैक्सों से बटोरी रकम में से एक बार पौने दो लाख करोड़ रुपये और एक बार एक लाख करोड़ रुपये के बेलआउट पैकेज सरकार बैंकों को पहले ही दे चुकी है। मगर उसे डकार कर भी बैंकों की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा है। रिज़र्व बैंक के पास गाढ़े वक़्त के लिए सुरक्षित रखे गये फ़ण्ड पर भी यह सरकार बेशर्मी से डकैती डाल चुकी है। एक बार 1.76 लाख करोड़ रुपये और एक बार 30,000 करोड़ रुपये रिज़र्व फ़ण्ड में से भी झटके जा चुके हैं। अगर सबकुछ चंगा है, तो सरकार इस फ़ण्ड पर क्यों हाथ साफ़ कर रही है, जिसकी ज़रूरत 1947 से आज तक कभी नहीं पड़ी थी।

सरकारी उपक्रमों को खोखला करके ताबड़तोड़ बेचने की तैयारी चल रही है। बीएसएनएल और एमटीएनएल के डेढ़ लाख से अधिक कर्मचारियों को बाहर करने का सुझाव वित्त मंत्रालय ने दे ही दिया है। अम्बानी की जिओ कम्पनी उस पर दाँत गड़ाये बैठी है। मौक़ा पाते ही सरकार उसकी लाखों करोड़ की परिसम्पत्तियों को अपने आक़ा, अम्बानी को कौड़ियों के मोल बेच डालेगी। भारत गैस को बेचने की तैयारी कर ली गयी है। ओएनजीसी और एचएएल जैसे विशालकाय और लगातार मुनाफ़े में चलने वाले सरकारी उपक्रमों को अन्दर से इतना खोखला कर दिया गया है कि एचएएल को वेतन देने के लिए कर्ज़ लेना पड़ रहा है और ओएनजीसी हज़ारों करोड़ के कर्ज़ तले दब गया है। अब देर-सबेर इनकी बिक्री भी नम्बर आ जायेगा।

रेलवे को सरकार निजीकरण की पटरी पर बुलेट ट्रेन की रफ़्तार से दौड़ा चुकी है। रेल की पटरियों, स्टेशनों, स्टाफ़ का भरपूर इस्तेमाल करके मुनाफ़ा पीटने के लिए पहली निजी ट्रेन ‘तेजस’ को दौड़ा दिया गया है। अब 150 ट्रेनों और 50 स्टेशनों को भी निजी हाथों में सौंप देने की तैयारी पूरी हो चुकी है।

बेरोज़गारी विकराल रूप धारण कर चुकी है। झूठ बोलने की भाजपाई मशीन महाराष्ट्र चुनाव में फिर एक करोड़ रोज़गार देने के वादे कर रही है, लेकिन एक भी नया रोज़गार कहीं पैदा नहीं हो रहा है। लोगों की नौकरियाँ छिनने का सिलसिला जारी है। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने एक झटके में 25,000 होमगार्डों को बर्खास्त कर दिया। केन्द्रीय वित्त मंत्रालय ने साफ़ कह दिया कि बीएसएनएल और एमटीएनएल पर लदे कर्ज़ को चुकाने से अच्छा है कि इसके सारे कर्मचारियों को निकाल दिया जाये। उधर तेलंगाना में भाजपा के सहयोगी मुख्यमंत्री चन्द्रशेखर राव ने बरसों से तनख्वाह में मामूली बढ़ोत्तरी का विरोध कर रहे रोडवेज़ के 40,000 कर्मचारियों को एक साथ बाहर का रास्ता दिखा दिया।
ये कोई अपवाद नहीं, मोदी के ‘न्यू इण्डिया’ में यही होने वाला है। और अगर लोग विरोध करेंगे, तो उन्हें देशद्रोही, विकास का दुश्मन आदि कहकर दमन का शिकार बनाया जायेगा। उनके पक्ष में कहीं से कोई आवाज़ न उठ सके, इसलिए पूरे देश में आतंक का माहौल पैदा किया जा रहा है। सरकार के विरोध में बोलने वाले बुद्धिजीवियों और सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं को पूरी अँधेरगर्दी के साथ, जेलों में क़ैद रखा जा रहा है। सारे नियम-क़ानूनों को ठेंगा दिखाकर ज़मानत से इंकार किया जा रहा है। यहाँ तक कि बड़े विपक्षी नेताओं को भी किसी-न-किसी बहाने जेल भेजकर पहले से ही घुटने टेक चुके विपक्ष को और भी दयनीय बना दिया गया है।

संघ का एजेण्डा बिल्कुल साफ़ है। हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद की तमाम बातों के बावजूद असलियत यह है कि संघ
इस देश में देशी-विदेशी बड़ी पूँजी का बेरोकटोक राज चाहता है। और इसी के लिए लोगों को बाँटने-लड़ाने के लिए उसे हिन्दू राष्ट्र का अपना एजेण्डा देश पर थोपना है। यही संघियों के परम गुरू हिटलर का एजेण्डा था और यही इनका भी लक्ष्य है। मोदी सरकार के साढ़े पाँच वर्ष के शासन में यह बिल्कुल साफ़ हो चुका है। यह दौर जनता के बुनियादी अधिकारों की कीमत पर देश के शोषक वर्गों के हितों को सुरक्षित करने और उन्हें तमाम तरह से फ़ायदे पहुँचाने के इन्तज़ाम करने में ही बीता है।

विश्वव्यापी मंदी और आर्थिक संकट की जिस नयी प्रचण्ड लहर की चेतावनी दुनिया भर के अर्थशास्त्र दे रहे हैं, वह भारतीय अर्थतंत्र को और भी भीषण संकट के भँवर में फँसाने वाली है। मँहगाई और बेरोज़गारी तब विकराल हो जायेगी। जैसा कि हम ‘मज़दूर बिगुल’ के पिछले अंकों में लगातार लिखते रहे हैं, लगातार गहराती मन्दी के कारण विश्व पूँजीवादी व्यवस्था के सारे सरगना ख़ुद ही परेशान हैं। अति-उत्पादन के संकट के कारण दुनियाभर में उत्पादक गतिविधियाँ पहले ही धीमी पड़ रही हैं और तमाम उपायों के बावजूद बाज़ार में माँग उठ ही नहीं रही है, तो मोदी चाहे जितने देशों का चक्कर लगा लें, वहाँ से कोई मदद मिलने वाली नहीं है। उल्टे तात्कालिक फ़ायदों के लिए मोदी सरकार अमेरिका और चीन को ऐसी रियायतें दे रही है जिनसे देश के छोटे-मँझोले उद्योगों और कृषि की हालत और पतली हो जायेगी।

मोदी सरकार की नीतियों ने उस ज्वालामुखी के दहाने की ओर भारतीय समाज के सरकते जाने की रफ़्तार को काफ़ी तेज़ कर दिया है, जिस ओर घिसटने की यात्रा पिछले लगभग तीन दशकों से जारी है। भारतीय पूँजीवाद का आर्थिक संकट ढाँचागत है। यह पूरे सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर रहा है। बुर्जुआ जनवाद का राजनीतिक-संवैधानिक ढाँचा इसके दबाव से चरमरा रहा है।

फासीवाद संकटग्रस्त पूँजीवाद का अन्तिम उपाय होता है। क्योंकि फ़ासिस्ट सत्ताएँ हर तरह के विरोध को किनारे लगाकर, बुर्जुआ लोकतंत्र के तमाम मुखौटों को उतार फेंककर पूरी बेशर्मी के साथ पूँजीपतियों को जनता को खुलकर लूटने का मौक़ा देती हैं। वे देश के प्राकृतिक संसाधनों को देशी-विदेशी पूँजीपतियों की बर्बर लूट के लिए उनके हवाले कर देती हैं। मज़दूरों के सारे अधिकारों को छीनकर वे उन्हें निहत्था कर देती हैं और झूठे भावनात्मक मुद्दे उभाड़कर लोगों को आपस में बाँटकर उनकी एकजुटता तोड़ देती हैं। ऐसे में मुनाफ़े की गिरती दर के संकट से परेशान पूँजीपतियों को संकट से राहत मिल जाती है। अर्थव्यवस्था की इतनी बुरी हालत के बावजूद तमाम पूँजीपति मोदी और आरएसएस के आगे जो नतमस्तक हो रहे हैं, इसका राज़ यही है। पिछले दिनों एच.सी.एल के शिव नादर, नागपुर में संघ द्वारा आयोजित विजयादशमी के मुख्य अतिथि बने। उसके एक दिन पहले विप्रो कंपनी के मालिक अज़ीम प्रेमजी ने संघ संस्थापक हेडगेवार के स्मारक और गोलवलकर की समाधि पर जाकर मत्था टेका। मोदी सरकार की आलोचना करते रहने वाले बजाज ग्रूप के राहुल बजाज भी सितम्बर में हेडगेवार के स्मारक पर मत्था टेक आये थे। टाटा ग्रुप के रतन टाटा तो पिछले कुछ महीनों में दो बार संघ के मुख्यालय में हाज़िरी बजा चुके हैं। आई.टी., फाइनेंस, ऑटोमोबाइल, स्टील इत्यादि सभी क्षेत्रों में की कम्पनियाँ मन्दी से परेशान हैं। सबको अपने मुनाफे़ को बचाने के लिए मोदी सरकार से अपने मनमाफ़िक नीतियाँ बनवानी हैं।

फ़ासीवाद की काली आँधी अपने असली रंग में आती जा रही है। मगर यह हताश होने या घरों में दुबक जाने का समय नहीं है। ज़रूरत एक लम्बे संघर्ष की तैयारी के लिए सड़कों पर उतरने की है। ज़रूरत आम मेहनतकश अवाम को जागृत, शिक्षित, एकजुट और संगठित करने की अनवरत, अहर्निश कोशिशों में लग जाने की है। यह समय का आसन्न तकाज़ा है कि फ़ासिस्टों की नंगी, क्रूर असलियत को लोगों के बीच नंगा किया जाये। उनके पास कॉरपोरेट घरानों का मीडिया है जो दिनों-रात झूठ की बारिश कर रहा है। लेकिन हमारे पास संख्याबल की ताक़त है। ज़रूरत है प्रयासों को एकजुट करने की। आज कवियों-लेखकों-कलाकारों को भी केवल सोशल मीडिया का सहारा छोड़कर गाँवों-शहरों के आम मेहनतकश गरीबों की झुग्गी-झोंपड़ियों तक जाना होगा और उनके भीतर जाति-धर्म की राजनीति और धार्मिक कट्टरपंथी फासिज़्म के विरुद्ध राजनीतिक चेतना पैदा करने के प्रयासों में लग जाना होगा। हमें इन तरीक़ों से फासिस्टों के प्रचार एवं शिक्षा के ज़मीनी नेटवर्क का मुकाबला करना होगा।

हम ‘मज़दूर बिगुल’ के सभी पाठकों का भी आह्वान करते हैं। आप अगर एक मेहनतकश हैं तो अपने साथियों को समझाइए। उनके साथ मिलकर बैठिए, देश के हालात पर, अपनी ज़िन्दगी की बुनियादी समस्याओं पर, पूँजीवादी मीडिया की असलियत पर और उसके फैलाये झूठों पर उनके साथ चर्चा करिए। अगर आप एक विद्यार्थी या मध्यवर्ग के नागरिक हैं, तो अपने आस-पास की मज़दूर बस्तियों में जाइए। वहाँ अपने मित्रों और मज़दूरों की मदद से चलता-फिरता या स्थायी जगह वाला पुस्तकालय-वाचनालय बनाइए, सांस्कृतिक आयोजनों को बच्चों, युवाओं और नागरिकों की शिक्षा का माध्यम बनाइए, खेलकूद क्लब बनाइए, शहीदों की जयन्तियों पर आयोजन कीजिए, कोर्स की पढ़ाई-लिखाई में मज़दूरों की बच्चों की मदद के लिए अंशकालिक पाठशालाएँ लगाइए, स्त्री मज़दूरों और अन्य मज़दूरों के लिए रात्रि-पाठशालाएँ लगाइए, मज़दूरों को उनके अधिकारों के बारे में और पतित-निठल्ली ट्रेड यूनियनों के बरक्स नये सिरे से जुझारू मज़दूर आन्दोलन खड़ा करने के रास्तों के बारे में बताइये, रूढ़ियों, अन्धविश्वास और जाति-व्यवस्था तथा धर्मान्धता के विरुद्ध ज़मीनी तौर पर एक जुझारू सामाजिक आन्दोलन खड़ा करने के लिए शिक्षा एवं प्रचार का काम कीजिए। अगर आप सच्चे दिल से एक वाम, जनवादी, प्रगतिशील और सेक्युलर विचारों के व्यक्ति हैं, तो आपको यह करना ही होगा। आम लोगों के बीच जाइए, अपने अलगाव को समाप्त कीजिए, आपके सभी डर अपनेआप दूर हो जायेंगे।

फ़ासीवाद के विरुद्ध बीसवीं शताब्दी जैसी ही विकट और बीहड़ लड़ाई सर पर है। याद रखिए, अकेले भारत की आबादी पूरे यूरोप से लगभग दूनी है, और संघ एक नव-क्लासिकी ढंग की फ़ासिस्ट पार्टी है। यह भी याद रखिए कि विश्व-पूँजीवाद के असाध्य ढाँचागत संकट के इस दौर में फ़ासीवाद का उभार और पूँजीवादी जनवाद का क्षरण-विघटन पूरी दुनिया में जारी एक प्रवृत्ति है।

इतिहास के इस दौर में फ़िलहाल क्रान्ति की लहर पर उलटाव और प्रतिक्रान्ति की लहर हावी है। बेशक यह निराशा, विभ्रम, ठहराव-बिखराव का दौर है। पर यह दौर स्थायी नहीं है। छोटे-छोटे प्रयासों और उद्यमों की कड़ी से कड़ी जोड़ते हुए प्रतिरोध की अप्रतिरोध्य शक्ति तैयार की जा सकती है।
माना कि हम अपने काम में काफ़ी पीछे हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि पहले से ही हार मान लें। पहले से ही हार मान लेने और हथियार डाल देने का मतलब होगा सभ्यता और मनुष्यता के विनाश पर अपने हाथों मुहर लगा देना। फ़ासिस्टों और निरंकुश बुर्जुआ सत्ताओं को अगर अपना खेल खेलने के लिए खुला छोड़ दिया जायेगा तो वे नरसंहारों, दंगों, युद्धों और पर्यावरण-विनाश के द्वारा मनुष्यता को ही तबाह कर देंगे। इसलिए, लड़ना तो होगा ही। और कोई विकल्प नहीं है। आप आगे बढ़कर कुछ पहल तो कीजिए, कुछ छोटी-छोटी शुरुआतें तो कीजिए। एक बड़ी शुरुआत की ज़मीन खुद ही तैयार होने लगेगी।

हमें व्यापक जन प्रचार के तरीके अपनाने होंगे, वैकल्पिक जन-मीडिया संगठित करना होगा और हर मोर्चे पर उन अतार्किक, अनैतिहासिक, अवैज्ञानिक विचारों के खिलाफ प्रचार चलाना होगा, जिनका इस्तेमाल करके फासीवादी ताकतें निराश और पिछड़ी चेतना वाले मध्य वर्ग और मजदूरों के बीच अपना सामाजिक आधार बनाने का काम करती हैं। जिस स्तर पर भी सम्भव हो, प्रगतिशील, सेक्युलर आम मध्यवर्गीय युवाओं और मज़दूरों को (इनमें स्त्री समुदाय भी शामिल है) ऐसे दस्तों में संगठित करने की राह निकालनी होगी, जो तृणमूल स्तर पर लम्पट-असामाजिक-आपराधिक तत्वों और फासीवादी गुण्डों से निपटने को तैयार हों।

जो संशोधनवादी पार्टियाँ फासीवाद-विरोध को मात्र चुनावी गँठजोडों तक सीमित कर देती हैं और सिर्फ संसद में गत्ते की तलवारें भाँजती हैं, इनके असली चरित्र को मेहनतकश जनता के सामने लाना भी बेहद ज़रूरी काम है। यही वे पार्टियाँ हैं जिन्होंने अर्थवाद, सुधारवाद और ट्रेड यूनियनवाद की राजनीति का मज़दूर आन्दोलन पर वर्चस्व स्थापित करके फासीवादी बर्बरता की चुनौती के सामने मजदूर वर्ग को वैचारिक-राजनीतिक रूप से निहत्था और अरक्षित बना दिया है। मज़दूर वर्ग की राजनीतिक तैयारी के बिना फासीवाद के विरुद्ध संघर्ष महज एक खोखला नारा बना रहेगा।

हमें कतई इस गफ़लत में नहीं रहना होगा कि चुनावों में भाजपा को हराकर फ़ासीवाद को निर्णायक शिकस्त दी जा सकती है। फ़ासीवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई का मुख्य मोर्चा सड़कों पर ही बँधेगा। उसके लिए आज से ही फ़ासीवादियों की घिनौनी करतूतों, उनके काले इतिहास और उनके पूँजीपरस्त, धनलोलुप और लम्पट चरित्र का व्यापक पैमाने पर पर्दाफ़ाश करने की जुझारू मुहिम छेड़नी होगी।

 

मज़दूर बिगुल, अक्‍टूबर 2019


 

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