मन्दी के बीच मज़दूरों के जीवन के हालात और संशोधनवादी ट्रेड यूनियनों की दलाली

वजीरपुर औद्योगिक इलाका

मन्दी के हालात पर बात करते हुए पहले स्टील फ़ैक्ट्री में काम करने वाले बिगुल संवाददाता विष्णु ने बताया कि जहाँ ठण्डा रोला की फ़ैक्ट्री में एक कारीगर को 8 घण्टे काम करने के लिए तनख़्वाह 9000 रुपए मिलता था तो अब ज़्यादातर फ़ैक्ट्री में मालिक दिहाड़ी पर 8 घण्टे के 250 रुपए दे रहा है। आम तौर पर दिहाड़ी में 50 रुपए तक की कमी हुई है। यह बात न सिर्फ ठण्डा रोला फ़ैक्ट्री के लिए सच है बल्कि आम तौर पर पूरे सेक्टर में मन्दी की वजह से वेतन कम हुआ है। वज़ीरपुर से लेकर सब जगह यही हाल है। फ़ैक्ट्री मालिक किसी भी बात के बहाने से मज़दूर को काम से निकाल देता है और काम की असुरक्षा बढ़ गयी है। ख़ुद बिगुल संवाददाता को स्टील लाईन में कम वेतन व महीने में कम काम मिलने के कारण निर्माण क्षेत्र में प्लास्टर ऑफ़ पेरिस के काम में लगा दिया गया है। काम से हाथ धोने का डर इस कदर बढ़ गया है की लोग छुट्टी के अलावा और किसी दिन भी काम नही छोड़ रहे हैं। वज़ीरपुर में इस कारण चार-पाँच चाय की दुकानें भी बन्द हो गई है। मन्दी के इस दौर में कई जगह मालिको को मज़दूर का शोषण करने का एक मौक़ा मिल जाता है, ऐसे में जहाँ मज़दूर पहले 250 पीस किसी माल का उत्पादन कर रहे थे तो उनसे 300 पीस निकालने की माँग की जा रही है। यानी मालिक की जो मुनाफ़े की दर गिर रही है उसे बचाने के लिए वह मज़दूरों को अधिक से अधिक लूट रहा है। वहीं कई जगह महिला मज़दूरों से भी ज़बरन देर तक रात के नौ बजे तक काम लिया जा रहा है। और महिलाये आवाज़ नही उठा सकती क्योंकि काम से निकले जाने का डर है। एक चीज़ और इलाके काम की कमी के कारण चोरी से लेकर पॉकेटमारी जैसी घटनाओं की संख्या में काफ़ी वृद्धि हुई है।

वज़ीरपुर में सक्रिय क्रान्तिकारी यूनियन दिल्ली इस्पात उद्योग मज़दूर यूनियन से पता चला कि मालिकों ने इस बीच मज़दूरों पर भयंकर दमन किया है। पर दूसरी तरफ़ इस दौरान नकली लाल झण्डे वाली यूनियनों ने जमकर दलाली की है। मज़दूरों के जीवन की हालात पर ये लोग न सिर्फ मज़दूरों की मृत्यु में भी पैसा खाने का मौका देख रहे हैं। जहाँ मालिकों ने लगातार छँटनी और तालाबन्दी और मज़दूरों का वेतन कम किया है और काम में सघनता को बढ़ाया है। तो तमाम तथाकथित क्रान्तिकारियों की यूनियनों ने इस दौरान जो ग़द्दारी दिखाई है उसपर हमें अचरज नहीं होना चाहिए क्योंकि इन यूनियनों की आक़ा पार्टियों ने जनता को धोखा देने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। छँटनी होने पर, मज़दूर के साथ मारपीट होने पर या मज़दूर की करण्ट लगने से होने वाली मौतों पर ग़द्दार यूनियन नेताओं ने मालिकों पर मुकदमा दर्ज करने से ज़्यादा ज़ोर मामले को थोड़ा बहुत पैसा देकर रफ़ा-दफ़ा करने पर दिया है। संशोधनवादी नकली लाल झण्डे वाली पार्टियाँ इस व्यवस्था की ही सुरक्षा पंक्ति हैं और मन्दी के दौर में जब मालिक और मज़दूरों के बीच टकराव की स्थिति विस्फोटक होती जा रही है तो ये हर क़दम पर पानी की छींटे मारकर संघर्ष की जगह समझौतों का रास्ता अख़्तियार करते हैं। हाल ही में ऐसा ही घटनाक्रम आम आदमी पार्टी से निगम पार्षद विकास गोयल की फ़ैक्ट्री में मज़दूर की सुरक्षा के इन्तज़ाम की कमी की वजह से हुआ जिसपर नक़ली लाल झण्डे वाली ट्रेड यूनियनों ने मुक़दमे को रफा-दफ़ा करने की कोशिश की और दिल्ली इस्पात उद्योग मज़दूर यूनियन द्वारा श्रम विभाग पर प्रदर्शन के बाद ही निगम पार्षद का नाम पुलिस केस में जोड़ने का समन पुलिस थाने को भेजा गया जिसके बाद पुलिस ने विकास गोयल से पूछताछ भी की है।

आज फैली आर्थिक मन्दी के मामले में तमाम तथाकथित क्रान्तिकारी पार्टियों के चरित्र की पड़ताल की जा सकती है। हालाँकि फ़ैक्ट्री इलाक़ों में तमाम संशोधनवादी पार्टियों की यूनियनों का चरित्र इन्हें बेनक़ाब कर देता है, समय समय पर इनकी राजनीतिक अवस्थिति इनकी विचारधारात्मक पतन को दर्शा देती है। परन्तु हमें हर मौक़े पर इनकी हक़ीक़त को मज़दूरों के बीच बेनक़ाब करते रहना होगा।

मन्दी के सवाल पर जो पोज़ीशन आज सीपीएम, सीपीआई और सीपीआईएमएल (लिबरेशन) ले रही है वह इनके राजनीतिक पतन को दर्शाती है। बीती 20 सितम्बर को भारत की संशोधनवादी पार्टियों की एक सामूहिक बैठक हुई जिसमें गहरी आर्थिक मन्दी में डूबी और संकट की आग़ोश में घिर रही अर्थव्यवस्था की हालात पर चिन्ता व्यक्त की गई। यह चिन्ता आम जनता के ऊपर बोझ डाल रहे पूँजीपति वर्ग के जीवन पर पड़ रही मार के साथ-साथ में पूँजीवाद की सेहत के लिए भी व्यक्त की गई! इस कन्वेंशन में कहा गया कि भारत की अर्थव्यवस्था की गम्भीर हालात के लिए मोदी सरकार की ग़लत नीतियाँ ज़िम्मेदार हैं और मोदी ‘बुरे’ (क्रोनी) पूँजीवाद की सेवा करते हुए अपने कुछ ख़ास बड़े पूँजीपति मित्रों को मदद पहुँचा रहे हैं, बस समस्या यही है। सीपीएम, सीपीआई, सीपीआईएमएल (लिबरेशन) व अन्य पार्टियों का मक़सद सार्वजनिक निवेश योजनाओं के ज़रिये स्थानीय माँग को बढ़ाकर संकट से व्यवस्था को निजात दिलाना है। परन्तु सभी अल्प उपभोगवादी भूल जाते हैं कि यह संकट इस व्यवस्था का आंतरिक अन्तरविरोध है जिससे निजात इसे ख़त्म कर ही मिल सकता है। अल्प उपभोग इस व्यवस्था के संकट का कारण नहीं बल्कि केवल लक्षण है। वास्तविक कारण मुनाफ़े का संकट है जिसके कारण ही अल्प उपभोग और अतिउत्पादन प्रकट होता है। किसी नीमहकीम नुस्ख़े से संकट से निजात नहीं मिल सकता है।

2008 के बाद से यह बात बार-बार साबित हुई है परन्तु इन संशोधनवादी पार्टियों से इस परिघटना से निष्कर्ष निकालने की उम्मीद करना ही ग़लत होगा। असल में क्रान्तिकारी ताकतों के समक्ष यही वह मौका है जब हमें मेहनतकश जनता के सामने इस व्यवस्था की निरर्थकता को उजागर करना चाहिए। हमें जनता पर मन्दी का बोझ डाल रही सरकार के ख़ि‍लाफ़ अपनी माँगें उठानी चाहिए। परन्तु इसे बाज़ार में माँग बढ़ाकर पूँजीवाद को ‘संजीवनी’ देने के ख़याल से नहीं बल्कि पूँजीवाद की चौहद्दियों को स्पष्ट करते हुए समाजवाद का विकल्प पेश करते हुए किया जाना चाहिए। आज अगर ये यूनियनें मज़दूरों की मौत पर दलाली खाने तक पहुँच गयी हैं, तो इसके लिए क्रान्ति को तिलांजलि दे चुकी संशोधनवादी विचारधारा ही ज़िम्मेदार है।

 

मज़दूर बिगुल, अक्तूबर 2019


 

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