क्या आप अवसाद ग्रस्त हैं?

दरअसल आप पूँजीवाद के शिकार हैं!

– अनीता

ज़िन्दगी की भागमभाग के बीच जब हम ठहरकर सड़कों, दफ़्तरों या स्कूलों-कॉलेजों में आते-जाते लोगों के चेहरों पर ग़ौर करते हैं तो पाते हैं कि आज के दौर में हर कोई अकेला, मायूस, ग़मगीन और तकलीफ़ों के बोझ से दबा दिखायी देता है। आज के समय की सच्चाई यह है कि हज़ारों ऑनलाइन दोस्त होने के बाद भी लोग दिल की बात किसी एक को भी बता नहीं पाते। दिल खोलकर हँसना, सामूहिकता का आनन्द लेना, बिना किसी स्वार्थ के किसी की मदद करना तो कल्पना की बातें हो गयी हैं; लोगों में नफ़रत, अविश्वास, बदहवासी, ऊब बढ़ रही है। 2018 में ही विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की एक रिपोर्ट आयी थी जिसमें यह पाया गया कि दुनिया में सबसे ज़्यादा मानसिक अवसाद (डिप्रेशन) के शिकार लोग भारत में रहते हैं।

इसी रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 6.5 प्रतिशत यानी लगभग 8.5 करोड़ लोग किसी न किसी प्रकार के मानसिक रोग से पीड़ि‍त हैं। यह एक महामारी का रूप लेता जा रहा है। तमाम ऐसे भी लोग हैं जो हालात को सहन न कर पाने और जीवन में किसी प्रकार की उम्मीद न दिखायी देने से आत्महत्या कर बैठते हैं। वर्ष 2016 में ही भारत में क़रीब 2 लाख पचास हजार लोगों ने आत्महत्या कर लिया था। दुनियाभर में आत्महत्या करने वाले लोगों में से 36.6 प्रतिशत भारत के होते हैं। आम तौर पर लोगों के व्यक्तिगत जीवन में रही परेशानियों को ही अवसाद का कारण माना जाता है, लेकिन वे तो तात्कालिक कारण होते हैं। अगर आज ये समस्या महामारी का रूप ले चुकी है तो निश्चय ही इसकी जड़ें समाज के ढाँचे में ही होंगी और हमें और गहराई में जाकर इसकी पड़ताल करनी होगी।

मानसिक अवसाद की समस्या मध्य वर्ग में बड़े पैमाने पर व्याप्त है। उत्पादन की प्रक्रिया और शारीरिक श्रम से कटे मध्य वर्ग के लोग बहुत सारी चीज़ों का इस्तेमाल तो करते हैं लेकिन चीज़े कैसे बनती हैं, उससे अनजान रहते हैं। वे यह नहीं समझ पाते कि दरअसल श्रम ही वह चीज़ है जिसने इन्सान को इन्सान बनाया क्योंकि वानर से नर बनने की प्रक्रिया श्रम की बदौलत ही मुमकिन हुई। आज के दौर में इन्सान के अलगाव का मूल कारण यही है। अलगाव के शिकार लोगों को जीवन के किसी भी पहलू के बारे में कोई दिलचस्पी नहीं रहती, वे हर चीज़ से बेपरवाह रहते हैं।

आज के दौर में समाज के आम मेहनतकश लोगों में भी अलगाव देखने को मिलता है। कारख़ानों में बेहद कठोर श्रम करने के बाद भी रोज़ की रोटी जुटाना मुश्किल रहता है, लेकिन मेहनतकशों के श्रम का शोषण करके ही पूँजीपति ऐशो-आराम की ज़ि‍न्दगी जीता है। मज़दूरों को यह एहसास रहता है कि उनकी हाड़-तोड़ मेहनत से जो चीज़ बन रही है वह उनकी नहीं है। ऐसे में मज़दूरों का भी काम में मन नहीं लगता और दिन की थकान, आत्मसम्मान पर लगी लगी चोट और शोषण से निजात पाने में बेबसी उन्हें अवसाद की अवस्था तक पहुँचा देती है।

अलगाव का शिकार इन्सान अगर अपने अलगाव को दूर करने के बारे में सचेतन कोशिश नहीं करता तो वह मानवीय मूल्यों और संवेदनाओं से दूर होता जाता है। उसमें सही-ग़लत, न्याय-अन्याय अच्‍छा-बुरा तय करने की क्षमता ख़त्म होती जाती है। उसे प्रेम, दुख-सुख आदि जैसी संवेदनाएँ महसूस नहीं होतीं जिसकी वजह से वह दूसरे इन्सानों से भी कटता जाता है। वह सभी को शक़ और अविश्वास के नज़रिये से देखने लगता है और किसी से भी अपने मन की बात कह नहीं पाता। हालात ऐसे बनने लगते हैं कि वह खुद से भी कटता जाता है। उसे ज़ि‍न्दगी के प्रति निराशा होने लगती है, किसी चीज़ के प्रति मोह और दिलचस्पी नहीं रह जाती। ऐसे लोग अपनी सृजनशीलता खो बैठते हैं और अकेले गुमसुम बिना किसी लक्ष्य और महत्वकांक्षा के खोये-खोये रहते हैं।

सामाजिक अलगाव, बेरोज़गारी, मँहगाई, तंगी, विभेद, शोषण, हिंसा भरी इस पूँजीवादी दौर में, लोग एक-दूसरे को महज़ प्रतिस्पर्धी मानने लगते हैं। दूसरों की ख़ुशी से उन्हें ख़ुशी नहीं मिलती, दूसरों के ग़म से उन्हें ग़म नहीं होता। एक साथ टीम में काम करने वाले लोग भी एक-दूसरे से ईर्ष्या भाव पाले रहते हैं, ख़ुद की ज़रूरतें पूरी न होने की असुरक्षा के चलते दूसरों को पीछे खींचने की फ़िराक़ में रहते है। मानवीय मूल्य, सच्ची दोस्ताना भावना और इन्सानी प्रेम की स्थिति नहीं रहती।

इसके अलावा कश्मीर और उत्तरपूर्वी भारत के राज्यों में भारतीय राज्यसत्ता द्वारा किये जा रहे सैन्य दमन की वजह से भी उन इलाक़ों में मानसिक अवसाद की घटनाओं में ज़बर्दस्त बढ़ोत्तरी हो रही है। इन इलाक़ों में सेना को असीमित अधिकार दे दिये गये हैं। कश्मीर घाटी में 9 लाख से ज़्यादा सैनिक तैनात करके लगातार कर्फ़्यू लगाया जा रहा है, शान्तिपूर्ण प्रर्दशन पर भी रोक लगायी जा रही है और पैलेट गन का इस्तेमाल करना और लोगों को बिना किसी मुद्दे के गिरफ़्तार करना आम बात होती जा रही है। रोज़मर्रा के जीवन की आवश्यक चीज़ें, और संचार के साधन फ़ोन, इण्टरनेट पर भी सख़्ती से रोक लगायी जा रही है। ऐसे में ग़ुस्सा, परेशानी, ख़ौफ़ के बढ़ते जाने से लोग मानसिक अवसाद के शिकार बनने लगते हैं। कुछ दशकों पहले तक ख़ुशहाल माने जाने वाले कश्मीर में अभी बहुतेरे लोग मानसिक अवसाद के शिकार हो रहे हैं। 1985 में कश्मीर में मानसिक रोगियों की संख्या महज़ 775 थी जबकि 2015 में यह बढ़कर 1 लाख 30 हज़ार तक जा पहुँची ।
आज के दौर में बच्चे भी मानसिक अवसाद से गुज़र रहे है। छोटी उम्र में ही हमउम्र दोस्तों के साथ हो रही तीव्र प्रतिस्पर्धा, तुलना और भविष्य को लेकर डाले जाने वाले अधिक दवाब की वजह से बच्चे सहज बचपन नहीं गुज़ार पाते। यह भी सामने आया है कि हर साल बहुत से बच्चे परीक्षाओं के समय आत्महत्या कर बैठते हैं। ‘इकोनॉमिक टाइम्स’ की रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत में हर घंटे एक विद्यार्थी आत्महत्या करता है। आम घरों में अलगाव और अवसाद को सही से समझा ही नहीं जाता, और ऐसे भी लोग मिलते हैं जो खोखली सामाजिक प्रतिष्ठा बचाये रखने के लिए मानसिक अवसाद जैसी समस्या को छुपाते हैं। डॉक्टरों से आवश्यक परामर्श व दवा-इलाज कराने की बजाय ऐसे लोगों को समाज से अलग करके एक कोने में पड़े रहने के लिए छोड़ दिया जाता है। भारत में वैसे तो सभी तरह के डॉक्टरों की संख्या बेहद कम है, लेकिन मनोचिकित्सकों की संख्या तो रागियों की तुलना में नहीं के बराबर है।

अलगाव व अवसाद की इस महामारी से निजात पाने के लिए मुनाफ़े, लोभ-लालच और एक-दूसरे से आगे निकलने के लिए अन्धी प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देने वाली पूँजीवादी व्यवस्था को ख़त्म करना होगा। पूँजीवाद का ख़ात्मा करके समानता और न्याय पर आधारित एक नया समाज बनाने के संघर्ष से जुड़ना अपनेआप में अलगाव और अवसाद दूर करने का बेहतरीन तरीक़ा है। इस प्रक्रिया में हम ज़िन्दगी को क़रीब से देखते हैं और मेहनतकशों के जीवन-संघर्ष से जुड़कर हम श्रम का महत्व गहराई से समझते हैं और ज़िन्दगी से प्यार करने के असली मायने समझते हैं। इसके अलावा जब भी सम्भव हो, प्रकृति के बीच समय बि‍ताना चाहिए क्योंकि अलगाव का एक कारण प्रकृति से कटाव भी होता है। लोगों को साथ दोस्ती करने और दिल खोलकर बातें करके, कला साहित्य और संगीत जैसी सृजनात्मक कामों में दिलचस्पी बढ़ाकर भी बेगानेपन पर एक हद तक क़ाबू पाया जा सकता है।

मज़दूर बिगुल, अक्तूबर 2019


 

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