अभिजीत बनर्जी को नोबल पुरस्कार और ग़रीबी दूर करने की पूँजीवादी चिन्ताओं की हक़ीक़त

– सत्यम

भारत में पैदा हुए अभिजीत बनर्जी को अर्थशास्त्र का नोबल पुरस्कार मिलने पर पूँजीवादी मीडिया में छाई बधाइयों को तो समझा जा सकता है, पर मज़दूरों-ग़रीबों के हित में समाज बदलने की बात करने वाले लोग और पार्टियाँ इस बात पर क्यों ख़ुशी मना रहे हैं? क्या उन्होंने ग़रीबी को जड़ से मिटाने की कोई खोज कर डाली है, क्या ग़रीबी-असमानता-बेरोज़गारी-भुखमरी पैदा करने वाले पूँजीवाद को ख़त्म करने का कोई मन्तर उन्होंने ढूँढ निकाला है? जी नहीं, बात इसके ठीक उल्टी है।
पूरी दुनिया में पूँजीवाद केवल हथियारों और पैसे की ताक़त के बल पर नहीं टिका हुआ है। लोगों में भ्रम पैदा करने और शोषण-उत्पीड़न-बदहाली से पैदा होने वाले लोगों के ग़ुस्से पर पानी के छींटे डालने के लिए उसके पास लोकलुभावन बातें करने वाली सरकारें, तथाकथित कल्याणकारी नीतियाँ आदि भी होती हैं। इनके साथ ही उसके पास ऐसे ‘थिंक टैंक’, यानी ऐसे विचारकों की जमात भी मौजूद होती है जो अन्दर से बुरी तरह बीमार और खोखली होती जा रही पूँजीवादी व्यवस्था के भविष्य को लेकर चिन्तित रहते हैं और उसकी उम्र लम्बी करने के नुस्ख़े सुझाते रहते हैं। वे जानते हैं कि आम लोगों की बढ़ती ग़रीबी और बदहाली व्यवस्था के लिए ख़तरनाक है। इसलिए वे ऐसी तरकीबें खोजने में लगे रहते हैं जो पूँजीवादी व्यवस्था के तीखे होते अन्तरविरोधों को धुँधला कर सकें और उसके विरुद्ध होने वाले विस्फोटों को कुछ और समय तक टाल सकें।
भूमण्डलीकरण और उदारीकरण की घनघोर मज़दूर-विरोधी और दुनियाभर में ग़रीबी को बढ़ाने वाली नीतियों के लागू होने के दौर में कभी मोहम्मद यूनुस, कभी अमर्त्य सेन, तो कभी अभिजीत बनर्जी और उनके साथियों को नोबल पुरस्कार से नवाज़े जाने के पीछे की सच्चाई यही है। संघी दोगले अभिजीत बनर्जी को जो गालियाँ दे रहे हैं उसके कारण अलग हैं मगर हमें ग़रीबी दूर करने के नाम पर चलने वाले इस खेल को आम मेहनतकशों के नज़रिये से समझने की ज़रूरत है।

इस बार अर्थशास्त्र का नोबल पुरस्कार माइकेल क्रेमर, अभिजीत बनर्जी और एस्थर दुफ़्लो की तिकड़ी को मिला है जिन्होंने यह सिद्धान्त पेश किया है कि प्रायोगिक तरीकों का प्रभावी ढंग से उपयोग करके सरकारी नीतियों में बदलाव लाया जा सकता है और इसके ज़रिए ग़रीबी को कम किया जा सकता है। उनका सिद्धान्त यह मौलिक खोज करता है कि ग़रीबी कई तरह के कारकों का नतीजा होता है और नियंत्रित प्रयोगों के ज़रिए उस सबसे बड़े कारण की पहचान करने की ज़रूरत होती है जिस पर सरकारी नीति से चोट की जाये। यानी समस्या ग़रीबी के सबसे बड़े कारण की पहचान करना है। विभिन्न वजहों से यह कारण छिपा रहता है और प्रयोगों के ज़रिए ही उसे सामने लाया जा सकता है। अभिजीत बैनर्जी ने अमेरिका के मैसाच्युसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी (एमआईटी) में ‘अब्दुल जमील लतीफ़ ग़रीबी प्रयोगशाला’ में काम करते हुये ग़रीबों पर ऐसे प्रयोग करने की योजनाएँ बनायीं। इन्हें रैंडमाइज़्ड कंट्रोल्ड ट्रायल (आरसीटी) कहा जाता है। यानी ग़रीबों पर चूहों की तरह प्रयोग करके यह पता लगाते रहो कि कुछ सरकारी टुकड़े फेंककर ग़रीबी थोड़ी कम करने का कौन-सा नुस्ख़ा काम करेगा। बस लोगों को यह मत पता लगने दो कि ग़रीबी का असली कारण यह पूँजीवादी व्यवस्था है जो करोड़ों-करोड़ मेहनतकशों को लूटकर सारी सम्पत्ति मुट्ठीभर लुटेरों के हाथों में इकट्ठा करती जाती है। जिसमें ग़रीबी-बदहाली के महासागर फैलते रहते हैं और उनके बीच अमीरी के कुछ टापू, ऐश्वर्य की कुछ मीनारें खड़ी होती रहती हैं।

ख़ासकर जब पूँजीवादी व्यवस्था आज गहरे संकट में है, तब ऐसे ‘‘कल्याणकारी अर्थशास्त्रियों’’ की उसे ज़्यादा ज़रूरत है। असली मामला यह है कि पूँजी और श्रम के मूल अन्तरविरोध से ध्यान हटाकर कल्याणकारी नीतियाँ बनाने की पैबन्दसाज़ी की ओर कैसे ले जाया जाये। भाकपा-माकपा जैसे तमाम संशोधनवादी, बुर्जुआ लिबरल आदि अभिजीत बनर्जी को नोबल मिलने पर ख़ुशी से जो लहालोट हुए जा रहे हैं, उसका राज़ यही है। इन सबकी नस्ल एक ही है, सबके जीने का मक़सद भी एक ही है—मेहनतकशों को सरकारी ख़ैरात के लॉलीपॉप से बहलाना और पूँजीवादी व्यवस्था के संकटों को विस्फोटक हो जाने से रोकना। अभिजीत बनर्जी जैसे विद्वानों की राय से बनी कांग्रेस की ‘‘न्याय योजना’’ भी ऐसी ही थी।

चाहे अमर्त्य सेन हों या अभिजीत बनर्जी, ये कभी निजीकरण-उदारीकरण की उन नीतियों के बारे में नहीं बोलते जिनके विनाशकारी परिणाम पूरी दुनिया में ज़ाहिर हो चुके हैं। अर्थशास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित होने के बावजूद इन्हें यह नंगी सच्चाई नज़र नहीं आती कि पूँजीवादी व्यवस्था के टिके रहने की शर्त है मज़दूरों का शोषण और इसका अनिवार्य नतीजा है समाज के एक सिरे पर बेहिसाब दौलत और दूसरे सिरे पर बेहिसाब ग़रीबी। वे ग़रीबी के बुनियादी कारणों पर कभी चोट नहीं करते, वे पूँजीवाद और साम्राज्यवाद की लूट पर कभी सवाल नहीं उठाते। वे केवल ग़रीबी और उससे पैदा होने वाले असन्तोष की आँच कम करने के लिए ‘‘कल्याणकारी’’ योजनाओं की फुहार छोड़ने के के उपाय सुझाते रहते हैं।

कई वामपंथी भी अमर्त्य सेन के बड़े फ़ैन हो गये हैं, क्योंकि वे मोदी सरकार की नीतियों के आलोचक हैं। इनकी कई नीतियों के आलोचक तो राहुल गाँधी भी हैं! इससे क्या होता है? मनमोहन सिंह के समय से ही अमर्त्य सेन कह रहे हैं कि लोकतांत्रिक सरकार को जनता के लिए नीति एवं न्याय की रक्षा करनी चाहिए। ऐसा करके वास्तव में वह लुटेरों को सबकुछ खुल्लमखुल्ला न करके कुछ पर्देदारी बरतने की राय देते हैं। शासन के जिस चरित्र और व्यवहार की कलई देश की मेहनतकश जनता के सामने खुलती जा रही है, जो व्यवस्था लाइलाज बीमारी से ग्रस्त है, उसी में पैबन्द लगाकर न्याय की बात करने का और क्या अर्थ हो सकता है? जब श्री सेन बाल कुपोषण, प्राथमिक शिक्षा की कमी, चिकित्सा का अभाव एवं ग़रीबी को दूर करने के लिए सामाजिक न्याय की बात करते हैं, तो क्या वे भूल जाते हैं कि इस सबके लिए आम मेहनतकशों का शोषण और वही पूँजीवादी व्यवस्था ज़िम्मेदार है जिससे वह सामाजिक न्याय की गुहार लगा रहे हैं? जब अमर्त्य सेन कहते हैं कि क़ानून बनाने वाले लोगों यानी नेताओं और मंत्रियों को जनता के हितों के प्रति जागरूक होना चाहिए तो वस्तुत: वे पूँजीवाद के ऊपर मँडरा रहे ख़तरे से आगाह करते हैं। उदारीकरण-निजीकरण की विनाशकारी नीतियों को दुनियाभर में लागू कराते समय विश्व बैंक जैसी संस्थाएँ जब ‘‘मानवीय चेहरे वाले भूमण्डलीकरण’’ की बात कर रही थीं, तो उसका भी यही मतलब था। विश्व बैंक और अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष में बैठे अर्थशास्त्री जानते थे कि इन नीतियों के राक्षसी चेहरे पर मानवीय मुखौटा लगाना ज़रूरी है वरना इनके कारण होने वाली तबाही जनता के ग़ुस्से के भयंकर विस्फोट को जन्म देगी।

दरअसल अमर्त्य सेन या अभिजीत बनर्जी जैसे विद्वानों की चिन्ता का विषय वास्तविक सामाजिक न्याय नहीं वरन उस व्यवस्था की रक्षा करना है जिसके वे सिद्धान्तकार हैं। श्री सेन और श्री बनर्जी से यह पूछा जाना चाहिए कि अन्याय और अभाव की इन परिस्थितियों का जिम्मेदार कौन है? यह किसकी देन है? इस सामाजिक अन्याय, आर्थिक असमानता और ग़रीबी-अशिक्षा आदि के पीछे मूल कारण क्या हैं? आख़िर वे किससे ‘‘न्याय’’ की उम्मीद कर रहे हैं? उनकी चिन्ता का एक विषय यह है कि ‘‘कमज़ोर वर्ग अपने से अधिक शक्तिशाली वर्ग की दया पर निर्भर रहने पर विवश है’’। लेकिन इस असमानता की उत्पत्ति, कमज़ोर और शक्तिशाली वर्गों के अस्तित्व के मूल कारणों पर वे मौन क्यों हैं?

कोई पूछ सकता है कि पूँजीवादी नीति निर्देशक और थिंक टैंक भी तो यह समझते होंगे कि इस व्यवस्था में सुधार की कोई गुंजाइश नहीं रह गयी है, फिर वे इसे बचाने के लिए इतने चिन्ति‍त क्यों हैं? क्योंकि वे अच्छी तरह जानते हैं कि बढ़ते शोषण से पैदा हो रहे मेहनतकशों के असन्तोष का ज्वालामुखी फटेगा तो उसका लावा उनके ऐश्वर्यद्वीपों को गलाकर रख देगा। इसलिए वे किसी न किसी तरह पूँजीवादी शोषण को कम तीखा करने और उसके नतीजों को सहन करने के लिए जनता को कुछ विटामिन की गोलियाँ खिलाने की सलाहें दिया करते हैं। यह अलग बात है कि अपने संकटों से चरमराते पूँजीवाद के लिए इन सलाहों को मानकर लागू करना भी दिन-ब-दिन कठिन होता जा रहा है।

मज़दूर बिगुल, अक्तूबर 2019


 

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