रेलवे की बढ़ती बदहाली और निजीकरण के नये हथकण्डे

– रूपा

एक तरफ़ जहाँ मोदी सरकार देश में बुलेट ट्रेन लाने के शिगूफ़ छोड़ रही है, है वहीं दूसरी तरफ़ भारतीय रेल बीते 10 सालों में सबसे बुरे दौर में पहुँच गयी है। इस बात की तस्दीक नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) ने की है। कैग की रिपोर्ट के मुताबिक़, भारतीय रेलवे की कमाई बीते दस सालों में सबसे निचले स्तर पर पहुँच चुकी है। अगर कैग के इस आँकड़े को आसान भाषा में समझें तो रेलवे 98 रुपये 44 पैसे लगाकर सिर्फ़ 100 रुपये की कमाई कर रही है। यानी कि रेलवे को सिर्फ़ एक रुपये 56 पैसे का मुनाफ़ा हो रहा है जो व्यापारिक नज़रिये से अब तक की सबसे बुरी स्थिति है। इसका सीधा अर्थ यह है कि अपने तमाम संसाधनों से रेलवे 2 फ़ीसदी भी नहीं कमा पा रही है।

वित्तीय वर्ष 2014-15 में रेलवे का परिचालन अनुपात 91.25 फ़ीसदी था। पिछले पाँच वर्ष में इसमें लगातार गिरावट आयी है। रेलवे ने एन.टी.पी.सी. और इरकॉन से कुछ परियोजनाओं के लिए एडवांस लिया हुआ है। इस वजह से परिचालन अनुपात 98.44 पर टिका है। अगर ऐसा नहीं होता तो ये स्थिति 102.66 तक पहुँच सकती थी, यानी रेलवे को हर 100 रुपये पर 2 रुपये 66 पैसे का घाटा होता।

बुलेट ट्रेन के ख़्वाब दिखाकर रेलवे को अन्दरख़ाने जर्जर बनाकर बेचने की तिकड़मों की सच्चाई अब खुल्लमखुल्ला ज़ाहिर हो गयी है। भारतीय रेल को बेहतर बनाने के लम्बे-चौड़े वादों की सच्चाई बताने के लिए कैग की रिपोर्ट ही काफ़ी है। इसके अनुसार, रेल का सबसे बड़ा संसाधन माल भाड़ा है। इसके बाद यात्रियों से होने वाली कमाई आती है। मगर अतिरिक्त बजटीय संसाधन और डीजल उपकर की हिस्सेदारी में बढ़ोत्तरी हो गयी जबकि माल भाड़ा, यात्री आय, जीबीएस और अन्य हिस्सेदारी घट गयी। 2016 से 2017 में रेलवे को 4,913 करोड़ की अतिरिक्त आय हुई थी, लेकिन साल 2017-18 में यही अतिरिक्त आय 60 फ़ीसदी घटकर 1,665 करोड़ रुपये रह गयी।

सरकारी तर्क है कि रेलवे द्वारा पिछले 10 सालों में यात्री किराये में कोई उल्लेखनीय बढ़ोत्तरी नहीं की गयी, जिसकी वजह से रेलवे इस माली हालत में पहुँच गयी है। मगर वास्तविकता ठीक इसके विपरीत है। रेलवे सार्वजनिक क्षेत्र की संस्था है और इसे बनाने का मक़सद मुनाफ़ा कमाना नहीं, बल्कि लोगों को सस्ती और सुलभ यात्रा सेवाएँ प्रदान करना है। सरकार की यह ज़िम्मेदारी है कि वह देश की आबादी को किफ़ायती दरों पर परिवहन व्यवस्था मुहैया कराये, क्योंकि ट्रेन में यात्रा करने वाली आबादी में अधिकांश ग़रीब-मेहनतकश लोग होते हैं, जिनके लिए ज़्यादा किराया देना सम्भव नहीं है।

पिछले कुछ सालों में रेलवे ने टिकट रद्द करने, तत्काल बुकिंग, प्रीमियम किराया आदि से भी हज़ारों करोड़ की कमाई की है। दूसरी ओर आम यात्रियों के लिए सुविधाएँ बढ़ने के बजाय बदतर हो गयी हैं। एसी डिब्बों की संख्या और सुविधाएँ बढ़ी हैं, लेकिन बहुसंख्यक आबादी द्वारा इस्तेमाल किये जाने वाले जरनल और स्लीपर डिब्बों की हालत ख़राब है। प्लेटफ़ार्मों पर खाने-पीने के ठेके बड़ी कम्पनियों को दे देने से ग़रीब यात्रियों के लिए भारी मुश्किल हो गयी है। ट्रेनों की लेटलतीफ़ी, सुरक्षा आदि में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हुआ है। आम यात्री अब भी भेड़-बकरियों की तरह यात्रा करने को मजबूर हैं।

गुणवत्ता सुधारने के दावों की असलियत यह है कि निजीकरण के घोड़े पर सवार मोदी सरकार ने अब सुरक्षा जैसे अहम काम को भी दाँव पर लगा दिया है। ट्रेनों के सुरक्षित संचालन से जुड़े करीब 1.6 लाख पद पहले से खाली पड़े थे। अब ट्रेनों को समय पर चलाने और रफ़्तार को बढ़ाने का बहाना लेकर मोदी सरकार रख-रखाव के काम को भी आउटसोर्स करने, यानी निजी कम्पनियों को देने, की योजना बना चुकी है। रेलवे में हर ट्रेन के रख-रखाव के निर्धारित समय को छह घण्टे से घटाकर दो घण्टे करने की योजना है। भारतीय रेल इस समय जिन इंजनों, रेल के डिब्बों, सिग्नल व्यवस्था आदि का इस्तेमाल कर रही है, वे पहले ही पुराने पड़ चुके हैं। रेलवे को अपने आधारभूत ढ़ाँचे को और दुरुस्त करने की ज़रूरत है। ऐसे में ट्रेन के रख-रखाव के समय को कम करने और इस बेहद महत्वपूर्ण काम को बाहर की कम्पनियों द्वारा ठेके पर कराना यात्रियों की ज़िन्दगी के साथ खिलवाड़ करना है। साथ ही, इससे रेलवे के करीब डेढ़ लाख कर्मचारियों की नौकरी भी ख़तरे में पड़ जायेगी। लेकिन इससे न तो रेलमंत्री पीयूष गोयल को फ़र्क़ पड़ने वाला है और न ही तमाम नेताओं, मंत्रियों और रईसज़ादों को, क्योंकि उनके लिए हवाई सेवाएँ तैयार हैं। फ़र्क़ तो इस देश के उन करोड़ों आम लोगों पर पड़ेगा, जो रोज़ ट्रेनों में सफ़र करते हैं।

मोदी सरकार रेलवे को बर्बाद करके लोगों के मन में यह बात बैठा देना चाहती है कि कर्मचारी सही से काम नहीं करते जबकि वेतन उन्हें पूरा मिलता है, रेलवे लगातार घाटे में जा रही है, ट्रेनें हमेशा अनियमित रहती हैं, वगैरह-वगैरह। इसलिए सरकार का निजीकरण का फ़ैसला सही है। इसी हथकण्डे का इस्तेमाल दूसरे सार्वजनिक क्षेत्रों को बेचने के लिए किया गया था और अब यही रेलवे के साथ किया जा रहा है।

सरकार और उसके भोंपू पत्रकार लगातार यह माहौल बना रहे हैं कि रेलवे को बदहाली से बचाने का एकमात्र विकल्प निजीकरण हो सकता है। विवेक देबरॉय के नेतृत्व में बनी रेलवे पुनर्गठन कमेटी और नीति आयोग का भी यही कहना है कि रेलवे के नॉन-कोर फ़ंक्शन, यानी अस्पताल, स्कूल, कारख़ाने, वर्कशॉप और रेलवे पुलिस आदि को कम से कम अगले 10 साल के लिए निजी क्षेत्र के हवाले कर देना चाहिए। बुलेट ट्रेन तो नहीं आयी मगर निजीकरण की गाड़ी को सरकार ने बुलेट ट्रेन की रफ़्तार से दौड़ा दिया है।

लोगों को किसी गफ़लत में रहने की ज़रूरत नहीं है कि निजीकरण से गाय-भैंसों की तरह यात्रा करने को मजबूर करोड़ों आम यात्रियों की सुविधाएँ बढ़ाने, रेल की सुरक्षा व्यवस्था मज़बूत करने या रेलवे में ख़ाली पड़े 2.6 लाख पदों को भरने के बारे में सरकार सोच रही है। सरकार राजधानी और शताब्दी जैसी प्रीमियर गाड़ियों का संचालन भी निजी ऑपरेटरों को सौंप देना चाहती है। निजी क्षेत्र की पहली ट्रेन चलनी शुरू हो चुकी है। 50 रेलवे स्टेशनों और 150 ट्रेनों को निजी हाथों में देने का फ़ैसला किया जा चुका है। पुनर्विकास के नाम पर अन्य 400 स्टेशनों का नामांकन किया जा चुका है।

बहुत सारे विभागों में रेलवे के काम को पहले ही आउटसोर्स कर दिया गया है, जिससे कर्मचारियों के पास कोई काम नहीं बचा है। सरकार चाहती है कि रेलवे का ज़्यादातर काम ठेके पर दे दिया जाये, ताकि कर्मचारियों को न्यूनतम वेतन भी न देना पड़े, और न ही अन्य सुविधाएँ। निजीकरण के साथ ही रेलवे के बचे-खुचे 14 लाख कर्मचारियों का ही नहीं, लगभग इतने ही पेंशनरों का भविष्य भी दाँव पर लग जायेगा। बीएसएनएल और भारतीय टेलीफ़ोन कम्पनी को जिस तरह निगम बनाकर तबाह किया गया, उससे यह साफ़ ज़ाहिर है कि रेलवे का हश्र आगे क्या होने वाला है।

वैसे रेलवे के निजीकरण की दिशा तो 1995 में आयी पाँचवें वेतन आयोग की रिपोर्ट में ही तय कर दी गयी थी। उस समय भी रेलवे की यूनियनों के नेतागण बिना किसी ना-नुकर के उस पर मुहर लगा आये थे और आज भी जब रेलवे को एक-एक कर किश्तों में बेचा जा रहा है, तब भी यूनियनों के नेता रस्मी क़वायदों और खोखली नारेबाज़ी से आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं।

देश के सबसे बड़े सरकारी व सबसे ज़्यादा रोज़गार पैदा करने वाले संस्थान को बर्बादी के कगार पर ला खड़ा करने और उसे मुनाफ़ाखोरों के हाथों बेचने के ख़िलाफ़ संगठित प्रतिरोध की ज़रूरत है, क्योंकि यह लड़ाई सिर्फ़ रेलकर्मियों की नहीं है, ये लड़ाई सभी मेहनतकशों की लड़ाई है। इस लड़ाई को मोदी सरकार की जनविरोधी नीतियों के ख़िलाफ़ व्यापक प्रतिरोध से जोड़ने की ज़रूरत है।

मज़दूर बिगुल, जनवरी 2020


 

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