भाजपा शासन के आतंक को ध्‍वस्‍त कर दिया है औरतों के आन्‍दोलन ने!

पिछले 6 वर्ष के दौरान मोदी और शाह की अगुवाई में देशभर में एक बर्बर आतंक राज क़ायम किया गया था। मुसलमानों, दलितों, स्त्रियों के विरुद्ध बर्बर-वहशी अपराधों की बाढ़ आ गयी थी। भीड़ को उकसाकर न जाने कितने लोगों को पीट-पीटकर मौत के घाट उतार दिया गया। गुनहगारों को सज़ा देने के बजाय उनका बचाव किया गया, सरकार के मंत्रिगण हत्‍यारों का महिमामण्‍डन करते रहे। सरकार के जनविरोधी क़दमों पर आवाज़ उठाने वाले छात्रों-नौजवानों, मज़दूरों-किसानों, बुद्धिजीवियों, सभी का क्रूरता से दमन किया गया। झूठे आरोपों में लोगों को जेलों में क़ैद करके प्रताड़ित किया गया। आवाज़ उठाने वाले हर शख़्स पर सत्ता अपनी पूरी ताक़त से टूट पड़ी ताकि समाज में कोई भी ज़बान खोलने की हिम्‍मत ही न कर सके।

हर मोर्चे पर बुरी तरह नाकाम यह सरकार जब सीएए क़ानून लेकर आयी और अमित शाह बड़े अहंकार के साथ पूरे देश में एनआरसी लागू करने की घोषणा करते हुए घूम रहे थे, तो भाजपा और संघ में किसी ने कल्‍पना भी नहीं की होगी कि देश के अवाम से उनको ऐसा करारा जवाब मिलेगा। इसकी शुरुआत इस बार भी छात्रों-नौजवानों के प्रदर्शनों से हुई लेकिन जामिया मिलिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्‍वविद्यालय में नृशंस दमन की सारी सीमाएँ पार कर देने के बाद सरकार को लग रहा था कि उसने प्रतिरोध को कुचल दिया है। फिर 19 दिसम्‍बर को पूरे देश में प्रदर्शन हुए। उत्तर प्रदेश में योगी आदित्‍यनाथ की पुलिस ने दमन का ऐसा ताण्‍डव रचा जिसने अंग्रेज़ हुकूमत को भी मात कर दिया।

इसी बीच जामिया पर दमन के विरोध में दिल्‍ली के शाहीन बाग़ में स्त्रियों का धरना शुरू हुआ जो आज एक ऐसा ताक़तवर आन्‍दोलन बन गया है जिसने मोदी-शाह-योगी की रातों की नींद हराम कर दी है। उन्‍हें सोते-जागते शाहीन बाग़ ही नज़र आता है। बौखलाहट में वे पागलों की तरह शाहीन बाग़-शाहीन बाग़ की रट लगाये हुए हैं। आज देश में 50 से भी ज़्यादा जगहों पर शाहीन बाग़ की तर्ज़ पर अनिश्चितकालीन दिनो-रात चलने वाले धरने जारी हैं जिनकी अगुवाई हर जगह औरतें कर रही हैं, और वही इनकी रक्षाकवच भी है।

इस आन्‍दोलन की सबसे बड़ी ताक़त मेहनतकश औरतें हैं। भले ही मंचों पर उनके चेहरे कम नज़र आते हैं, तस्‍वीरों और वीडियो में वे सिर्फ़ दूर से या पृष्‍ठभूमि में दिखायी देती हैं, लेकिन वे ही हैं जो सबसे निरन्‍तरता के साथ, सबसे बहादुरी के साथ और सबसे जुझारूपन के साथ मैदान में टिकी हुई हैं। चाहे पुलिस के हमलों की आशंका में धरनास्‍थल पर बड़ी तादाद में इकट्ठा होना हो या गिरफ़्तार साथियों को छुड़ाने के लिए थाने का घेराव करना हो, वे ही सबसे आगे रहती हैं। खुले आसमान के नीचे रात-रात भर जागकर वे अपने धरने की अपने बच्‍चों की तरह हिफ़ाज़त करती हैं।

19 दिसम्बर के बाद से उत्तर प्रदेश में चले भयंकर दमनचक्र में कम से कम 20 लोगों को मौत के घाट उतारने, बच्चों, औरतों और बुज़ुर्गों सहित सैकड़ों को शारीरिक और मानसिक तौर पर ज़ख़्मी करने, हज़ारों को जेल भेजने और सैकड़ों लोगों को करोड़ों की वसूली के नोटिस भेजने के बाद योगी आदित्यनाथ की सरकार इस मुग़ालते में थी कि उसने लोगों की आवाज़ को हमेशा के लिए बन्द कर दिया है, उनकी हिम्मत को तोड़ दिया है। लेकिन कुछ ही दिनों में प्रदेश की जनता ने उनके इस गुरूर को ध्वस्त कर दिया। इलाहाबाद, कानपुर, बरेली आदि कई शहरों में महिलाओं की अगुवाई में शुरू हुए अनिश्चितकालीन धरनों के बाद पिछले शुक्रवार से लखनऊ के ऐेतिहासिक घण्टाघर के सामने भी धरना शुरू हो गया जो पुलिस और संघियों की तमाम घटिया चालों के बावजूद हर दिन नई ताक़त हासिल करता गया।

बुरी तरह बौखलाये हुए सत्ताधारियों और उनकी पुलिस ने किसी भी तरह से इस धरने को ख़त्म कराने के लिए हर घटिया हथकण्‍डा आज़मा लिया। बार-बार भारी पुलिस बल भेजकर उन्‍हें डराने की कोशिश की गयी। लखनऊ में पुलिस महिलाओं के कम्‍बल और दरियाँ तक छीन ले गयी। उनके आन्‍दोलन को बदनाम करने के लिए तमाम तरह के लांछन लगाये जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि ये औरतें पाँच सौ रुपये रोज़ाना लेकर धरने में आती हैं, उन्‍हें मुफ़्त बिरयानी मिल रही है, पाकिस्‍तान से बड़े पैमाने पर पैसे आ रहे हैं। यह भी कहा गया कि भोली-भाली औरतें बहका ली गयी हैं। मर्द रज़ाई ओढ़कर सो रहे हैं और औरतों को चौराहे-चौराहे पर बैठा रहे हैं। ये सड़े दिमाग़ों वाले संघी औरतों के बारे में यही सोच सकते हैं कि उनकी अपनी कोई सोच-समझ नहीं होती और वे केवल मर्दों के कहने पर चलती हैं।

जिस भी प्रदर्शन में महिलाएँ बढ़चढ़कर भाग लेती हैं, उसमें कई महिलाएँ अपने बच्चों के साथ ही आती हैं चाहे नर्मदा आन्दोलन हो, किसानों के मार्च हों या निर्माण मज़दूरों के आन्दोलन हों। शाहीन बाग़ से लेकर लखनऊ तक के धरनों में भी अनेक महिलाएँ बच्चों के साथ आती हैं। कई जगहों पर वॉलण्टियर इन बच्चों को पढ़ाते हैं, उनके साथ खेलते हैं और उनका ख़याल रखते हैं। मगर आन्दोलन को बदनाम करने के लिए मीडिया में पहले भी ऐसी ख़बरें चलायी जाती रही हैं कि “फ़िलिस्तीन की तर्ज़ पर” बच्चों का “इस्तेमाल” किया जा रहा है। बच्‍चों को प्रदर्शन में लाने पर क़ानूनी नोटिस भेजे जा रहे हैं। जब पुलिस ने पूरे उत्तर प्रदेश में बच्चों पर बर्बर अत्याचार किये थे तब इनकी ज़ुबान से एक लफ़्ज़ नहीं निकला था। जब मुज़फ़्फ़रनगर में मदरसे के दर्जनों बच्चों के साथ पुलिस हिरासत में यौन अत्याचार की ख़बरें आयी थीं तब इनके मुँह पर ताला पड़ गया था। अभी कर्नाटक में सीएए के विरोध में नाटक में भाग लेने वाले बच्‍चों और उनकी माँओं पर देशद्रोह का मुक़दमा करने वाले ये हैवान किसी-न-किसी तरह स्त्रियों की हिम्‍मत को तोड़ देना चाहते हैं।

मगर शाहीन बाग़ से लेकर घण्टाघर तक ये बच्चे ज़िन्दगी के जो सबक़ सीख रहे हैं वह कोई स्कूल-कॉलेज नहीं सिखा सकता। वे सिर्फ़ नारे और गीत ही नहीं सीख रहे हैं, वे दोस्ती, साझेदारी और सामूहिकता भी सीख रहे हैं। उनकी दुनिया बड़ी हो रही है। उन्हें दर्जनों भइया, दीदी, मौसियाँ और नानियाँ मिल गयी हैं। वे जान रहे हैं कि उनकी माएँ और दीदियाँ और दादियाँ जो सरदी में बाहर निकलने पर डाँटती थीं, आज ख़ुद रात-रात भर सरदी में बाहर बैठी हैं क्योंकि ग़लत के ख़िलाफ़ सही की लड़ाई लड़ना और उसके लिए तकलीफ़ें उठाना अच्छी बात है।

जैसाकि एक अख़बार ने अपने शीर्षक में लिखा था, ये महिलाएँ देश के “सबसे घटिया लोगों” से लड़ रही हैं। मगर इन नीच लोगों को इस बात का अहसास नहीं था कि उनका मुक़ाबला अब तक की सबसे जुझारू, सबसे मुखर, सबसे एकजुट और सबसे सचेत स्त्रियों से हुआ है जिनके साथ इस देश के करोडों युवा और आम नागरिक भी उठ खड़े हुए हैं। संघियों और उनकी सरकारों को इन्‍होंने नाकों चने चबवा दिये हैं।

बड़ी संख्‍या में ऐसी औरतें आज सड़कों पर हैं जिनके लिए घरों की चौखट लाँघना भी मुश्किल था। वे जानती हैं कि इस बार सरकार ने उनके वजूद पर ही हमला किया है। आम मेहनतकश औरतों के साथ ही बड़े पैमाने पर पढ़ी-लिखी युवा स्त्रियाँ भी सड़कों पर उतरी हैं। वे अद्भुत स्‍पष्‍टता और मुखरता के साथ, और बेहद प्रखरता के साथ अपनी बातों को रख रही हैं। उतनी राजनीतिक चेतना देखते ही बनती है। उनके जुझारूपन और हिम्‍मत के पीछे बरसों से दबा हुआ आक्रोश भी है और इस बात की समझ भी कि संघ और भाजपा जैसा समाज बनाना चाहते हैं उसमें आज़ाद औरत के लिए कोई जगह नहीं है।

शाहीन बाग़ से शुरू हुई लड़ाई आगे कहाँ तक जायेगी, इस बात का फ़ैसला अभी होना है। लेकिन यह तो तय है कि मोदी-शाह का आतंक राज ध्‍वस्‍त हो चुका है।

मज़दूर बिगुल, फ़रवरी 2020


 

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