असम में समस्या प्रवासी नहीं
नफ़रत के बीज बोने वाले क्षेत्रीय और राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग और उनकी पार्टियाँ हैं

– आनन्द

नागरिकता संशोधन विधेयक (सीएए) के ख़िलाफ़ देशभर में सबसे उग्र विरोध असम में हो रहा है। लेकिन ग़ौर करने वाली बात यह है कि असम में यह विरोध सीएए के साम्प्रदायिक व ग़ैरजनवादी स्वरूप की वजह से नहीं हो रहा है। यह विरोध इस आधार पर नहीं हो रहा है कि सीएए में मुस्लिमों को नहीं शामिल किया गया है, बल्कि इस आधार पर हो रहा है कि सीएए असम समझौते के ख़िलाफ़ जाता है जिसमें असम में 1971 के बाद आये सभी आप्रवासियों को खदेड़ने की बात कही गयी थी। इसलिए असम में चल रहे इन विरोध-प्रदर्शनों का अनालोचनात्मक महिमामण्डन करने की बजाय इसके पीछे की राजनीति और विचार को समझने की ज़रूरत है और उसके लिए हमें असम में आप्रवासन के इतिहास को समझना होगा।

असम के समाज में टकराव और आप्रवासन का इतिहास

लगभग सवा तीन करोड़ की आबादी वाला असम तीन भौगोलिक क्षेत्रों – उत्तर में ब्रह्मपुत्र घाटी, दक्षिण में बराक घाटी और कार्बी आंगलोंग व दीमा हसाओ नामक पहाड़ी क्षेत्र – में बँटा है। असम के समाज में अहोम लोग प्रभुत्वशाली स्थान पर हैं। अहोमों के अलावा तमाम नृजातीय और कबीलियाई समूह भी असम के विभिन्न क्षेत्रों में रहते हैं, मसलन बोडो, कार्बी, लालूंग, सुतिया, मरान, मटक, दिमासा, राभा, तिवा, मिसिंग, ताई, कुकी इत्यादि। असम में कई नृजातीय समूहों को प्रशासनिक स्वायत्तता मिलने की वजह से उनके भीतर से भी प्रभुत्वशाली शासक वर्ग पैदा हुआ है। इसके अलावा असम में अप्रवासी आबादी भी अच्छी-ख़ासी तादाद में है जिसमें अधिकांश लोग पूर्वी बंगाल (मौजूदा बांग्लादेश) से पलायन करके आये हैं। वैसे मूलनिवासी और बाहरी के इस टकराव में ग़ौर करने वाली बात यह है कि आज असमिया राष्ट्रवाद का झण्डाबरदार बने अहोम लोग स्वयं असम के मूलनिवासी नहीं हैं क्योंकि वे मूलत: चीन के येनान प्रान्त के निवासी थे जहाँ से वे पलायन करके पहले बर्मा (वर्तमान म्यांमार) गये और 13वीं सदी में बर्मा से पलायन करके असम में आये थे।

असम में विभिन्न नृजातीय और भाषायी समुदायों के संश्लेषण से जहाँ एक ओर असमिया राष्ट्रीयता का जन्म हुआ है वहीं दूसरी ओर असम की इस जटिल सामाजिक संरचना में कई क़िस्म के टकराव मौजूद हैं, मसलन असमिया और बंगाली भाषा बोलने वालों के बीच का टकराव, विभिन्न नृजातीय एवं कबीलियाई समूहों के बीच का टकराव और साम्प्रदायिक टकराव। लेकिन स्थानीय निवासियों और आप्रवासियों के बीच का टकराव सबसे हिंसक रूप अख़्तियार करता आया है। स्थानीय निवासियों और आप्रवासियों के बीच के इस टकराव के बढ़ते साम्प्रदायिकीकरण की वजह से आप्रवासी बंगाली मुस्लिमों की ज़िन्दगी सबसे ज़्यादा जोखिमभरी हो गयी है। भारत के पूँजीपति वर्ग ने असम के समाज में मौजूद इन दरारों का फ़ायदा समय-समय पर अपने हित में उठाया है।

असम में पूर्वी बंगाल (अब बांग्लादेश) से आप्रवासन का एक लम्बा इतिहास रहा है। ग़ौरतलब है कि असम और वर्तमान बांग्लादेश के बीच 267 किलोमीटर लम्बी सरहद है जो असम में आप्रवासन को आसान बनाती है। पूर्वी बंगाल के अलावा असम में बिहार, पश्चिम बंगाल और नेपाल से आप्रवासन होता आया है। आधुनिक काल में असम में आप्रवासन की शुरुआत 1826 में असम पर ब्रिटिश क़ब्ज़े के बाद शुरू हुई। सबसे पहले असम के चाय बग़ानों में काम करने के लिए बिहार से मज़दूर ले जाये गये क्योंकि स्थानीय असमिया भूस्वामी चाय बग़ानों में काम करने को तैयार नहीं थे। उसके बाद अंग्रेज़ों ने प्रशासनिक व न्यायिक तंत्र में क्लर्क, जज और कलेक्टर का काम करने के लिए पढ़े-लिखे बंगाली हिन्दुओं को असम में लाया क्योंकि स्थानीय असमिया आबादी में ये हुनर नहीं थे। 20वीं सदी की शुरुआत तक असम में लगभग सभी डॉक्टर, वकील, शिक्षक और पत्रकार प्रवासी बंगाली हिन्दू थे। इन प्रवासियों के दबदबे की वजह से 1947 तक असम की आधिकारिक भाषा असमिया नहीं बल्कि बंगाली थी क्योंकि प्रवासियों ने अंग्रेज़ों को यह यक़ीन दिला दिया था कि असमिया बंगाली की ही बोली है।

बीसवीं सदी की शुरुआत में असम में पूर्वी बंगाल से मुस्लिम किसानों का आप्रवासन शुरू हुआ। बंगाली मुस्लिम किसानों की पहली खेप 1914 में ब्रह्मपुत्र के मैदानों में ख़ाली पड़ी ज़मीन पर खेती करने के लिए आयी। उसके बाद पूरे औपनिवेशिक काल में बंगाली मुस्लिमों का आप्रवासन जारी रहा। 1942 में सादुल्ला के नेतृत्व वाली मुस्लिम लीग सरकार ने भारी संख्या में बंगाली मुस्लिमों के असम में आप्रवासन को प्रोत्साहित किया। बीसवीं सदी के शुरुआती दशकों में हुए इस आप्रवासन से असम की जनसांख्यिकी में भारी बदलाव हुआ। 1911 में असम की आबादी में मुस्लिमों का हिस्सा 16 प्रतिशत था जो 1931 में 23 प्रतिशत और 1951 में 25 प्रतिशत हो गया। यहाँ ग़ौर करने वाली बात यह है कि यह आप्रवासन भारत के विभाजन के पहले ब्रिटिश राज में हुआ था। 1947 में भारत के विभाजन के समय भी बड़ी संख्या में बंगाली हिन्दुओं ने पूर्वी बंगाल से असम में पलायन किया। उसके बाद 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध और बांग्लादेश के जन्म के समय भी बड़े पैमाने पर असम में आप्रवासन हुआ। असम में बंगाली प्रवासियों के ख़िलाफ़ पूर्वाग्रह और विद्वेष की भावना पहले से ही थी, 1970 के दशक के अन्त तक आते-आते वहाँ ऑल आसाम स्टूडेण्ट्स यूनियन (आसू) जैसे क्षेत्रीय संगठनों के नेतृत्व में प्रवासियों को वोटिंग का अधिकार देने के विरुद्ध एक आन्दोलन उठ खड़ा होता है। असम आन्दोलन के नाम से जाने जाने वाले इस आन्दोलने ने प्रवासियों के प्रति नफ़रत को अभूतपूर्व स्तर तक बढ़ाने का काम किया जिसकी परिणति 1983 में नेल्ली के भीषण नरसंहार के रूप में होती है। 1983 में असम समझौता होता है जिसके तहत 1971 के बाद आये प्रवासियों की शिनाख़्त करके उनको देश से निकालने की बात कही गयी।

असम में अवैध आप्रवासन की वास्तविक स्थिति

असम की राजनीति में प्रवासी-विरोधी एजेण्डे को हवा देने के लिए आप्रवासियों की संख्या को बढ़ाचढ़ाकर पेश किया जाता रहा है। संघ परिवार ने इस एजेण्डे को साम्प्रदायिक रंग देते हुए पूरे देश में फैला दिया है। पिछले साल लोकसभा चुनाव के पहले अमित शाह ने एक चुनावी सभा को सम्बोधित करते हुए अवैध आप्रवासियों को घुसपैठिया क़रार देते हुए उनकी तुलना दीमक से की। एनआरसी की अन्तिम सूची प्रकाशित होने से पहले संघ परिवार यह दावा करता फिरता था कि असम में कम से कम 40 लाख घुसपैठिये हैं जिन्हें एक-एक करके खदेड़ा जायेगा। ग़ौरतलब है कि घुसपैठियों से उनका मतलब बंगाली मुस्लिमों से था क्योंकि बंगाली हिन्दुओं को वे घुसपैठिया नहीं बल्कि शरणार्थी समझते हैं। लेकिन एनआरसी की मनमानी और दोषपूर्ण प्रक्रिया के बावजूद अन्तिम सूची में 19 लाख लोगों का नाम नहीं आया जोकि 40 लाख के आधे से भी कम है। ग़ौरतलब है कि वास्तव में अवैध आप्रवासियों की संख्या 19 लाख से बहुत कम होगी जिनमें अधिकांश ऐसे लोग हैं जो कई पीढ़ियों से असम में रह रहे हैं। इन 19 लाख लोगों में भी 13 लाख से अधिक हिन्दू हैं। ज़ाहिर है कि संघ परिवार द्वारा घुसपैठियों की संख्या के बारे में फैलाये जा रहे झूठ को भाजपा सरकार द्वारा करायी गयी एनआरसी की प्रक्रिया ही बेनकाब कर देती है।

असम में क्षेत्रीय राष्ट्रवादी ताक़तें (जिनके प्रतिनिधि कांग्रेस, भाजपा और असम गण परिषद जैसी पार्टियों में मौजूद हैं) और यहाँ तक कि नृजातीय समूहों का प्रतिनिधित्व करने वाली ताक़तें भी सत्ता में बने रहने के लिए असम में आप्रवासियों की संख्या को बढ़ाचढ़ाकर प्रस्तुत करके उनका हौव्वा खड़ा करती आयी हैं। आज़ादी के बाद हुए पूँजीवादी विकास के तहत तमाम परियोजनाओं से बड़े पैमाने पर विस्थापित हुई आदिवासी आबादी भी अपनी तबाही के लिए आप्रवासियों को ज़िम्मेदार मानने लगी है जिसकी वजह से आप्रवासियों के जीवन का जोखिम बढ़ता जा रहा है।

सच तो यह है कि असम में रहने वाले अधिकांश आप्रवासी 1971 से पहले पलायन करके आये थे। जनगणना के आँकड़े और कई स्वतंत्र अध्ययन भी यह साबित करते हैं कि असम सहित पूरे देश में घुसपैठियों की बाढ़ आ जाने की बात पूरी तरह से अफ़वाह है। 2001 की जनगणना में भारत में रहने वाले किन्तु देश से बाहर पैदा हुए लोगों की संख्या 62 लाख थी जो 2011 में घटकर 53 लाख रह गयी, यानी आप्रवासन दर बढ़ी नहीं है बल्कि 0.6 से घटकर 0.4 प्रतिशत रह गयी है। ग़ौरतलब है कि अमेरिका और पश्चिम यूरोप के मुल्क़ों में आप्रवासन दर 10-15 प्रतिशत है। जनगणना के आँकड़े यह भी दिखाते हैं कि बांग्लादेश से भारत में पलायन करने वाले लोगों की संख्या भी बढ़ने की बजाय कम हो रही है। इसकी वजह यह है कि बांग्लादेश और नेपाल जैसे देशों से अब लोग भारत की बजाय खाड़ी के देशों और यूरोप के मुल्क़ों में जाना पसन्द कर रहे हैं।

क्या आप्रवासन की वजह से वाक़ई असमिया संस्कृति और भाषा ख़तरे में आ गयी है?

असम की क्षेत्रीय राष्ट्रवादी ताक़तों और नृजातीय समूहों के प्रतिनिधियों ने वहाँ के लोगों में यह भय पैदा कर दिया है कि असम में आप्रवासन की वजह से उनकी आजीविका के साथ ही साथ उनकी संस्कृति और भाषा पर संकट आ गया है। यह दावा भी ठोस यथार्थ से मेल नहीं खाता है। सच तो यह है कि असम में कई सदियों से हुए आप्रवासन की वजह से वहाँ उत्पादक शक्तियों के विकास में मदद मिली है और इस प्रक्रिया में वहाँ की संस्कृति और भाषा भी समृद्ध हुई है।

असम में बंगाली प्रवासियों ने ब्रह्मपुत्र के मैदानों में चार-चपोरी नामक ख़ाली पड़े क्षेत्रों की ज़मीन पर खेती करनी शुरू की और खेती की बेहतर तकनीक विकसित की, उन्होंने असम में बहुफ़सली खेती की व्यवस्था भी शुरू की तथा फ़सलों की विविधता बढ़ायी। आदिवासियों द्वारा अपनायी जा रही झूम खेती के बरक्स प्रवासियों ने व्यवस्थित खेती की शुरुआत की जिससे कृषि की उत्पादकता में भारी बढ़ोतरी हुई। यह प्रवासियों द्वारा की गयी मेहनत का ही नतीजा था कि 1947 तक असम में धान की बेशी पैदावार हो गयी।

असम में भाषा का मामला पेचीदा है। वहाँ असमिया और बंगाली के अलावा विभिन्न आदिवासी और नृजातीय समूहों की अपनी अलग-अलग भाषाएँ हैं। जैसाकि ऊपर उल्लेख किया जा चुका है, आज़ादी के पहले असम के मध्यवर्ग में बंगालियों के प्रभुत्व की वजह से वहाँ की आधिकारिक भाषा बंगाली थी। आज़ादी के बाद हुए आन्दोलनों के बाद असमिया को असम की आधिकारिक भाषा का दर्जा मिला, हालाँकि बराक घाटी में अभी भी आधिकारिक भाषा बंगाली ही है क्योंकि वहाँ बंगाली लोगों की बहुतायत है। ग़ौरतलब है कि 1960 के दशक में असमिया को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिलाने के लिए चले आन्दोलनों के चलते असम में प्रवासी बंगाली मुस्लिम तथा विभिन्न आदिवासी व नृजातीय समूह भी अपनी मातृभाषा असमिया बताने लगे, जबकि बंगाली हिन्दू उसके बाद भी अपनी मातृभाषा बताते रहे। कई प्रेक्षकों ने यह दिखाया है कि 1980 के दशक में प्रवासी विरोधी आन्दोलन के शुरू होने के पहले असम में प्रवासी बंगाली मुस्लिम अपने बच्चों को असमिया माध्यम के स्कूलों में भेजते थे जबकि ख़ुद अहोम लोग अपने बच्चों को अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलों में भेजते थे। ज़ाहिर है कि असम में बंगालियों का आप्रवासन अपने आप में असमिया भाषा के लिए ख़तरा नहीं पैदा कर रहा है। अगर हाल के वर्षों में असमिया भाषा बोलने वालों की संख्या में वृद्धि की रफ़्तार कम हुई है तो उसकी वजह यह है कि 1980 में प्रवासी विरोधी आन्दोलन के बाद प्रवासी बंगाली मुस्लिम अपनी मातृभाषा असमिया की बजाय बंगाली बताने लगे। इसी तरह असम के तमाम आदिवासी और नृजातीय समूहों ने भी 1990 के दशक के बाद हुए शासकीय और प्रशासकीय विकेन्द्रीयकरण के दौर में अपनी मातृभाषा असमिया बोलना छोड़ दिया है। अगर असमिया संस्कृति और भाषा को वास्तव में किसी चीज़ से ख़तरा है तो वह पूँजीवादी विकास से पैदा हुई तबाही और सामाजिक बिखराव से ख़तरा है।

आप्रवासन के प्रति मज़दूर वर्गीय नज़रिया

असम में जिन प्रवासियों को विदेशी और घुसपैठिया कहकर प्रताड़ित करते हुए फ़ॉरेनर्स ट्रिब्यूनल के सामने पेश होने पर मजबूर किया जा रहा है वे बेहद ग़रीब और मेहनतकश लोग हैं। ऐसे में मज़दूर वर्ग से सरोकार रखने वाले किसी भी शख़्स की सहज सहानुभूति इन मेहनतकशों के प्रति होगी। सर्वहारा वर्ग के महान शिक्षकों ने आप्रवासन की प्रगतिशील भूमिका को बार-बार रेखांकित किया है क्योंकि यह मज़दूरों के बीच स्थानीय संकीर्णताओं, राष्ट्रीय अवरोधों और पूर्वाग्रहों को तोड़कर सच्चे मायने में अन्तरराष्ट्रीयतावादी स्पिरिट पैदा करने में मदद करता है और इस प्रकार विश्व स्तर पर मज़दूर वर्ग की एकता को सुनिश्चित करता है। लेनिन ने आप्रवासन को पूँजीवाद के असमान विकास का नतीजा बताया था और कहा था कि ग़रीबी ही वह वजह है जो लोगों को अपनी मातृभूमि छोड़ने पर मजबूर करती है।

ऊपर हम दिखला चुके हैं कि असम में प्रवासी लोगों की वजह से वहाँ की अर्थव्यवस्था और संस्कृति कमज़ोर नहीं हुई बल्कि सुदृढ़ और समृद्ध हुई है। ऐसे में हमें असम के क्षेत्रीय राष्ट्रवादियों और भारत के बुर्जुआ वर्ग द्वारा अप्रवासियों के ख़िलाफ़ की जाने वाली किसी भी कार्रवाई का पुरज़ोर विरोध करना चाहिए। असम की आम आबादी को यह समझाने की ज़रूरत है कि उनकी आजीविका और संस्कृति को ख़तरा अप्रवासियों से नहीं बल्कि पूँजीवाद से है। इसलिए उन्हें शासक वर्गों के झाँसे में आने से बचना चाहिए और अप्रवासियों के ख़िलाफ़ खड़ा होने की बजाय उनके साथ खड़ा होकर पूँजीवाद को उखाड़ फेंकने के संघर्ष में शामिल होना चाहिए। फ़िलहाल असम में जो लोग प्रवासी-विरोध की ज़मीन से सीएए का विरोध कर रहे हैं उन्हें यह बताने की ज़रूरत है कि नफ़रत की इस ज़मीन से विरोध का रास्ता हिंसा और नरसंहार की ओर ही जायेगा। सीएए का विरोध बेशक किया जाना चाहिए, लेकिन सेक्युलरिज़्म और जनवाद की ज़मीन पर खड़े होकर, जिसका मतलब होगा सीएए के साथ ही एनआरसी और एनपीआर का भी विरोध जो अभी असम में नहीं हो रहा है।

नोट : असम में एक प्रगतिशील धारा भी मौजूद है जो देश के बाक़ी हिस्सों की ही तरह सीएए का विरोध इसके साम्‍प्रदायिक स्‍वरूप की वजह से कर रही है और और इसे फ़ासीवादी हमले के तौर पर देख रही है। इस धारा से जुड़े लोग सीएए के साथ ही साथ एनआरसी का विरोध भी कर रहे हैं। लेकिन यह धारा उतनी मुखर नहीं है जितना कि प्रतिक्रियावादी धारा है। उपरोक्त लेख प्रतिक्रियावादी धारा पर केन्द्रित है क्योंकि फ़िलवक़्त वही प्रभावी है।

मज़दूर बिगुल, मार्च 2020


 

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