जन सत्याग्रह पदयात्रा : जाति-धर्म पर बँटने के बजाय अवाम के बुनियादी मुद्दों पर एकजुट संघर्ष का पैग़ाम लेकर राजधानी में 300 किलोमीटर की यात्रा

दिल्ली में विभिन्न जनसंगठनों ने मिलकर 16 फरवरी से जन सत्याग्रह पदयात्रा शुरू की थी जिसका पहला चरण 4 मार्च को जन्तर-मन्तर पर एक जनसभा के रूप में समाप्त हुआ। यह यात्रा नरेला के भगतसिंह चौक से शुरू होकर शाहबाद डेरी, रोहिणी, भलस्वा डेरी, बुराड़ी, वज़ीराबाद, करावलनगर, खजूरी, मुस्तफाबाद, सीलमपुर, ओखला, जामिया, शाहीन बाग, हौज़रानी, कसाबपुरा होते हुए जन्तर-मन्तर तक पहुँची। पूरी यात्रा में पदयात्रियों ने करीब 300 किलोमीटर का सफर पैदल तय किया, 250 से अधिक जनसभाएँ कीं, और लाखों पर्चे बाँटते हुए जनता तक अपनी बात पहुँचायी। लोगों पर लादे जा रहे सीएए-एनआरसी-एनपीआर जैसे काले क़ानूनों की असलियत बताते हुए उनका जीवन से जुड़े असल मुद्दों पर संघर्ष के लिए उठ खड़े होने के लिए आह्वान किया गया। दिल्ली के लाखों लोगों को पदयात्रियों ने बताया कि आपस में बँटने के बजाय एकजुटता कायम करके हमें सरकार की जनविरोधी-विभाजनकारी नीतियों का विरोध करना चाहिए और मुक्का ठोककर अपने रोज़गार-शिक्षा-चिकित्सा-आवास जैसे हक़ों को उठाना चाहिए। जनता की तरफ से यात्रा को बेहद उत्साहजनक प्रतिक्रिया मिली। आम लोग झगड़े-दंगे नहीं चाहते बल्कि अमन-चैन और जीवन में खुशहाली चाहते हैं।

जन्तर-मन्तर पर हुई सभा को प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार, प्रख्यात कवि मंगलेश डबराल और गौहर रज़ा, जितेन्द्र मीणा, अभिनव सिन्‍हा, शिवानी कौल, इत्यादि वक्ताओं ने सम्बोधित किया था। तभी यह घोषणा की गयी थी कि यह महज़ पहले चरण की समाप्ति है और अगले चरण में जन सत्याग्रह पदयात्रा घर-घर जायेगी और सभी नागरिकों को, चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमान, सिख हों या ईसाई, बतायेगी और सप्रमाण समझायेगी कि एनपीआर-एनआरसी केवल मुसलमानों के लिए नहीं बल्कि हर धर्म की ग़रीबों, मेहनतकशों और मध्यवर्ग के लिए खतरनाक है। असम में एनआरसी का उदाहरण साफ तौर पर इस बात को साबित करता है। इसके साथ ही गली-गली में एनपीआर-बहिष्कार समितियां बनाई जाएंगी और इसके साथ हमारे नागरिक अवज्ञा आन्दोलन को आगे बढ़ाया जायेगा।

इस यात्रा के दौरान ही दिल्ली में सुनियोजित दंगे और साम्प्रदायिक हिंसा भड़क उठी। फ़िलहाल तक भी राजधानी दिल्ली में जन-जीवन सामान्य नहीं हो पाया है। उत्तर-पूर्वी दिल्ली के इलाकों में 24 फ़रवरी से सत्ता की शह पर प्रायोजित दंगे और साम्प्रदायिक हिंसा में अभी तक की जानकारी के अनुसार 47 लोगों की जान जा चुकी है। इसके अलावा सैकड़ों लोग इन दंगों में घायल हुए हैं। करोड़ों की सम्पत्ति का नुकसान हुआ है। मरने वालों, घायल होने वालों और नुकसान झेलने वालों में हिन्दू-मुस्लिम दोनों समुदायों के लोग हैं।

दंगों की आग में हज़ारों लोग अपने काम-धन्धों, रोज़ी-रोज़गार और घर-बार से हाथ धो बैठे हैं। इसकी ज़िम्मेदारी कौन लेगा? हिन्दू हों या मुस्लिम हर जगह आम आबादी अभी तक भी भय और असुरक्षा के साये में है। दंगों में मरने वाले राहुल सोलंकी के पिता सीधे तौर पर कहते हैं कि भाजपा नेता कपिल मिश्रा दंगा भड़काकर चलता बना और उनका 26 साल का बेटा मारा गया। बात भी सही है। क्या कभी ऐसे दंगों में कपिल मिश्रा, वारिस पठान जैसे नफ़रत से अपनी राजनीति चमकाने वाले नेताओं का कुछ बिगड़ा है? नहीं, नुकसान होता है तो हम-आप का, गरीब लोगों का। दशकों से एक-दूसरे के साथ रहते आये लोग साम्प्रदायिक नफ़रत फैलाकर एक-दूसरे के दुश्मन बना दिये गये हैं। हमें अपने महान शहीदों भगतसिंह, अशफाक़ उल्ला ख़ाँ, रामप्रसाद बिस्मिल और चन्द्रशेखर आज़ाद के जन एकजुटता और भाईचारे के सन्देश को एक पल के लिए भी भूलना नहीं चाहिए। भारत में दंगों की शुरुआत तभी हो गयी थी जब हमारा देश अंग्रेजों का गुलाम था। अंग्रेजों ने लोगों को ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के तहत बाँटा और अपना राज-काज चलाया। आज के तमाम सत्ताधारी भी यही कर रहे हैं। हमें समझ लेना चाहिए कि तमाम जाति-मज़हब के मेहनतकशों की एकजुटता ही दंगों की राजनीति को नाकाम कर सकती है।

देश में आज जनता की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने में सरकार नाकाम साबित हो रही है। अर्थव्यवस्था मन्दी का शिकार है। देश की जनता भयंकर बेरोज़गारी, महँगाई की मार झेल रही है। जनता के जीवन से जुड़े असल सवालों से ध्यान भटकाने के लिए मोदी सरकार ने सीएए यानी नागरिकता संशोधन क़ानून पारित कर दिया है। यह विभाजनकारी क़ानून नागरिकता को धर्म के साथ जोड़ता है, जोकि संविधान के अनुच्छेद 14 के ख़िलाफ़ है। मोदी सरकार एनआरसी यानी राष्ट्रिय नागरिकता रजिस्टर लाने की तैयारी भी कर चुकी है जिसकी पहली मंजिल एनपीआर यानी राष्ट्रिय जनसँख्या रजिस्टर है, जिसकी प्रक्रिया 1 अप्रैल से चालू होने वाली है। आज के समय जब सरकार को अर्थव्यवस्था पर ध्यान देना चाहिए, जब उसे बेलगाम महँगाई और बढ़ती बेरोज़गारी पर नियन्त्रण करना चाहिए तब वह लोगों के जीवन में नयी असुरक्षा पैदा करने की तैयारी कर रही है। मोदी सरकार नोटबन्दी से भी बड़ी त्रासदी में देश की जनता को धकेलने की योजना बना चुकी है। हमारा यह स्पष्ट मानना है कि सीएए बेहद गैरजनवादी और विभाजनकारी क़ानून है जिसने खासतौर पर अल्पसंख्यक मुस्लिम आबादी के बीच असुरक्षाबोध को बढ़ा दिया है। दूसरी ओर एनआरसी, एनपीआर की पूरी प्रक्रिया भी बेहद ख़र्चीली और जनता को डिटेंशन कैम्पों/नज़रबन्दी गृहों में धकेलने वाली है। असम का उदाहरण हमारे सामने है जब हज़ारों करोड़ सरकारी रुपया खर्चा हुआ, लाखों करोड़ जनता के रुपये खर्च हुए और 19 लाख से भी ज़्यादा आबादी के भविष्य के सामने प्रश्न चिन्ह लग गया। सरकार के पास ऐसे तमाम उपकरण हैं जिनसे आबादी और नागरिकों का लेखा-जोखा रखा जा सकता है और रखा जाता रहा है। इसीलिए हम कहते हैं हमें एनआरसी यानी नागरिकों का रजिस्टर नहीं बल्कि देश के तमाम बेरोज़गारों का रजिस्टर चाहिए। हमें सीएए यानी नागरिकता संशोधन क़ानून नहीं बल्कि रोज़गार गारण्टी क़ानून चाहिए। जीवन में बर्बादी लाने के लिए नहीं बल्कि जीवन स्थितियों में बेहतरी लाने के लिए ही हम सरकार चुनते हैं और अपना पेट काटकर टैक्स देकर सरकारी खजाना भरते हैं।

यह दूसरा चरण अब शुरू हो चुका है। जन सत्याग्रह पदयात्रा टोलियां गली-गली, मुहल्‍ले-मुहल्‍ले जाकर यह कार्रवाई आरम्भ कर चुकी है।

मज़दूर बिगुल, मार्च 2020


 

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