आरएसएस और भाजपा के निर्माणाधीन “हिन्दू राष्ट्र” में मज़दूरों की क्या जगह है?

– सम्पादकीय

अयोध्या में राम मन्दिर के भूमि पूजन के साथ शायद बहुत से मज़दूर भाई-बहन भी कुछ ख़ुश हुए होंगे। हो सकता है कि उनमें से भी कुछ को लगा हो कि अब रामराज्य की स्थापना हो रही है, अब “हिन्दू राष्ट्र” बन रहा है, अब शायद उन्हें तंगहाली, बेरोज़गारी और भूख-कुपोषण से मुक्ति मिल जायेगी। ऐसे में, हम आज के दौर की कुछ ठोस सच्चाइयों को आपके सामने रखना चाहते हैं और आपके मन में कुछ सवाल खड़े करना चाहते हैं।

भाजपा, संघ परिवार और मोदी-शाह सरकार “हिन्दू राष्ट्र” बनाने की कोशिश कर रहे हैं, उसमें मज़दूरों की स्थिति क्या है? ख़ास तौर पर, हिन्दू मज़दूरों की स्थिति क्या है? आइए, एक निगाह कुछ ज़मीनी सच्चाइयों पर डालते हैं।

पिछले 6 साल से “हिन्दू हृदय सम्राट” मोदी की भाजपा सरकार द्वारा निर्माणाधीन “हिन्दू राष्ट्र” में क़रीब 12 करोड़ रोज़गार छिन चुके हैं। बेरोज़गारी आज़ादी के बाद से अपने चरम पर है। बताने की ज़रूरत नहीं है कि इनमें से अधिकांश रोज़गार मज़दूरों व निम्न मध्यवर्गीय मेहनतकश जमातों के थे। अर्थव्यवस्था का संकट 2011 से ही भारत को झकझोर रहा था। 2018 से अर्थव्यवस्था का सिकुड़ना लगातार जारी था। मोदी सरकार आज अपनी नाकामयाबी का ठीकरा कोरोना संकट पर फोड़ना चाहती है, लेकिन सच यह है कि कोरोना संकट शुरू होने से पहले से ही नोटबन्दी के कारण चार करोड़ नौकरियाँ जा चुकी थीं। कोरोना महामारी पर सही समय पर सही क़दम न उठा पाने के कारण मोदी सरकार ने आनन-फ़ानन में बिना किसी तैयारी या योजना के जो लॉकडाउन किया, उसने करोड़ों नौकरियाँ और छीन लीं। इसके साथ देश में बेरोज़गारों की आबादी 30 करोड़ से ऊपर जा चुकी है। क्या आपको पता है कि इनमें से 85 फ़ीसदी से ज़्यादा हिन्दू हैं? इनकी स्थिति अभी क्या है? ये मज़दूर भुखमरी और कुपोषण झेल रहे हैं। कभी गाँव, तो कभी एक शहर से दूसरे शहर नौकरी की तलाश में भाग रहे हैं। कोरोना से मौत का ख़तरा उठा रहे हैं, क्योंकि दूसरी ओर भूख से मौत मुँह बाए खड़ी है। इस समय में भी, मोदी सरकार इन मज़दूरों को रेलवे किराये, बस किराये, हवाई जहाज़ किराये आदि से लूटने में लगी हुई है। यह है इन करोड़ों बेरोज़गार हिन्दू मज़दूरों की “हिन्दू राष्ट्र” में स्थिति।

मोदी के शासनकाल में ही देश की जनता के औसत उपभोग ख़र्च में 27 प्रतिशत की कमी आयी है। याद रखें, इसमें पूँजीपति वर्ग का उपभोग भी शामिल है जो कि अश्लीलता, नंगई और बेशर्मी के साथ इस दौर में भी बढ़ा है! यानी आम मेहनतकश जनता के उपभोग ख़र्च में 27 प्रतिशत से कहीं ज़्यादा कमी आयी है। कुछ आकलनों के अनुसार यह कमी 30 से 40 प्रतिशत के क़रीब हो सकती है। यानी आज से छह साल पहले देश का आम मेहनतकश जितना खा-पहन पा रहा था, अपने बच्चों को जैसा भोजन आदि मुहैया करा पा रहा था आज उसका दो-तिहाई ही दे पा रहा है। इतने से ही देश में आम मेहनतकश आबादी में बढ़ते कुपोषण, भुखमरी और आत्महत्या की हालत को भी समझा जा सकता है।

याद रहे कि ये हालात झेल रहे मज़दूरों का क़रीब 85 फ़ीसदी हिन्दू मज़दूर ही हैं। यानी कि इस “रामराज्य” और “हिन्दू राष्ट्र” में मज़दूरों-मेहनतकशों को पेट पर पट्टी बाँधकर राम भजन करना है या कटोरा पकड़कर अयोध्या में भावी राम मन्दिर के बाहर बैठना है! इस तथाकथित “हिन्दू राष्ट्र” के असली मालिक अम्बानी, अडानी और दूसरे पूँजीपति हैं जिनकी दौलत बढ़ाने के लिए मज़दूरों की हड्ड‍ियाँ तक निचोड़ डालने की छूट दी जा रही है। कोरोना संकट के दौर में जब आम मेहनतकश जनता के रोटियों के लाले पड़े हुए हैं तब अम्बानी की सम्पत्ति हज़ारों करोड़ बढ़ गयी और वह दुनिया का पाँचवा सबसे अमीर लुटेरा बन गया है।

देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 2020 के वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही, यानी अप्रैल-जून में 23.9 फ़ीसदी की गिरावट आयी। यानी 2019 के वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही के मुक़ाबले 2020 के वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद में 23.9 प्रतिशत की कमी आयी। लेकिन अगर इससे ठीक पहले की तिमाही से तुलना करें तो सकल घरेलू उत्पाद 29.5 प्रतिशत कम हो गया। सकल घरेलू उत्पाद में कमी का हम मज़दूरों के लिए क्या मतलब है?

सकल घरेलू उत्पाद का मतलब होता है, किसी निश्चित समय में किसी देश में सभी वस्तुओं और सेवाओं का कुल मूल्य जिसे कि मुद्रा में मापा जाता है, यानी हमारे यहाँ रुपये में। पिछले वर्ष की पहली तिमाही (अप्रैल-जून) में मुद्रा के मूल्य के आधार पर इस वर्ष की पहली तिमाही के सकल घरेलू उत्पाद को मापा जाये तो सही आँकड़ा पता चलता है, जिसके अनुसार, हमारे देश में अप्रैल से जून 2020 की तिमाही में जीडीपी 23.9 प्रतिशत कम हो गया। यानी वस्तुओं व सेवाओं के उत्पादन में 23.9 प्रतिशत की कमी हो गयी। याद रहे, कुल सेवाओं में वित्तीय व बैंकिंग सेवाएँ भी शामिल हैं, जोकि इस पूरे संकट के दौरान बढ़ी हैं क्योंकि उत्पादन में लाभप्रद निवेश न हो पाने पर पूँजीपति वर्ग अपनी पूँजी के बढ़े हिस्से को सट्टेबाज़ी और वित्तीय हेरफेर में लगाता है। आम तौर पर, जब भी बैंकिंग, स्टॉक मार्केट में अधिक उछाल दिखता है, तो अक्सर इसका मतलब यह होता है कि वास्तविक उत्पादक अर्थव्यवस्था संकट में है। अगर हम बैंकिंग व वित्तीय क्षेत्र की सेवाओं को निकाल दें, तो जीडीपी में कहीं ज़्यादा भयंकर गिरावट आयी है। आइए, कुछ सेक्टरों पर निगाह डालते हैं।

निर्माण उद्योग में 50 प्रतिशत की गिरावट आयी है। मैन्युफै़क्चरिंग यानी मोटे तौर पर औद्योगिक उत्पादन में 39 प्रतिशत की गिरावट आयी है। खनन उद्योग में 40 प्रतिशत, टेक्सटाइल में 30 प्रतिशत और ऑटोमोबाइल उद्योग में 19 प्रतिशत की गिरावट आयी है। नतीजतन, कुल निवेश में 47 प्रतिशत की कमी आयी है। मज़दूरों के लिए इसका मतलब क्या है? मज़दूरों के लिए इसका सीधा मतलब है कि उन पर बड़े पैमाने पर छँटनी, तालाबन्दी की मार पड़ी है। यही वजह है कि पूरे देश के सभी उपक्रमों में दी जाने वाली कुल मज़दूरी यानी ‘वेज बिल’ में क़रीब 10 प्रतिशत की कमी आयी है। इस औसत से पूरी तस्वीर सामने नहीं आती है क्योंकि वित्तीय व बैंकिंग क्षेत्र का वेज बिल भी इसमें शामिल है, जो ऐसा परजीवी सेक्टर है, जो कि संकट के दौर में भी फल-फूल सकता है। लेकिन जब हम कुछ मुख्य उत्पादक सेक्टरों पर नज़र डालते हैं तो स्थिति साफ़ हो जाती है।

कपड़ा उद्योग में मज़दूरी पर होने वाला ख़र्च 29 प्रतिशत कम हो गया, चमड़ा उद्योग में 22 प्रतिशत, ऑटोमोबाइल उद्योग में 19 प्रतिशत, पर्यटन उद्योग में 30 प्रतिशत, होटल उद्योग में 21 प्रतिशत की कमी आयी है। यह भयंकर कमी है और इसका नतीजा हमें करोड़ों नौकरियों के जाने के रूप में देखने को मिला है। न केवल 12 करोड़ आम मेहनतकश लोग अपनी रोज़ी-रोटी से हाथ धो बैठे बल्कि जो आबादी नौकरी खोने की त्रासदी से बच गयी, उसे अब पहले से भी कम मज़दूरी पर 12-12 घण्टे काम करना पड़ रहा है। यानी मज़दूरों के शोषण की दर में निरपेक्ष रूप से बढ़ोत्तरी की गयी है: काम के घण्टों को बढ़ाकर और मज़दूरी को घटाकर। अपनी ही मुनाफ़े की हवस से पैदा किये गये हर संकट की क़ीमत इसी प्रकार पूँजीपति वर्ग मज़दूर वर्ग से वसूलता है। आपको क्या लगता है कि ग़ुलामों की तरह खटाये जा रहे इन मज़दूरों की बहुसंख्या कौन है? इस आबादी का भी 85 फ़ीसदी हिन्दू मज़दूर ही हैं।

जब देश के मज़दूरों से पूँजीपति वर्ग अपने द्वारा ही पैदा किये गये संकट की क़ीमत वसूल कर रहा है और उन्हें लूट और दमन की चक्की में पीस रहा है, उसी समय बड़े इजारेदार पूँजीपति वर्ग की नुमाइन्दगी करने वाली साम्प्रदायिक फ़ासीवादी मोदी-शाह सरकार ने देश के पूँजीपतियों, विशेष तौर पर, अम्बानी, अडानी, टाटा आदि को टैक्सों में छूट के रूप में 1.45 लाख करोड़ रुपये की सौग़ात दे दी! यह धन कहाँ से आया था? इस देश के मज़दूरों, मेहनतकशों, निम्न मध्यवर्ग की गाढ़ी कमाई से जो कि अप्रत्यक्ष कर के रूप में देश के सरकारी ख़ज़ाने की तिजोरियाँ भरते हैं। अप्रत्यक्ष कर देने वाले ये करोड़ों लोग कौन हैं? ये मज़दूर और आम मेहनतकश हैं। इनमें हिन्दू आबादी कितनी है? 80 फ़ीसदी से ज़्यादा! तो ये 1.45 लाख करोड़ रुपये किससे लूटकर किसे दिये गये? ये समूचे मज़दूरों-मेहनतकशों से लूट कर पूँजीपति वर्ग को दिये गये, चाहे ये मज़दूर-मेहनतकश हिन्दू हों या मुसलमान। यह है “हिन्दू राष्ट्र” में मज़दूरों की स्थिति।

इस संकट और भुखमरी के दौर में बैंक व वित्तीय क्षेत्र के वेज बिल में 17 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है और वित्तीय दलालों की दलाली (ब्रोकरेज) में 13 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। यानी, जिस समय हम मज़दूर भुखमरी, कुपोषण, शोषण और मौत से जूझ रहे हैं, हमारे देश के वित्तीय पूँजीपति वर्ग और दलाल और अतिधनाढ्य धनपशु वर्ग हमारी क़ीमत पर रंगरलियाँ मनाने में लगा हुआ है। निश्चित तौर पर, औद्योगिक व उत्पादक क्षेत्र का मालिक वर्ग संकट के दौर में घाटा झेल रहा है। लेकिन इनमें जो बड़ा पूँजीपति वर्ग है, वह कुछ समय तक घाटा झेलता रह सकता है क्योंकि उसके पास भारी पूँजी संचय है और क्योंकि वह इस घाटे का भी अच्छा-ख़ासा बोझ हम मज़दूरों के कन्धों पर डाल देता है। छोटे और मँझोले पूँजीपति वर्ग का एक हिस्सा तबाह भी होगा, जैसा कि हमेशा ही पूँजीवादी व्यवस्था में होता है। लेकिन इसकी तुलना मज़दूरों और आम मेहनतकश आबादी की तबाही और बर्बादी से नहीं की जा सकती है।

इसी दौर में ‘आपदा को अवसर’ में बदलते हुए मोदी सरकार ने निजीकरण की जो आँधी चलायी है, उसकी तो देश के इतिहास में कोई मिसाल ही नहीं है। कांग्रेस की सरकार ने निजीकरण-उदारीकरण की शुरुआत की थी। लेकिन इजारेदार पूँजीपति वर्ग के सबसे प्रतिक्रियावादी हिस्से की नुमाइन्दगी करने वाली मोदी सरकार ने तो इस मामले में कांग्रेस व अन्य पूँजीवादी पार्टियों को दौड़ में इतना पीछे छोड़ दिया है, कि वे नज़र भी नहीं आ रही हैं! एयरपोर्ट, रेलवे, रेलवे स्टेशन, बीएसएनएल व मुनाफ़ा कमाने वाले अन्य सरकारी उपक्रम सभी औने-पौने दामों पर अम्बानी, अडानी को सौंपे जा रहे हैं। क्यों? क्योंकि ये इजारेदार पूँजीपति मुनाफ़ा देने वाले निवेश के लिए नये क्षेत्रों को खुलवाना चाहते हैं, यानी सार्वजनिक क्षेत्र की तमाम कम्पनियों का निजीकरण करवाना चाहते हैं, ताकि मुनाफ़े की गिरती दर के संकट से उन्हें कुछ फ़ौरी निजात मिल सके। दूसरा कारण यह है कि कुछ सरकारी उपक्रम बाज़ार में इन निजी इजारेदार पूँजीपतियों के साथ प्रतिस्पर्द्धा करते हैं, जिसे ये पूँजीपति पूरी तरह समाप्त कर देना चाहते हैं। मिसाल के तौर पर, बीएसएनएल का निजीकरण या उसको बन्द करवा देना अम्बानी की जियो कम्पनी के लिए ज़रूरी है। निश्चित तौर पर, ये पूँजीपति आपस में भी एक-दूसरे को ख़त्म करने या निगल जाने का प्रयास करते रहते हैं, और यह स्वाभाविक है क्योंकि पूँजीपति वर्ग का आपसी “भाईचारा” बाज़ार में होने वाली गलाकाटू प्रतिस्पर्द्धा से ही पैदा होता है! लेकिन मज़दूर वर्ग के ख़िलाफ़ ये सभी एकजुट होते हैं और अपनी आपसी प्रतियोगिता को हमेशा भूलने को तैयार रहते हैं।

मोदी सरकार द्वारा चलायी गयी निजीकरण की आँधी का सीधा मतलब होगा, रेलवे, एयरपोर्ट प्राधिकार, रेलवे स्टेशनों, बीएसएनएल, अन्य सरकारी उपक्रमों में बड़े पैमाने पर छँटनी। यानी आने वाले समय में बेरोज़गारी और भी ज़्यादा तेज़ी से बढ़ेगी। यह तब तक बढ़ती रहेगी जब तक मुनाफ़े की दर के संकट से विश्व पूँजीवाद और हमारे देश के पूँजीवाद को निजात नहीं मिलती और निवेश की दर में अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी नहीं होती है। इस संकट से निजात मिलने के अभी कई वर्षों तक कोई आसार नज़र नहीं आ रहे हैं। यानी, यह तय है कि बेरोज़गारी का और भी भयंकर कहर हमारे ऊपर बरपा होने वाला है।

अब जबकि देश में बेरोज़गारी, महँगाई, ग़रीबी, कुपोषण, भुखमरी के हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं, तो निश्चित तौर पर देश में ग़ुस्सा और असन्तोष भी बढ़ रहा है। यही वजह है कि मोदी-शाह सरकार जनता के दमन के औज़ारों को चाक-चौबन्द करने में लगी हुई है। इसके लिए इसने बिना किसी तैयारी व योजना के लागू किये गये अपने लॉकडाउन का भी पूरा इस्तेमाल किया है। ज़ाहिर है, ऐसी किसी भी आकस्मिक स्थिति, जैसे कि किसी महामारी का पैदा होना, का सबसे कुशल इस्तेमाल वही वर्ग करता है जो कि राजनीतिक तौर पर सबसे ज़्यादा संगठित होता है। बताने की ज़रूरत नहीं कि आज मज़दूर वर्ग बिखरा हुआ और राजनीतिक तौर पर असंगठित है, जबकि पूँजीपति वर्ग राजनीतिक तौर पर कहीं ज़्यादा संगठित है। तो ज़ाहिरा तौर पर किसी भी आकस्मिक स्थिति के पैदा होने पर यही वर्ग ‘आपदा को अवसर में बदलने’ के लिए सबसे अच्छी स्थिति में होता है और आज भी है। इस पर ताज्जुब करना या इसे कोई अजूबा बताना बचकानापन है कि मोदी सरकार ने लॉकडाउन का इस्तेमाल जनता के जनवादी व नागरिक अधिकारों को कुचलने के लिए किया है।

एक तरफ़ नागरिकता संशोधन क़ानून (सी.ए.ए.) और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एन.आर.सी.) की प्रक्रिया को लॉकडाउन पूर्ण रूप से समाप्त होने के बाद फिर से शुरू करने का ऐलान मोदी सरकार कर चुकी है, तो दूसरी ओर आतंकवाद निरोधक क़ानून, राजद्रोह के क़ानून आदि का दुरुपयोग करके वह उन राजनीतिक कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों, छात्रों-युवाओं और मज़दूर क्रान्तिकारियों को प्रताड़ित कर रही है, उन पर झूठे मुक़दमे डाल रही है, उन्हें जेलों में डाल रही है, जो कि सीएए-एनआरसी, निजीकरण, शिक्षा के अधिकार, रोज़गार के अधिकार आदि को लेकर उस पर सवाल उठा रहे हैं।

इसके लिए बहाना क्या पेश किया जा रहा है? संघ परिवार द्वारा प्रचार यह किया जा रहा है कि ये सारे लोग मुसलमान-परस्त हैं, पाकिस्तान-परस्त हैं, चीन-परस्त हैं, आदि! यहाँ तक कि हम मज़दूर भी अगर अपने हक़ों को लेकर आवाज़ उठाते हैं, तो हमें इस “हिन्दू राष्ट्र” का ग़द्दार करार दिया जाता है! लेकिन जिन ट्रेड यूनियन कार्यकर्ताओं, राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों, वकीलों, पत्रकारों को मोदी सरकार प्रताड़ित कर रही है, उनमें भी मुसलमान से ज़्यादा हिन्दू ही हैं। व्यापक पैमाने पर ग़रीब मुसलमान नौजवानों को मोदी सरकार झूठे आरोपों के आधार पर जेलों में भर रही है, यह सच है। क्योंकि उन्हें बाक़ी हिन्दू मेहनतकश आबादी को गुमराह करने के लिए यह साबित करना है कि ये मुसलमान नौजवान राष्ट्रद्रोही हैं, आतंकवादी हैं, पाकिस्तान-परस्त हैं! क्यों? सिर्फ़ इसलिए क्योंकि वे मोदी और शाह का विरोध कर रहे हैं, क्योंकि वे भारत के नागरिक के तौर पर अपने क़ानूनी हक़ों की हिफ़ाज़त कर रहे हैं, क्योंकि वे समूचे देश की जनता के हक़ों के लिए भी आवाज़ उठा रहे हैं। साथ ही, अनेक राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं पर भी यही आरोप लगाये जा रहे हैं। इनमें से अधिकांश मुसलमान नहीं हैं। यानी कि इस निर्माणाधीन “हिन्दू राष्ट्र” में राष्ट्रद्रोह की परिभाषा यह हो गयी है कि जो मोदी-शाह सरकार का, इजारेदार पूँजीपति वर्ग यानी अम्बानी, अडानी, टाटा, बिड़ला आदि का विरोध करेगा वह इस “रामराज्य” का ग़द्दार है, वह इस “हिन्दू राष्ट्र” का द्रोही है, चाहे वह हिन्दू हो, मुसलमान हो, सिख हो, ईसाई हो या कोई और!

हर प्रकार के विरोध को राष्ट्रद्रोह करार दिया जा रहा है। चाहे वे कारख़ानों में संघर्षरत मज़दूर हों, बेरोज़गारी के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वाले मज़दूर, छात्र और युवा हों, या निजीकरण के विरोध में लड़ रहे सरकारी कर्मचारी हों। विशेष तौर पर, इन सभी संघर्षों और आन्दोलनों के नेताओं की पहचान कर उन पर फ़र्ज़ी मुक़दमे डाले जा रहे हैं, उन्हें जेलों में डाला जा रहा है, हिरासत में प्रताड़ित किया जा रहा है। उन्हें “अनुशासित” किया जा रहा है ताकि वे भविष्य में मोदी-शाह सरकार, संघ परिवार और उनके आकाओं, यानी बड़े इजारेदार पूँजीपति वर्ग के विरुद्ध कुछ बोलने की जुर्रत न करें। ऐसे सभी लोगों को, जिनमें बहुसंख्या हिन्दुओं की है, पाकिस्तानपरस्त, ग़द्दार, देशद्रोही, राष्ट्रद्रोही, मीरजाफ़र आदि की संज्ञाएँ दी जा रही हैं!

इस फ़ासिस्ट दमनचक्र को कामयाब बनाने के लिए देश में बढ़ती बदहाली और तबाही के लिए एक नक़ली शत्रु को ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है, यानी जो वास्तव में शत्रु है ही नहीं। देश के हिन्दू मज़दूरों और मेहनतकशों को बताया जा रहा है कि उनकी ज़िन्दगी की परेशानियों के लिए मुसलमान ज़िम्मेदार हैं, सवर्ण हिन्दू मज़दूरों, मेहनतकशों और युवाओं को बताया जा रहा है कि दलित ज़िम्मेदार हैं, हर राज्य के मज़दूरों, मेहनतकशों और छात्रों-युवाओं को बताया जा रहा है कि प्रवासी मज़दूर ज़िम्मेदार हैं, इत्यादि। इसी दौर में, तमाम राज्यों में प्रतिक्रियावादी क्षेत्रीय पूँजीपति वर्ग राष्ट्रवाद, भाषाई कट्टरपन्थ, प्रवासी-विरोध की आँधी चलाने में लगा हुआ है। ऐसी बातें की जा रही हैं कि तमिल नौकरियाँ तमिलों के लिए, महाराष्ट्र की नौकरियाँ मराठों के लिए, पंजाब की नौकरियाँ पंजाबियों के लिए, इत्यादि। और विडम्बना यह है कि इन राज्यों के कुछ तथाकथित “मार्क्सवादी” भी राष्ट्रवाद और कट्टरता की इस लहर में बह रहे हैं।

एक काल्पनिक या नक़ली दुश्मन पैदा करके संघ परिवार और मोदी-शाह सरकार मेहनतकश जनता को टुकड़ों-टुकड़ों में बाँट देना चाहते हैं ताकि हम कोई संगठित प्रतिरोध न कर सकें। वे इजारेदार पूँजीपति वर्ग और समूची पूँजीवादी व्यवस्था के अपराधों के लिए मुसलमानों, दलितों, प्रवासियों आदि को दोषी ठहराते हैं, ताकि असली दोषी को बचाया जा सके। यह असली दोषी है मुनाफ़ा-केन्द्रित और मानवद्रोही पूँजीवादी व्यवस्था जो आज पूरी दुनिया को लूट, शोषण, दमन, तबाही, बर्बादी, बेरोज़गारी, पर्यावरणीय विनाश, दंगों, और युद्धों के अलावा कुछ नहीं दे सकती है। यह इसलिए किया जाता है कि “हिन्दू राष्ट्र” के राजाओं के राज को क़ायम रखा जा सके। कौन हैं “हिन्दू राष्ट्र” के ये असली राजा? ये है अम्बानी, अडानी, टाटा, बिड़ला जैसे पूँजीपतियों का पूरा वर्ग। इन्हीं के दिये हुए हज़ारों करोड़ के चन्दे के बूते तो नरेन्द्र मोदी सत्ता में पहुँचा है। और इन्हीं के हितों की सेवा के लिए एक तरफ़ सबकुछ पूँजीपतियों को बेचा जा रहा है, समूचे मज़दूर वर्ग को लूटने के लिए सारी छूटें दी जा रही हैं, और वहीं दूसरी ओर इस मज़दूर वर्ग को बाँटने के लिए मुसलमानों को एक नक़ली दुश्मन के तौर पर पेश किया जा रहा है, ताकि हम असली दुश्मनों को न पहचान सकें और आपस में ही लड़ते रहें।

यानी यह “हिन्दू राष्ट्र” क्या है? यह “हिन्दू राष्ट्र” और कुछ नहीं बल्कि इजारेदार पूँजीपति वर्ग के हितों की सेवा करने वाली एक फ़ासिस्ट तानाशाही है, जिसमें हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई, सवर्ण, दलित, आदिवासी, स्त्री-पुरुष सभी मज़दूरों की स्थिति यह है कि वे 12-12 घण्टे मुँह पर ताला लगाकर हाड़ गलाएँ, बेहद कम मज़दूरी में सन्तुष्ट रहें, यूनियन वग़ैरह का नाम भी न लें, और “शान्ति” बरकरार रखते हुए अपने ख़ून को सिक्कों में ढालें और इस “हिन्दू राष्ट्र” के शासकों की तिजोरियाँ भरें। “हिन्दू राष्ट्र” में मुसलमानों और हिन्दुओं और अन्य सभी मज़दूरों के दमन और शोषण में इजारेदार पूँजीपति वर्ग और उसकी नुमाइन्दगी करने वाली मोदी सरकार कोई कमी नहीं करने वाली। इसमें धर्म और जाति से परे, सभी मज़दूरों का दमन और शोषण ही होना है।

निश्चित तौर पर, मुसलमान मेहनतकश आबादी को साम्प्रदायिक उन्माद और दंगे भड़काकर साम्प्रदायिक फ़ासीवादी हिंसा का निशाना बनाया जायेगा ताकि जनता का धर्म के आधार पर ध्रुवीकरण किया जा सके। इस रूप में आम मेहनतकश मुसलमान आबादी को अतिरिक्त दमन और उत्पीड़न का सामना करना पड़ेगा। लेकिन आम मेहनतकश हिन्दू आबादी भी अगर इस मुग़ालते में है कि “हिन्दू राष्ट्र” समूचे हिन्दुओं का शासन होगा, तो वह इसकी भयंकर क़ीमत चुकायेगी। पूरी हिन्दू आबादी एक नहीं है। वह मज़दूरों, पूँजीपतियों, निम्न पूँजीपति वर्ग, धनी किसान, ग़रीब किसान, अर्द्धसर्वहारा आबादी में बँटी हुई है। संघ परिवार और मोदी-शाह सरकार धार्मिक उन्माद फैलाकर पहले से ही सामाजिक व आर्थिक असुरक्षा और अनिश्चितता झेल रही निम्न पूँजीपति वर्ग और संगठित मज़दूर आबादी तथा लम्पट मज़दूर वर्ग के एक हिस्से में प्रतिक्रिया की लहर पैदा करते हैं, लेकिन इस प्रतिक्रिया की लहर का लाभ केवल और केवल बड़े पूँजीपति वर्ग और फ़ासिस्ट सरकार को मिलता है। आम मेहनतकश हिन्दू आबादी को हमेशा इसका नुक़सान ही होता है क्योंकि वह अपने वर्ग शत्रुओं के ख़िलाफ़ लड़ने के बजाय, अपने ही वर्ग के दूसरे धर्मों के साथियों, भाइयों, बहनों से लड़ पड़ती है।

लुब्बेलुबाब यह कि “हिन्दू राष्ट्र” वास्तव में इजारेदार पूँजीपति वर्ग की फ़ासिस्ट तानाशाही का ही दूसरा नाम है। यह “हिन्दुओं का शासन” नहीं है क्योंकि यह मुसलमानों, हिन्दुओं, और अन्य सभी धर्मों व जातियों से आने वाले मज़दूर वर्ग के शोषण, दमन और उत्पीड़न में कोई कमी या कसर नहीं छोड़ता है। जो भी अम्बानी, अडानी, टाटा, बिड़ला के वर्ग द्वारा चल रही खुली और नंगी लूट के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाता है या उनकी नुमाइन्दगी करने वाली मोदी-शाह सरकार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाता है, उसे तुरन्त ही “हिन्दू राष्ट्र” का शत्रु घोषित कर दिया जाता है चाहे वह हिन्दू हो, मुसलमान हो या कोई और। इसलिए हम मज़दूरों को “हिन्दू राष्ट्र” के नाम से ज़रा भी गुमराह नहीं होना चाहिए और इस बात को समझना चाहिए कि हमें मज़दूर वर्ग का संगठन खड़ा करना है ताकि सभी मज़हबों, पन्थों, जातियों के मज़दूर अपने साझा वर्ग शत्रु यानी पूँजीपति वर्ग के ख़िलाफ़ मज़बूती से लड़ सकें, अपने हक़ों को हासिल कर सकें और एक मज़दूर सत्ता और समाजवादी व्यवस्था की स्थापना के लिए नयी समाजवादी क्रान्ति की ओर बढ़ सकें। नहीं तो हम अपनी क़ब्र ख़ुद ही खोद रहे होंगे। जितनी जल्दी हम इस बात को समझ जायेंगे उतना ही बेहतर होगा, क्योंकि पहले ही काफ़ी देर हो चुकी है।

मज़दूर बिगुल, अप्रैल-सितम्बर 2020


 

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