हाथरस और बलरामपुर जैसी बर्बरता का शिकार कौन होता है?
इनका ज़ि‍म्‍मेदार कौन है? दुश्‍मन कौन है और मज़दूर वर्ग उससे कैसे लड़े?

– सम्पादकीय

हाथरस में एक मेहनतकश घर की दलित लड़की के साथ बर्बर बलात्कार और उसके बाद उसकी जीभ काटकर और रीढ़ की हड्डी तोड़कर उसकी हत्या कर दी गयी। इस भयंकर घटना ने हरेक संवेदनशील इन्सान को झकझोर कर रख दिया है। अभी इस घटना की पाशविकता और बर्बरता पर लोग यक़ीन करने की कोशिश ही कर रहे थे कि उत्तर प्रदेश के ही बलरामपुर में भी ऐसी ही एक भयंकर घटना ने लोगों को चेतन-शून्य बना दिया। हर इन्सान अपने आप से और इस समाज से ये सवाल पूछ रहा है कि हम कहाँ आ गये हैं? क्यों बढ़ रही हैं ऐसी भयावह घटनाएँ? कौन है इन घटनाओं के लिए ज़िम्मेदार? दुश्मन कौन है और लड़ना किससे है?

क्या ये घटनाएँ संयोग हैं? नहीं! क्या ये कुछ बर्बर, पाशविक और आपराधिक मानसिकता के रुग्ण-बीमार लोगों के कारण बढ़ रही हैं? नहीं! क्या ये कोई प्राकृतिक आपदा है, जिस पर किसी का कोई नियंत्रण नहीं है? नहीं! यह मौजूदा पूँजीवादी पितृसत्तात्मक व्यवस्था की पैदावार है और आज के दौर में इनमें भारी बढ़ोत्तरी के लिए साम्प्रदायिक फ़ासीवादी भाजपा की मोदी सरकार ज़िम्मेदार है। शायद आप में से कुछ लोग पूछेंगे कि इसमें मोदी जी की क्या ग़लती है!? हम कहेंगे कि जिस पार्टी में स्वयं ही बलात्कारी और आपराधिक तत्वों की भरमार हो, जो स्वयं बलात्कारियों को बचाने के लिए कठुआ से हाथरस तक रैलियाँ निकालने और सवर्ण पंचायतें करने का काम कर रहे हों, जो बलात्कार के आरोपियों को जेल पहुँचकर बधाई देने और मालाएँ पहनाने में कभी न चूकते हों, उस पार्टी के शासन में औरतों के ख़िलाफ़ होने वाले अपराधों में अगर 16 प्रतिशत से भी ज़्यादा बढ़ोत्तरी हो गयी है, तो क्या इसमें ताज्जुब की बात है? इसलिए हम मज़दूरों-मेहनतकशों को यह सोचने की ज़रूरत है आज ये बर्बर और अमानवीय घटनाएँ क्यों बढ़ रही हैं, जिन्हें कोई जानवर भी अंजाम नहीं दे सकता है?

लेकिन उससे भी पहला सवाल यह है कि मज़दूर वर्ग के लिए इन घटनाओं पर सोचना और इसके ख़िलाफ़ संघर्ष करना क्यों ज़रूरी है।

इसकी पहली वजह तो यह है कि कोई भी संवेदनशील इन्सान ऐसी वाक़यों के ख़िलाफ़ बग़ावत किये बिना नहीं रह सकता है, चाहे ये घटनाएँ किसी भी औरत के ख़िलाफ़ हों। जिनके लिए ये भी सामान्य घटनाएँ बन गयीं हैं, वे अब इन्सान होने की शर्तों को खो चुके हैं।

इसकी दूसरी वजह यह है कि ऐसी सभी वारदातों में 99 प्रतिशत का शिकार वे स्त्रियाँ बनती हैं, जो आर्थिक और सामाजिक तौर पर कमज़ोर पृष्ठभूमि से आती हैं। यानी, 10 में से 9 मामलों में ऐसे घृणित स्त्री-विरोधी अपराधों का शिकार मज़दूरों-मेहनतकशों के घरों से आने वाली स्त्रियाँ बनती हैं और इनमें भी एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा दलित स्त्रियों का होता है क्योंकि वे सामाजिक रूप से भी कमज़ोर स्थिति में होती हैं।

निश्चित तौर पर, आम तौर पर भी औरतों को पितृसत्तात्मक दमन और उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है क्योंकि स्त्रियाँ उत्पीडि़त समुदाय से आती हैं, और चाहे वे खाते-पीते घरों में भी पैदा हों, उन्हें दमन, उत्पीड़न और शोषण का सामना करना पड़ता है। लेकिन यह भी सच है कि सबसे बर्बर स्त्री-विरोधी अपराधों को सामना मज़दूर वर्ग से आने वाली स्त्रियों को करना पड़ता है और यदि हम दलित मज़दूर औरतों की बात करें तो यह और भी बढ़ जाता है, क्योंकि वे सामाजिक व आर्थिक दोनों ही रूप से कमज़ोर और अरक्षित होती हैं। लेकिन चूँकि हर स्त्री को पितृसत्तात्मक दमन और उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है, इसलिए मज़दूर वर्ग का यह कर्तव्य बनता है कि आम तौर पर स्त्रियों की बीच उनके दमन और उत्पीड़न के कारणों के बारे में प्रचार करे, उन्हें जागृत और गोलबन्द करे। लेकिन सबसे पहले हमें समझना होगा कि औरतों का यह दमन, उत्पीड़न, उनकी इस ग़ुलामी के मूल में क्या है? इसकी शुरुआत कैसे हुई? क्यों यह ग़ुलामी पूरे मज़दूर वर्ग के लिए नुकसानदेह है? क्यों पुरुष मज़दूरों को भी औरतों के ग़ुलामी के हर रूप के विरुद्ध लड़ने की आवश्यकता है? ये बेहद लम्बी चर्चा के मुद्दे हैं, लेकिन फिर भी हम संक्षेप में कुछ बातें आपसे साझा करेंगे।

स्त्रियों का ये दमन, उत्पीड़न और शोषण क्यों होता है? इसका मूल कारण यह है निजी सम्पत्ति और वर्ग समाज का पैदा होना। निजी सम्पत्ति और वर्ग समाज पैदा होने के साथ ही औरतों का दमन शुरू हो गया था। क्योंकि निजी सम्पत्ति के साथ उत्तराधिकार और वारिस तय करने का सवाल खड़ा होता है, उसी के साथ स्त्रियों के लिए एकल विवाह प्रथा और पुरुष स्वामित्व व पितृसत्तात्मक परिवार की व्यवस्था पैदा होती है। स्त्रियों की यह ग़ुलामी वर्ग समाज के पैदा होने के साथ ही, यानी क़रीब ढाई से तीन हज़ार साल पहले ही शुरू हो गयी थी। इसके लिए हम मज़दूर साथियों को मज़दूर वर्ग के महान शिक्षक फ्रेडरिक एंगेल्स की पुस्तक ‘परिवार, निजी सम्पत्ति और राज्यसत्ता की उत्पत्ति’ पुस्तक पढ़ने की सलाह देंगे। इसका सार-संक्षेप जल्द ही हम ‘मज़दूर बिगुल’ में पेश करेंगे।

निजी सम्पत्ति और वर्ग समाज के पैदा होने के साथ औरतों की ग़ुलामी पैदा ज़रूर हुई, लेकिन औरतों की इस ग़ुलामी का स्वरूप हर नयी सामाजिक व्यवस्था में बदलता गया। दास व्यवस्था में यह पितृसत्ता सुदृढ़ रूप ले चुकी थी, लेकिन उसके बहुत से पहलू अभी पैदा नहीं हुए थे या पैदा होने की प्रक्रिया में थे। सामन्ती व्यवस्था में यह काफ़ी विकसित हो गयी थी, इसका स्वरूप कहीं ज़्यादा नग्न था और औरतों को पूरी तरह से चूल्हे-चौखट की ग़ुलामी में ही क़ैद रखा जाने लगा था।

पूँजीवाद में इसका स्वरूप बदला। स्त्रियों की श्रम के रूप में पूँजीवाद को अधिक सस्ती श्रमशक्ति मिली, जिसकी ज़रूरत मशीनीकरण के साथ बढ़ती गयी। इसके कारण पूँजीवाद ने एक ओर औरतों को एक हद तक घर की चौहद्दी से बाहर निकाला, वहीं दूसरी ओर, जिस प्रकार पूँजीवाद ने हर वस्तु को ही माल बनाया, उसी प्रकार औरतों की श्रमशक्ति के साथ-साथ उनके शरीर को भी एक माल, या, एक भोग की वस्तु बना दिया। इसने कई रूप अख़्तियार किये। टी.वी. व फिल्मों आदि में औरतों के शरीर को नुमाइश की वस्तु बनाने के साथ-साथ वेश्यावृत्ति को एक उद्योग की शक़्ल देने तक, औरतों की श्रमशक्ति, उनके शरीर और उनकी लैंगिकता को बेचने-ख़रीदने का माल बना दिया गया। कारख़ानों की असेम्बली लाइनों पर 14-14 घण्टे, कहीं कम मज़दूरी में खटने के साथ औरतों को घर के काम-काज और बच्चों के पालन-पोषण का बोझ भी उठाना पड़ता था, यानी कि सामाजिक पैमाने पर, श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन को जारी रखने का काम भी औरतों को ही करना पड़ता है। पूँजीवाद द्वारा स्त्रियों के इस शोषण व उत्पीड़न के साथ-साथ उनका अन्य रूपों में भी उत्पीड़न पैदा हुआ, मसलन, लैंगिक रूप में। वेश्यावृत्ति करोड़ों रुपये के एक “उद्योग” के रूप में पूँजीवाद के साथ स्थापित हुई। इसके अलावा, पूँजीवाद के विकसित होने के साथ औरतों के शरीर को एक चीज़ बनाकर पेश करना, उसे माल बनाकर पेश करने की प्रक्रिया भी अश्लीलतम और नग्नतम स्तरों तक पहुँचती गयी।

साथ ही, पूँजीवाद ने मर्दवाद की उस सोच को भी नये रूपों में पैदा किया जिसके अनुसार औरतों का काम चूल्हे-चौखट का काम करना और बच्चों को पैदा करना व उनका पालन-पोषण करना होता है। नतीजतन, जिन मामलों में औरतें घर से बाहर निकलीं उनमें से भी अधिकांश में घर के सारे काम करना भी उसके ज़िम्मे पड़ा। यह भी पूँजीवाद के लिए फ़ायदेमन्द है। क्योंकि यदि औरतें घर का पूरा काम नहीं करेंगी, तो पूँजीपति वर्ग के लिए मज़दूर वर्ग की श्रमशक्ति का पुनरुत्पादन कौन करेगा? मज़दूरों की श्रमशक्ति को बार-बार पैदा करने का काम कौन करेगा? मज़दूरों की पूरी नस्ल को बढ़ाने का काम कौन करेगा? अगर मज़दूर व मेहनतकश वर्गों की औरत श्रमशक्ति के सस्ते पुनरुत्पादन के इस काम को घर में न करे, तो इसका ख़र्च भी पूँजीपति वर्ग को उठाना पड़ेगा और यह काम करना व्यावहारिक और सम्भव भी नहीं होगा। इसलिए औरतों की ग़ुलामी पूँजीपति वर्ग के लिए फ़ायदेमन्द होती है और इसीलिए पितृसत्ता का पूँजीवाद के साथ अन्तरंग सम्बन्ध है, और इसीलिए पितृसत्ता सिर्फ़ औरत की दुश्मन नहीं है, बल्कि हरेक मज़दूर की दुश्मन भी है, चाहे वह पुरुष ही क्यों न हो।

इसके अलावा, पूँजीवाद ने इस पूरी प्रक्रिया में उपभोगवाद की एक घिनौनी संस्कृति भी पैदा की जिसने औरतों को हर अर्थ में भोग की वस्तु बनाने में योगदान किया। कारख़ाने की असेम्बली लाइन से लेकर बाज़ार के हर कोने तक, औरतों को भोग की वस्तु बना दिया गया। ऐसे में, जिन धनपशुओं के पास पूँजी का अम्बार होता है, उन्हें यह लगता है कि जिस तरह से वह पैसे के बल पर कोई भी वस्तु ख़रीद सकते हैं, वैसे ही वे औरतों के शरीर को भी ख़रीद सकते हैं। धनपशुओं और ख़ास तौर पर अचानक और नये-नये धनी बने पूँजीपति वर्ग के भीतर अधिकार-सम्पन्नता की एक पाशविक और अमानवीय सोच पैदा होती है। वह हर वस्तु और हर ग़रीब इन्सान को अपनी बाप की जागीर या अपना ग़ुलाम समझता है। ये ही वह वर्ग है जो आपराधिक प्रवृत्ति से भरा होता है और तमाम अपराधों के साथ-साथ स्त्रियों के विरुद्ध बर्बर अपराधों को भी अंजाम देता है। यही वह वर्ग है जिसकी घृणित कल्पनाओं और फ़न्तासियों की अभिव्यक्ति आज की पूँजीवादी संस्कृति में होती है, जिनमें घिनौने पोर्न वीडियो, म्यूजिक वीडियो, घटिया फ़िल्में शामिल हैं।

त्रासद बात यह है कि इस भयंकर सांस्कृतिक घटाटोप का असर सभी पर पड़ता है। इसमें स्वयं हम मज़दूर भी शामिल हैं। हमारी झुग्गी-बस्तियों में भी यह सांस्कृतिक ज़हर हर मोबाइल शॉप में परोसा जाता है। लक्ष्यहीनता और हताशा को नशे में डुबाने के अलावा हमारे घरों के युवा भी अपने जीवन की हताशा और निराशा को इस सांस्कृतिक मलकुण्ड में भी डुबो देता है। यह हमारी चेतना को कुन्द बनाने और हमें अपने हक़ों के लिए लड़ने में अक्षम बनाने के लिए शासक वर्ग द्वारा परोसी जा रही सांस्कृतिक अफ़ीम है, जिसका शिकार हमारे भी कई साथी हो जाते हैं। पोर्न क्लिपों, अश्लील फिल्मों और म्यूज़िक वीडियो का अम्बार हमारे बीच लगातार फेंका जाता है और इसकी स्त्री-विरोधी सोच को लगातार हमारे भीतर बिठाने का प्रयास किया जाता है।

स्त्रियों को भोग की वस्तु मानने वाली यह सोच, यह संस्कृति मज़दूर घरों से आने वाले कुछ नौजवानों के भीतर भी लम्पटीकरण और अपराधीकरण को जन्म देती है। साथ ही, यह निम्न मध्यम वर्ग और मध्यम वर्ग में भी बीमार मानसिकता वाले लोगों की एक जमात पैदा करती है। इसके शिकार ख़ास तौर पर वे लम्पट सर्वहारा वर्ग के लोग होते हैं, यानी वे जो अलग-अलग कारणों से वर्ग चेतना से रिक्त हैं। चाहे वर्ग चेतना का अभाव कभी किसी एक पेशे में और अन्य मज़दूर भाइयों-बहनों के साथ काम न करने के कारण पैदा हुआ हो, या फिर किसी कारण से किसी भी स्थायी रोज़गार से उजड़ जाने के कारण पैदा हुआ हो; यह वर्ग चेतना का अभाव लम्पट सर्वहारा वर्ग के लिए ख़तरनाक होता है और उन्हें मालिकों और ठेकेदारों के वर्ग के लिए मज़दूर वर्ग के विरुद्ध इस्तेमाल किये जाने के लिए आदर्श उम्मीदवार बना देता है। लम्पट मज़दूर वर्ग वह है जो कि सामाजिक तौर पर तो सर्वहारा वर्ग का सदस्य है, लेकिन सर्वहारा वर्ग की राजनीतिक वर्ग चेतना से पूरी तरह से वंचित है।

वर्ग चेतना से लैस मज़दूर वर्ग के पास वे हथियार होते हैं, जिससे कि वह पूँजीपति वर्ग द्वारा फेंके जा रहे सांस्कृतिक कचरे और स्त्री-विरोधी मूल्य-मान्यताओं और उन्हें भोग की वस्तु समझने की सोच से संघर्ष कर सके क्योंकि वह अपने रोज़मर्रा के जीवन के वर्ग संघर्ष में सामूहिकता में जीता और लड़ता है, मज़दूर वर्ग के स्त्रियों व पुरुषों की एकजुटता की ज़रूरत को समझता और महसूस करता है, वह लगातार पूँजीपति वर्ग को अपने दुश्मन के तौर पर देख पाता है। लेकिन सर्वहारा वर्ग की वर्ग चेतना से वंचित लम्पट सर्वहारा वर्ग के पास वे वैचारिक हथियार नहीं होते, जिससे कि वह इन प्रतिक्रियावादी मूल्यों के ख़िलाफ़ लड़ सके। उनके जीवन का शून्य और लक्ष्यहीनता उसे इस पितृसत्तात्मक, मर्दवादी और भोगवादी सोच का शिकार बन जाने और दिमाग़ी तौर पर बीमार व अपराधीकृत हो जाने के लिए आदर्श उम्मीदवार बनाती है, क्योंकि विचारधारात्मक तौर पर वह बेहद कमज़ोर और अरक्षित होता है।

नतीजतन, ठेकेदारों, दलालों, तरह-तरह के बिचौलियों, धनी कुलकों-फ़ार्मरों की बिगड़ैल औलादों, धनी व्यापारियों के समूचे नवधनाढ्य वर्गों के अलावा, भयंकरतम स्त्री-विरोधी अपराधों को अंजाम देने वाला दूसरा हिस्सा इस अपराधीकृत लम्पट सर्वहारा वर्ग और साथ ही लम्पट टटपुँजिया वर्ग से भी आता है। सामाजिक तौर पर मज़दूर वर्ग का सदस्य होना अपने आप में किसी मज़दूर के इंक़लाबी चरित्र को सिद्ध नहीं करता है। मज़दूर वर्ग एक वर्ग के तौर पर इतिहास का सबसे क्रान्तिकारी वर्ग है और यही पूँजीवाद का ध्वंस कर एक बेहतर सामाजिक व्यवस्था क़ायम कर सकता है। लेकिन मज़दूर वर्ग के एक-एक सदस्य की अवस्थिति क्या है, यह इस पर निर्भर करता है कि उसकी राजनीतिक वर्ग चेतना और विचारधारा क्या है। यदि कोई मज़दूर भी पूँजीपति वर्ग की विचारधारा, उसकी पितृसत्तात्मक सोच, मर्दवादी मान्यताओं, स्त्री को भोग की वस्तु समझने वाले विचारों के प्रभाव में आ जाता है, तो वह अपने वर्ग के विरुद्ध जाते हुए पूँजीपति वर्ग का पिछलग्गू बनकर अपराधीकृत भी हो सकता है। निश्चित तौर पर, मज़दूर वर्ग की बहुसंख्या की ऐसी सोच कभी नहीं बन सकती है, क्योंकि उसके भौतिक जीवन के पुनरुत्पादन की स्थितियाँ लगातार उसे पूँजीपति वर्ग की विचारधाराओं के असर से लड़ने के लिए बाध्य भी करती हैं और इस लड़ाई के लिए औज़ार भी मुहैया कराती हैं। इसलिए यह बेहद अहम सवाल है कि हमारी सोच क्या है, हमारी विचारधारा क्या है, हमारी मूल्य-मान्यताएँ क्या हैं। हम मज़दूरों-मेहनतकशों को भी अपने बीच लगातार पूँजीवादी विचारधारा के ख़िलाफ़ संघर्ष करना होता है, वरना हम मालिकों व ठेकेदारों के वर्ग का औज़ार मात्र बनकर रह जाएंगे क्योंकि वर्ग संघर्ष में फैसला इस बात से होता है, कि हमने राजनीतिक रूप से कौन-से वर्ग का पक्ष चुना है, किस वर्ग की अवस्थिति को अपनाया है। मज़दूर होते हुए भी यदि कोई मालिकों-ठेकेदारों की अवस्थिति अपनाता है तो निर्णायक वर्ग युद्ध में वह मालिकों-ठेकेदारों के वर्ग का ही माना जाएगा।

संक्षेप में, पूँजीवादी समाज में पितृसत्तात्मक मूल्यों-मान्यताओं, मर्दवादी सोच और भोगवादी सोच के मौजूद रहते स्त्रियों के विरुद्ध अपराध ख़त्म नहीं किये जा सकते हैं क्योंकि यह पूँजीपति वर्ग ही है जो ऐसी संस्कृति को लगातार पालने-पोसने और खाद-पानी देने का काम करता है। कोई सरकार यदि क़ानून-व्यवस्था को “दुरुस्त” भी कर दे, तो ज़्यादा से ज़्यादा ऐसे अपराधों की दर में कमी भर आ सकती है, या स्त्रियों के विरुद्ध अपराधों के रूप बदल जाएंगे, लेकिन वे ख़त्म पूँजीवादी समाज में हो ही नहीं सकते हैं। 16 दिसम्बर की घटना से लेकर हाथरस और बलरामपुर की घटना तक यही बात साबित करती हैं। और दुनिया का एक भी देश ऐसा नहीं है, जहाँ इस प्रकार के बर्बर अपराधों में बढ़ोत्तरी न हो रही हो। बर्बरता का विशिष्ट रूप निश्चित ही हर देश के पूँजीवाद के अपने अद्वितीय घिनौनेपन से तय होता है, लेकिन यह अमेरिका से लेकर यूरोप के देशों, और लातिन अमेरिका से लेकर अफ़्रीका तक के देशों में अलग-अलग रूपों में हो रहा है। आम तौर पर कहें तो पूँजीवादी समाज के मौजूद रहते स्त्री-विरोधी अपराधों को ख़त्म करने का दिवा-स्वप्न पालना निरी मूर्खता है।

लेकिन बात यहीं ख़त्म नहीं होती है। पिछले कुछ दशकों में इन भयंकर स्त्री-विरोधी अपराधों में ज़बर्दस्त बढ़ोत्तरी हुई है। इसका क्या कारण है?

आज औरतों के ख़िलाफ़ भयंकर और बर्बर अपराधों में जो बढ़ोत्तरी हुई है, उसका एक विशिष्ट कारण भी है। यह है पूरी दुनिया में फ़ासीवाद समेत तरह-तरह के दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावाद का उभार।

फ़ासीवाद क्या होता है? फ़ासीवाद मालिकों के वर्ग के सबसे अधिक मज़दूर-विरोधी, फ़िरकापरस्त, नस्लवादी, साम्प्रदायिक, प्रवासी-विरोधी प्रतिक्रियावादी हिस्से की विचारधारा है। यह पूरी तरह से बड़े पूँजीपति वर्ग की सेवा में लगा रहता है, उनके लिए मज़दूरों का बर्बर दमन करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ता है और नंगई और बेशर्मी से अपने मज़दूर-विरोधी कारनामों को अंजाम देता है। अपने इन काले कारनामों को अंजाम देने के लिए फ़ासीवादी शक्तियाँ दो काम करती हैं।

पहला, वह मज़दूर वर्ग के विरुद्ध टटपुंजिया वर्गों या निम्न मध्यम व मध्यम वर्गों की असुरक्षा व अनिश्चितता का इस्तेमाल करके टटपुंजिया वर्गों का एक प्रतिक्रियावादी आन्दोलन खड़ा करती हैं। इन ‘न तो पूरी तरह आबाद, न पूरी तरह बरबाद’ वर्गों के मन में यह डर बिठाया जाता है कि वे भी कहीं मज़दूर न बन जाएँ! लगातार अनिश्चितता में जी रहे ये मध्य व निम्न मध्य वर्ग एक अन्धी प्रतिक्रिया और हताशा में होते हैं और उनकी इस अन्धी प्रतिक्रिया को ये फ़ासीवादी शक्तियाँ एक नकली दुश्मन दे देती हैं। वास्तव में उनकी असुरक्षा, अनिश्चितता और बरबादी के लिए बड़ी इज़ारेदार पूँजी, यानी अम्बानी, अडानी, टाटा, बिड़ला ज़िम्मेदार होते हैं, लेकिन भाजपा और संघ परिवार उन्हें बताते हैं कि उनके दुश्मन हैं मुसलमान, दलित, और आज़ाद-ख़याल औरतें, जो पितृसत्ता की ग़ुलामी को स्वीकार नहीं करतीं! वे मज़दूर उनके दुश्मन बताए जाते हैं, जो सिर झुकाकर ग़ुलामों के लिए अम्बानी-अडानी के “राष्ट्र” के लिए 12-14 घण्टे खटने को तैयार नहीं हैं! ये हैं उस “हिन्दू राष्ट्र” के दुश्मन जिन्हें उनकी औक़ात बताने के लिए और “हिन्दू राष्ट्र” के निर्माण के लिए एक “मज़बूत नेता” की ज़रूरत है! जैसे कि मोदी जी! यदि क्रान्तिकारी ताक़तें इन निम्न मध्य वर्ग के व्यापक जनसमुदायों को उनके असली दुश्मन के बारे में बताने में, उन्हें गोलबन्द और संगठित करने में कामयाब नहीं होतीं तो ये मध्य वर्ग इस फ़ासीवादी प्रचार का शिकार हो जाते हैं। और जब तक कि ये टटपुँजिया वर्ग ये समझ पाएँ कि मोदी के “मज़बूत नेतृत्व” की मज़बूती उनके लिए नहीं बल्कि अम्बानी-अडानी के लिए है, इस “हिन्दू राष्ट्र” के असली शासक अम्बानी-अडानी और तमाम पूँजीपति हैं चाहे वे हिन्दू हों, मुसलमान हों, पारसी हों, सिख हों या ईसाई हों, कि इस “हिन्दू राष्ट्र” में आम मेहनतकश मुसलमानों के साथ-साथ आम मेहनतकश हिन्दुओं, सिखों, ईसाईयों, दलितों, औरतों को भी उतनी ही बेरहमी के साथ दबाया-कुचला जाएगा; तब तक काफ़ी देर हो चुकी होती है। इस प्रकार से फ़ासीवादी ताक़तें निम्न मध्यवर्ग व मध्यवर्ग की प्रतिक्रिया को एक नकली दुश्मन देकर एक प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन खड़ा करती हैं, जिसमें कई बार लम्पट सर्वहारा वर्ग का भी एक हिस्सा शामिल होता है। और इस आन्दोलन को मज़दूर वर्ग के आन्दोलन के ख़िलाफ़ इस्तेमाल किया जाता है।

दूसरा काम फ़ासीवादी शक्तियाँ यह करती हैं कि मज़दूर वर्ग को ही मन्दिर-मस्जिद, हिन्दू-मुसलमान, सवर्ण-दलित, प्रवासी-मूलनिवासी आदि में बाँट देती हैं, ताकि हम यह न समझ पाएँ कि हमारे वर्ग हित एक ही हैं, चाहे हमारा धर्म कोई भी हो। जात-पात का हमारे लिए कोई अर्थ नहीं है, और न ही हमारे लिए ऊँच-नीच की जातिवादी ब्राह्मणवादी सोच का कोई अर्थ है। लेकिन यदि सही विचारधारा और राजनीति मज़दूर वर्ग के बीच पकड़ जमाने में किन्हीं भी वजहों से कामयाब नहीं हो पाती तो उसे धर्म, जाति, क्षेत्र, भाषा आदि के नाम पर बाँटने में फ़ासीवादी व फ़िरकापरस्त ताक़तें कामयाब हो जाती हैं और उसका भी एक हिस्सा फ़ासीवादी आन्दोलन में शिरक़त करता है।

हमारे देश में भी भाजपा की मोदी सरकार ने यही किया है और पिछले विशेष तौर पर चार दशक से अधिक समय से संघ परिवार यही करता आ रहा है, हालाँकि इसकी तैयारी वह 95 साल से करता आ रहा है। मज़दूर वर्ग को बाँटकर और मज़दूर वर्ग के आन्दोलन के शत्रु के तौर पर टटपुँजिया वर्गों का एक प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन खड़ा करके, वास्तव में, अम्बानी, अडानी जैसों के हितों की सेवा करना: यही भाजपा और संघ परिवार की पूरी राजनीति है।

अब आप खुद सोचिए कि ऐसे घटिया काम अंजाम देने के लिए भाजपा और संघ परिवार किस प्रकार के तत्वों को भर्ती करेंगे? वे भर्ती करेंगे स्वामी चिन्मयानन्द, कुलदीप सिंह सेंगर, भोजपाल सिंह, जयेश पटेल, विजय जॉली, काशिमीरा अनिल भोंसले, वेंकटेश मौर्य, निहाल चन्द, प्रमोद गुप्ता! यानी सारे के सारे छँटे हुए अपराधी, गुण्डे, दुराचारी, भ्रष्टाचारी! किस प्रकार के धार्मिक बाबाओं की आवश्यकता होगी उन्हें? स्वामी नित्यानन्द, आसाराम बापू, गुरमीत राम रहीम, नारायण साई, स्वामी कौशलेन्द्र प्रपन्नचारी, इत्यादि! यानी, यहाँ भी सारे निकृष्ट कोटि के बदमाश, बलात्कारी, अपराधी, हत्यारे! यह है “संस्कृति”, “संस्कार”, “चाल-चेहरा-चरित्र” की बात करने वाली भाजपा और संघ परिवार के नेता और उससे सम्बन्ध रखने वाले धार्मिक बाबा: सारे के सारे समाज के सबसे बीमार, आपराधिक, और निकृष्ट तत्व, छँटे हुए बदमाश और दुराचारी!

तो क्या यह कोई ताज्जुब की बात है कि जब कठुआ में एक बच्ची के साथ बलात्कार हुआ, तो उसके आरोपियों को बचाने के लिए भाजपा के लोगों ने रैलियाँ निकालीं? क्या इसमें कोई आश्चर्य की बात है कि जब हाथरस में बलात्कार की घटना हुई तो उसके आरोपियों को बचाने के लिए सवर्णों की ग्यारह गाँवों की पंचायत करने वाले जातिवादियों को भाजपा की योगी सरकार ने पूरा संरक्षण और मदद प्रदान की? क्या इसमें कोई अचरज की बात है कि जब भी कोई स्त्री-विरोधी अपराध होता है, तो उसके आरोपियों से मिलने के लिए भाजपा के नेता भागे-भागे जेल जाते हैं और उन्हें मालाएँ पहनाते हैं? क्या किसी को इस पर विस्मय है कि हर बलात्कार की घटना पर बलात्कारी को बचाने और औरतों को ही सीमा में और संस्कार में रहने की हिदायत देने का काम इसी “संस्कारी” फ़ासीवादी भाजपा के नेता करते हैं? जब ऐसी पार्टी सत्ता में होगी तो क्या नवधनाढ्य वर्गों, लम्पट टटपुँजिया वर्गों और नेताओं की बिगड़ी औलादों का दुस्साहस नहीं बढ़ेगा कि वह किसी भी औरत पर हमला करे, उसे अगवा करे और उसका बलात्कार करे? जब इन नवधनाढ्य व टटपुँजिया आपराधिक तत्वों को यह यक़ीन है कि इन अपराधों की उसे कोई सज़ा नहीं मिलेगी, बस उसे भाजपा में शामिल हो जाने की आवश्यकता है, तो ज़ाहिर सी बात है कि स्त्री-विरोधी अपराधों में बढ़ोत्तरी तो होगी ही।

जिस पार्टी का काम ही धार्मिक उन्माद फैलाकर आम मेहनतकश जनता को बाँटना हो, एक प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन खड़ा करना हो ताकि अम्बानी-अडानी-टाटा-बिड़ला की सेवा की जा सके, उसमें इसी प्रकार के नेता और सदस्य होंगे और उसके शासन काल में इसी प्रकार आम मेहनतकश घरों की स्त्रियों पर हमले होंगे।

यह कोई संयोग नहीं है कि औरतों के ख़िलाफ़ अपराध मोदी सरकार के अन्तर्गत 2017 तक ही 16 प्रतिशत से भी ज़्यादा बढ़ गया था, और उसके बाद तो औरतों के ख़िलाफ़ होने वाले अपराधों में और भी ज़्यादा बढ़ोत्तरी हुई है। वहीं दूसरी ओर इन अपराधों की लिए होने वाली सज़ा की दर में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई है। यह तो तब है, जबकि मोदी सरकार का एक अनकहा नियम यह है कि आम मेहनतकश वर्गों के ख़िलाफ़ होने वाले अपराधों, जिनमें कि औरतों के विरुद्ध होने के वाले अपराध भी शामिल हैं, के लिए एफ़.आई.आर. ही दर्ज न की जाये! नतीजतन, अधिकांश मामले तो सामने भी नहीं आ पाते हैं। लेकिन लोग जानते हैं कि फ़ासीवादी भाजपा के आपराधिक शासन के दौर में औरतों के ख़िलाफ़ और विशेष तौर पर आम मेहनतकश घरों से आने वाली औरतों के ख़िलाफ़ अपराधों में भारी बढ़ोत्तरी हुई है और उनका जीवन पहले से कहीं ज़्यादा असुरक्षित हुआ है।

इसलिए निश्चित तौर पर, औरतों की ग़ुलामी क़ायम रहने तक औरतों के ख़िलाफ़ अपराधों को समाप्त करना सम्भव नहीं है, लेकिन यह भी स्पष्ट है कि जब भी पूँजीपति वर्ग के सबसे प्रतिक्रियावादी हिस्से की नग्न तानाशाही क़ायम होती है, यानी जब भी भाजपा जैसी फ़ासीवादी पार्टी का शासन आता है तो औरतों के ख़िलाफ़ अपराधों में अभूतपूर्व रूप से बढ़ोत्तरी होती है। इसकी वजहें हम ऊपर बता चुके हैं। जिस पार्टी की विचारधारा ही सबसे अधिक मज़दूर-विरोधी, दलित-विरोधी, स्त्री-विरोधी, अल्पसंख्यक-विरोधी हो; जिस पार्टी में छँटे हुए स्त्री-विरोधी, गुण्डे, बदमाश, अपराधी, दुराचारी नेता-मंत्री से लेकर आम सदस्य के स्तर तक भरे हुए हों; जिस पार्टी का “संस्कार” और “परम्परा” ही बलात्कारियों को समर्थन, उन्हें बचाना और उनके पक्ष में रैलियाँ निकालना हो; उसके शासन में और किसी चीज़ की उम्मीद करना भी मूर्खता होगी।

इसलिए हममें से जो भी इन बर्बर बलात्कारों और हत्याओं से व्यथित हैं, ग़ुस्से में हैं, और इनके ख़िलाफ़ लड़ना चाहते हैं, उन्हें यह समझना होगा कि यह कुछ बीमार, रुग्ण और पागल लोगों की हरक़तें नहीं हैं। आज जो फ़ासीवादी प्रतिक्रियावादी सरकार सत्ता में मौजूद है, उसने समाज के सबसे आपराधिक, पाशविक, बर्बर और प्रतिक्रियावादी तत्वों व शक्तियों को खुला हाथ दे दिया है। उन्हें किसी भी सज़ा का भय नहीं है क्योंकि शासक पार्टी उनके साथ खड़ी है और उन्हीं के जैसे आपराधिक तत्वों से भरी हुई है। स्त्री-विरोधी अपराधों में बढ़ोत्तरी इस फ़ासीवादी उभार का एक अंग है और इसलिए मज़दूर वर्ग को आज के समय में अपने इस सबसे बड़े दुश्मन के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए एकजुट, गोलबन्द और संगठित होना होगा।

दूसरी बात जो हमें समझनी होगी वह यह कि यदि हमें इन स्त्री-विरोधी अपराधों को ख़त्म करना है, तो हमें उस पूँजीवादी व्यवस्था और समूचे वर्ग समाज के ख़िलाफ़ निर्णायक संघर्ष करना होगा जो पितृसत्ता, मर्दवाद, स्त्री-पुरुष असमानता के तमाम रूपों को जन्म देता है, उनका फ़ायदा उठाता है और उन्हें जिलाता है। यह संघर्ष मज़दूर सत्ता और समाजवाद के लिए संघर्ष है। स्त्रियों की ग़ुलामी को हमेशा के लिए ख़त्म करने का यह पहला अहम कदम है। इसके बाद भी सांस्कृतिक क्रान्तियों के ज़रिये स्त्री-पुरुष समानता को स्थापित करने की लम्बी लड़ाई चलानी होगी, मगर इस पहले कदम के बिना इसके बारे में सोचा भी नहीं जा सकता है।

तीसरी बात यह कि इस दूरगामी संघर्ष के अलावा, मज़दूर वर्ग को अपने भीतर एक सांस्कृतिक क्रान्ति की आज से ही शुरुआत करनी होगी और उन सभी मुद्दों पर मज़बूती से पोजीशन लेनी होगी जो स्त्रियों की ग़ुलामी को बढ़ावा देते हैं, पितृसत्ता और पूँजीवाद को मदद पहुँचाते हैं। मसलन, स्त्रियों को समान काम के लिए समान वेतन के अधिकार के लिए संघर्ष, स्त्रियों को चूल्हे-चौखट के कामों से मुक्ति दिलाने का संघर्ष जिसके लिए पुरुष मज़दूरों को घर के कामों और बच्चों के लालन-पालन में बराबर की ज़िम्मेदारी उठानी होगी; हमें स्त्रियों के अपने पेशे और जीवन-साथी को स्वतंत्रतापूर्वक चुनने के अधिकार के लिए लड़ना होगा, हमें घरेलू हिंसा के सभी रूपों के ख़िलाफ़ लड़ना होगा, हमें स्त्रियों के लिए बराबर की शिक्षा, पोषण व चिकित्सा के हक़ के लिए लड़ना होगा; हमें उन सभी मूल्य-मान्यताओं के विरुद्ध लड़ना होगा जो स्त्रियों की आज़ादी को किसी भी रूप में बाधित करती हैं। ये सिर्फ़ औरतों की लड़ाई नहीं है। ये सभी मज़दूरों की लड़ाई है, चाहे वे औरत हों या आदमी। अगर पुरुष मज़दूर स्त्री मज़दूर को पितृसत्ता का ग़ुलाम बनाएगा, तो वह भी पूँजीवाद की ग़ुलामी के लिए अभिशप्त होगा। इस बात को हम जितनी जल्दी समझ लें और जितनी जल्दी स्त्री व पुरुष मज़दूर बराबरी की ज़मीन पर खड़े होकर पूँजीवाद और पूँजीपति वर्ग के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए कमर कस लें, हमारे लिए उतना ही बेहतर होगा।

मज़दूर बिगुल, अक्टूबर 2020


 

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