लाखों दिहाड़ी व कैज़ुअल मज़दूरों के लिए अब भी हैं लॉकडाउन जैसे ही हालात

– लालचन्द्र

कोरोना नियंत्रण के नाम पर बिना किसी योजना के किये गये लॉकडाउन के बाद अनलॉक करने के भी कई दौर निकल चुके हैं और देश के अधिकांश हिस्सों में ऊपरी तौर पर लॉकडाउन जैसे हालात नज़र नहीं आ रहे हैं। बाज़ारों में भीड़ बढ़ रही है। आबोहवा में प्रदूषण और नदियों में गन्दगी फिर से लौट आयी है। धार्मिक स्थल भी खुल चुके हैं और सरकार की सरपरस्ती में त्योहारों के नाम पर करोड़ों रुपये पानी की तरह बहाने की परम्परा को भी धड़ल्ले से आगे बढ़ाया जा रहा है। ऊपरी तौर पर देखने पर लगता है कि जन-जीवन सामान्य हो चला है। लेकिन अगर आप आज के हालात की पूरी सच्चाई जानना चाहते हैं तो किसी दिहाड़ी मज़दूर से बात करें। तब आपको पता चलेगा कि रोज़ कुआँ खोदकर पानी पीने वाली करोड़ों की इस आबादी की आय के कुएँ में अभी भी पानी बहुत कम आ रहा है।
लॉकडाउन ख़त्म होने के बावजूद अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाली अधिकांश मज़दूर आबादी की मुश्किलें ख़त्‍म होने का नाम नहीं ले रही हैं। लॉकडाउन के दौर में 15 करोड़ से भी ज़्यादा लोगों का रोज़गार छिन गया था। अब लॉकडाउन ख़त्‍म होने के बाद भी काम के मौक़ों की भारी क़ि‍ल्‍लत है। कारख़ानों में उत्‍पादन शुरू होने के बावजूद बड़े पैमाने पर मज़दूरों की छँटनी की जा रही है और पहले से कम मज़दूरों से काम निकलवाया जा रहा है जिससे काम की तलाश में भटक रहे मज़दूरों की रिज़र्व फ़ौज में लगातार इज़ाफ़ा हो रहा है। सेण्टर फ़ॉर मॉनिटरिंग इण्डियन इकॉनामी की एक रिपोर्ट के अनुसार अकेले अक्टूबर के महीने में 55 लाख रोज़गार के अवसर कम हुए हैं। अक्टूबर में त्योहारों और खरीफ़ की फ़सलों की कटाई का महीना था। इसके बावजूद मज़दूरों की माँग में बढ़ोतरी होना तो दूर उल्‍टे कमी आ रही है। इसका सबसे ज़्यादा असर निर्माण क्षेत्र व गारमेण्‍ट क्षेत्र के मज़दूरों व घरेलू कामगारों सहित अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले करोड़ों मज़दूरों की आजीविका पर हुआ है।
लॉकडाउन के पहले दिहाड़ी मज़दूरों को महीने में 20-22 दिन काम मिल जाता था और वे हर दिन 400 रुपये से 520 रुपये तक कमा लेते थे, लेकिन अब उन्‍हें 8-12 दिन का ही काम मिल रहा है और वे हर दिन 250 रुपये से 300 रुपये ही कमा पाते हैं। इतनी कम मज़दूरी में बड़ी मुश्‍किल से उनके परिवार का पेट भर पाता है। ऑनलाइन पढ़ाई व दवा-इलाज के चक्‍कर में उन्हें क़र्ज़ा लेना पड़ रहा है। कई बच्चों के माँ-बाप ने उनका नाम स्कूल से कटवा दिया है। इन परिवारों में किसी की डिलीवरी की स्थिति हो अथवा कोई बीमार पड़ जाये तो उन्हें सालों के लिए क़र्ज़दार बनने पर मजबूर होना पड़ रहा है। जहाँ एक तरफ़ सरकारी अस्पतालों में ओपीडी में बहुत सीमित मरीज़ देखे जा रहे हैं और सारी जाँच व दवाएँ अस्‍पताल से बाहर ही मिल पाती हैं वहीं दूसरी ओर प्राइवेट डाक्टरों ने अपनी फ़ीस बढ़ा दी है। जिस डाक्टर की फ़ीस पहले 200 रुपये थी, अब वह 300 से 500 रुपये तक है। ऐसे में अगर किसी मज़दूर के परिवार में कोई बीमार पड़ जाता है तो उसका संकट और भी बढ़ जाता है।
कपड़े, बैग, जूते आदि बनाने वाले तमाम छोटे-बड़े कारख़ानों और दुकानों, शॉपिंग मॉलों और तमाम ब्राण्‍डों के शोरूम्स में लगे मज़दूरों को उनकी पहले से आधी तनख़्वाहों पर काम करने को मजबूर होना पड़ रहा है। ऐसे मज़दूरों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करना सरकार का काम होता है लेकिन केन्द्र व राज्य सरकारों ने अब तक गाल बजाने और जुमलेबाज़ी करने का काम ही किया है।
घरेलू कामगारों की स्थिति भी बहुत ही ख़राब है। कोरोना के डर से घरों में सफ़ाई, खाना बनाने, बर्तन साफ़ करने का काम करने वाले सभी कामगारों को काम पर वापस नहीं बुलाया जा रहा है और न ही मालिकों की ओर से उन्‍हें कोई विशेष मदद मिल रही है। ऐसे परिवारों के लिए अपने किराये के मकानों का भाड़ा, बिजली का बिल आदि देना मुश्किल होता जा है। मकान मालिकों द्वारा कमरे ख़ाली करने का दबाव बनाना बदस्‍तूर जारी है। इसके अलावा लेबर चौक पर काम की तलाश में खड़े होने वाले दिहाड़ी श्रमिकों को पहले की तुलना में काफ़ी कम काम मिल रहा है और उन्हें मजबूरी में आकर पहले से बहुत कम मज़दूरी पर काम करना पड़ रहा है।
हाल ही के कुछ सर्वेक्षण ग़रीबों-मेहनतकशों के जीवन पर अनियोजित लॉकडाउन की वजह से आई आफ़त की झलक देते हैं। एक सर्वेक्षण में महाराष्ट्र के पुणे और उल्लासनगर के 974 प्रवासी मज़दूरों से बात की गयी। बात करने वाले मज़दूरों में क़रीब आधे निर्माण मज़दूर थे, शेष गारमेण्‍ट सेक्टर के व बैग बनाने जैसे काम करने वाले मज़दूर थे। इस सर्वेक्षण में शामिल मज़दूरों में से 71 प्रतिशत को लॉकडाउन के दौरान कोई मज़दूरी नहीं मिली। कुल प्रवासी मज़दूरों में से 63 प्रतिशत का कहना था कि उनके गन्तव्य पर जीवित रहने के लिए कोई साधन नहीं है। इसी सर्वे में आगे बताया गया कि 28 प्रतिशत मज़दूरों तक किसी भी प्रकार की कोई सरकारी मदद नहीं पहुँची। जिनको सरकारी मदद मिली उनमें से 75 प्रतिशत ने बताया कि वह मदद पर्याप्‍त नहीं थी। 26 प्रतिशत मज़दूरों को लॉकडाउन के दौरान भूखे सोना पड़ा। 40 प्रतिशत मज़दूरों को ही सरकार की ओर से खाना व राशन मिल पाया।
लॉकडाउन खुलने के बाद अभी काम मिलने का सिलसिला शुरू ही हो रहा था कि एक बार फिर देश के कई हिस्‍सों में कोरोना के मामले तेज़ी से बढ़ने की ख़बरें आने लगी हैं। पूरे देश में दूसरी व दिल्ली में तीसरी कोरोना की लहर की बातें चर्चा में हैं और सीमित या पूर्ण लॉकडाउन लगाये जाने की आशंकाओं से मज़दूरों में दहशत का माहौल है। ज़ाहिर है कि सरकार न तो कोरोना महामारी पर अंकुश लगाने में कामयाब हो पा रही है और न ही मज़दूरों की आर्थिक व सामाजिक बदहाली और अनिश्चितता कम करने के लिए कोई कारगर क़दम उठा रही है।

मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2020


 

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