बुनियादी सुविधाओं से भी वंचित और सरकारी उपेक्षा की शिकार राजधानी दिल्ली की झुग्गियों का नारकीय जीवन

– सूरज सिंह, शाहाबाद डेयरी, दिल्ली

हमारे देश में हर साल लाखों की संख्या में लोग शहरों की ओर प्रवास करते हैं। इसका मुख्य कारण रोज़गार तथा बेहतर आजीविका प्राप्त करना होता है, जिससे वे अपने जीवन स्तर को बेहतर बना सकें। परन्तु शहरी जीवन केवल सापेक्षित तौर पर ग्रामीण जीवन से बेहतर होता है। मेहनतकश आबादी का शहरों का जीवन भी बदतर ही है। मज़दूरों के सामने सवाल बेहतर नरक चुनने का होता है। ये झुग्गियाँ अपराध और नशे का भी अड्डा हैं। इनमें से एक शाहबाद डेयरी जे. जे. कॉलोनी है जो अक्सर अपने आपराधिक चरित्र के कारण चर्चा में रहती है।
यह बस्ती छोटे क्षेत्रफल में फैली है परन्तु यहाँ की जनसंख्या 50,000 से भी अधिक है जिसमें 10,000 से भी अधिक झुग्गियाँ हैं और कम क्षेत्रफल में अधिक जनसंख्या होने के कारण अनेक स्वच्छता तथा स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं का होना तो लाज़िमी है। 90% से अधिक घरों में शौचालयों की उपलब्धता नहीं है, कारणवश यहाँ के लोगों को दिल्ली नगर निगम (MCD) के शौचालयों का इस्तेमाल करना पड़ता है, जिसके लिए पैसे भी देने पड़ते हैं। यह साफ़ तथा स्वच्छ नहीं होते। साथ ही महिलाओं के लिए ये शौचालय काफ़ी असुरक्षित भी हैं। आए दिन महिलाओं के साथ दुष्कर्म की घटनाएँ सामने आती हैं। स्वच्छ पानी के लिए पाइप लाइन उपलब्ध नहीं है, और जहाँ है, वह जगह-जगह फूटी होने के कारण उनमें नाली का पानी आता है। दिल्ली जल बोर्ड के टैंकर आते हैं लेकिन वे अपर्याप्त होते हैं। पानी के लिए टैंकरों पर अक्सर लड़ाइयाँ हो जाती हैं और कई बार टैंकर आते भी नहीं हैं। अन्त में इतनी जद्दोजहद के बाद बमुश्किल से ही पीने पर का पानी मिल पाता है। परन्तु इस जल की भी स्वच्छता का अभाव है। इस क्षेत्र में अधिकतर लोग पानी से फैलने वाली बीमारियों जैसे डायरिया, हैज़ा आदि से पीड़ित हैं।
इलाज की सुविधाओं का भी अभाव है। सरकारी अस्पतालों में लम्बी-लम्बी लाइनों में हालत और ख़राब कर देने वाली भीड़ होती है। बीमारियों के तमाम कारणों में से एक कारण है नालों का कचरा, जो नगर निगम द्वारा निकालकर गलियों में ही छोड़ दिया जाता है अतः जिससे पुन: अनेक स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। जहाँ जीवन की सामान्य ज़रूरत की वस्तुओं तथा सेवाओं के लिए इतनी जद्दोजहद करनी पड़ती हो, वहाँ गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तो एक स्वप्न ही है। ज़ाहिर है शाहबाद डेरी की अधिकतर आबादी दिहाड़ी मज़दूरी, रिक्शा चलाना, सफ़ाई आदि कार्यों में ही सलंग्न है। जो मुश्किल से ही अपनी निम्नतम आजीविका सुनिश्चित कर पाते हैं। ऐसे में मजबूरन अपने बच्चों को सरकारी विद्यालयों में ही पढ़ने के लिए भेजना पड़ता है। हालाँकि पूरे देश में ही अधिकतर सरकारी विद्यालयों की शिक्षा के दयनीय स्तर से हम भलीभाँति परिचित हैं, परन्तु जब एक झुग्गी के सरकारी विद्यालयों की बात आती है तो स्थिति कई गुना दयनीय पायी जाती है।
इसका मुख्य कारण बच्चों में प्रोत्साहन तथा उचित मार्गदर्शन का अभाव है। साथ ही अधिकतर माता-पिता अपने बच्चों को 14-15 वर्ष की आयु में ही अपने साथ काम पर लगा लेते हैं, जिससे उनकी पढ़ाई अधिकतर पाँचवी से छठी कक्षा तक ही हो पाती है। हालाँकि कुछ छात्र किसी प्रकार से 12वीं कक्षा तक पहुँच भी जाते हैं तो वह मार्गदर्शन के अभाव तथा आर्थिक कारणों से आगे नहीं बढ़ पाते। अन्त में वे छात्र प्रेरणाहीन होकर अपराधिक कार्यों जैसे चोरी, जेब काटना आदि में शामिल हो जाते हैं। हाल ही में ही शाहबाद डेयरी में दिन-दिहाड़े कुछ स्कूली छात्रों द्वारा क़त्लेआम की घटना को अंजाम दिया गया। इन छात्रों के अपराध में प्रवेश करने की ज़िम्मेदारी इस ज़हरीले परिवेश की ही बनती है।
शाहबाद डेयरी केवल एक सामान्य सा उदाहरण है, इसके अलावा देश की ऐसी ही हज़ारों झुग्गी बस्तियों के लोग इसी प्रकार का जीवन व्यतीत कर रहे हैं जो जीवन की बुनियादी सामाजिक, आर्थिक, शिक्षा तथा स्वास्थ्य सुविधाओं से महरूम हैं।
सरकारी आँकड़ों के अनुसार केवल दिल्ली में ही 700 झुग्गियाँ हैं जिसमें दिल्ली की एक-तिहाई अर्थात क़रीब 80 लाख आबादी रहती है। पूरे भारत की बात करें तो 2011 की जनगणना के अनुसार भारत की कुल जनसंख्या का 17.4% हिस्सा झुग्गी बस्तियों में निवास करता है। इन सबकी स्थिति भी कमोबेश उपर्युक्त उल्लिखित शाहबाद डेरी की जैसी ही हैं। ग़रीबी हटाओ, बेरोज़गारी मिटाओ, सबको आवास सरीख़े झूठे नारे सालों से हम सुनते आ रहे हैं। परन्तु अब भी सवाल जैसे के तैसे हैं। आख़िर आज़ादी के इतने दशकों बाद भी हम कहाँ खड़े हैं और हमें कहाँ खड़ा होना चाहिए था?

मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2020


 

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