मज़दूर वर्ग को दोहरी आपदा देकर गया वर्ष 2020
मेहनतकशों की ख़ुशहाली के लिए आपदाओं की जड़ पूँजीवाद को उखाड़ फेंकना होगा

  • सम्पादकीय

वर्ष 2020 की शुरुआत एक उम्मीद के साथ हुई थी क्योंकि दुनिया के तमाम हिस्सों में लोग भिन्न-भिन्न रूपों में पूँजीवादी व फ़ासीवादी सत्ताओं को जुझारू चुनौती दे रहे थे। भारत में भी नागरिकता संशोधन क़ानून और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर के ख़िलाफ़ शाहीन बाग़ से शुरू हुए जनान्दोलन की आग पूरे देश में फैलती जा रही थी जिससे फ़ासिस्ट सत्ता के माथे पर बल साफ़ दिखायी देने लगे थे। लेकिन मार्च के महीने तक आते-आते दुनिया के अधिकांश हिस्से कोरोना महामारी की चपेट में आ गये। मुनाफ़े की गिरती दर को रोकने की जुगत लगाने में मशग़ूल पूँजीवादी हुक्मरानों ने इस महामारी के सामने घुटने टेक दिये और मुनाफ़ाख़ोर पूँजीवादी चिकित्सा व्यवस्था की क़लई खुलकर सामने आ गयी। देखते-देखते यह इतिहास में सबसे अधिक तेज़ी से फैलने वाली वैश्विक महामारी बन गयी और साल बीतते-बीतते कोरोना की ज़द में दुनिया के 8 करोड़ से ज़्यादा लोग आ गये जिनमें से क़रीब 18 लाख लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा। साम्राज्यवाद के सिरमौर अमेरिका में इस महामारी का सबसे ख़ौफ़नाक मंज़र देखने में आया। भारत में भी पिछले साल आधिकारिक रूप से 1 करोड़ से ज़्यादा लोग कोरोना संक्रमित हुए और इस बीमारी की वजह से क़रीब डेढ़ लाख लोगों की मौत हो गयी। कहने की ज़रूरत नहीं कि इस आपदा और इससे निपटने के लिए लागू किये गये अनियोजित लॉकडाउन से सबसे ज़्यादा तबाही मज़दूर वर्ग की हुई। इसी दौरान फ़ासिस्ट हुक्मरानों ने गिद्ध की भाँति आपदा में भी अवसर ढूँढ़ते हुए मज़दूरों के हक़ों पर सबसे बड़ा हमला बोलते हुए श्रम अधिकारों को बेरहमी से छीन लिया। इस प्रकार ख़ास तौर पर मज़दूर वर्ग के लिए इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक का समापन एक दु:स्वप्न सरीखे हालात में हुआ।

राष्ट्रीय पटल पर बीते साल की प्रमुख घटनाएँ

पिछले साल की शुरुआत में सीएए-एनआरसी के ख़िलाफ़ उठ खड़े हुए ऐतिहासिक जनान्दोलन को कुचलने के लिए फ़ासिस्टों ने साम-दाम-दण्ड-भेद सबकुछ अपनाया। जेएनयू के छात्रों पर गुण्डों से हमला करवाया गया और देशभर में एक बार फिर भगवा राष्ट्रवाद की लहर चलाकर भाँति-भाँति की साज़िशें रचकर शाहीन बाग़ के आन्दोलन को बदनाम करने की शर्मनाक कोशिशें की गयीं। पर इन सभी साज़िशों के बावजूद दिल्ली विधानसभा चुनावों में फ़ासिस्टों को मुँह की खानी पड़ी। शाहीन बाग़ से शुरू हुई बग़ावत की आग पूरे देश में फैलती देखकर बौखलाहट में आये संघियों ने राजधानी दिल्ली को साम्प्रदायिक दंगों की आग में झोंकने की साज़िश रची और उन दंगों के लिए मुस्लिमों को ही ज़िम्मेदार ठहरा दिया। इस समय तक कोरोना ने वैश्विक महामारी का रूप अख़्तियार कर लिया था और भारत में भी कोरोना के मामले आने शुरू हो चुके थे, लेकिन मोदी सरकार इस आने वाली भीषण आपदा के संकेतों को नज़रअन्दाज़ करते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के स्वागत के लिए लाल कालीनें बिछाने में मसरूफ़ थी। मार्च के महीने में जब कोरोना के केस तेज़ी से बढ़ने लगे और हालात बेक़ाबू होते दिखने लगे तो प्रधानमंत्री ने बिना कोई योजना बनाये 130 करोड़ की आबादी वाले देश में महज़ 4 घण्टे की नोटिस पर पूर्ण लॉकडाउन लगाने जैसा तुगलक़ी फ़रमान लोगों को टेलीविज़न के ज़रिये सुनाया जिसके बाद पूरे देश में आपाधापी मच गयी।
यह पूर्वानुमान लगाने के लिए किसी प्रशासनिक अनुभव या अर्थव्यवस्था के ज्ञान की ज़रूरत नहीं थी कि ऐसे सिरफिरे फ़ैसले से देश के शहरों में रह रही करोड़ों प्रवासी मज़दूरों, ठेला-रेहड़ी-पटरी-गुमटी लगाने वालों, रिक्शा चलाने वाले और दिहाड़ी व ठेके पर काम करने वाले मज़दूरों को भूखे मरने की नौबत आ जायेगी। लेकिन फ़ासिस्ट शासकों से इतनी बुनियादी समझ व संवेदनशीलता की उम्मीद करना भी बेमानी है। वे जनता को ताली-थाली बजवाने और मोमबत्ती–टॉर्च जलवाने में व्यस्त थे। फ़ासिस्ट हुक्मरानों की इस संवेदनशून्यता का नतीजा देश के इतिहास में विभाजन के बाद मज़दूरों के सबसे बड़े पलायन के रूप में सामने आया। पैर के छालों, कड़ी धूप और सैकड़ों किलोमीटर तक की दूरी की परवाह किये बग़ैर बच्चों के साथ और सिर पर बोझा लादे पैदल अपने गाँवों की तरफ़ निकल पड़े मज़दूरों की ह्रदय विदारक तस्वीरें कोई भी संवेदनशील व्यक्ति ताज़िन्दगी नहीं भूल सकता। पलायन की इस भीषण त्रासदी के दौरान कितने मज़दूर भूख-प्यास और दुर्घटनाओं की वजह से मारे गये इसका कोई डेटा सरकार ने जारी नहीं किया। इसका भी कोई डेटा नहीं है कि इस दौरान भूख और कुपोषण से कितने लोगों ने दम तोड़ा होगा या गम्भीर बीमारियों के शिकार हुए होंगे।
कोरोना महामारी ने दुनियाभर में पूँजीवादी चिकित्सा व्यवस्था की पोल खोलकर रख दी है। इसने साबित कर दिया है कि स्वास्थ्य सुविधाओं के मामले में बढ़ती मुनाफ़ाख़ोरी का ख़ामियाज़ा समूची मानवता चुकाती है। पिछले कुछ दशकों के दौरान नवउदारवादी भूमण्डलीकरण के दौर में दुनिया के तमाम हिस्सों में स्वास्थ्य सुविधाओं के निजीकरण की जो आँधी चलायी गयी उसका नतीजा यह हुआ कि जब कोरोना महामारी ने दस्तक दी तो तीसरी दुनिया की तो बात ही दूर, अमेरिका जैसे विकसित देश में टेस्टिंग किट, मास्क, सैनिटाइज़र, अस्पताल बेड, आईसीयू, वेण्टिलेटर आदि की भारी किल्लत हो गयी। वैक्सीन की ग़ैर-मौजूदगी में इस महामारी पर क़ाबू पाने का एक ही तरीक़ा था कि शुरू में ही आक्रामक रूप से टेस्टिंग करके संक्रमित व्यक्तियों को अलग-थलग किया जाता, लेकिन विकसित देशों में भी यह समय पर नहीं हो सका। ऐसे में यह ताज्जुब की बात नहीं है कि बहुत कम समय में यह बीमारी तेज़ी से दुनिया के कोने-कोने में फैल गयी। अस्पतालों में ओपीडी बन्द होने की वजह से अन्य गम्भीर बीमारियों के शिकार लोग तड़पते रहे और उनमें से तमाम लोगों ने दम तोड़ दिया।
अभी कोरोना त्रासदी की भयावह ख़बरें और मज़दूरों के पलायन की ह्रदय विदारक तस्वीरें हमारी आँखों ये ओझल नहीं हुई थीं, इसी बीच विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में पहले से ही जारी संकट के गहराने की ख़बरें सुर्खियों में छाने लगीं। जिस प्रकार भारत में अनियोजित लॉकडाउन का सबसे भयावह नतीजा पलायन, भूख व कुपोषण के रूप में सामने आया उसी प्रकार इस लॉकडाउन की वजह से गहराई आर्थिक मन्दी का असर भी यहाँ दुनिया में सबसे ज़्यादा देखने में आया। साढ़े तीन साल पहले प्रधानमंत्री के सनक भरे नोटबन्दी के फ़ैसले से अर्थव्यवस्था का अनौपचारिक क्षेत्र तबाह हो गया था जो अभी पूरी तरह से उबरा भी न था कि उससे भी बड़ा झटका लग गया। इस दौरान लॉकडाउन की वजह से सकल घरेलू उत्पाद एक क्वार्टर में पिछले साल के मुक़ाबले 23 फ़ीसदी नीचे गिर गया। एक अनुमान के मुताबिक़ लॉकडाउन और उसकी वजह से गहराई मन्दी में क़रीब बीस करोड़ लोगों का रोज़गार छिन गया। यानी देश के कुल 60 करोड़ श्रमबल के एक-तिहाई लोगों को घर बैठना पड़ गया। इनमें से बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जिन्हें अभी तक काम नहीं मिल पाया है। जिन लोगों को काम मिला भी है उनकी आय अभी तक पहले जैसी नहीं हो पा रही है और बड़ी संख्या में लोग अभी भी काम की तलाश में दर-दर भटकने को मजबूर हैं। अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले 94 फ़ीसदी मज़दूरों के लिए यह संकट किसी भीषण आपदा से कम नहीं था। सबसे ज़्यादा दुर्गति महिला एवं दलित मज़दूरों की हुई। देश के कार्यबल में महिला मज़दूरों की भागीदारी की दर में गिरावट का सिलसिला पिछले साल भी जारी रहा।
मज़दूर वर्ग अभी कोरोना, लॉकडाउन और मन्दी का क़हर झेल ही ही रहा था, इसी बीच मोदी सरकार ने आपदा के दौर में भी अपने पूँजीवादी आक़ाओं को ख़ुश करने के लिए श्रम क़ानूनों पर निर्णायक हमला बोलते हुए 44 श्रम क़ानूनों को निरस्त कर 4 श्रम संहिताओं को लागू करने की योजना को अमली जामा पहनाया। इन श्रम संहिताओं के अमल में आने के बाद मज़दूरों के हड़ताल के अधिकार, न्यूनतम मज़दूरी, काम के घण्टे, ओवरटाइम, पीएफ़, पेंशन, ईएसआई जैसे अधिकार ढीले कर दिये गये हैं और उन्हें मालिकों व नौकरशाहों के रहमोकरम पर छोड़ दिया गया है। सबसे बड़ी त्रासदी तो यह है कि मज़दूर आन्दोलन और ट्रेड यूनियन आन्दोलन में पसरी मौक़ापरस्ती और बिखराव की वजह से मज़दूरों के अधिकारों पर इतने बड़े हमले के ख़िलाफ़ रस्मी प्रतिरोध से आगे बढ़कर कोई जुझारू प्रतिरोध नहीं खड़ा हो सका।
कोरोना काल में तथाकथित श्रम सुधारों से सम्बन्धित क़ानूनों को आनन-फ़ानन में संसद में पारित करवाने के अतिरिक्त मोदी सरकार ने कृषि सुधार के नाम पर पहले अध्यादेश के ज़रिये और बाद में संसद से क़ानून पारित करवाकर खेती-बाड़ी के क्षेत्र में भी कॉरपोरेट जगत के प्रवेश का रास्ता साफ़ कर दिया। निजी मण्डियों की मंज़ूरी मिलने के बाद एपीएमसी की मण्डियों और न्यूनतम समर्थन मूल्य पर आधारित कृषि अर्थव्यवस्था के भविष्य पर प्रश्नचिह्न लग गया जिसका सीधा नुक़सान पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के धनी किसानों, कुलकों और आढ़तियों को होगा जिनको पुरानी व्यवस्था में सबसे ज़्यादा लाभ होता था। औद्योगिक पूँजीपति वर्ग और कृषि पूँजीपति वर्ग के बीच तीखे हुए इस अन्तरविरोध की अभिव्यक्ति मौजूदा किसान आन्दोलन के रूप में हुई जिसमें पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के धनी किसान-कुलक-आढ़ती अपने हित को समूची किसान आबादी के हित के रूप में पेश कर रहे हैं। इसी वजह से इस आन्दोलन में छोटे-मँझोले किसानों की भी बड़ी तादाद देखने में आ रही है।

अन्तरराष्ट्रीय पटल पर बीते साल की प्रमुख घटनाएँ

अन्तरराष्ट्रीय पटल पर भी बीते साल कोरोना काल की त्रासदी छायी रही। अमेरिका, ब्रिटेन, इटली और स्पेन जैसे देशों में तो पिछले साल कई बार हालात बेक़ाबू होते नज़र आये जब कोरोना से होने वाली मौतों का तांता-सा लग गया। तमाम देशों में दोबारा लॉकडाउन लगाना पड़ा और अभी भी हालात क़ाबू में नहीं आ रहे हैं। इस महामारी के के दौर में भी अमेरिका व चीन के बीच अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा अपने नये कलेवर में और तीखी हुई। इस प्रतिस्पर्द्धा को बहुत-से पूँजीवादी विश्लेषक ‘नया शीत युद्ध’ की संज्ञा दे रहे हैं।
पिछले साल कोरोना को लेकर अमेरिका व चीन के बीच तनातनी का रिश्ता रहा। यहाँ तक कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने कोरोना को ‘चीनी वायरस’ कहकर पुकारा। अमेरिका ने ‘टिक-टॉक’ समेत कई चीनी मोबाइल ऐप पर प्रतिबन्ध लगा दिया और 5जी टेक्नोलॉजी सेवाएँ प्रदान करने वाली चीन की कम्पनी हुआवेई पर न सिर्फ़़ अपने मुल्क़ में प्रतिबन्ध लगाया बल्कि यूरोपीय मुल्क़ों पर इस कम्पनी पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए दबाव बनाया। ग़ौरतलब है कि चीन में गूगल व फ़ेसबुक जैसी सेवाएँ पहले से ही प्रतिबन्धित हैं। अमेरिका और चीन के बीच जारी यह ‘प्रौद्योगिकी युद्ध’ प्रौद्योगिकी के ज़रिये दुनिया के बाज़ारों पर क़ब्ज़ा करने की अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा का ही नतीजा है। दक्षिण चीन सागर में हालात तनावपूर्ण बने रहे और युद्ध के काले बादल छाये रहे। साल के अन्त में अमेरिका में राष्ट्रपति चुनावों में एक नाटकीय घटनाक्रम के बाद बड़ी मुश्किल से ट्रम्प सत्ता से बाहर गया। हालाँकि हमें इस मुग़ालते में नहीं रहना चाहिए कि बाइडेन के सत्ता में आने के बाद अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा में कोई कमी आयेगी और दुनिया शान्ति की ओर अग्रसर होगी। नवनिर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडेन ने संकेत दे दिये हैं कि चीन के साथ होड़ बरक़रार रहेगी।
पिछले साल भारत के पड़ोसी देशों (ख़ासकर चीन व नेपाल) के साथ सम्बन्ध में तनाव बना रहा। चीन के साथ तनाव इतना अधिक बढ़ गया कि लद्दाख स्थित गलवान घाटी में चीन व भारत की सेनाओं के बीच झड़प की नौबत आ गयी। कुछ दिनों तक दोनों देशों के बीच युद्ध की आशंकाएँ बनी रहीं। भारत के पड़ोसी मुल्क़ नेपाल के साथ भी कालापनी, लिम्पियाधुरा और लिपुलेख को लेकर विवाद पिछले साल सुर्खियों में रहा जब भारत द्वारा इन विवादास्पद इलाक़ों तक जाने वाली सड़क के उद्धाटन के बाद नेपाल ने नक़्शे में शामिल दिखाया। नेपाल की अन्दरूनी राजनीति में भी पिछले साल राजनीतिक अस्थिरता बनी रही। सत्तारूढ़ नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी में ओली व प्रचण्ड धड़े के बीच सत्ता को लेकर खींचातानी बनी रही जिसकी परिणति साल के अन्त में प्रधानमंत्री ओली द्वारा संसद भंग करने के प्रस्ताव के रूप में सामने आयी जिसके बाद से नेपाल में राजनीतिक अनिश्चितता बनी हुई है।

अन्त में…

जहाँ एक ओर पिछला वर्ष मज़दूर वर्ग के लिए अकथनीय तकलीफ़ों से भरा रहा, वहीं दूसरी ओर शासकों की विलासिता और उनके षड्यंत्रों ने लोगों के ज़ख़्मों पर नमक डालने का काम किया। कोरोना महामारी के बीच ही ख़ुद को फ़कीर कहने वाले हमारे प्रधानसेवक ने साढ़े आठ हज़ार करोड़ के दो हवाई जहाज ख़रीदे और पचीस हज़ार करोड़ रुपये की लागत वाले निहायत ही ग़ैर-ज़रूरी सेण्ट्रल विस्टा प्रोजेक्ट का भूमि पूजन किया। कोरोना महामारी के बीच ही नरेन्द्र मोदी ने अयोध्या में राम मन्दिर निर्माण की भी आधारशिला रखी। पिछले साल हुए घटनाक्रम से यह सच्चाई भी उभरकर सामने आयी कि उत्तर प्रदेश इस समय संघ परिवार के फ़ासिस्ट हिन्दुत्व के प्रयोग की नयी प्रयोगशाला बन चुका है। हिन्दुत्व के इसी फ़ासिस्ट प्रयोग के तहत उत्तर प्रदेश में निरंकुश पुलिस राज्य की स्थापना हो रही है जिसकी अभिव्यक्ति फ़र्ज़ी एनकाउण्टरों, प्रदर्शनकारियों के साथ बर्बर सलूक़ और गेस्तापो सरीख़े विशेष सुरक्षा बल, तथाकथित लव-जिहाद को रोकने के लिए बने क़ानून के रूप में देखी जा सकती है। इसी प्रयोग का नतीजा उन्नाव व हाथरस जैसी स्त्री-विरोधी वीभत्स अपराधों और जातिगत गोलबन्दी के रूप में सामने आ रहा है। बिहार विधान सभा चुनाव के नतीजों से यह दिन के उजाले के तरह स्पष्ट हो गया कि अवसरवादी चुनावी गठबन्धन करके इस फ़ासीवादी दैत्य से जीतने के बारे में सोचना शेखचिल्ली के सपने जैसा है। सच तो यह है कि कोरोना काल में भी फ़ासिस्टों ने अपना सामाजिक आधार विस्तारित किया है और अब वे बंगाल, तेलंगाना, आन्ध्र व केरल जैसे राज्यों में भी अपने पैर फैला रहे हैं जहाँ ऐतिहासिक रूप से उनका आधार बहुत सीमित रहा है। इतिहास से सबक़ लेते हुए मेहनतकशों का जुझारू क्रान्तिकारी आन्दोलन खड़ा करके ही हम फ़ासीवाद से भी मुक़ाबला कर सकते हैं और उसकी व तमाम आपदाओं की जड़ पूँजीवाद को भी उखाड़कर फेंक सकते हैं। नये साल व नये दशक में हमें ऐसे ही जुझारू क्रान्तिकारी आन्दोलन को खड़ा करने का संकल्प लेना चाहिए।

मज़दूर बिगुल, जनवरी 2021


 

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