बिना योजना थोपा गया लॉकडाउन और मज़दूरों के हालात

– भारत

हमारा देश आज ज्वालामुखी के दहाने पर बैठा धधक रहा है। दूसरी तरफ़ हमारे देश का नीरो बाँसुरी बजा रहा है। कोरोना महामारी से बरपे इस क़हर ने पूँजीवादी स्वास्थ्य व्यवस्था के पोर-पोर को नंगा कर के रख दिया है। एक तरफ़ देश में लोग ऑक्सीजन, बेड, दवाइयों की कमी से मर रहे हैं, दूसरी तरफ़ फ़ासीवादी मोदी सरकार आपदा को अवसर में बदलते हुए पूँजीपतियों की तिजोरियाँ भरने में मग्न है। जब कोरोना की पहली लहर के ख़त्म होने के बाद देश भर की स्वास्थ्य व्यवस्था को दुरुस्त करना चाहिए था, तब यह निकम्मी सरकार चुनाव लड़ने में व्यस्त थी। पिछली बार से कोई सबक़ न लेते हुए (जिनकी इन हत्यारों से उम्मीद भी नहीं की जा सकती) इस बार भी मेहनतकश आवाम को अपने हाल पर छोड़ दिया गया है।
इस बार मोदी ने पूरे देश में एक साथ लॉकडाउन न लगाकर, यह काम राज्य सरकारों के अधीन कर दिया है। वहीं राज्य सरकारों ने भी मोदी सरकार के पदचिह्नों पर चलकर बिना किसी तैयारी के लॉकडाउन की घोषणा कर दी है। इस समय देश में केरल, यूपी, बिहार, छत्तीसगढ़, राजस्थान, तमिलनाडु, उड़ीसा, दिल्ली व हिमाचल प्रदेश में लॉकडाउन लगा हुआ है। कई राज्यों में मिनी लॉकडाउन और रात का कर्फ़्यू लगा है। ऐसे में देश की मेहनतकश आवाम को इन सरकारों ने भूख और बीमारी से मरने के लिए छोड़ दिया है।
हर जगह इस अनियोजित लॉकडाउन से मज़दूरों के बीच अनिश्चितता का माहौल है। उनके बीच पिछले साल की वह भयावह यादें अब भी ताज़ा है। अगर पिछले वर्ष की बात करें तो स्टैण्डर्ड वर्कर एक्शन ग्रुप के एक सर्वे के अनुसार पिछले साल 81.6 प्रतिशत प्रवासी मज़दूरों को लॉकडाउन के दौरान राशन नहीं मिला। एक्शन एड की एक रिपोर्ट बताती है कि 2020 में अनियोजित लॉकडाउन के कारण 78 प्रतिशत मज़दूरों के पास रोज़ी-रोटी कमाने का कोई साधन नहीं था। अन्य एक रिपोर्ट के अनुसार 85 प्रतिशत मज़दूरों को लॉकडाउन का वेतन नहीं मिला। इसी कारण पिछले साल क़रीब 8 से 10 करोड़ मज़दूरों का पलायन हुआ। इसी पलायन में ही क़रीब 100 मज़दूरों की जान चली गयी और करोड़ों लोग भूख से बेहाल होकर पुलिस की मार खाते हुए हज़ारों किलोमीटर चलते रहे। यह इस देश की आज तक की सबसे बड़ी त्रासदियों में से एक है। इसी कारण आज भी मज़दूरों के बीच अनिश्चितता है जो इस पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा ही जनित है। बेशर्मी की इन्तिहाँ देखिए! पिछले साल मज़दूरों को घर पहुँचाने के लिए ट्रेन चालू करने में मोदी सरकार ने लापरवाही बरती, पर इस बार कोरोना को शुद्ध करने की ख़ातिर कुम्भ स्नान के लिए मुस्तैदी से 25 स्पेशल ट्रेनें चलायी गयीं।
आज एक तरफ़ मज़दूरों के ऊपर अनियोजित लॉकडाउन का क़हर बरपा हो रहा है, दूसरी तरफ़ बेरोज़गारी भी महामारी का ही रूप ले रही है। मार्च 2021 में भारत में बेरोज़गारी दर 6.5 फ़ीसदी थी। शहरी इलाक़ों में बेरोज़गारी की दर 7.1 फ़ीसदी तो ग्रामीण इलाक़ों में 6.2 फ़ीसदी है। जिन राज्यों में बेरोज़गारी दर सबसे ज़्यादा है वह हैं – हरियाणा, राजस्थान, गोवा, हिमाचल प्रदेश, झारखण्ड, बिहार, त्रिपुरा, दिल्ली, पंजाब। अधिकतम बेरोज़गारी दर की बात करें तो अभी 23.50 फ़ीसदी तक पहुँच गयी है। पिछले साल लॉकडाउन से लेकर अब तक कारख़ानों से लेकर हर क्षेत्र के मज़दूरों के बीच बेरोज़गारी बढ़ी है। जिन मज़दूरों के पास काम है, उनका वेतन घटा दिया गया है क्योंकि बेरोज़गारी बढ़ने से मालिकों की मज़दूरों से मोल-भाव की क्षमता भी बढ़ गयी है। ऐसे भी बहुत मज़दूर मिले जिन्हें पिछले लॉकडाउन के बाद अब तक काम नहीं मिला है।
लॉकडाउन का सबसे ज़्यादा असर असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे मज़दूरों पर पड़ा है। भारत में क़रीब 90% मज़दूर असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। आइए इसके असर को अधिक विस्तार से समझते हैं – आज भारत में 18 करोड़ लोग झुग्गियों में रहते हैं और 18 करोड़ आबादी फुटपाथ पर सोती है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण(2013) के मुताबिक़ देश के ग्रामीण इलाक़ों में सबसे निर्धन लोग औसतन 17 रुपये प्रति दिन और शहरों में 23 रुपये प्रति दिन में गुज़ारा करते हैं। 2006 में आयी अर्जुन सेनगुप्ता कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार देश में 84 करोड़ लोग ऐसे थे जो रोज़ाना 20 रुपये में गुज़र-बसर करते थे। कमोबेश यही हालात आज भी बने हुए हैं। अगर मज़दूरी थोड़ी बढ़ी है, तो महँगाई उससे भी ज़्यादा बढ़ गयी है।
ऐसी स्थिति में पिछले साल लॉकडाउन लगा और मज़दूरों के खाने तक की दिक़्क़त हो गयी, बहुतों के सर पर तो छत भी नहीं बची। एक सर्वे के अनुसार पिछले साल लॉकडाउन में 60 प्रतिशत प्रवासी मज़दूरों को घर ख़ाली करना पड़ा था। इसी सर्वे में पता चला कि 63 प्रतिशत मज़दूरों को दिन में दो बार मुश्किल से खाना मिल पा रहा था। 34 प्रतिशत ऐसे लोग थे जिन्हें सिर्फ़ एक बार ही खाना नसीब हो रहा था और 3 प्रतिशत लोगों को दिन में दो बार। ज़रा सोचिए कि कोरोना की दूसरी लहर और ये अनियोजित लॉकडाउन किस क़दर मज़दूरों पर आफ़त बनकर टूट रहा है। और तो और फ़ासीवादियों की लापरवाही ने इसे दस गुना विकराल रूप दे दिया है। मज़दूर आबादी तो पहले से ही शोषण के पहियों में पिस रही थी, कोरोना ने उस शोषण के पहिये की रफ़्तार को और तेज़ कर दिया है।
कारख़ाने बन्द होने के बाद से अब तक मालिकों ने मज़दूरों के वेतन नहीं दिये हैं। महाराष्ट्र दिल्ली में लॉकडाउन लगने के बाद मज़दूरों की एक आबादी गाँव के लिए निकल गयी, इस बार भी पिछली बार की तरह तीन गुना अधिक किराया देकर गाँव जाने को मजबूर है, पर वह भी जानते हैं गाँव में ज़्यादा दिन तक नहीं रहा जा सकता है, इसलिए वापस आना ही पड़ेगा। इसी कारण इस बार पिछली बार की तरह पलायन नहीं हुआ, पर जो आबादी इस बार गाँव नहीं गयी, उनके लिए दूसरी लहर से बचने के लिए न ही आर्थिक सुरक्षा है और न ही स्वास्थ्य की और न ही अभी तक इसे मुहैया कराने के लिए किसी सरकार ने इसकी तरफ़ कोई ध्यान दिया है। एक तरफ़ मज़दूरों की एक आबादी ऐसी भी है जिसे इस समय भी मजबूरन काम पर जाना पड़ रहा है, यदि नहीं जायेंगे तो खाने के लाले पड़ जायेंगे। दिल्ली की बात करें तो अभी लॉकडाउन में भी यहाँ 30 प्रतिशत कारख़ाने ग़ैर-क़ानूनी तौर पर चल रहे हैं, जहाँ मज़दूर बिना किसी सुरक्षा के जा रहे हैं। कारख़ानों में मज़दूरों के लिए बुनियादी सुरक्षा ही नहीं होती, तो मास्क सेनेटाइज़र मिलना तो बहुत दूर की कौड़ी है। इसी लापरवाही के कारण वाहन निर्माता कम्पनी मारुति में कई मज़दूरों की कोरोना से जान चली गयी, जिसके बाद कम्पनी को हरियाणा के अपने तीनों प्लाण्टों को 9 मई तक बन्द करना पड़ा। मारुति जैसे बड़े कारख़ानों की ये हालत है, तो देश भर में फैले छोटे कारख़ानों में क्या हालत होगी।
हाल के कुछ सर्वेक्षण ग़रीबों-मेहनतकशों के जीवन पर अनियोजित लॉकडाउन की वजह से आयी आफ़त की झलक देते हैं। एक सर्वेक्षण में महाराष्ट्र के पुणे और उल्हासनगर के 974 प्रवासी मज़दूरों से बात की गयी। बात करने वालों में क़रीब आधे निर्माण मज़दूर थे, शेष गारमेण्ट सेक्टर के और बैग बनाने का काम करने वाले मज़दूर थे। इस सर्वेक्षण में शामिल मज़दूरों में 70 प्रतिशत मज़दूरों को काम के दौरान की मज़दूरी नहीं मिली। कुल प्रवासी मज़दूरों में से 63 प्रतिशत मज़दूरों का कहना था कि उनके गन्तव्य पर जीवित रहने के लिए कोई साधन नहीं है। इसी सर्वे में आगे बताया गया कि 68 प्रतिशत मज़दूरों तक किसी भी प्रकार की कोई सरकारी मदद नहीं पहुँची। जिनको सरकारी मदद मिली, उनमें से 75 प्रतिशत ने बताया कि वह मदद पर्याप्त नहीं थी। 36 प्रतिशत मज़दूरों को लॉकडाउन के दौरान भूखे सोना पड़ा। 30 प्रतिशत मज़दूरों को ही सरकार की ओर से राशन मिल पाया।
स्वास्थ्य व्यवस्था चरमराने के साथ ही मज़दूर इलाक़ों में भी इस महामारी के फैलने का ख़तरा बढ़ गया है, क्योंकि मज़दूर इलाक़ों में सरकारी अस्पताल नदारद है और ना ही कोरोना से जुड़े प्रोटोकॉल को लागू करने की परिस्थिति है। शौचालय से लेकर पानी भरने की लाइन तक में भीड़ होती ही है और यहाँ भौतिक दूरी का पालन करना सम्भव नहीं हो सकता। और ज़रा सोचिए! 8 गुना 10 के झुग्गियों में कैसे पीड़ित व्यक्ति को क्वॉरेण्टाइन किया जायेगा। पूरे देश की मज़दूर बस्तियों में भी कोरोना संक्रमितों की संख्या पिछली बार के मुक़ाबले लगातार बढ़ रही है और मौतें भी ज़्यादा हो रही हैं। दिल्ली के शाहबाद डेरी में मज़दूर बस्ती से सटा एक श्मशान भी बनाना पड़ा, वहाँ हर रोज़ क़रीब पचास कोरोना से मृत लोगों को जलाया जा रहा है। असल आँकड़े सरकारी रिपोर्ट में दर्ज नहीं होते।
मज़दूरों के अलग-अलग हिस्सों में सब मुख्यतः एक ही समस्या से जूझ रहे हैं। घरेलू कामगार हो या दिहाड़ी-कारख़ाना मज़दूर, छोटा-मोटा रेहड़ी करने वाले मेहनतकश, सब यही बताते हैं कि सरकार ने उन्हें भूख और बीमारी से मरने के लिए छोड़ दिया है। घरेलू कामगार रीना बताती हैं कि अप्रैल से लॉकडाउन लगने के बाद कोठी मालिक काम पर नहीं बुला रहा और न ही बकाया पैसा दे रहा है और आरडब्लूए भी इस पर कुछ नहीं कर रहा है। सरकार भी राशन नहीं दे रही, हम किरायेदार हैं। कहाँ जायें! भूख से ही मरें या बीमारी से!
फ़ासीवादी मोदी सरकार कोरोना के प्रति शुरुआत से ही पाशविक लापरवाही बरतती आयी है, जो अब अपने क्रूरतम रूप में है। जब पूरी दुनिया में कोरोना फैल रहा था, तब मोदी ‘नमस्ते ट्रम्प’ करा रहा था, दिल्ली दंगों के सफल प्रयोग किये जा रहे थे, सीएए-एनआरसी आन्दोलनों को कुचला जा रहा था। इसके बाद कोरोना के लड़ने के नाम पर आनन-फ़ानन में लॉकडाउन लगा दिया और तुरन्त घड़ियाली आँसू बहाते हुए पीएम केयर्स फ़ण्ड बनाया गया जिसके पैसे का आजतक कोई हिसाब-किताब नहीं दिया गया। इस समय देश चिताओं के ढेर में तब्दील हो रहा है, पर देश में सेण्ट्रल विस्टा का काम बिना रुके चलता जा रहा है। अनियोजित लॉकडाउन के अलावा जो सबसे बड़ा हमला मोदी सरकार ने मज़दूरों पर किया है, वह है काग़ज़ों पर बचे-खुचे श्रम क़ानूनों को समाप्त कर, चार लेबर कोड बनाना। इस क़ानून के लागू होने के बाद वेतन का भुगतान अधिनियम 1936, न्यूनतम वेतन अधिनियम 1948, बोनस भुगतान अधिनियम 1965 और समान पारिश्रमिक अधिनियम 1976 को ख़त्म कर दिया गया है। इसके अन्तर्गत पूरे देश के लिए वेतन का न्यूनतम स्तर निर्धारित किया जायेगा। सरकार ने मालिकों के प्रति उदारता दिखाते हुए प्रतिदिन के लिए स्तरीय मज़दूरी 178 रुपये करने की घोषणा कर दी है यानी 26 दिन का 4628 रुपये। इसी के साथ जिन कारख़ानों में 300 तक मज़दूर हैं उनकी छँटनी करने के लिए सरकार की इजाज़त लेने की ज़रूरत नहीं होगी (पहले यह संख्या 100 थी)। मैनेजमेण्ट को 60 दिन का नोटिस दिये बिना मज़दूर हड़ताल पर नहीं जा सकते। यह सब क़ानून तब लागू किये गये जब कोरोना के कारण पूरे देश में लॉकडाउन जैसे हालात बने हुए हैं। इस समय भी मोदी सरकार मालिकों की जेब भरने में कोई कोताही नहीं बरत रही है।
राज्य सरकारें भी भाजपा की ही तरह रुख़ अख़्तियार किये हुए हैं। बिना योजना के लॉकडाउन लगाने के बाद मज़दूरों के राशन-पानी या उनके लिए गुज़ारे भत्ते की बात किसी भी मुख्यमंत्री ने नहीं की। दिल्ली में केजरीवाल ने भी लॉकडाउन लगा दिया, पर दिल्ली में रहने वाली मज़दूर आबादी के लिए इसके मुँह से एक शब्द भी नहीं निकला, बस “मैं हूँ ना” सरीखा मज़ाक़ करते रहे। यूपी में फ़ासिस्ट योगी सरकार ने तो पिछले साल लॉकडाउन में ही सारे श्रम क़ानूनों की धज्जियाँ उड़ाकर मज़दूरों को ग़ुलाम बनाने की तैयारी शुरू कर दी थी। इसी कारण यूपी मॉडल, गुजरात मॉडल से आगे निकल चुका है। योगी ऑक्सीजन, बेड के लिए शिकायत करने वालों पर राजद्रोह लगा रहा है। महाराष्ट्र में उद्धव सरकार ने जैसे ही सम्पूर्ण लॉकडाउन लगाया वैसे ही पिछली बार की ही तरह वहाँ से प्रवासी मज़दूरों का पलायन शुरू हो गया। मुम्बई से सटे ठाणे, नवी मुम्बई और पालघर ज़िले के बॉर्डर पर मज़दूरों का बड़े पैमाने पर पलायन शुरू हो गया।
कोरोना से पहले ही पूँजीवादी व्यवस्था भयानक मन्दी के दौर से गुज़र रही थी, कोरोना ने इस संकट को और गहरा बना दिया है। मालिकों की मुनाफ़े की दर गिरने के कारण मन्दी उत्पन्न होती है। अपनी मुनाफ़े की दर को बढ़ाने के लिए पूँजीपति वर्ग किसी भी हद तक जा सकता है और उसका सबसे बड़ा निशाना मज़दूर वर्ग ही होता है। कोरोना संकट को भी अवसर में तब्दील करते हुए मज़दूरों के अधिकार को छीनने का काम अपनी मैनेजिंग कमेटी के द्वारा जारी रखा।
पिछले वर्ष आनन-फ़ानन में लगाये गये अनियोजित लॉकडाउन के ख़िलाफ़ मज़दूरों ने कई जगहों पर स्वतःस्फूर्त तरीक़े से आवाज़ उठायी थी। आज देश के अलग-अलग राज्यों में हुए अनियोजित लॉकडाउन के ख़िलाफ़ अपनी माँगों को लेकर हमें सचेतन एकजुट होना होगा और ऐलान करना होगा कि न हमें कोरोना से मौत मंज़ूर है, न भूख से और न बेरोज़गारी से।
हमारी तात्कालिक माँगें :
1. पूरे देश में समूची स्वास्थ्य व्यवस्था का तत्काल राष्ट्रीकरण करो! सभी को एक समान सार्वभौमिक और निःशुल्क स्वास्थ्य सेवाएँ प्रदान करो और स्वास्थ्य के अधिकार को मूलभूत अधिकार घोषित करो!
2. सभी निजी अस्पतालों, नर्सिंग होमों, पैथोलॉजी लैबों, दवा कम्पनियों, कोरोना वैक्सीन फ़ैक्टरियों और चिकित्सा-सामग्री निर्माण उद्योगों का राष्ट्रीकरण करो! कोरोना वैक्सीन को पेटेण्ट से मुक्त करो!
3. आबादी के अनुपात में व्यापक पैमाने पर डॉक्टरों व स्वास्थ्यकर्मियों की तत्काल पक्की भर्ती करो!
4. देश के प्रत्येक नागरिक तक सार्वभौमिक राशन वितरण प्रणाली से भोजन की आपूर्ति की जाये!
5. बिना किसी तैयारी के थोपे जा रहे अनियोजित लॉकडाउन को तत्काल रोका जाये। लॉकडाउन की क़ाबिल डॉक्टरों-वैज्ञानिकों के बहुलांश द्वारा संस्तुति करने पर भी इसे तभी लागू किया जाये जब सरकार प्रत्येक नागरिक तक खाद्य सामग्री पहुँचाया जाना सुनिश्चित करे और प्रत्येक नागरिक को सीधे न्यूनतम आमदनी मुहैया कराये।
6. मज़दूरों-कर्मचारियों की कोरोना संक्रमण से सुरक्षा की व्यवस्था की जाये तथा संक्रमितों को सवैतनिक अवकाश दिया जाये!
7. सभी स्टेडियमों, बैंक्वेट हॉलों, होटलों और ख़ाली सरकारी इमारतों को सरकारी कोविड सेण्टरों में तब्दील करो!

मज़दूर बिगुल, मई 2021


 

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मज़दूरों के महान नेता लेनिन

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