लॉकडाउन के बाद दिल्ली में मज़दूरों के हालात

– भारत

बीते वर्ष मार्च में कोरोना महामारी की वजह से जो लॉकडाउन लगा था, उसमें मज़दूरों के साथ कितना ज़ुल्म हुआ था, वह किसी से छुपा नहीं है। लाखों-करोड़ों की संख्या में मज़दूर देश के महानगरों को छोड़कर गाँव पलायन करने के लिए मजबूर हुए थे। जिसका कारण मोदी सरकार द्वारा बिना किसी तैयारी के लगाया गया लॉकडाउन था। यही हालात दिल्ली के उत्तर-पश्चिमी छोर पर बसे बवाना-नरेला-बादली जैसे औद्योगिक क्षेत्रों के भी थे। यहाँ से भी हज़ारों की संख्या में मज़दूरों ने पलायन किया। पर अगस्त तक जैसे-जैसे लॉकडाउन खुल रहा था, उसी प्रकार बड़ी तादाद में मज़दूर वापस आना शुरू हो चुके थे। अक्टूबर-नवम्बर तक क्षेत्र में ज़्यादातर मज़दूर वापस आ चुके थे। जैसे मोदी ने कहा था कि आपदा को अवसर में बदलो, मालिकों ने लॉकडाउन खुलने के बाद आपदा का फ़ायदा उठाकर मज़दूरों को लूटने के नये अवसर निकाले।
सबसे पहले तो मज़दूरों की मार्च से जून तक की तनख़्वाह का भुगतान नहीं किया। ऐसे समय में जब सरकार को सख़्ती से मालिकों को महामारी के वेतन का भुगतान करने के लिए निर्देश देना चाहिए, तब सरकार ने मज़दूरों को मालिकों के रहम पर छोड़ दिया। ऊपर से कोर्ट ने भी आदेश जारी किया कि मालिक वेतन देने के लिए बाध्य नहीं हैं। वेतन देने की बात तो छोड़िए मालिकों ने बहुत से मज़दूरों को काम पर से भी निकाल दिया।
अगर पूरे बवाना औद्योगिक क्षेत्र की बात करें तो यहाँ क़रीब बारह से पन्द्रह हज़ार कारख़ाने हैं। इनमें से सत्तर प्रतिशत कारख़ाने बग़ैर पंजीकरण के चल रहे हैं। आज रोज़गार के हालात क्या हैं इसका अन्दाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बवाना के सेक्टर पाँच में चार हज़ार के क़रीब कारख़ाने हैं और यहाँ ए से पी ब्लॉक तक भटकने के बाद सिर्फ़ क़रीब ढाई सौ कारख़ानों में काम मिल रहा है जबकि मज़दूरों का वापस आना अब भी जारी है।
दूसरी तरफ़ मज़दूरों के वेतन में मालिकों ने एक हज़ार से पन्द्रह सौ की कटौती की है। अब बवाना में मज़दूरों की आठ घण्टे की तनख़्वाह पैंसठ सौ से सात हज़ार के बीच है और चार घण्टे ओवरटाइम लगाने के बाद नौ हज़ार तक भी बमुश्किल बनते हैं। यह तनख़्वाह तो सिर्फ़ पुरुषों की है, महिलाओं की आठ घण्टे की पगार पाँच से छः हज़ार रुपये है।
एक तरफ़ बेरोज़गारी अपने चरम पर है, तो एक तरफ़ जहाँ काम मिल रहा है या जो मज़दूर काम कर रहे हैं वहाँ से आठ घण्टे काम का नियम ही लुप्त हो चुका है। दीया लेकर ढूँढ़ने पर भी आठ घण्टे का काम नहीं मिलेगा। मज़दूरों को भी मजबूरी में बारह घण्टे काम करना ही पड़ता है, क्योंकि छः-सात हज़ार में घर तो चलने वाला नहीं है।
इसके अलावा कोरोना काल में भी फ़ैक्टरी की तरफ़ से कोई मास्क, सैनेटाइज़र उपलब्ध नहीं कराये जाते। सुरक्षा के अन्य साधनों की बात ही क्या करें, जब दस्ताने और जूते तक नहीं मिलते। कहीं अगर फ़ैक्टरी में आग लगती है तो ज़िन्दा बचने के कम ही मौक़े मिलते हैं।
मोदी से प्रेरणा लेते हुए केजरीवाल भी “आपदा को अवसर” बनाने में आमादा है। कोरोना महामारी से लड़ने के नाम पर आम जनता की जेब में सीधा डाका डालने का फ़रमान जारी किया हुआ है। दिल्ली प्रशासन बिना मास्क लगाये लोगों का सीधा दो हज़ार का चालान काट रहा है। दूसरी तरफ़ औद्योगिक इलाक़ों में कारख़ानों के अन्दर जाँच हो रही है कि मज़दूरों ने मास्क लगाया है या नहीं। जो मज़दूर फ़ैक्टरी के अन्दर बिना मास्क लगाये मिलते हैं तो कारख़ाना मालिक का चालान ना काटकर मज़दूरों से दो हज़ार रुपये वसूल किये जाते हैं।
महीने में मज़दूरों को सात हज़ार वेतन मिलता है। अमूमन पूरी दिल्ली के औद्योगिक इलाक़ों में प्रतिदिन मज़दूर क़रीब दो सौ बत्तीस रुपये देहाड़ी कमाते हैं। यानी कि दो हज़ार कमाने के लिए उन्हें चार-पाँच दिन खटना पड़ता है और मालिक की लापरवाही-बदइन्तज़ामी के कारण उनकी मेहनत की कमाई मारी जाती है। सरकार और मालिकों का गठजोड़ इससे और स्पष्ट हो जाता है कि लॉकडाउन खुलने के बाद कारख़ाने में मालिक मास्क-सेनेटाइज़र जैसी बुनियादी चीज़ें उपलब्ध नहीं कराते तो मालिकों पर कोई कार्रवाई नहीं होती पर अगर मज़दूर बिना मास्क लगाये मिलता है, तो सीधा दो हज़ार वसूल किये जाते हैं।
मज़दूरों के लिए ई.एस.आई, पी.एफ़. की बात तो अब एक भूली-बिसरी यादें हो चुकी हैं। मालिक भी “आत्मनिर्भर भारत” बनाने के लिए ज़्यादा से ज़्यादा काम ठेके पर करवा रहे हैं।
अब सोचिए! फ़ासीवादी मोदी सरकार जो लेबर कोड लागू करने जा रही है, उसका मक़सद यही है कि इस नंगई को क़ानूनी अमलीज़ामा पहनाया जाये। मज़दूरों को क़ानूनी तरीक़े से पहले से ज़्यादा निचोड़ा जाये।
पूँजीवाद का यही अन्तर्विरोध है कि एक तरफ़ बेरोज़गारों की फ़ौज और दूसरी ओर जानवरों जैसे हालात में काम करते मेहनतकश लोग। आने वाले दौर में ऐसे ही अन्तर्विरोध पूँजीवाद को उसकी क़ब्र तक ले जायेंगे, बस हमें वर्गीय एकजुटता बनाकर इसे एक धक्का ज़ोर से देना होगा।

मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2021


 

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