मुम्बई : मेहनतकशों की ठण्डी हत्याओं की राजधानी

– अविनाश

देश की आर्थिक राजधानी कहे जाना वाला मुम्बई शहर सही मायने में पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा मुनाफ़े की हवस को बुझाने के लिए की जाने वाली आम मेहनतकशों की ठण्डी हत्याओं की भी राजधानी है। इन हत्याओं को अक्सर प्राकृतिक दुर्घटनाओं, हादसों आदि का नाम दे दिया जाता है और बहुत सफ़ाई से लूट और मुनाफ़े के लिए की जाने वाली इन हत्याओं पर प्रशासनिक लीपापोती कर दी जाती है।
अभी मानसून शुरू भी नहीं हुआ कि बारिश की वज़ह से इमारतों के गिरने और लोगों के मौत के मुँह में समाने की ख़बरें आनी शुरू हो गयी हैं। 9 जून की रात को मुम्बई की घनी मज़दूर आबादी वाले मालाड वेस्ट कलेक्टर कम्पाउण्ड में एक चार मंज़िला इमारत गिरने से 8 बच्चों सहित 11 लोगों की मौत हो गयी और 18 लोग बुरी तरह से जख़्मी हो गये।
मुम्बई में ये हादसा कोई नयी बात नहीं है। इससे पहले भी मुम्बई में बारिश के चलते इमारतें गिरती रही हैं। हर बार इन घटनाओं से होने वाली मौतों की फ़ाइल एक टेबल से दूसरे टेबल तक घूमती रहती है और कार्रवाई सिर्फ़ काग़ज़ों पर होती है। इस बीच दूसरी घटना का इन्तज़ार होता रहता है और इस कार्रवाई की क़ीमत अगली बार हज़ारों टन मलबे के नीचे दबकर दम तोड़ते लोग चुकाते हैं। इस घटना के बाद अब फिर से वही पुरानी कहानी दुहरायी जा रही है, जाँच का आदेश देकर, एक पार्टी के नेता दूसरे पार्टी पर, एक मंत्रालय दूसरे मंत्रालय पर, एक अफ़सर दूसरे अफ़सर पर दोषारोपण करके और मृतक परिवारों और घायलों के लिए मुआवज़े की घोषणा करके अपना पिण्ड छुड़ा रहे हैं। यह बस घोषणा ही बन कर रह जाती है क्योकि पूँजीवादी मशीनरी में इतने छेद है कि या तो मुआवज़ा मिलता ही नहीं है या फिर जिनको मिलता भी है उसका बड़ा हिस्सा मंत्रियो, अफ़सरो और बाबुओं की जेब में चला जाता है।
केन्द्र और राज्य की सरकारें अपनी ज़िम्मेदारी से छुटकारा पाने कि कोशिश में लगी हुई हैं। पूरे कोरोना के संकटकाल में गायब रहे प्रधानमंत्री इस घटना पर अचानक से बरसाती मेढक कि तरह कूद-कूद कर ट्वीट पर ट्वीट किये जा रहे है, भाजपा शिवसेना को दोषी ठहरा रही है, शिवसेना सफ़ाई दे रही है, बीएमसी जाँच की बात कर रही है। लेकिन इन सब लीपापोती के पीछे सबसे ज़रूरी बातें एक बार फिर भुला दी जा रही है कि आख़िर ऐसे हालात बने ही क्यों? आये दिन होने वाली ऐसे घटनाओं के पीछे के असली कारण क्या है? इन घटनों के लिए असली ज़िम्मेदार कौन है?
भारत में हर दिन औसतन 10 इमारतें गिर जाती हैं। इन घटनाओं में औसतन 7 लोग रोजाना मौत के मुँह में समा जाते हैं। हर साल केवल इमारतों के गिरने से 2700 लोग जान गँवा देते हैं। अकेले मुम्बई में साल 2012 से 2018 के बीच 2704 इमारतें गिर चुकी है जिसमें हज़ारों लोग मारे जा चुके हैं। रिपेयर एण्ड रिकंस्ट्रक्शन रिपोर्ट के मुताबिक हर साल मुम्बई में 20-25 बड़ी इमारतें गिरती हैं। मुम्बई में महाराष्ट्र हाउसिंग एण्ड एरिया डेवलपमेण्ट अथॉरिटी के अधीन 100 साल पुरानी इमारतों की संख्या क़रीब 16,000 है, जिसमें कुछ तो इससे भी पुरानी हैं। महाराष्ट्र हाउसिंग एण्ड एरिया डेवेलपमेंट अथॉरिटी काग़ज़ी तौर पर हर साल बारिश का मौसम शुरू होने से पहले इन इमारतों का सर्वे करवाती है और ख़तरनाक हो चुकी इमारतों को ख़ाली करवाती है। लेकिन सिर्फ़ काग़ज़ी तौर पर, हक़ीक़त इससे कोसों दूर है। सच्चाई यह है कि इमारतों की माली स्थिति के अनुसार उन्हे तीन श्रेणियों सी1, सी2, सी3 में बाँटा जाता है। सी1 श्रेणी की इमारतों को तत्काल ख़ाली कर नष्ट कर देने का प्रावधान है। आँकड़ों के हिसाब से मुम्बई में 2019 में 633 बेहद जर्जर सी1 इमारतें थीं जिनमे से अब तक केवल 62 को ख़ाली कराया गया है और इन 62 ख़ाली करायी गयी इमारतों में से 43 को ही ध्वस्त किया गया है। इन मकानों में रहने वाली आबादी उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और देश के अन्य प्रदेशों से आने वाले प्रवासी मज़दूरों की है। मकान मालिक जानते हैं कि मजबूरी में ये मज़दूर इन मकानों में रहेंगे ही इसलिए बिना सुरक्षा का कोई इन्तज़ाम किये, एक-एक कमरे मे 8-10 मज़दूरों को ठूँस दिया जाता है। ऊपर से प्रवासी मज़दूर होने के नाते इनको स्थानीय निकायों में वोट देने का अधिकार भी नहीं है। इसलिए स्थानीय नेता और स्थानीय निकायों को इन मज़दूरों की नारकीय स्थिति का कोई खयाल नहीं रहता है और इन्हें अपने हालात पर जीने-मरने के लिए छोड़ दिया जाता है। अक्सर ऐसी घटनाओं के बाद तू-तू , मैं-मैं का खेल शुरू हो जाता है और इस खेल में लोगों की जानें जाती रहती हैं।
हर बार इन घटनाओं की पड़ताल करते समय सरकार, प्रशासन, ठेकेदार आदि की मिलीभगत से रचे जा रहे मौतों के इस ताण्डव को प्राकृतिक कारणों जैसे बारिश, भूकम्प, तूफान इत्यादि के नाम पर छिपा देने की भरसक कोशिश की जाती है। लेकिन ख़राब मौसम अकेले कभी किसी इमारत के गिरने का कारण नहीं होता है। बल्कि ज़्यादातर मामलों में ये घटनाएँ घटिया निर्माण सामग्री के इस्तेमाल, सुरक्षा मानकों को ताक पर रखकर किये जाने वाले निर्माण कार्यों, ख़राब-रखरखाव, समय-समय पर होने वाले जाँचों को नज़रअन्दाज़ कर देने से होती है। सच्चाई यह है कि जब तक निजी मालिकाने पर आधारित मौजूदा पूँजीवादी लूट की व्यवस्था बनी रहेगी, तब तक आम मेहनतकश लोगों की ज़िन्दगी के साथ ऐसा खिलवाड़ होता रहेगा, उनकी ज़िन्दगी को इस पूँजीवादी व्यवस्था की बलि चढ़ाते रहा जायेगा। इसलिए इन घटनाओं के बाद मुआवज़े, उचित जाँच और सुरक्षा और निर्माण के मानकों को लागू करवाने के साथ ही इस मुनाफ़ा आधारित पूँजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने का संघर्ष भी करना होगा।

मज़दूर बिगुल, जून 2021


 

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