पंजाब के खेत मज़दूरों के बदतर हालात का ज़िम्मेदार कौन?

– अरविन्द राठी

पंजाब का नाम आते ही हरेक के मन में एक ख़ुशहाल प्रदेश की छवि ही आती होगी। आये भी क्यों नहीं? यह राज्य हरित क्रान्ति की प्रयोगशाला बना और इसने खाद्यान्न उत्पादन के नये-नये कीर्तिमान स्थापित किये। लेकिन इस ख़ुशहाल छवि के पीछे एक चीज़ को हमसे छिपा दिया जाता है। वह चीज़ है इस चमक-दमक के पीछे ख़ून-पसीना बहाने वाले खेत मज़दूरों का जीवन। पंजाब के धनी किसान, कुलक और आढ़ती देश के सबसे धनी लोगों की क़तार में शामिल हो रहे हैं। उनके बड़े से बड़े कोठी-बंगले खड़े हो रहे हैं। कृषि में पूँजीवादी लूट और एमएसपी के तौर पर मिलने वाले अतिरिक्त ट्रिब्यूट से होने वाली उनकी आय पूँजी के रूप में देश-विदेश के नये-नये कारोबारों में लग रही है। अब इस बात की पड़ताल भी होनी चाहिए कि पंजाब की चमक-दमक और तथाकथित ख़ुशहाली के पीछे जिस खेत मज़दूर आबादी ने अपनी हड्डियाँ गला दीं, सिवाय शोषण और उत्पीड़न के उसे क्या नसीब हो रहा है? साथ ही हम यह भी देखेंगे कि मज़दूरों के नामलेवा संशोधनवादी, नरोदवादी, क़ौमवादी ट्रॉट-बुन्दवादी, “यथार्थवादी” और तमाम तरह की लोकरंजकतावादी पार्टियाँ और संगठन कैसे इन खेत मज़दूरों के हितों के साथ सौदा कर रहे हैं और वर्ग सहयोग की नीति अपनाकर धनी किसानों के वर्ग हितों की सेवा कर रहे हैं।

पंजाब के खेत मज़दूरों के हालात

एक सरकारी रिपोर्ट के अनुसार पंजाब में कुल 99 लाख की कार्यशक्ति (वर्कफ़ोर्स) में से तक़रीबन 35 लाख आबादी कृषि क्षेत्र से जुड़ी है जिनमें से तक़रीबन 15 लाख खेत मज़दूर हैं। खेत मज़दूरों में दो तिहाई आबादी अनुसूचित जातियों से सम्बन्ध रखती है। पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्री सुखपाल सिंह की उपरोक्त रिपोर्ट के निष्कर्षों के अनुसार पंजाब के 81 प्रतिशत खेत मज़दूरों पर क़र्ज़ है। इनके हर परिवार पर औसत क़र्ज़ 1,01,837 रुपये है जबकि इन खेत मज़दूरों की सालाना औसत आय है मात्र 23,464 रुपये। सालाना मज़दूरी के इस आँकड़े से ही अन्दाज़ा लग सकता है कि पंजाब के कृषि क्षेत्र में न्यूनतम मज़दूरी के लिए बना श्रम क़ानून किस क़दर लागू हो रहा है! 2010-11 की अन्तिम जनगणना के अनुसार पंजाब में दलित आबादी 32 प्रतिशत है लेकिन उसके पास कुल कृषि भूमि का सिर्फ़ 6.02 प्रतिशत है। पंजाब के कुल 5 लाख 23 हज़ार ग़रीबी रेखा से नीचे रह रहे परिवारों में दलितों की संख्या 3 लाख 21 हज़ार है जोकि 61.4 प्रतिशत बैठती है। ग्रामीण मज़दूरों के लिए मनरेगा दो रोटी कमाने का साधन बना था लेकिन उसमें भी काम नहीं मिलता। ‘ट्रिब्यून’ अख़बार में छपी ख़बर के अनुसार वित्त वर्ष 2019-20 में मनरेगा के तहत पंजाब में साल भर में सिर्फ़ 31 दिन ही रोज़गार मुहैया करवाया गया। बठिण्डा आधारित एक ग्रामीण खेत मज़दूर यूनियन ने 2017 में एक सर्वे किया था जिसमें 6 ज़िलों के 13 गाँवों के 1618 मज़दूर परिवारों से आँकड़े इकट्ठे किये गये। सर्वे के अनुसार 1618 परिवारों में से 1364 परिवारों पर कुल 12.47 करोड़ का क़र्ज़ था यानी औसतन हर परिवार पर 91,437 रुपये का क़र्ज़। सर्वे में यह बात भी सामने आयी कि क़र्ज़ का ज़्यादातर हिस्सा बड़े किसानों से, जो 10 या उससे ज़्यादा एकड़ के मालिक हैं, लिया गया है।
देश की तरह पंजाब में भी खेत मज़दूरों की आत्महत्याओं के आँकड़े लगातार बढ़ रहे हैं लेकिन इस ओर न तो सरकारों का ध्यान है और न ही पी. साईनाथ और देविन्दर शर्मा जैसे ग्रामीण अर्थव्यवस्था के तथाकथित शुभचिन्तक एनजीओबाज़ों का। एक ‘डोर-टू-डोर’ सर्वे के अनुसार पंजाब के 6 ज़िलों के 2,400 गाँवों में सन 2000 से 2018 की अवधि में 7,303 खेत मज़दूरों ने क़र्ज़ तले दबकर आत्महत्या कर ली। ‘दि ट्रिब्यून’ में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार पंजाब के खेत मज़दूरों पर औसतन क़र्ज़ उनकी आय से चार गुना ज़्यादा है। पंजाब सरकार अपने एक क़ानून के तहत आत्महत्या करने वाले खेत मज़दूर के परिवार को 3 लाख रुपये की सहायता राशि देने की बात करती है लेकिन 2015-16 से 2018-19 के बीच ऐसे 80 प्रतिशत परिवारों के आवेदन फ़ॉर्मों को ही रद्द करके कूड़े की टोकरी में फेंक दिया गया जिनके किसी सदस्य ने आत्महत्या की थी। कहना नहीं होगा कि पंजाब सरकार का खेत मज़दूर आबादी के जीवन और सुरक्षा पर कोई ध्यान नहीं है।

खेत मज़दूरों के शोषण का ज़िम्मेदार कौन है?

पंजाब में 10 हेक्टेयर से अधिक ज़मीन के मालिकाने वाले किसानों की सालाना औसत आय 12 लाख से अधिक और 4 हेक्टेयर से अधिक ज़मीन के मालिकाने वाले किसानों की सालाना औसत आय 5 लाख 60 हज़ार से अधिक बैठती है। यह तो इनकी घोषित आय है, अघोषित आय जो इन्हें प्रॉपर्टी डीलिंग, ठेकेदारी जैसे अन्य धन्धों और सूदख़ोरी से होती है उसका तो कोई अनुमान ही नहीं है। यह “आय” कुछ और नहीं है बल्कि उन मज़दूरों की श्रमशक्ति का मौद्रिक रूप है जिसे वे इनके खेतों में ख़ून-पसीने के तौर पर बहाते हैं। हम देख सकते हैं कि तथाकथित हरित क्रान्ति के दौरान हुए “विकास” ने किन्हें रसातल में पहुँचा दिया है और किनकी तिजोरियों को रुपयों से छलका दिया है।
धनी किसानों और कुलकों के आर्थिक शोषण और सामाजिक उत्पीड़न की वजह से ही खेत मज़दूरों के ऐसे हालात बने हैं। खेत मज़दूरों पर लादे गये क़र्ज़ का बड़ा हिस्सा इन्हीं धनी किसानों का ही है क्योंकि गाँव में यही वर्ग सूदख़ोर की भूमिका में भी होता है और सरकारी बैंक दर से कई गुना ज़्यादा ब्याज दर पर क़र्ज़ देता है। राज्य द्वारा एमएसपी के रूप में मिलने वाले ट्रिब्यूट यानी खेती से होने वाले मुनाफ़े से भी अतिरिक्त राशि को तो धनी किसान वर्ग दाँतों से पकड़े हुए है लेकिन खेत मज़दूरों को यह पूँजीवादी शोषण की चक्की में पीस डालना चाहता है। ग़रीब और सीमान्त किसान भी इसी ग्रामीण बुर्जुआ वर्ग के जाल में फँसे रहते हैं और अधिशेष, ब्याज और पूँजीवादी लगान के रूप में उसकी तिजोरी भरते रहते हैं।

“किसान-मज़दूर एकता ज़िन्दाबाद” का नारा किस वर्ग की सेवा करता है?

मौजूदा किसान आन्दोलन के दौरान धनी किसानों और कुलकों की तमाम यूनियनों के मंच से जो नारा सबसे अधिक उछाला जाता है वह है: ‘किसान-मज़दूर एकता ज़िन्दाबाद” का नारा! सबसे पहले तो यही पूछा जाना चाहिए कि आपके “किसान” में कौन-कौन से किसान शामिल हैं? भला एक एकड़ के मालिक ग़रीब किसान के आर्थिक हित और एक सौ एकड़ के मालिक धनी किसान और कुलक के आर्थिक हित एक जैसे कैसे हो सकते हैं? दूसरा, उपरोक्त नारे में जिन मज़दूरों को शामिल किया जा रहा है, गाँव में उनकी ग़रीबी-लाचारी-बदहाली का तो प्रमुख कारण ही धनी किसानों और कुलकों द्वारा किया जा रहा उनका आर्थिक शोषण और सामाजिक उत्पीड़न होता है। यदि किसान यूनियनों को खेत मज़दूरों के साथ इतना ही भाईचारा गाँठना है तो उनके माँगपत्रकों में खेत मज़दूरों की न्यूनतम मज़दूरी, साप्ताहिक अवकाश, ओवर टाइम का डबल रेट से भुगतान जैसी माँगें क्यों शामिल नहीं होती हैं?

खेत मज़दूरों की दिहाड़ी को किया जा रहा नियंत्रित – ऐसे में क्या कर रहे हैं किसान-मज़दूर एकता के हिमायती और नामधारी कम्युनिस्ट

इस समय पंजाब में धान की रोपाई का मौसम चल रहा है। सोशल मीडिया पर पंजाब के गाँव कलसन, तहसील रायकोट और ज़िला लुधियाना में हाल ही में की गयी एक पंचायत का एक वीडियो वायरल हो रहा है। इस वीडियो में पंचायत द्वारा धान की रोपाई की प्रति एकड़ दिहाड़ी ‘फ़िक्स’ करने की बात हो रही है। पंचायत में कहा जा रहा है कि यदि कोई राशन समेत 3,200 और बिना राशन 3,500 रुपये से एक रुपया भी ज़्यादा लेगा या देगा तो उसपर 5000 रुपये जुर्माना लगाया जायेगा। पिछले दिनों इसी तरह की पंचायतें पंजाब के अन्य गाँवों में भी हुई हैं। हाल ही में सरसों और सोयाबीन की बिक्री के समय हमने देखा कि हरियाणा, पंजाब और राजस्थान से लेकर दक्षिण भारत के किसानों ने अपनी फ़सलों को एमएसपी से कहीं ज़्यादा बढ़ी हुई क़ीमतों पर मण्डी से बाहर खुले बाज़ार में बेचा और जमकर मुनाफ़ा कमाया। सरसों के तेल के दामों में आये उछाल का यह भी एक प्रमुख कारण है। लेकिन जब महँगाई-बेरोज़गारी के इस आलम में खेत मज़दूर अपने परिश्रमिक में प्रति व्यक्ति 50-100 रुपये बढ़ाने की बात करते हैं तो गाँवों की तमाम पंचायतें सक्रिय हो जाती हैं क्योंकि इन पर उच्च जातीय धनी किसानों का ही क़ब्ज़ा है। मज़दूरी पर “लगाम” लगाने वाली यह पंचायती बेशर्मी ठीक उस समय हो रही है जब दिल्ली के टिकरी, सिंघु और ग़ाज़ीपुर बॉर्डरों से खेत मज़दूरों को धनी किसान आन्दोलन में शामिल होने के लिए दुहाइयाँ दी जा रही हैं और मज़दूर-किसान एकता के नारे लगाये जा रहे हैं। ख़ुद के मार्क्सवादी होने का दम भरने वाले लोग भी धनी किसानों के सुर में सुर मिला रहे हैं। अवसरवादी धनी किसान नेतृत्व और मार्क्सवाद के खोल में बैठे बेशर्म कुलक प्रेमियों की यही असलियत है।
इसके अलावा पिछले दिनों ही हमने देखा था कि पंजाब के गाँवों की कई सारी पंचायतों ने धनी किसान आन्दोलन में शामिल न होने के चलते गाँव की ग़ैर-खेतिहर आबादी पर भी तमाम तरह के जुर्माने थोप दिये थे। गाँव में एक अच्छी-ख़ासी आबादी कृषि और अन्य पेशों में काम करने वाले मज़दूरों की भी रहती है जिस पर जुर्माने लगाने के लिए बाक़ायदा ग़ैर-क़ानूनी सर्कुलर तक जारी किये गये थे। किसान-मज़दूर एकता का नारा लगाने वाली तथाकथित किसान यूनियनों और तथाकथित कॉमरेडों ने इस पर भी चूँ तक नहीं की थी। उल्टा तमाम जगहों पर इनके स्थानीय नेताओं ने उक्त फ़रमानों का समर्थन किया और बहुत जगहों पर तो इन्हें थोपने वाले भी ये ख़ुद ही थे। मज़दूरों के नामलेवा संशोधनवादी, नरोदवादी, क़ौमवादी ट्रॉट-बुन्दवादी और “यथार्थवादी” इस मौक़े पर भी गान्धारी की तरह अन्धापन ओढ़े हुए थे।
अनियोजित लॉकडाउन – 2020 के समय जब धान लगाने के लिए खेती में काम करने हेतु प्रवासी मज़दूर नहीं आये या चले गये तो काम का दबाव स्थानीय मज़दूरों पर बढ़ गया था। माँग और आपूर्ति के नियम में जैसे कि होता ही है कि जब किसी चीज़ की आपूर्ति माँग से कम-ज़्यादा हो जाती है तो उसकी क़ीमत भी थोड़ा ऊपर-नीचे हो जाती है। इसके चलते और लॉकडाउन के कारण अन्य काम-धन्धे व आय के अन्य ज़रिए बन्द होने के कारण जब स्थानीय मज़दूरों ने अपनी मज़दूरी को थोड़ा बढ़ाने का प्रयास किया तो उन पर पंजाब की सैकड़ों पंचायतों द्वारा तरह-तरह की ग़ैर-क़ानूनी बन्दिशें और जुर्माने थोप दिये गये जबकि यह बढ़ी हुई मज़दूरी भी औसतन कुल-मिलाकर सरकारी न्यूनतम मज़दूरी से कम ही बैठती थी। लेकिन इस पर भी धनी किसानों के क़ब्ज़े वाली पंचायतों ने मज़दूरी की बाक़ायदा सीमा (लिमिट) तय कर दी थी और थोड़ी ज़्यादा मज़दूरी की माँग करने वालों को तरह-तरह से प्रताड़ित किया गया था। यही नहीं, गाँवों में खेती का काम पूरा होने तक गाँव से बाहर मज़दूरी करने जाने पर भी प्रतिबन्ध लगा दिये गये। इस काम को भी धनी किसानों की जेबों में रहने वाली पंचायतों ने अंजाम दिया। मज़दूरों पर तरह-तरह की बन्दिशें थोपकर प्रताड़ित करने वाले ये वे ही लोग हैं जो अपनी लागत से पचास फ़ीसदी ज़्यादा पर अपनी फ़सल बेचने की गारण्टी का क़ानून चाहते हैं जबकि जिनके दम पर ये तथाकथित हरित क्रान्ति के मज़े लूट रहे हैं, उनके पसीने की आख़िरी बूँद तक निचोड़ लेना चाहते हैं। यही है धनी किसानों की खेत मज़दूरों के साथ एकता के नारे की असलियत!
“किसान-मज़दूर एकता” का नारा उछालने वाली धनी किसानों की तथाकथित किसान यूनियनों की भूमिका यहाँ भी साफ़ हो गयी थी। उस वक्त कृषि मसलों के तथाकथित जानकार केसर सिंह भंगु जैसे लोग यह राय दे रहे थे कि किसान प्रति एकड़ उतनी ही मज़दूरी दें जितनी वे पहले देते थे और बढ़ी हुई बाक़ी मज़दूरी मनरेगा के कोष से दी जाये! मतलब मनरेगा का पैसा धनी किसानों के निजी मुनाफ़े को बढ़ाने में इस्तेमाल किया जाये! यह बात कहने में धनी किसानों के चाटुकारों को लज्जा भी नहीं आती! किसान यूनियन नेता कहते पाये गये कि मज़दूरों को मज़दूरी देने की बजाय डीएसआर (जिसमें धान की पौध लगाने की बजाय सीधे बीज को ही रोप दिया जाता है) तकनीक का प्रयोग किया जाये। बीकेयू उगराहाँ बठिण्डा के स्थानीय नेता जगसीर सिंह का कहना था, “हमारे इलाक़े में बड़ी संख्या में पंचायतों ने प्रति एकड़ के हिसाब से रेट निर्धारित कर दिये हैं। 200 से 300 रुपये की बढ़ोत्तरी स्वीकार्य है लेकिन खेत मज़दूर 900 से लेकर 1800 रुपये तक की बढ़ोत्तरी चाह रहे हैं।” धनी किसानों और कुलकों की तमाम यूनियनें मज़दूर-किसान एकता की पैरोकार तो बनती हैं लेकिन ये सीधे तौर पर खेत मज़दूरों के ख़िलाफ़ धनी किसानों और उनके ग़ैर-क़ानूनी पंचायती फ़रमानों के पक्ष में ही खड़ी रहती हैं। इनके लिए खेत मज़दूर और ग़रीब किसान धनी किसानों की रैलियों में भीड़ बढ़ाने और सिर फुड़ाने की चीज़ से ज़्यादा कुछ नहीं हैं।

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2021


 

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